Friday, December 6, 2024

मार्क्स की गणतांत्रिकता

 


                                                       गोपाल प्रधान

2024 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से ब्रूनो लेइपोल्ड की किताब ‘सिटिजेन मार्क्स: रिपब्लिकनिज्म ऐंड द फ़ार्मेशन आफ़ कार्ल मार्क्स’ सोशल ऐंड पोलिटिकल थाट’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि वे इस विषय पर बहुत समय से सोचते और लिखते आ रहे हैं । जब भी लगा कि बात समाप्त हो गयी है तभी कोई ऐसा पहलू खुल गया जिस पर पहले निगाह नहीं पड़ी थी । मार्क्स के साथ गणतंत्र की धारणा इतना जुड़ी हुई है कि उसकी समाप्ति समझ ही नहीं आती । जैसे जैसे वे इस काम में आगे बढ़े उन्हें लगा कि मार्क्स के चिंतन और राजनीतिक जीवन को गणतांत्रिकता ने निर्णायक रूप से प्रभावित किया है । पूंजीवाद के सामाजिक दबदबे की उनकी आलोचना का रिश्ता गणतांत्रिक मुक्ति से है और वे मानते थे कि लोकतांत्रिक गणतांत्रिक राजनीतिक संस्थाओं के जरिये ही इस दबदबे पर विजय पायी जा सकती है । इस बात को बहुधा समझा नहीं जाता कि सामूहिक स्वामित्व के लक्ष्य को इसके साथ जोड़कर मार्क्स ने अपने गणतांत्रिक कम्युनिज्म को तत्कालीन राजनीति विरोधी समाजवाद और गणतंत्र विरोधी कम्युनिज्म से अलगा लिया था । मार्क्स के चिंतन को इस संदर्भ में अवस्थित करने से राजनीति, लोकतंत्र और स्वाधीनता के प्रति उनकी निष्ठा को समझा जा सकता है । मार्क्स के विरोधी तो उनके इस पहलू पर परदा डालते ही हैं, उनके समर्थक भी इसका जिक्र नहीं करते । इसी वजह से इस किताब के लेखक को वर्तमान के सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों के लिहाज से मार्क्स की गणतांत्रिक प्रतिबद्धता को समझना बेहद जरूरी लगता है ।

मार्क्स की इस तरह की पढ़ाई के उदाहरण के लिए वे युवा मार्क्स के बारे में अपने शोध निर्देशक डेविड लियोपाल्ड की किताब का जिक्र करते हैं जिन्होंने साबित किया कि अगर मार्क्स के अबूझ लेखन को भी सावधानी के साथ सही संदर्भ में विश्लेषित किया जाए तो उन्हें तत्कालीन बहसों में ठोस राजनीतिक हस्तक्षेप की तरह देखा और समझा जा सकता है । गणतंत्रवाद कोई सिद्धांत ही नहीं था बल्कि ऐसा क्रांतिकारी राजनीतिक आंदोलन था जिसके नेता अपने आदर्शों के लिए जीने मरने को तैयार थे । गणतांत्रिक समाजवाद से पूंजीवाद और राजनीतिक अर्थशास्त्र का संबंध भी इसी दौरान लेखक को समझ आया ।

