1994 में रटलेज से बेल हुक्स की
किताब ‘टीचिंग टु ट्रान्सग्रेस: एजुकेशन ऐज द प्रैक्टिस आफ़ फ़्रीडम’ का प्रकाशन हुआ
। लेखिका ने किताब की शुरुआत एक कालेज में अध्यापिका के बतौर अपने स्थायित्व के
साथ जुड़े अनुभव से की है । उन्हें स्थायित्व न मिलने का भय उतना नहीं था जितना
स्थायी होने का था क्योंकि इसके बाद वे अकादमिक बंधनों में कैद हो जातीं ।
स्थायित्व मिलते ही उन पर अवसाद छा गया । महीने भर के लिए वे बहन के पास चली गयीं
। बहन मनोचिकित्सक थीं । उनसे समस्या बतायी तो बहन ने याद दिलाया कि बचपन से ही
लेखिका का सपना लिखते रहने का था । रंगभेद वाले अमेरिका के दक्षिणी प्रांतों की
अश्वेत स्त्रियों के लिए तीन विकल्प होते थे । पहला कि वे विवाह कर लें । दूसरा कि
वे घरेलू सेविका का काम करें । बुद्धिमान स्त्रियों के लिए तीसरा रास्ता अध्यापन
का था ।
लेखिका की प्रतिभा को देखते हुए सभी
लोग उनके अध्यापक होने के बारे में निश्चिंत थे । इसके उलट लेखिका का सपना लिखते
रहने का था । उन्हें अध्यापन केवल दाल रोटी चलाने के लिए जरूरी लगता था, गम्भीर
काम तो लेखन ही महसूस होता था । लिखना ही उन्हें निजी पहचान बनाने का सही रास्ता
समझ आता, अध्यापन तो अपने समुदाय की सेवा जैसा लगता था क्योंकि तब अश्वेतों के लिए
अध्यापन और शिक्षा राजनीतिक काम थे । इनकी जड़ें नस्लभेद विरोधी संघर्ष में थीं ।
अश्वेतों के सभी स्कूलों में लेखिका को शिक्षा क्रांति जैसा काम महसूस होता था ।
इन स्कूलों की सभी अश्वेत शिक्षिकाएं अश्वेत युवतियों को विदुषी, चिंतक और
सांस्कृतिक योद्धा बनाने के मकसद से मेहनत करती थीं । उनको बहुत जल्दी इस बात की
सीख मिल गयी कि शिक्षा के प्रति समर्पण के जरिये गोरे नस्लभेदी उपनिवेशीकरण की
रणनीति का प्रतिवाद किया जा सकता है । हालांकि उन शिक्षिकाओं ने ये बातें कभी
सिद्धांत के रूप में नहीं कहीं लेकिन व्यवहार मे वे उपनिवेशवाद विरोधी प्रतिरोध के
क्रांतिकारी शिक्षाशास्त्र पर अमल कर रही थीं । इन स्कूलों में अश्वेत बालक-बालिका
ही पढ़ते थे और उनमें जो भी प्रतिभाशाली नजर आते उन पर शिक्षिकाओं की खास नजर रहती
थी । वे सभी अश्वेत समुदाय की उन्नति के मकसद से इस काम में लगी हुई थीं । इसके
लिए वे अपने विद्यार्थियों को जानने की कोशिश करती थीं ।
वे अपने शिक्षार्थियों के
माता-पिता, उनके आर्थिक हालात, घर द्वार और मानसिक स्थिति के बारे में जानती थीं ।
लेखिका को उन्हीं शिक्षिकाओं से पढ़ने का अवसर मिला जिन्होंने उनकी माता, मौसी और
मामाओं को पढ़ाया था । परिवार की इसी अनुभव संपदा के संदर्भ में उनकी क्षमता और
प्रयास का आकलन किया जाता था । आचरण, बोलचाल और आदतों के मूल पहचान में आ जाते थे
। स्कूल में उन्हें बहद मजा आता था । विचारों की वजह से खुद का बदलाव खासा
रोमांचकारी अनुभव था । ऐसे भी बहुत सारे विचारों का उन्हें सामना करना पड़ा जो घर
की मान्यताओं को चुनौती देते थे । इनसे सम्पर्क खतरे की सिहरन पैदा करता था । घर
पर तो लोगों की आकांक्षा के हिसाब से खुद को पेश करना पड़ता था लेकिन स्कूल में ऐसी
