प्रसन्न
कुमार चौधरी की एकमात्र कविता ‘सृष्टि-चक्र’ के बारे में हिंदी बौद्धिकों के बीच
बहुत कम बातचीत हुई । इसका कारण यह भी था कि हिंदी साहित्य और उसकी शैक्षणिक
दुनिया से उनका लगभग कोई रिश्ता नहीं रहा । सबसे पहले इसके एक हिस्से का प्रकाशन ‘समकालीन
भारतीय साहित्य’ में हुआ । शेष हिस्से ‘वागर्थ’ में छपे । वागर्थ वाला हिस्सा अलग
से पुस्तिका के रूप में नीलाभ प्रकाशन से भी छपा था । दोनों हिस्सों को मिलाकर वर्तमान
शीर्षक ‘मन एव मनुष्याणां--- सृष्टि-चक्र: एक लम्बी कविता’ है । यह कविता बीसवीं
सदी के आखिरी दशकों में लिखी गयी थी और प्रकाशन भी उसी समय हुआ था । कविता तीन हिस्सों में विभाजित है
जिनमें दूसरे हिस्से में एक टी ब्रेक भी है । वैश्वीकरण का दौर होने से कविता में
बहुतेरे वैश्विक संदर्भ आये हैं जिन्हें अंत में बता दिया गया है । टी ब्रेक का
हिस्सा सीधे अंग्रेजी में है । उसका काव्यानुवाद भी कर दिया गया है । बहुतेरी
जगहों पर उपनिषद से संस्कृत के टुकड़े भी कविता में आते रहते हैं । कविता का अर्थ
तो कभी उसके सौंदर्य को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाता लेकिन इस लेख में उसके
वक्तव्य को प्रकट ही किया जा सकता है । उसके रूप और शिल्प की विशेषताओं का जिक्र
किसी अन्य प्रसंग में किया जायेगा ।
महाकाव्यात्मक
वितान की कविता होने के चलते इसका रिश्ता अपने समय से भी था । वह समय हमारे देश
में नव उदारवादी वैचारिकी के उदग्र प्रवेश का था । तीस साल पुरानी बात होने के
बावजूद ध्यान में रखना होगा कि उस समय की निरंतरता में हम अब तक बने हुए हैं । उस
समय को ढेर सारे कारणों से बदलाव का समय माना जाता है । उस समय जो भी हो रहा था
उसमें सूचना-संचार क्रांति के साथ उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण का भी खेल चल रहा था
। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में समाजवादी शासन का खात्मा होने से दुनिया के
पैमाने पर समाजवादी खेमे का पतन हुआ था । विचारों की दुनिया में सब कुछ नया और
उत्तर उपसर्ग के साथ प्रकट हो रहा था । यह सब कुछ इतनी तेजी से घटित हो रहा था कि इसके लिए ‘शाक थेरापी’ की रणनीति का नाम ही दिया गया । योजनाबद्ध
तरीके से संभलने का मौका दिये बगैर चोट पर चोट की जा रही थी । सार्वजनिक क्षेत्र
को नेस्तनाबूद करने की मुहिम चल पड़ी थी । दुनिया भर में सरकार के कल्याणकारी व्यय
में कटौती की सलाह दी जा रही थी । उसी रणनीति का इस्तेमाल हालिया कोरोना के दौरान
भी किया गया । ताबड़तोड़ हमला शासकों की बहुत पुरानी रणनीति रही है ।
वही दौर
है जब अमेरिका की वैश्विक चौधराहट को वैश्वीकरण का नाम दिया गया । हमला सबसे पहला
संस्कृति के क्षेत्र में महसूस किया गया । खानपान की विविधता को कुचलते हुए पिज्जा
बर्गर की सार्वभौमिकता स्थापित हुई । टेलीविजन के बक्से से अमेरिकी सीरियल
प्रसारित होने लगे । देश बेचेहरा सा होता जा रहा था । विश्व बाजार से होड़ की कौन