1850 के नवम्बर में चार्टिस्टों के अखबार द रेड रिपब्लिकन ने पहली बार कम्युनिस्ट घोषणापत्र का अंग्रेजी अनुवाद छापा । इसके लेखक मार्क्स और एंगेल्स को उस समय के क्रांतिकारियों में प्रचलित चलन के मुताबिक सिटिजेन कहा गया था । यह क्रांतिकारी दस्तावेज दो साल पहले यूरोप व्यापी क्रांतिकारी लहर की पूर्वसंध्या पर सामने आया था । अंग्रेजी अनुवाद हेलेन मैकफ़ार्लेन ने किया था । वे स्काटलैंड की नारीवादी समाजवादी थीं और इस अखबार में हावर्ड मोर्टन नामक पुरुष छद्मनाम से लेख लिखती थीं । मार्क्स से उनका परिचय लंदन के क्रांतिकारी प्रवासी समूहों के जरिये था । उनके अनुवाद से उपजी बहस के आलोक में सैमुएल मूर ने एंगेल्स की देखरेख में 1888 में जो अनुवाद किया उसे ही मानक समझा जाता है । इसके बावजूद मैकफ़ार्लेन के अनुवाद को देखना सुखकर है । वे इसके माध्यम से अंग्रेजी में नयी सामाजिक राजनीतिक शब्दावली ले आयीं । सर्वहारा और उजरती गुलाम का प्रयोग एक ही अर्थ में किया गया था । लम्पट सर्वहारा को भीड़ कहा गया था । पेट्टी बुर्जुआ (निम्न पूंजीपति) को दूकानदार कहा गया था ।

इस अखबार में अनुवाद का प्रकाशन मार्क्स और एंगेल्स की स्वाभाविक प्राथमिकता थी । इसके पीछे चार्टिस्ट आंदोलन के प्रति सम्मान का भाव तो था ही इस अखबार में समाजवादी आलोचना के साथ गणतंत्रवाद का मेल भी इसकी बड़ी वजह था । इसमें सामाजिक के साथ राजनीतिक मांगों को भी जगह मिलती थी । जनता की हालत में सुधार से पहले वह राजनीतिक सुधार को जरूरी मानता था । इस तरह वह राजनीति विरोधी समाजवादियों की धारा से अलग था । इस धारा में ब्रिटेन के ओवेनपंथी और सेंट साइमन के फ़्रांसिसी अनुयायी थे । इनके बारे में मैकफ़ार्लेन ने लिखा कि राजनीति से इनके परहेज का मतलब कि ये लोग अपने सामाजिक सिद्धांत को कभी व्यवहार में नहीं लागू कर सकेंगे । उनके साथी हार्नी का कहना था कि लोकतांत्रिक राजनीतिक संस्थाओं को संपत्तिशाली वर्गों के हमले का खतरा हमेशा रहेगा । मसलन मतदान को ज्यों ही गरीबों की रक्षा का उपाय बनाने की कोशिश की जायेगी त्यों ही शासक वर्ग मताधिकार को उलट देने का प्रयास करेंगे । इसी कारण प्रातिनिधिक निकाय, सार्वभौमिक मताधिकार, प्रेस की आजादी या कानून के मुताबिक मुकदमा जैसे अधिकार सामाजिक बदलाव के बिना व्यर्थ साबित होंगे । ये सामाजिक बदलाव ही समाज की संप्रभुता को बरकरार रख सकते हैं । तात्पर्य की सामाजिक गुलामी के साथ राजनीतिक आजादी किसी हाल में नहीं चल सकती ।

इस अखबार में सामाजिक और राजनीतिक का यह मेल परिलक्षित होता था । गणतांत्रिकता तो खुद ही खतरनाक थी उसके साथ रेड को जोड़ देने से अखबार पर्याप्त विध्वंसक समझा जाने लगा था । अखबारों के विक्रेता इसे बेचने से परहेज करते थे । आगे चलकर दंड की सम्भावना से बचने के लिए हार्नी ने इसका नाम बदलकर फ़्रेंड्स आफ़ द पीपुल कर दिया । पुराने नाम से आखिरी अंक नवम्बर अंत में छपा जिसमें घोषणापत्र के इस अनुवाद की अंतिम किस्त भी थी । इसके साथ ही रिपब्लिकन सिद्धांत शीर्षक लेख भी अखबार में था जिसके लेखक विलियम जेम्स लिंटन चार्टिस्ट थे और मैज़िनी के साथ दोस्ती की वजह से लंदन के क्रांतिकारियों में मशहूर थे । मैज़िनी को उस समय यूरोप का सबसे मशहूर गणतंत्रवादी माना जाता था । लिंटन ने ही रेड रिपब्लिकन के मुखपृष्ठ पर छपने वाली तस्वीर बनायी थी जिसमें समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व भी लिखा था । वे मैज़िनी द्वारा स्थापित उस संगठन से जुड़े हुए थे जिसका मकसद यूरोप की विफल क्रांतियों के बाद लंदन में शरण लिये यूरोपीय गणतंत्रवादियों की कार्यवाहियों का समन्वय करना था । रिपब्लिकन सिद्धांत वाले लेख में उन्होंने खुद को मिल्टन और क्रामवेल का देशवासी कहा था आसान भाषा में सिद्धांत का प्रचार करके रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना करने का इच्छुक बताया था । मार्क्स एंगेल्स ने भी घोषणापत्र का मकसद कुछ ऐसा ही बताया था । इस तरह लिंटन और मार्क्स एंगेल्स ने एक ही जगह एक साथ गणतांत्रिकता और कम्युनिज्म के सिद्धांत प्रसारित करने का प्रयास किया था । दोनों को साथ साथ पढ़ने पर दोनों परम्पराओं में अंतर का पता चलता है ।