किसी जवाबदेही से मुक्ति का आनंद हासिल होता था, वहां विद्रोही विचारों के संसर्ग
में खुद को नये सांचे में ढालने की आजादी भी मिलती थी ।
कानूनी तौर पर नस्लभेद के खात्मे के
बाद स्कूल के हालात पूरी तरह बदल गये । खालिस अश्वेत बच्चों के स्कूलों में शिक्षण
जिस तरह का मकसद हुआ करता था वह वातावरण मिश्रित नस्ली स्कूलों में नहीं रहा ।
ज्ञान अब सूचना मात्र रह गया । इसका रिश्ता जीवन और आचरण से नहीं रह गया । नस्लभेद
विरोधी संघर्ष से उसका रिश्ता टूट गया । विद्यार्थियों से सीखने की ललक और उत्साह
की जगह पर आज्ञाकारी होने की उम्मीद की जाने लगी । जब वे गोरों के मिश्रित स्कूल
में दाखिल हुईं तो ऐसे शिक्षक दुर्लभ हो गये जो मानते थे कि अश्वेत बच्चों की
शिक्षा के लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता की जरूरत होती है । अब शिक्षक गोरे थे जिनके
शिक्षण से नस्ली पूर्वाग्रह मजबूत होते थे । अश्वेत बच्चों के लिए शिक्षा अब आजादी
का माध्यम नहीं रह गयी । लेखिका का दिल स्कूल से उखड़ गया । कक्षा में मजा आना बंद
हो गया । स्कूल अब भी राजनीतिक जगह थी लेकिन वहां वर्चस्व के विरोध की राजनीति
नहीं होती थी । हमें कदम कदम पर इस नस्ली मान्यता का प्रतिवाद करना होता था कि
अश्वेत लोग गोरों से हीन होते हैं । इस भारी बदलाव से लेखिका को शिक्षा की इस
भूमिका की अनुभूति हुई कि वह मुक्ति का व्यवहार होने के साथ ही प्रभुत्व का
व्यवहार भी हो सकती है । ऐसे गोरे अध्यापक विरल थे जो इस वातावरण का प्रतिरोध करते
थे । वे शिक्षा को मुक्ति का साधन समझते थे । धीरे धीरे कुछ अश्वेत अध्यापक भी
अध्यापन हेतु आये जिन्होंने अपने समुदाय के पक्षपात का आरोप झेलते हुए भी अश्वेत
बच्चों का ध्यान रखना शुरू किया ।
इस भीषण नकारात्मक अनुभव के बावजूद
शिक्षा की मुक्तिकारी क्षमता में लेखिका का विश्वास कायम रहा । विश्वविद्यालयी
शिक्षा की शुरुआत में वे विद्रोही अश्वेत बौद्धिक होने की सम्भावना से उत्तेजित
थीं । कक्षा में अध्यापकों में इस किस्म की उत्तेजना की उपस्थिति न होने से उन्हें
भारी निराशा होती । वहां पहली सीख यही मिली कि अधिकारियों के आज्ञापालन से ही
विद्यार्थी बने रहना सम्भव है । कक्षा से चिढ़ होने लगी फिर भी वे स्वतंत्र चिंतक
होने के दावे पर अड़ी हुई थीं । ऐसे में विश्वविद्यालय और कक्षा कैदखाने की तरह
लगने लगे । वहीं पहली किताब का लेखन पूरा हुआ हालांकि उसका प्रकाशन बरसों बाद हो
सका । लेखन के साथ ही अध्यापन की भी राह हमवार हो रही थी लेकिन कक्षा का भयावह
माहौल रोजमर्रा का अनुभव था । अधिकतर अध्यापक कक्षा में प्रभुत्व का अभ्यास करते
और आपसी संवाद की बुनियादी कुशलता भी उनमें नहीं थी । उन्हें सबसे पहली सीख यही
मिली कि किस तरह का अध्यापक नहीं होना चाहिए । कक्षा में अक्सर उन्हें ऊब का अनुभव
होता । शिक्षा की ऐसी पद्धति जिसमें सूचना को याद रखना और समय आने पर ज्ञान के नाम
पर उसे उगल देना ही लक्ष्य हो, लेखिका को कभी आकर्षित नहीं कर सकी । इस पद्धति को
फ़्रेयरे जानकारी की बैंक पद्धति कहते हैं जिसमें धन को एकत्र किया जाता है ताकि
