नवम्बर के महीने के आरम्भ में हिंदी बौद्धिकता के बड़े
व्यक्तित्व मैनेजर पांडे का शरीरांत हो गया । मुझे उनका बहुत लम्बा साथ मिला । इस
दीर्घकालीन साथ के बहुतेरे रूप और स्तर थे जिनमें प्रत्यक्ष मुलाकात के अलावे
कक्षाध्यापन के साथ ही वैचारिक सलाह मशविरा भी शामिल था । जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय में उनसे भेंट होने के पहले से ही उनके बारे में जानकारी हो चुकी थी
। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से पढ़े हुए तीन लोगों ने जनेवि का नाम ऊंचा किया था जिनमें
मैनेजर पांडे शामिल थे इसलिए बनारस में पढ़ने वाले लगभग सारे विद्यार्थी उनके बारे
में जानते थे । उन सबके साथ तरह तरह के किस्से भी जुड़े हुए थे । किसी सभा संगोष्ठी
में किसी साहित्यिक प्रकरण में उनका अभिमत बहुत समय तक विद्यार्थियों के बीच घूमता
रहता था ।
अध्यापन से जी चुराने वाले इस समय में उनके अध्यापक की बात
करना सबसे अधिक जरूरी है । जिन तीन लोगों का जिक्र ऊपर हुआ है उनमें नामवर सिंह न
केवल उम्र बल्कि कद के मामले में भी सबसे बड़े थे । हिंदी की तत्कालीन साहित्यिक
दुनिया में उनसे अधिक व्यस्त शायद ही कोई और रहा होगा । इसके बावजूद यदि वे दिल्ली
में होते तो कक्षा में उनका न आना असम्भव था । यही आदत मैनेजर पांडे में भी थी । जनेवि में उनकी कक्षा में बहुधा ऐसा हुआ कि
डेढ़ दो घंटे तक कलम रुकती ही नहीं थी और कई बार ऐसा भी हुआ कि लिखने में तर्क की धारा
छूट जाएगी यह सोचकर कुछ नोट ही नहीं किया । उनकी कक्षा में बने इस माहौल का कारण
यह था कि बिना तैयारी के कभी कक्षा में न आना उनका स्वभाव था । उनके एक शिष्य की
नियुक्ति जब अध्यापक के बतौर हुई तो वे मिलने गये और उनसे अध्यापन के गुर पूछे
। मैनेजर पांडे ने कहा कि लाख पढ़ा हो तब भी कक्षा में जाने से पहले एक बार जरूर उस
हिस्से को देख लेना चाहिए जिसका अध्यापन करना है । कक्षा के लिए उनकी यही तैयारी
उनकी कक्षाओं को मूल्यवान बना देती थी ।
कक्षा में तो उनकी विद्वत्ता का लाभ केवल उन विद्यार्थियों को मिल सकता था जिनको प्रवेश मिला था लेकिन वे अपने विचारों को केवल कक्षा तक सीमित नहीं रखना चाहते थे इसलिए सभा संगोष्ठी भी उनकी बौद्धिक सक्रियता का अनिवार्य अंग था । अनिवार्यता बना देने के बाद प्रमाणपत्र बांटने के लिए होने वाली शर्मनाक जुटानों के पहले संगोष्ठियों की समृद्ध रवायत थी । इन संगोष्ठियों में हिंदी के विद्यार्थियों के अतिरिक्त सामान्य प्रबुद्ध जन भी शरीक हुआ करते थे । व्यापक हिंदी समाज के लिए हितकर इन संगोष्ठियों के लिए भी वे भरपूर तैयारी करते थे । इस मामले में उन्होंने कभी अपने प्रशंसकों को निराश नहीं किया । जहां उनका एकल व्याख्यान हो वहां बाकायदे कागज पर विस्तार से उनके व्याख्यान की रूपरेखा लिखी होती । इससे अपने ही तर्कों को बाद में परिष्कृत करने के लिए कच्चा माल सुरक्षित रहता । एकल व्याख्यान न होने की स्थिति में भी वे साथी वक्ताओं की बातों को ध्यान से सुनते और जहां जरूरी लगता गम्भीर हस्तक्षेप करते । इस मामले में वे मंचीय औपचारिकताओं की परवाह कभी नहीं करते थे । बोलने वाला कोई भी हो वे अपनी बात खुलकर कहने में कोई संकोच नहीं करते थे । अपनी बात में रोचकता पैदा करने के लिए वे अक्सर हास्य या व्यंग्य का सहारा लेते थे । उनकी यह भंगिमा भी बहुधा चर्चा का विषय बन जाती थी । वैचारिक स्तर पर विरोध जताने के लिए उनकी इस युक्ति से शुष्क तार्किकता में अतिरिक्त रस पैदा हो जाता था । इस मामले में वे बौद्धिक तर्क के साथ निपट