कहे, घर के भीतर तक बाजार घुस आया । उपभोक्ता सामग्री के बाजार में पश्चिमी
कंपनियों के उत्पाद ही नजर आते थे । अचरज की तरह यह एकाधिकार प्रतियोगिता के नाम
पर कायम हुआ । देश के तत्कालीन विद्वान प्रधानमंत्री ने इस वैचारिक हमले की अगुवाई
की थी ।
उस समय
सरकारी नियंत्रण के विरोध में जो उग्र वैचारिक हमला किया जा रहा था उसका मूलमंत्र
आजादी था । याद करना गैर मुनासिब न होगा कि विश्व-ग्राम के नारे के साथ ही कर लो
दुनिया मुट्ठी में जैसे वाक्य केवल विज्ञापन तक सीमित नहीं थे । उस समय सपने अपार
वैभव के भी दिखाये गये थे । लिव लाइफ़ किंगसाइज भी फटेहाल जनता को सपने बेचने की
कला थी । समूची दुनिया का तीव्र अमेरिकीकरण करने का प्रयास जोर शोर से हो रहा था ।
इस समग्र माहौल की छाया इस दीर्घ वितान की कविता पर थी ।
कविता की
शुरुआत एक स्त्री की यात्रा के आरम्भ से होती है । इस प्रकरण में ध्यान देना होगा
कि नवउदारीकरण ने एकाधिक कारणों से मुक्ति के जिस आख्यान को हवा दी उसका लक्ष्य
स्त्री थी । हजार किस्म के सामाजिक बंधनों की कैद उस पर थी जिससे मुक्ति की
वास्तविक आकांक्षा का दोहन पूंजीवाद के इस नवोत्थान के समय किया गया । इस काम में
सौंदर्य के बाजार का सबसे अधिक उपयोग किया गया । इस पहलू को उजागर करते हुए कवि ने
तीक्ष्णता का परिचय दिया है । वे कहते हैं-
‘तुम्हारा सुन्दर होना ही
काफी नहीं
दिखना भी होगा तुम्हें सुन्दर एक शासक की तरह
असुन्दर का सुन्दर दिखना/ फिलहाल हमारे यहाँ सभ्यता की यही परिभाषा है’
कहना न
होगा कि फिलहाल सुंदरता को जिस कदर शासकीय युक्ति में बदल दिया गया है उसकी झलक
कवि को बहुत पहले ही मिल गयी थी । दिखने और होने के बीच के इस द्वंद्व को और भी
बेहतर तरीके से प्रस्तुत करते हुए वे थोड़ी देर बाद फिर कहते हैं ‘दिखना यहाँ होने से कहीं ज्यादा अर्थ रखता है’ । इसको बिना सवाल किये ही स्वीकार करने की बजाय कवि प्रश्न करता है कि आखिर,
‘क्यों सुन्दर होना हार जाता है सुन्दर दिखने से
जीवन होना हार जाता है जीवन दिखने से
न्याय होना हार जाता है न्याय दिखने से’
दिखने और होने के बीच का यह द्वंद्व स्त्री तक ही सीमित
नहीं रह जाता, स्त्री समूची धरती का प्रतीक बन जाती है जब हम सुनते हैं कि ‘किसी स्टीरॉयड के सहारे
कब तक दौड़ेगी कोई सभ्यता’ और इसीलिए ‘चेक-अप के लिए अस्पताल में आने लगी है धरती’ । धरती की इस दशा को स्त्री की दशा बताते हुए लेखक भयावह बिम्ब प्रस्तुत करते
हैं-‘फूलमती की तरह कोठे से नारी निकेतन/और नारी
निकेतन से कोठे पर आती जाती रहती है’ । कहां तो यह अवस्था और कहां बखान! दोनों के
बीच होने और
दिखने का फर्क स्पष्ट है ।
'यक्षी, सुना तुमने दुनिया बदल रही
है
जो सपना था साकार हो रहा
जो साकार था सपना हो रहा’
यह बदलाव वही है जिसका ढोल सोवियत संघ के पतन के बाद खूब
पीटा गया । यह बदलाव कितना क्रूर और अमानवीय है!