उसे बाद में खर्चा जा सके । इसकी जगह लेखिका को गम्भीर आलोचनात्मक विचारक बनना था
।
इस आकांक्षा को अधिकारीगण अक्सर
खतरे के बतौर देखते थे । प्रतिभाशाली समझे जाने वाले गोरे मर्द विद्यार्थियों को
अपनी खुद की बौद्धिक राह चुनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता लेकिन हाशिये के
विद्यार्थियों से जी हुजूरी की उम्मीद की जाती थी । उनकी जरा सी भिन्नता को भी
संदेह की नजर से देखा जाता । असहमति की अभिव्यक्ति को प्रतिभाविहीनता पर परदा
डालने का बहाना करार दिया जाता । हाशिये के जो विद्यार्थी गोरों के प्रतिष्ठित
शिक्षा संस्थानों में दाखिल होते उन्हें अध्ययन करने की जगह गोरों की बराबरी का
इच्छुक समझा जाता । इसके लिए उन्हें बस उनकी नकल करते रहना होता । लगातार
पूर्वाग्रह का सामना करने की वजह से कुछ भी सीखने की स्वाभाविक प्रक्रिया में भारी
व्यवधान पैदा हो जाता । ऐसे में लेखिका को शिक्षण के बारे में वैकल्पिक रुख की खोज
बनी हुई थी । इस क्रम में उनका परिचय ब्राजील के मशहूर शिक्षाशास्त्री पाउलो
फ़्रेयरे के क्रांतिकारी लेखन से हुआ । अब लेखिका को अपना मनचाहा गुरु मिल गया । लगा कि वे शिक्षा को
मुक्तिकारी गतिविधि समझते हैं । उनके लेखन और खुद के अनुभवों के आधार पर लेखिका ने
शिक्षण की अपनी मान्यतायों को आकार देना शुरू किया ।
तब तक नारीवादी सोच से भी उनका
जुड़ाव हो चुका था । उस नजरिये से उन्होंने फ़्रेयरे के लेखन को देखना आरम्भ किया ।
लगा कि यदि वे शिक्षा को मुक्तिकारी गतिविधि मानते हैं तो इस कोशिश का समर्थन जरूर
करेंगे । एक ओर फ़्रेयरे को वे नारीवादी नजर से देख रही थीं तो दूसरी ओर नारीवाद की
सीमाओं को फ़्रेयरे के सहारे समझ रही थीं । स्त्री अध्ययन के विभागों पर गोरी
स्त्री अध्यापिकाओं का ही दबदबा था । जब कभी किसी अश्वेत लेखिका का जिक्र आता भी
था तो उसे अश्वेत अध्ययन के मातहत मान लिया जाता । गोरी अध्यापिकाओं को अश्वेत
लेखिकाओं के लेखन को समझने और समझाने में कोई रुचि नहीं होती थी । इस अरुचि के
बावजूद बेल हुक्स ने नारीवाद के भीतर घुसपैठ का प्रयास बंद नहीं किया । वहां कम से
कम पारम्परिक शिक्षण पर सवाल उठाने की गुंजाइश तो थी ही । वहां विद्यार्थी अकादमिक
दुनिया के बाहर भी चिंतक के रूप में जीवन सार्थक करने की सम्भावना टटोल सकते थे ।
विद्यार्थी शिक्षण की प्रक्रिया की आलोचना भी कर सकते थे । ऐसी आलोचना को हमेशा
प्रोत्साहित तो नहीं किया जाता था लेकिन उसकी गुंजाइश तो थी ही । उसी गुंजाइश के
सहारे विद्यार्थी शिक्षा को मुक्ति के साधन के रूप में बरतने की कोशिश कर सकते थे
।
अध्यापन का दायित्व निभाते हुए वे
अपनी अश्वेत अध्यापिकाओं, फ़्रेयरे के लेखन और नारीवादी आलोचनात्मक शिक्षण पर ही
भरोसा करतीं । जिस तरीके से उन्हें उच्च शिक्षा मिली थी उससे अलग तरीके से पढ़ाने
की कोशिश करतीं । उनकी पहली मान्यता थी कि कक्षा को ऊबाऊ जगह होने की बजाय उत्तेजक
अनुभव होना चाहिए । अगर कक्षा में ऊब तारी होने लगे तो उसे दूर करने के तरीके