लिंटन के लेख में समता और स्वतंत्रता के साथ मानवता का उल्लेख था जिसे वे बंधुत्व के मुकाबले व्यापक समझते थे । इसके मुकाबले मार्क्स एंगेल्स के घोषणापत्र की शुरुआत पूंजीवाद के उदय से हुई थी जो अपने उत्पाद हेतु बाजार की लगातार बढ़ती जरूरत के चलते समूची दुनिया की खाक छानता है । लिंटन के लेख में ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की आलोचना हुई थी जिसमें एक ओर उत्पीड़क और दूसरी ओर गुलाम हैं । दूसरी ओर घोषणापत्र में पूंजी के आधिपत्य में श्रम की आधुनिक गुलामी की प्रचंड आलोचना थी । इस निरंकुश व्यवस्था में सर्वहारा न केवल समूचे पूंजीपति वर्ग का गुलाम होता है बल्कि प्रतिदिन घंटे दर घंटे अलग अलग पूंजीपति की गुलामी भी उसे करनी पड़ती है । लिंटन ने मुक्ति के लिए सभी वर्गों के नियमित और संगठित सहयोग को आवश्यक बताया था वहीं घोषणापत्र में सर्वहारा को पूंजीवाद के सभी वर्तमान विरोधियों के मुकाबले एकमात्र सच्चा क्रांतिकारी वर्ग बताया गया था । लिंटन ने गणतंत्रों के सार्वभौमिक संघ में एकताबद्ध स्वतंत्र देशों की व्यवस्था का पक्ष लिया था तो घोषणापत्र में सर्वहारा के किसी देश न होने और राष्ट्रीय विभाजनों तथा वैमनस्य के खात्मे का सपना था ।

इन अंतरों के बावजूद घोषणापत्र में मौजूद समानता को भी देखना जरूरी है । मजदूरों की सामाजिक निर्भरता की बात पर जोर देने के साथ ही घोषणापत्र में पूंजीवादी राजनीतिक व्यवस्था की गुलामी की भी बात की गयी थी और सर्वहारा क्रांति के पहले कदम के बतौर लोकतंत्र हासिल करने की रणनीति सुझायी गयी थी । ऐसा सर्वहारा में राजनीतिक आंदोलन का विरोध करने वाले समाजवाद के सभी रूपों के विपरीत किया गया था । लिंटन ने भी राजनीतिक आलोचना तक ही सीमित रहने के मुकाबले उजरती गुलामी और कारखाने की गुलामी का जिक्र किया था और इसकी समाप्ति को सरकार का दायित्व बतायाया था । इन दोनों के सामाजिक कार्यक्रमों में भी बहुतेरी समानताएं देखी जा सकती हैं । लिंटन ने तीन बुनियादी हकों की बात की थी । भूमि के राष्ट्रीकरण के जरिये जमीन तक सबकी पहुंच, मुफ़्त शिक्षा और मुफ़्त कर्ज उनके कार्यक्रम में थे । ये तीनों बातें घोषणापत्र के दस सूत्री मांगपत्र में शामिल थीं ।