‘मेरे बच्चे की टिफिन में डाल देता है
चुपके से कोई हेरोइन के पैकेट
या फिर निगल जाता उसे
स्कूल पहुँचने से पहले’
नशे और युद्ध के सहारे इस सांस्कृतिक हमले को ठोस आकार दिया
गया था अन्यथा केवल संस्कृति का विनाश कितना मुनाफ़ा दे सकता था! यह भारी कत्लेआम
शब्दों के मामले में भी हुआ । इस नये समय में अचानक शब्दों के अर्थ भी बदलने लगे थे । न्याय का मतलब युद्ध बना दिया गया था और
लोकतंत्र को बंदूक के सहारे गरीब मुल्कों के गले उतारा जा रहा था । इसका चित्रण
करते हुए कवि कहते हैं
‘इस शब्द का अभी-अभी कत्ल हुआ है
गाढ़ा रक्त बह रहा है
इधर द्वन्द्व में औंधे मुँह गिर पड़ा है यह शब्द
यहाँ किसी ने शब्दों की कै की है
उफ् कितनी दुर्गन्ध है !
बासी शब्दों में रेंगते हैं कीड़े
और आसपास शब्दों का बलगम है’
ऐसे में चुनौती पेश है
‘और यह है शब्दों का श्मशान
शून्य में शब्द की बात सुनी होगी तुमने
यहाँ देखों शब्दों का शून्य
क्या इस शून्य में नये शब्दों के पौधे लगाओगी ?’
शब्दों की जो नयी कारीगरी हो रही है उसमें सभी विचारों को
अनुकूलित कर लिया गया है ।
‘साम्यवाद/ गोल कर दी गई
स्तालिन की जीन
मिक्स की गयी है थोड़ी रोजावाली
कम से कम चालीस फ़ीसदी फेरबदल के साथ
डाली गयी है माओजीन
...............’
यह तो कम्युनिस्ट विचारधारा के साथ हुआ । दूसरी ओर
‘उदारवाद/ काफी घटा दी गयी है नपुंसकता
इसकी
जिनियागिरी की बदौलत’
तथा
‘अनुदारवाद/ सहिष्णु और संयत बना दिया गया है
कल का यह ऐंठा हुआ धनी छोकरा’
शब्दों
की इस माया का मुकाबला करना होगा
‘तुम हमारी निःशब्द वाणी में, हमारे निःशब्द कर्म में
नये शब्दों के रूप में अंकुरित होओ
बनो एक नया संवाद/ एक नया सेतु’
नये को बनाने के इस कार्यभार के साथ कविता का दूसरा खंड
शुरू होता है जिसमें
‘जन्मने की अनगिनत संभावनाएं हैं
और उनका निषेध भी
संभावनाओं के अर्थ नहीं होते
लेकिन जन्मने की हर कहानी अर्थवान होती है’
संकट यह है कि
‘प्रतिकृति गढ़ना बन जाता है सबसे बड़ा आदर्श
हम होना चाहते है वह जो दूसरा है
हम लेना चाहते है वह जो उसके पास है
हम जीना चाहते है वह जो दूसरा जीता है
हम खाना चाहते है वह जो दूसरा खाता है
हम लिखना चाहते हैं वह जो दूसरा लिखता है
हम बोलना चाहते हैं वह जो दूसरा बोलता है’
‘फिर प्रतिकृतियों के कंक्रीट और मांसल जंगल में
हम ढूंढ़ते है सृष्टि’
यह जो बार बार जन्मना है उससे परम्परा बनती है और यह
परम्परा भी ‘एक नदी चिरन्तन’ और
‘युवती सनातन’ जैसी
है । इस नदी की विशेषता यह है कि वह ‘अपनी कोख में सहेजकर लाती है
देवमाटी’ और इसलिए महाजननी है । इससे जिस नये का निर्माण होता है उसे