खोजने होंगे । फ़्रेयरे के लेखन या नारीवाद में भी कक्षा को आनंद में बदलने पर
विचार नहीं किया गया है । इसकी जरूरत तो शिक्षाशास्त्रियों ने बतायी है लेकिन उच्च
शिक्षा में इसकी भूमिका के बारे में गम्भीर सोच विचार नहीं हुआ है । सीखने की
प्रक्रिया में गम्भीरता को जितना महत्व दिया गया है उसके चलते कक्षा की उत्तेजना
और आनंद को नुकसानदेह समझा जाता है । यदि कोई अध्यापक कक्षा में बौद्धिक उत्तेजना
पैदा करने की चाहत के साथ प्रवेश करता है तो यह बात निर्धारित संकीर्ण सीमाओं को
पार कर जाने जैसा होती है । इसके लिए न केवल पूर्व स्वीकृत सीमाओं का अतिक्रमण
करना होता है बल्कि यह भी मानना होता है कि शिक्षण का कोई एक तयशुदा तरीका नहीं
होता । उसमें लचीलापन आवश्यक होता है जिससे स्वत:स्फूर्त रूप से उसकी दिशा बदली भी
जा सकती है । विद्यार्थियों को समरूपी समूह मानने की जगह विशेष व्यक्तियों के रूप
में देखना होता है और उनकी खास जरूरतों के मुताबिक संवाद करना होता है । कक्षा के
अपने नकारात्मक अनुभवों पर विचार करते हुए उन्होंने तय किया कि कक्षा की उत्तेजना
के साथ बौद्धिक प्रेरणा का भी संतुलन बनाया जायेगा ।
लेखिका का यह भी मानना है कि केवल
वैचारिक उत्तेजना से ही सीखने की प्रक्रिया को उत्तेजक नहीं बनाया जा सकता । इसके
लिए कक्षा में मौजूद समस्त विद्यार्थियों की रुचि एक दूसरे के बारे में भी होनी
चाहिए । इसका मतलब कि सबको एक दूसरे की आवाज को सुनना होगा और उनकी उपस्थिति को
मंजूर करना होगा । अधिकांश कक्षाओं में विद्यार्थियों को अध्यापक की ही मौजूदगी का
अभ्यास होता है इसलिए यह बात क्रांतिकारी लगती है । इसे कह देने से ही काम नहीं
चलेगा बल्कि शिक्षण के दौरान सचेत रूप से इसे अमल में लाना होगा । इसके लिए
अध्यापक को सबकी मौजूदगी मूल्यवान माननी होगी । मानना होगा कि प्रत्येक विद्यार्थी
कक्षा के माहौल को प्रभावित करता है । उनके इस योगदान का इस्तेमाल संसाधन के बतौर
करना होगा । इस संसाधन के रचनात्मक इस्तेमाल से कक्षा को सीखने सिखाने की खुली
प्रयोगशाला में बदला जा सकता है । इस प्रक्रिया की शुरुआत से पहले अध्यापक को ही
शिक्षा का एकमात्र स्रोत समझने की पारम्परिक मान्यता का खंडन करना होगा । कक्षा
में अध्यापक बस थोड़ा अधिक जिम्मेदार होता है क्योंकि कोई भी सांस्थानिक संरचना
कक्षा के सिलसिले में उसे प्राथमिक तौर पर जवाबदेह बनाती है । इसके बावजूद सच यही
है कि कक्षा में बौद्धिक उत्तेजना का निर्माण केवल अध्यापक नहीं कर सकता । इसे
सामूहिक रूप से ही अंजाम दिया जा सकता है । इसके लिए कक्षा को भी एक समुदाय समझना
होगा तभी उसका माहौल सामुदायिक प्रयास से निर्मित होगा । शिक्षा और शिक्षण को वे
ऐसा काम समझती हैं जिसमें बदलाव और नवीनता की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है । इसका
मकसद सीखने की प्रक्रिया में शिक्षार्थी की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना है ।
इन क्रांतिकारी मान्यताओं वाली बेल हुक्स का निधन 15 दिसम्बर 2021 को हो गया
।
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