इन दोनों कार्यक्रमों में अंतर निजी संपत्ति के सवाल पर पैदा हुआ । लिंटन ने निजी संपत्ति के खात्मे की कम्युनिस्ट मांग का विरोध किया । उनका तर्क था कि निजी संपत्ति की संस्था अनिवार्य तौर पर वाहियात नहीं है । मुट्ठी भर लोगों के पास उसका होना समस्या नहीं है । असल समस्या बहुतेरे लोगों के पास उसका न होना है । दूसरी ओर मार्क्स एंगेल्स ने निजी संपत्ति मात्र के मुकाबले बुर्जुआ संपत्ति के उन्मूलन की बात की । यह संपत्ति उजरती श्रम के शोषण पर आधारित है । इसी संपत्ति के उन्मूलन को वे निजी संपत्ति का उन्मूलन कहते थे । लिंटन और उनके समर्थक उस निजी संपत्ति पर लोगों का हक मानते थे जिसे कमाने में उन्होंने मेहनत की है लेकिन साथ ही राज्य की जिम्मेदारी मानते थे कि देश के बैंकर के बतौर वह प्रत्येक व्यक्ति को काम के लिए भौतिक साधन और पूंजी उपलब्ध कराए । कामगार को मुफ़्त कर्ज और मुफ़्त जमीन उपलब्ध कराने का अर्थ उसका स्वतंत्र होकर काम करना और पूंजीपति नामक दुष्ट बिचौलिये से मुक्ति पाना है । मार्क्स और एंगेल्स ऐसी योजनाओं को छोटे दूकानदार, छोटेव्यापारी और लघु किसान की संपत्ति बचाने की हताश कोशिश मानते थे जिसे औद्योगिक पूंजीवाद प्रतिदिन नष्ट कर रहा है । उनका मानना था कि स्वतंत्र दस्तकार और किसान अर्थतंत्र को फिर से स्थापित करने का प्रयास बड़े पैमाने के पूंजीवादी उद्योग के समक्ष हताशापूर्ण है । ये कोशिशें इतिहास की गति को पीछे ले जाने के अर्थ में प्रतिक्रियावादी भी होती हैं । इसके बजाय व्यक्तिगत संपत्ति की दुनिया में वापसी की जगह कम्युनिस्ट पूंजीवाद की उत्पादक क्षमता की उपलब्धियों की बुनियाद पर नयी इमारत खड़ी करेंगे । इसके लिए वे राज्य के हाथों में उत्पादन के उपकरणों को समूहबद्ध करेंगे । पहले तो वे उत्पादन के साधनों का सामूहिक स्वामित्व राज्य के जरिए ही करने के हामी थे लेकिन बाद में उन्हें सहकारिता में भी यह सम्भावना नजर आयी । उनका मानना था कि  इससे सर्वहारा की सामाजिक निर्भरता समाप्त होगी और पूंजी की सत्ता नष्ट होगी । इस तरह गणतंत्रवादियों और मार्क्सवादियों में मतभेद इस बात पर था कि छोटे स्तर के स्वतंत्र उत्पादकों की निजी संपत्ति को सार्वजनिक स्वामित्व में लाया जायेगा या पूंजीवादी निजी संपत्ति का उन्मूलन करके साझा स्वामित्व स्थापित होगा ।