पूर्वनिश्चित नहीं किया जा सकता ‘मेरा संतति प्रवाह उनके फ्यूचर प्रोजेक्शन से मेल नहीं खाता
था’ । रचना या किसी भी सृजन की
पूर्वनिश्चित न होने की विशेषता को बहुतेरा रेखांकित किया गया है और इसे मानव समाज
में स्वाधीनता हासिल करने की सम्भावना का स्रोत माना जाता है । इस नयी रचना को कवि
‘स्वर-शिशु’ तथा ‘जीवन-राग’ कहता है । इसके भाग्य में विद्रोह आया है ।
‘जब
मार्ग ही प्रवाह बन जाये तब प्रवाह के खिलाफ प्रवाह बनना
लोग कहेंगे सब चलता है
तुम कहना सब नहीं चल सकता तुम नहीं चलना
लोग कहेंगे इट डजंट मैटर
तुम कहना इट डज मैटर तुम गौर करना
लोग कहेंगे शब्दों के अर्थ में मत उलझो
तुम कहना यह कैसे संभव है तुम अर्थ पर अमल करना’
यह विद्रोह पहले भी हुआ था और फिर जब ‘सब कुछ यंत्रवत होने
लगे’ तो दुबारा होगा ।
असल में मानव सभ्यता के आरम्भ में ही इसके बीज पड़ चुके थे क्योंकि
‘आरम्भ
में अन्न था
अन्न की भूख थी/ भूख की आग थी/ आग की विनाशलीला थी’
और
‘आरम्भ में अन्न था
अन्न से धन था/ धन से लिप्सा थी/ लिप्सा से लीलाएं थीं’
इस तरह 'भूख थी और अन्न की महिमा थी’ । इसका ठोस रूप यह था कि ‘अकाल था और खेतों मे लहलहाती बालियां थी’ । भूख की इस सर्वव्यापी मौजूदगी को व्यक्त करने के लिए कवि ने हिंदी भाषी इलाकों
की एक लोककथा का सहारा लिया है जिसमें किसी चिड़िया की चोंच का दाना गुम हो जाता है
और फिर उसे खोजने की मशक्कत शुरू होती है । इस कोशिश में तमाम नायक असफल साबित
होते हैं । इस भूख की दाहकता से विद्रोह की महागाथा का जन्म होता है
‘चिड़ियाँ उड़ी - आग की लपटें उड़ाती
व्रात्यों की धरती से बैस्तील तक
पीटर्सबर्ग से चिङकाङशान पहाड़ों तक
वह उड़ी - उसके विशाल
डैनों की फड़फड़ाहट से धरती कांपी
एंडीज से किलिमंजारो तक’
समूची दुनिया में भूख ने विद्रोह
के न केवल बीज बोये, बल्कि समता के तमाम विचारों और सपनों को भी जन्म दिया । इन
विचारों की विविधता देखने लायक है ।
‘सभ्यता की वीथियों में उसने विचारों के अण्डे जने
सर्वे भवन्तु सुखिनः से सर्वहारा अधिनायकत्व तक’
इन तमाम विचारों के साथ ही
‘दरारों में छिपे अन्न के दाने और उस चिड़िया की चोंच के बीच
जनतंत्र का भूगोल था’ ‘लेकिन मेरी नन्ही चिड़िया इन्सानियत का वह इतिहास थी
जनतंत्र का भूगोल कई जगह जिसकी विपरीत दिशा में जाता था’
चिड़िया
को अन्न
मिला । इस प्रयास में उसे बहुत कुछ और भी मिला जिसके सुख से सुकून हासिल हुआ ।
‘श्रम संसार
हृदय संसार
सृजन संसार
चिड़िया अन्न का दाना पा प्रफुल्लमन इसी संसार में देर तक उड़ती रही’
वैश्वीकरण
जनित संसार का जादू अपने समूचे वैभव के साथ धरती पर पसरा हुआ था । इसमें
‘कोवलम बीच पर
