2021 में रटलेज से अलेक्स कलीनिकोस, स्तातिस
कूवेलाकिस और लुचिया प्रादेला के संपादन में ‘रटलेज हैंडबुक आफ़ मार्क्सिज्म ऐंड
पोस्ट-मार्क्सिज्म’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना और अलेक्स के पश्चलेख
के अतिरिक्त किताब में पचपन लेख शामिल किये गये हैं । इन्हें कुल नौ भागों में
संयोजित किया गया है । अंतिम नवें भाग का एकमात्र लेख जान बेलामी फ़ास्टर और इंतान
सुवंडी ने महामारी के समय मार्क्सवाद पर लिखा है । इसके अतिरिक्त पहले भाग के दो
लेख मार्क्स और एंगेल्स के बारे में क्रमश: लुचिया और रोलैंड बोअर ने लिखे हैं ।
दूसरे भाग में साम्राज्यवाद के समय मार्क्सवाद पर तीन लेख हैं । इनमें दूसरे
इंटरनेशनल, काउत्सकी और रोजा का जिक्र है । तीसरे भाग में रूसी क्रांति के समय के
मार्क्सवाद को विश्लेषित किया गया है । इसमें लुकाच, ग्राम्शी, त्रात्सकी,
बोर्डिगा, वाल्टर बेंजामिन, अडोर्नो और मार्क्यूज का विवेचन भी शामिल है । चौथे
भाग में तीसरी दुनिया के देशों में मार्क्सवाद के प्रसार का जायजा लिया गया है ।
इसमें लेनिन, जेम्स कोनोली, जोसे कार्लोस मारियातेगुई, माओ, सी एल आर जेम्स, फ़ैनन
आदि पर उनके विशेष संदर्भों सहित विचार किया गया है । पांचवां भाग साठ के दशक में
मार्क्सवाद के पुनरुत्थान को समर्पित है । इसमें सार्त्र, अल्थूसर, मारियो
त्रोन्ती, हाब्सबाम, पोलांजास, समीर अमीन, वालरस्टाइन, जी ए कोहेन, जेमेसन, बेनसेड
आदि विचारकों का खाका खींचा गया है । छठवें भाग में मार्क्सवाद के परे जाने वालों
पर विचार किया गया है । इसमें रंजीत गुह, हैबरमास, लाकलाउ और शांटल माफ़, नेग्री और
बाज्यू जैसे चिंतकों के बारे में लेख हैं । सातवें भाग में अनजान क्षेत्रों में
खुले आयामों को देखने की कोशिश है । इसके तहत नारीवाद और पारिस्थितिकी में जारी
चिंतन का परिचय दिया गया है । आठवें भाग के लेख मार्क्सवादी आर्थिक चिंतन के नये
व्याख्याताओं से परिचय कराते हैं । कुल मिलाकर किताब मार्क्सवाद के समूचे विस्तार
को पाठकों के सामने प्रस्तुत कर देती है ।
प्रस्तावना में संपादकों का कहना है कि विगत
दशकों में उत्तर मार्क्सवाद का उदय होने के साथ ही मार्क्सवाद में बौद्धिक रुचि
फिर से पैदा हुई है । जब 1960 दशक के क्रांतिकारी आंदोलनों में 1970 दशक के मध्य
से उतार आया और 89 के बाद समाजवादी शासन बिखरने लगे तो इसे मार्क्सवाद का संकट कहा
गया । इस आक्रामक प्रचार से बचने के लिए बहुत सारे मार्क्सवादियों ने खुद को
उत्तर-मार्क्सवादी कहना शुरू किया । उत्तर मार्क्सवादी का मतलब था मार्क्सवाद से प्राप्त
सवालों पर ऐसे सैद्धांतिक राजनीतिक ढांचे में विचार करना जो मार्क्सवाद से प्रभावित
होते हुए भी मार्क्सवाद से परे जाता हो । इसके बावजूद उत्तर मार्क्सवादी लोग मार्क्सवाद
के इर्द गिर्द ही बने रहते हैं । इसका सबसे बड़ा नमूना स्लावोज ज़िज़ैक का उदय है । समय