उन्नीसवीं सदी में इस तरह के प्रतिस्पर्धी सामाजिक राजनीतिक सपनों में टकराव तो होता था लेकिन उनके बीच आपसी संवाद, राजनीतिक सहकार और बौद्धिक मेल के अवसर भी उपलब्ध थे । रेड रिपब्लिकन में लिंटन के लेख और घोषणापत्र का एक साथ छपना इस बात का सबूत है कि दोनों व्यापक संघर्ष में क्रांतिकारी लक्ष्य हेतु मजदूर वर्ग का समर्थन हासिल करना चाहते थे । उपर्युक्त घटना मार्क्स के सामाजिक राजनीतिक चिंतन में गणतांत्रिकता की केंद्रीय भूमिका का महज एक उदाहरण है । असल में उनकी समूची चेतना इससे आप्लावित रही है । लेनिन ने जब मार्क्स के चिंतन के तीन स्रोतों का उल्लेख किया तो उसमें कुछ प्रभावों की अनदेखी हो गयी । मसलन बेल्जियम में मार्क्स के तीन साल के प्रवास के प्रभाव को भुला दिया गया । उसमें अलग अलग देशों को किसी एक क्षेत्र से जोड़ दिया गया । मसलन ब्रिटेन के राजनीतिक अर्थशास्त्र का उल्लेख तो हुआ लेकिन उसके समाजवाद की परम्परा का जिक्र नहीं किया गया । लेखक का कहना है कि इसी तरह यूरोपीय गणतांत्रिक प्रभाव को भी शामिल करना होगा ।

प्रभाव का विवेचन करने के लिए लेखक का कहना है कि इसे केवल सहमति में नहीं देखना चाहिए । इसकी जटिलता को समझने के लिए सम्पूर्ण स्वीकार या नकार से बचना होगा । इसके लिए लेखक ने इंटरनेशनल की बैठकों में मार्क्स और एंगेल्स द्वारा गणतांत्रिकता के बारे में व्यक्त विचारों का अध्ययन किया । उनका कहना है कि मार्क्स ने अपने विचारों के विकास हेतु गणतांत्रिकता का सकारात्मक निषेध भी किया । मार्क्स ने राजनीति विरोधी समाजवाद के उत्तर में गणतांत्रिक विचारों को अपना बना लिया और उससे विकसित कम्युनिज्म का उपयोग कम्युनिस्ट विरोधी गणतांत्रिकता से लड़ने में किया । गणतांत्रिकता की सोच और आंदोलन से मार्क्स ने अपने कम्युनिज्म का विकास किया ।

गणतांत्रिकता के साथ मार्क्स के संबंध उनके जीवन में एक समान नहीं रहे । ये रिश्ते तीन प्रमुख चरणों में विकसित हुए हैं । इनमें से पहले चरण की शुरुआत 1842 में मार्क्स के पत्रकारी राजनीतिक जीवन की शुरुआत के साथ होती है । उस समय वे निरंकुश शासन की समाप्ति और लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना के पक्षधर थे । तब जनता की सम्प्रभुता की प्रतिष्ठा के लिए वे नागरिकों के जन प्रशासन की वकालत करते थे जिसमें प्रतिनिधियों पर जनादेश के जरिये अंकुश लगाने का प्रावधान था । इसके बाद धीरे धीरे 1843-44 में वे कम्युनिज्म की ओर आये । दूसरा चरण तबसे लेकर 1848 की क्रांतियों तक का है । इस चरण में मार्क्स ने एक ओर उन्होंने गणतांत्रिक आंदोलन की सीमाओं की आलोचना की तो दूसरी ओर सत्ता की मनमानी के गणतांत्रिक विरोध को पूंजीवाद की सामाजिक आलोचना में समाहित भी किया । अपनी राजनीति में उन्होंने लोकतांत्रिक गणराज्य के प्रति निष्ठा जाहिर किया । इस दौरान राजनीति के बारे में विकसित उनके क्रांतिकारी विचारों का राजनीतिक भागीदारी के लिहाज से दूरगामी महत्व है । तीसरा चरण 1871 के पेरिस कम्यून का है । इस दौर में कानून बनाने और प्रशासन के मामले में जनता के व्यापक नियंत्रण की धारणा वापस लौटकर आयी । इसे उन्होंने कम्युनिज्म को साकार करने के लिए अनिवार्य माना । इस दौर में उनकी शुरुआती गणतांत्रिकता और परवर्ती कम्युनिज्म का सहमेल स्थापित हो जाता है ।                                                                                 

 

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