ग्रामीण हास्यबोध का भी खुलकर सहारा लेते थे । यह भी उनके व्यक्तित्व का खास पहलू
था जिसमें जीवन भर उन्होंने अपने ग्रामीण मूल का साथ दिया । लोक जीवन की उनकी समझ
ने ऐसे तमाम आयोजनों के लिए उन्हें सम्मानित अतिथि तो बनाया ही जिनमें लोकजीवन पर
बात करनी होती, हिंदी साहित्य के मूल्यांकन में भी उन्होंने एकाधिक बार इसका सहारा
लिया । कबीर के प्रसंग में अक्सर वे उनकी भाषा के भोजपुरी रंग का जिक्र करते थे ।
लोक
की उनकी यह समझ उन्हें साहित्य की विद्रोही परम्परा की खोज तक ले जाती है । वे इस
परम्परा को साहित्य की सहज धारा बताते हैं । इस धारा को अतीत में तलाशने के क्रम
में उन्होंने अश्वघोष की वज्रसूची का उल्लेख भी बहुतेरा किया है । अश्वघोष
का साहित्य बौद्ध धर्म से जुड़ा है इसलिए उसके और भोजपुरी के प्रसंग में उन्होंने
राहुल सांकृत्यायन को भी शिद्दत से याद किया है । राहुल सांकृत्यायन को याद करने
का अर्थ हिंदी के साहित्यिक लेखन की एक ऐसी धारा को याद करना है जिसने साहित्य को
कभी संकीर्ण घेरे में नहीं बंधने दिया । कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि राहुल
सांकृत्यायन ने साहित्य लेखन के साथ ही दर्शन, समाजशास्त्र और विज्ञान से जुड़ा
लेखन भी किया था । असल में साहित्य के प्रसंग में विचारकों की ऐसी धारा मौजूद रही है
जो उसे समाज से काटकर देखने की वकालत करती है । साहित्य के सौंदर्य को भाषा,
अलंकार और उक्ति तक सीमित करने वाले लोग हिंदी में साहित्य में प्रगतिशील नजरिये
के विरोधी रहे हैं । इस मामले में मैनेजर पांडे ने हिंदी के प्रगतिशील साहित्य की
परम्परा के साथ खुद को जोड़ा और ऐसे लोगों के साथ खड़े हुए जिनके अग्रणी कवि
नागार्जुन ने खुद को जनकवि घोषित करने में हकलाना कभी भी जायज नहीं समझा ।
साहित्य के मामले में इस समझ का निर्माण करने के
लिए होने वाले समवेत प्रयास का वे अभिन्न अंग थे । जनेवि के हिंदी विभाग को बनारस
से आये इन लोगों ने अत्याधुनिक बौद्धिक उत्तेजना का केंद्र बना दिया था । साहित्य
के प्रसंग में समाज विज्ञान और वैचारिकी की अत्याधुनिक धाराओं से विद्यार्थियों
को परिचित कराना वे अपना कर्तव्य समझते थे । यही कारण था कि उनके पढ़ाये विद्यार्थियों
के समक्ष यूरोपीय चिंतकों के नामोल्लेख की डराने वाली रणनीति काम नहीं आती थी ।
साहित्य के अध्ययन के लिए वैचारिक मोर्चे पर भी अद्यतन बने रहने की उनकी आदत का
संबंध हिंदी साहित्य के विचारकों की पुरानी परम्परा से है जिसमें आचार्य शुक्ल ने बेनेदितो क्रोचे और रिचर्ड्स की मान्यताओं का तब उल्लेख किया था जब उनका नाम
यूरोप में भी बहुत मशहूर न हुआ था । सम्भव है आचार्य शुक्ल के समय भी ऐसे कूढ़मगज रहे
होंगे जिन्हें साहित्यालोचन के लिए क्रोचे आदि का जिक्र उसी तरह अरुचिकर लगता रहा