बीतने के साथ उनके बीच का विभाजन धुंधलाता जा रहा है फिर भी वह अलग बौद्धिक धारा है
। असल में 1999 के बाद से ही
वैश्वीकरण के विरोध में जिस तरह की व्यापक गोलबंदी शुरू हुई उससे पूंजीवाद के विरोध
का वातावरण बना । उसके बाद 2007-08 के आर्थिक और वित्तीय संकट
ने पूंजीवाद की मार्क्सवादी आलोचना का आकर्षण पैदा किया । इसके साथ ही कुछ ऐसे युवा
विचारक सामने आये हैं जो अस्थायी रोजगार जनित अनुभवों और नयी राजनीतिक गोलबंदियों के
समक्ष मार्क्सवाद से हासिल समझ को पैना कर रहे हैं । ये लोग स्थापित वामपंथी राजनीतिक
पार्टियों से दूर तो हैं ही दूसरे और तीसरे इंटरनेशनलों के विचारकों के साथ ही द्वितीय
विश्वयुद्ध के मार्क्सवादी विचारकों से भी दूर हैं । इस समय के मार्क्सवादी विचारकों
के चिंतन पर वर्तमान आर्थिक संकट की छाया है हालांकि इस संकट के चलते नस्लवादी और फ़ासीवादी
उभार को ही अधिक मदद मिली है ।
इसी बौद्धिक और राजनीतिक माहौल से यह किताब संबोधित
है । इसमें मार्क्सवाद की मुख्य परम्पराओं को वर्तमान की नजर से प्रस्तुत किया गया
है । इस वर्तमान में मार्क्सवाद 80 या 90 के दशक के मुकाबले मजबूत तो हुआ है लेकिन
सिद्धांत और व्यवहार के बीच का रिश्ता पहले कभी इतना अस्पष्ट नहीं रहा था ।
मार्क्सवाद की यह समृद्धि और यह अनिश्चय उत्तर मार्क्सवाद के साथ उसके रिश्ते में
सबसे अच्छी तरह प्रकट होता है । उनकी पैदाइश तो आपस में जुड़ी है ही उनका भविष्य भी
जुड़ा हुआ है । इसमें मार्क्सवाद को महज यूरोपीय परम्परा के बतौर पेश करने से परहेज
किया गया है । पहले की तरह आज भी अधिकांश मौलिक लेखन उत्तरी ध्रुव के प्रभुत्व के
विरुद्ध आंदोलनों के साथ संवाद करते हुए ही सम्भव हुआ है । मार्क्सवाद और उत्तर
मार्क्सवाद की यात्रा को ऐसे संकटों और बहसों के आसपास बुना गया है जिनसे उनके आपस
में हुड़े इतिहास प्रकट होते हैं । धारणाओं से जुड़े लम्बे अध्यायों के बीच बीच में
व्यक्तियों या चिंतन धाराओं के बारे में छोटे छोटे अध्याय डाल दिये गये हैं ।
सबसे पहली बात कि मार्क्सवाद को समझने के लिए
मार्क्स और एंगेल्स के लेखन को देखना होगा । उन्नीसवीं सदी के यूरोप में ऐसा
माननेवाले केवल यही दोनों नहीं थे कि राजशाही से मूलगामी लोकतांत्रिक बिलगाव
कम्युनिज्म को हासिल करके ही किया जा सकता है । पूंजीवाद की मूल समस्याओं के
विश्लेषण के लिए राजनीतिक अर्थशास्त्र का उपयोग करनेवाले भी वे अकेले नहीं थे ।
अपने समकालीनों से आगे वे दो मामलों में गये- राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना और
उदीयमान मजदूर वर्ग के आंदोलन के साथ इसका अभिन्न जुड़ाव । इनमें राजनीतिक
अर्थशास्त्र की आलोचना की शुरुआत एंगेल्स ने की थी लेकिन उसको परिणति मार्क्स के
ग्रंथ ‘पूंजी’ में प्राप्त हुई । इस ग्रंथ की तीन विशेषताओं को गिनाते हुए