एक हंगारी बेलेरीना सबको मंत्रमुग्ध किये थी
उधर अमेजन के जलमहल में
वसंतसेना प्रस्तुत कर रही थी मोहिनी अट्टम’
इस दुनिया के साथ कठिनाई यह है कि इसमें सब कुछ लगभग
पूर्वनिश्चित है ।
‘सबकुछ का अपना नियत समय था, सब कुछ की अपनी नियत जगह थी
हर काम के अपने अंदाज थे, अपनी भाषा थी
अपने संकेत थे, अपने नियत लोग थे,
अपनी आचार संहिता थी
अपने कर्मकांड थे, अपने अछूत थे, अपने म्लेच्छ थे’
वैश्वीकरण के नाम पर ऐसी भयानक एकरूपता थोप दी गयी है कि
‘बच्चे एक ही गीत गाते
एक ही किताब पढ़ते, एक ही फिल्म देखते
उनके नायक खलनायक एक थे, उनके खिलौने एक थे
उनके अभिवादन की शैली एक थी
उनके हंसने-मुस्कुराने-बतियाने के अंदाज एक थे
बस्तों के बोझ से उनकी पीठ एक जैसी ही झुकी थी
टेक्स्टबुक दुनिया के वे टेक्स्टबुक बच्चे थे’
आज जिस थोपी गयी एकरूपता के दर्शन हो रहे हैं उसकी शुरुआत
को कवि ने बहुत पहले संकेतित किया था । इस नयी दुनिया में बड़ों ने ‘अपनी एकता बच्चों पर थोप
दी थी’, विकसितों ने ‘अपनी एकता अविकसितों पर थोप दी थी’ और मनुष्यों ने ‘अपनी एकता प्रकृति पर थोप दी थी’ । इस एकरस दुनिया को
‘बच्चों की अनुशासनहीनता
अविकसितों के आक्रोश
प्रकृति के प्रकोप से खतरा था’
शायद इसीलिए
‘मन से दुनियां बंटी-बंटी थी
विल्नियस से बेरूत तक
सारायेवो से लॉस एंजेलिस तक
पाटलिपुत्र से प्रिटोरिया तक
एक खूनी युद्ध था’
इस हालत ने अद्भुत नजारा बना
दिया जिसमें
‘दुनिया एक थी और युद्धरत थी
एक जैसी स्वचालित राइफलें थीं, एक जैसे नकाब थे
एक जैसी टैंकभेदी मिसाइलें थीं, एक जैसे रॉकेट लांचर थे
एक जैसे बम गिरते, एक जैसी इमारतें गिरतीं
हर जगह हरेक मां एक जैसी ही छाती पीट पीटकर रोती
बच्चे एक जैसे ही दम तोड़ते
दुनिया एक थी और युद्धरत थी’
नवउदारवाद के युग में भूख और विद्रोह के बाद की सबसे भयानक
सचाई यह युद्ध ही है । शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद उम्मीद थी कि युद्ध बंद हो
जायेंगे । याद करिये कि कुछ ही समय पहले विज्ञान, अंतरिक्ष और उपभोक्ता सामग्री की
गुणवत्ता के क्षेत्र में होड़ चलती थी । उसके बाद दुनिया में मानो अनवरत एक युद्ध
चल रहा है जिसके प्रभाव सारी मनुष्यता को झेलने पड़ रहे हैं । इसमें
‘शब्द ज्यों ज्यों परिष्कृत होते गये
युद्ध उतने ही भयंकर होते गये
संहार उतने ही प्रलयंकारी होते गये
नरमुंड़ो के ढ़ेर उतने ही ऊँचे उठते गये’
दूसरे हिस्से में ही कविता में टी ब्रेक आया है जिसे कवि ने
‘कविता में गद्य का प्रवेश’ कहा है और भावनात्मक धक्के की सम्भावना के लिहाज से
‘सिर्फ थर्टी प्लस लोगों के लिए’ अनुशंसित किया है । इसमें लगभग शताधिक अंग्रेजी