हो जिस तरह आजकल फ़ुको या देरिदा का जिक्र आते ही कुछ लोग नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं
। हिंदी साहित्य की दुनिया को आधुनिकतम के साथ जोड़ने का उनका संघर्ष हिंदी के
विद्यार्थियों को ऐसा आत्मविश्वास प्रदान करता था जिसके बल पर वे जनेवि की वैचारिक
गहमागहमी में खुद को उपेक्षित नहीं महसूस करते थे । इस सिलसिले में मैनेजर पांडे
ने आरम्भ में अंग्रेजी आलोचना के शीर्ष पुरुष रेमंड विलियम्स को तो बाद के दिनों
में एक इतालवी चिंतक ग्राम्शी को संदर्भ के बतौर लगातार इस्तेमाल किया । याद
दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि ग्राम्शी उसी देश के रहने वाले थे जहां के
दार्शनिक क्रोचे को आचार्य शुक्ल ने अभिव्यंजनावाद संबंधी आलोचना के लिए चुना था
।
उनके इस पहलू के चलते समाज विज्ञान के विद्वज्जन भी
साहित्य के प्रति अतिरिक्त संवेदनशीलता के साथ लैस हुए और उसकी महत्ता को यथोचित
मान दिया । विचार और समाज के साथ साहित्य को जोड़ने के अतिरिक्त उन्होंने विचार को
भी समाज की व्यापक हलचलों से जोड़ा और साहित्य की ऐसी जनसापेक्ष समझ को साहित्य के
सामान्य विद्यार्थी का सहजबोध बना दिया । इसके लिए अध्यापन और व्याख्यान के
अतिरिक्त लेखन को भी जिम्मेदारी के साथ उन्होंने निभाया । वस्तुत: वे जब तक जिये
लिखते रहे और जब तक लिखते रहे तब तक ही जिये । उनके लेखन का विषय भक्ति साहित्य से
लेकर अस्मिता विमर्श तक फैला हुआ था । जिस भी प्रसंग पर उन्होंने कलम उठायी उसमें कोई
न कोई नया तत्व पहचाना ।
उनके लेखन में सबसे पहले सूरदास संबंधी शोध है ।
सूरदास का उल्लेख वे हमेशा करते रहे । खेती किसानी के संदर्भ तो उन्होंने रेखांकित
किये ही, सूरदास की राजनीतिक
चेतना का उल्लेख भी अक्सर किया करते थे । ऊधो को सूरदास की गोपियों ने व्यंग्य में
कहा कि ऊधो राजनीति पढ़ि आये । इस आलोचनात्मक रुख को उजागर करने के साथ ही वे
सूरदास की राजनीति की सकारात्मक समझ का भी उल्लेख किया करते थे । उनका यह नजरिया
भी हिंदी साहित्य में प्रेमचंद की मार्फ़त बनी समझ का ही विस्तार था जब प्रेमचंद ने
साहित्य को राजनीति के आगे ही सही, चलने का दायित्व दिया था । अक्सर लोग प्रेमचंद
के इस कथन को इस तरह पेश करते हैं मानो वे साहित्य को राजनीति से दूर रखना चाहते
थे! असल में प्रेमचंद तो साहित्य के जरिये स्वाधीनता आंदोलन में मदद करना चाहते थे
। प्रेमचंद के साहित्य के प्रति मैनेजर पांडे के गहन लगाव को भी इसी संदर्भ में
समझना चाहिए । साहित्य की इस भूमिका के विरोध में संचालित अभियान का मुकाबला करने
के क्रम में उनके लेखन का आगे और विकास हुआ ।
वह समय प्रगतिशील साहित्य की ओर से साहित्य संबंधी अन्य दृष्टियों से बहस का था । इस बहस में मैनेजर पांडे ने रामविलास शर्मा और नामवर सिंह जैसे वरिष्ठों के साथ मिलकर भाग लिया । इन बहसों में साहित्य की व्यावहारिक आलोचना के साथ ही जटिल सैद्धांतिक सवाल भी शामिल थे । विभिन्न सवालों पर इन गहन वैचारिक लेखों का संग्रह ‘शब्द और कर्म’ नामक उनकी पुस्तक में हुआ । विषय की जटिलता के चलते ही उन लेखों की भाषा में भी किंचित जटिलता आ गयी है । इसी वजह से उनके लेखन पर आंग्ल वैचारिक धारणा का असर देखा गया है और उनकी वाक्य संरचना को दुरूह