उन्होंने बताया कि 1) इसमें राजनीतिक अर्थशास्त्र को इतिहासविद्ध किया गया है ।
जहां क्लासिकी अर्थशास्त्री तत्कालीन ‘वाणिज्यिक समाज’ को ‘आजीविका की पद्धति’
कहकर उसे मानव स्वभाव के अनुरूप साबित करते थे वहीं मार्क्स और एंगेल्स ने इस
‘बुर्जुआ समाज’ को ऐतिहासिक रूप से संक्रमणशील और अस्थायी माना । राजनीतिक
अर्थशास्त्र को इस तरह इतिहासविद्ध करने के लिए इतिहास सिद्धांत की जरूरत थी । इस
सिद्धांत के तहत इतिहास को एक के बाद एक उत्पादन पद्धतियों के अनुक्रम के रूप में
प्रस्तुत किया गया है जिनका आधार उत्पादक शक्तियां और उत्पादन के सामाजिक संबंथ थे
। एक पद्धति से दूसरी पद्धति में संक्रमण दो चालकों से होता है- उत्पादक शक्तियों
के विकास का मौजूदा उत्पादन संबंधों से टकराव और शोषकों तथा शोषितों के बीच का
वर्ग संघर्ष । यह टकराव और संघर्ष कानून, राजनीति और विचारधारा जैसे अधिरचना के
इलाके में होता है । 2) 1857 से 1867 के दशक में मार्क्स ने राजनीतिक अर्थशास्त्र
की कोटियों का निर्माण किया ताकि पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के आर्थिक तर्क का
व्यवस्थित विश्लेषण किया जा सके । हालांकि ग्रंथ पूरा तो न हो सका फिर भी इस
विश्लेषण के मुताबिक पूंजीवाद में दो प्रमुख विरोध बताये गये । एक तो पूंजी और
श्रमिक के बीच जिसका आधार उत्पादन के दौरान मजदूरों का शोषण है और दूसरा आपस में
प्रतियोगी विभिन्न ‘पूंजियों’ के बीच जिसमें पूंजीपति वर्ग ही विभाजित हो जाता है
। इन विरोधों की अंत:क्रिया के दौरान पूंजी संचय का प्रतियोगी दबाव पैदा होता है
जिसके तहत मुनाफ़े को विस्तारित उत्पादन के लिए फिर से निवेशित किया जाता है । इसी
प्रक्रिया में नियमित और विध्वंसक आर्थिक संकट पैदा होते हैं । इन संकटों की
बारम्बारता को मार्क्स ने सबसे पहले पहचाना था । 3) यह विश्लेषण पूंजीवाद को उसके
वास्तविक रूप में और ऐतिहासिक रूप से विकासमान विश्व व्यवस्था मानकर किया गया है ।
असल में कम्युनिस्ट घोषणापत्र में ही मार्क्स और एंगेल्स ने बताया था कि उन्नीसवीं
सदी का औद्योगिक पूंजीवाद एकल विश्व अर्थतंत्र का निर्माण करके दुनिया को बदल रहा
है । 1840 दशक के मध्य से अपने आर्थिक और ऐतिहासिक अध्ययनों में उन्होंने इस
प्रक्रिया के ठोस रूपों की तलाश शुरू कर दी थी । साथ में उन्होंने यह भी देखने की
चेष्टा की कि यूरोपीय औपनिवेशिक प्रसार ने पूंजी संचय को बढ़ाने में किस तरह मदद की
है । 1848 की क्रांति की विफलता के बाद लंदन के दीर्घ प्रवास में मार्क्स ने न
केवल प्राक पूंजीवादी समाजों में पूंजीवादी प्रसार का असर देखा बल्कि सामुदायिक
संपत्ति संबंधों, उपनिवेशवाद के प्रतिरोध के तरीकों तथा परिवार के इतिहास और
स्त्री की स्थिति संबंधी छानबीन भी की ।
इस प्रकार राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्सी