भाषा की पक्तियों को नागरी लिपि में लिखा गया है । कविता का यह सबसे उत्तेजक
हिस्सा है । इसको अंग्रेजी में लिखे जाने का कारण शायद यह बताना है कि वैश्वीकरण
की आड़ में वस्तुत: पुन:उपनिवेशीकरण का यथार्थ है । यह कहने की जरूरत नहीं होनी
चाहिए कि उस समय के मशहूर राजनीतिवेत्ता रणधीर सिंह भी कहते थे कि अंग्रेजी राज के
समय भी हमारे अर्थतंत्र का वैश्वीकरण हुआ था । इस हिस्से में एक युवती का अपनी
माता के साथ पर्याप्त उद्धत संवाद है । वह समय ही युवा को लगभग प्रत्येक संकेत से
प्रेरित कर रहा था कि पुरानी पीढ़ी बोझ है । मार्गदर्शक मंडल के नाम पर बुजुर्गों
को कूड़े में फेंकने की संस्कृति बहुत नयी नहीं है । कृत्रिम का उद्घोष करते हुए
पुत्री कहती है
‘द एज ऑफ आर्टिफीसिअल यूटेरस इज इन मॉम
एण्ड वी हैव बीन फ्रीड फ्रॉम द बर्डेनसम टास्क ऑफ कन्सीविंग
इट इज नाउ हाइ टाइम टु डिसॉलव द इंस्टीट्युशन ऑफ मैरिज, मॉम
द प्रॉब्लेम ऑफ इन्हेरिटेन्स इज मीनिंगलेस
नोबॉडी इज एनीबॅडीज एअर
एवरीबॉडी इज हिज ओन क्रिएशन
द डे ऑफ इमोशनल टाइ इज नाउ ओवर’
यह संवाद बेहद रचनात्मक तरीके से नये समय के सांस्कृतिक
मूल्यों को प्रस्तुत करता है । पुत्री फिर से कहती है
‘हाउ मच सोशली नेसिसॅरी लेबर टाइम हैज बीन वेस्टेड बाइ द ह्यूमनकाइण्ड
इन राइटिंग, रीडिंग, इनैक्टिंग
फाल्स, सेल्फ डेल्युडिंग लव
स्टोरिज, लव सांग्स, एण्ड लव प्लेज
इन दैट लेबर टाइम वी वुड हैव बिल्ट ऑवर कॉलोनीज ऑन मार्स’
अबाध अर्थोपार्जन और समूचे ब्रह्मांड को उपनिवेशित कर लेने
की आत्मघाती लालची वृत्ति को इससे बेहतर तरीके से व्यक्त करना सम्भव नहीं था ।
पुत्री के इस धृष्ट उद्बोधन के फलस्वरूप
‘डिअर, योर मॉम इज डेड
डेथ इज हर रेस्पांस’
इसके बाद कविता का समाहार सा करते हुए कवि बताता है कि
‘इस दुनिया के अपने बेकार माल थे/ अपने कचरे थे
पुरूषार्थ, ईमान, कर्त्तव्यबोध, प्रायश्चित जैसे शब्दों के
कोई खरीददार नहीं थे
एक प्रतिनिधि सभा ने तो इन शब्दों को
शब्दकोश से हटा देने का विधेयक तक पारित कर दिया था’
हमने पहले ही कहा कि सदी के मोड़ पर लिखी और प्रकाशित इस
बेहद महत्वपूर्ण कविता पर न के बराबर चर्चा हुई लेकिन इसमें चित्रित यथार्थ और
व्यक्त भावनाओं में हमारे देश में हुए तत्कालीन बदलाव की भास्वर झलकी है । वह
बदलाव रुका नहीं, अब भी जारी है । इसलिए इस कविता को ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए । इस
कविता में तत्कालीन सांस्कृतिक हमले की विध्वंसात्मकता को ठीक से पहचाना गया है ।
अंतिम हिस्से में हम प्रतिनिधि सभाओं को व्यर्थ बनाने की शुरुआत भी देख सकते हैं ।
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