भी माना गया है । इस मामले में उन्हें भी अपनी कमजोरी का पता था । अक्सर हम विद्यार्थी उन्हें जटिल धारणाओं को सुबोध बनाने का प्रयास करने के लिए जूझते देखते थे । अपने लेखन की इस आरम्भिक समस्या पर उन्होंने धीरे धीरे काबू पाया और मुगल बादशाहों की कविता संबंधी उनका लेखन बहुत ही सधा हुआ नजर आता है । उल्लिखित किताब का शीर्षक ही उनकी समझ और संघर्ष का संकेत करता है जिसमें वे शब्द को कर्म से जुड़ा मानते हैं । यह साहित्य की ऐसी असामाजिक समझ का मुकाबला करने के क्रम में हासिल विवेक है जिसमें साहित्य का नाता समाज और इतिहास से तोड़ दिया जाता है ।
‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’भी इसी किस्म के संघर्ष का नतीजा है जिसमें इतिहास को साहित्य के लिए अनावश्यक समझने वाली पाश्चात्य विचार सरणियों का तार्किक खंडन करने के बाद हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन के प्रयासों का विवेचन हुआ है । इस विवेचन हेतु आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपरांत प्रगतिशील आलोचना के सिरमौर रामविलास शर्मा को लिया गया है । कहना न होगा कि नामवर सिंह की सोहबत के बावजूद इस सूची में उनकी अनुपस्थिति मैनेजर पांडे के साहसी विवेक का पक्का सबूत है । इसी किताब में भविष्य में चलने वाले उनके उस वैचारिक संघर्ष का अंदाजा मिल जाता है जिसकी वजह से वे नब्बे दशक के बाद बेहद महत्वपूर्ण आलोचक के रूप में स्थापित हुए । ऐतिहासिकता को साहित्य के मामले में भी स्थापित करने के बाद उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान साहित्य की सामाजिकता की प्रतिष्ठा है । इसके लिए उन्होंने ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’ शीर्षक किताब लिखी । यह किताब अपने विषय में आज भी बेमिसाल है । इस किताब से पहले भी सभी विषयों के बारे में लिख लेने वाले कुछ विद्वानों ने कलम चलायी थी लेकिन आज भी साहित्य को अन्य सामाजिक ज्ञानानुशासनों के साथ जोड़कर देखने की हिम्मत देने के मामले में यह किताब अपूर्व है । जिन विषयों पर उन्होंने लेखन किया वे अपेक्षाकृत नवीन और अनसुने थे इसलिए भी उनके लेखन में परिमाण के मुकाबले गुण का महत्व अधिक है । पुस्तकों के वजन से बुद्धि के वजन की माप करने के दौर में उनका यह रुख स्पृहणीय है । इस किताब के बाद ही उनके लेखन का वह समय शुरू होता है जिसमें वे लगभग अकेले थे । प्रतिबद्धता की इस राह में यात्रा करते हुए उनको रणधीर सिंह और एजाज़ अहमद जैसे समाज विज्ञानियों के अतिरिक्त हिंदी साहित्य के बहुत कम लोगों का साथ मिला । वामपंथी चिंतकों को अपने अतीत से पीछा छुड़ाने का आसान तरीका उत्तर आधुनिकतावाद ने मुहैया करा दिया था और बहुतेरे विद्वान इस रपटीली राह पर आगे पीछे देखे बिना तेजी से दौड़ पड़े थे । उत्तर आधुनिकतावाद के उपरांत सब कुछ का अंत होना शुरू हुआ तो मैनेजर पांडे ने अद्भुत साहस के साथ स्थापित के विकल्प का पक्ष मजबूती से ग्रहण किया ।
उनका यह दौर एक निजी क्षति के साथ भी जुड़ा था । उनके पुत्र की हत्या पुलिस ने कर दी थी । पिता के निधन के बाद निजी जीवन में यह बहुत बड़ा झटका था लेकिन इससे उबरने के क्रम में उन्होंने मार्क्स के मूल और उन पर लिखे लेखन का एक अनूदित संग्रह ‘संकट के बावजूद’ तैयार किया । इसके बाद उन्होंने हिंदी में लिखी ढेर सारी पुरानी सामग्री का संपादन करके प्रकाशित कराना शुरू किया । इस क्रम में स्वाधीनता संग्राम के समय की ऐसी हिंदी से पाठकों का परिचय हुआ जिसमें देश की तमाम भाषाओं से देश की चिंता करने वाले लेखन का अनुवाद तो हुआ ही, अर्थशास्त्र जैसे महत्व के विषय पर गम्भीर लेखन साहित्यकारों ने भी किया ।
साहित्य
की दुनिया में आलोचना की हैसियत बहुत अच्छी नहीं है । उसका दबदबा जो
भी हो, रचनात्मक लेखन की तुलना में इसे हेय समझा जाता है । आचार्य शुक्ल के आगमन
से पहले उसकी स्थिति नाम परिगणन और प्रभावाभिव्यंजक टिप्पणियों की थी । अक्सर इसे तुलनात्मक आलोचना भी कह दिया जाता था या बहुत हुआ तो भाष्य की स्थानीय परम्परा की
विरासत का वहन करने वाली चीज समझ लिया जाता था । इसके बाद की आलोचना की जिस
विशेषता का उल्लेख शुक्ल जी ने किया है उसका प्रमाण उनकी ही आलोचना थी । उनके बाद
लम्बे समय तक आलोचना की यह उठान जारी रही, हालांकि उसे लगातार प्रतिरोध का भी सामना
करना पड़ा लेकिन इस विरासत का समाहार हमें प्रगतिशील आलोचना में नजर आता है । उनके
बीच की उत्तेजक बहसों ने विरोधी धाराओं के लिए जगह ही नहीं छोड़ी थी । इस नाते
रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मुक्तिबोध के बीच के विवादों के साथ मैनेजर पांडे का
भी नाम लिया जा सकता है । इनके आपसी विवादों ने हिंदी जगत का बौद्धिक स्तर इतना
ऊपर उठा दिया था कि सामान्य विद्यार्थी को भी रूपवाद और विखंडन पर बहस करते देखा
सुना जा सकता था । वाम और दक्षिण, साहित्य के विद्यार्थी की शब्दावली का सहज अंग बन
गये थे । विद्यार्थियों की इस तेजस्विता से बहुधा हिंदी के पारम्परिक अध्यापक भी
डरते थे ।
प्रगतिशील आलोचकों की इस टोली ने हिंदी साहित्य के
सामान्य विद्यार्थी के भी भीतर बहुत कुछ जानने की उत्कंठा पैदा कर दी थी । इसे
निरंतर प्रज्ज्वलित रखने में शिक्षण संस्थाओं के अतिरिक्त पुस्तक लेखन के साथ
साहित्यिक संगोष्ठियों ने भी भारी भूमिका निभायी । इसी माहौल ने दूर दराज के भी
उत्सुक विद्यार्थी के मन में जनेवि आने की ललक पैदा कर दी थी । नामवर सिंह तो बाद
में चलकर प्रतिष्ठान का अंग बन गये और उसका उपयोग करने में अक्सर सफल होने के
बावजूद फिसलन का शिकार भी हुए । मैनेजर पांडे इस संस्थानीकरण की प्रक्रिया से बाहर
ही रहे इसलिए भी वे रणधीर सिंह और रामविलास शर्मा की तरह ही कभी विदेश नहीं गये ।
न केवल इतना बल्कि उनको किसी बड़े पुरस्कार से भी नवाजा नहीं गया । उन्होंने लाख
पुस्तकों का विमोचन किया हो, उनकी किसी किताब का कोई सार्वजनिक विमोचन नहीं हुआ और
यह भी उनके बाहरी ही बने रहने का काफी ठोस प्रमाण है ।
कुल मिलाकर मैनेजर पांडे ने समृद्ध जीवन बिताया और ऐसे विद्यार्थियों की पीढ़ी को जन्म दिया जो उनके काम को आगे ले जायेंगे । वे विद्यार्थियों को अपनी किताबें यूं ही नहीं कहा करते थे । उन सबके लिए वे अध्यापक तो थे ही, सहयोद्धा भी अक्सर साबित होते थे । उनकी आखिरी किताब दारा शिकोह के बारे में है जिसके जरिये वे देश की सामासिक संस्कृति को उजागर करना चाहते थे ।