आलोचना उनके समकालीनों से एकाधिक मामलों में अलग है । सबसे पहले उसकी बौद्धिक
गहराई और स्तर का कोई मुकाबला नहीं है । इसके बावजूद इस आलोचना का अभिन्न संबंध
उदीयमान मजदूर आंदोलन से है । मार्क्स और एंगेल्स जर्मन दर्शन की परम्परा में
दीक्षित थे और उसमें आलोचना का अर्थ नकारात्मक या विध्वंसात्मक आलोचना नहीं होता
बल्कि उन सीमाओं को पहचानने की कोशिश होता है जिनकी उपेक्षा से गलत नतीजे निकलेंगे
। इसी वजह से उन्होंने पूंजीवाद को स्वाभाविक मानने वाले अर्थशास्त्रियों की
विस्तार से आलोचना की । मार्क्स यहीं तक नहीं रुके । उन्होंने अपनी आलोचना में
पूंजीवादी व्यवस्था के आर्थिक तर्क की पुनंरचना के लिए राजनीतिक अर्थशास्त्र की
ऐसी धारणाओं और सिद्धांतों का इस्तेमाल किया जो इस तर्क को उद्घाटित करने के साथ
छिपाते भी हैं । कारण कि 1840 के बाद से ही वे शुद्ध सैद्धांतिक आलोचना को
अपर्याप्त समझने लगे थे और अपने बौद्धिक कर्म को मौजूदा व्यवस्था की वास्तविक
व्यावहारिक आलोचना से जोड़ने लगे थे । राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना के विकास के
साथ सर्वहारा दार्शनिक पुछल्ला नहीं रह जाता । पूंजीवादी शोषण का शिकार होने के
साथ ही वह कम्युनिस्ट रूपांतरण का सक्रिय कारक भी बन जाता है ।
‘पूंजी’ में यह धारणा चरम पर पहुंची हुई है ।
ब्रिटेन के समाजवादियों ने 1820 और 1830 दशक में ही रिकार्डो के मूल्य के श्रम
सिद्धांत के आधार पर कहा कि यदि पूंजी संचित श्रम है तो व्यक्तियों और राष्ट्रों
के लिहाज से न्याय की बात यही होगी कि श्रमिक को उसके समूचे उत्पाद पर हक मिले ।
मार्क्स ने इस तर्क को अन्याय की भाषा से बाहर निकाला और कहा कि चूंकि जीवित
श्रमिक मूल्य का एकमात्र स्रोत है इसलिए मुनाफ़ा वह अतिरिक्त मूल्य है जिसे पूंजी
हड़प लेती है । इसका कारण मोल तोल के मामले में पगारजीवी श्रमिक की कमजोरी है ।
पूंजी के साथ विनिमय हेतु उसके पास केवल श्रमशक्ति होती है जिसे पूंजी के कब्जे
में मौजूद उत्पादन के साधनों तक गये बिना सक्रिय नहीं किया जा सकता । लेकिन पूंजी
भी श्रमिक के शोषण पर ही निर्भर होती है इसलिए श्रमिकों के पास न केवल इसके
प्रतिरोध बल्कि समूची व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की संरचनागत शक्ति आ जाती है ।
मार्क्स का यह भी कहना है कि संचय का दीर्घकालीन परिणाम समाज के ध्रुवीकरण में
निकलता है क्योंकि आवर्ती संकटों के जरिये आर्थिक शक्ति पूंजीपतियों के लगातार कम
होते समूह में संकेंद्रित होती जाती है । इससे समाजवादी क्रांति की परिस्थितियों
का निर्माण होता है । इस तरह राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना मजदूर वर्ग की आत्म
मुक्ति की राजनीतिक परियोजना में पर्यवसित होती है ।
‘पूंजी’ लिखते हुए मार्क्स प्रथम इंटरनेशनल की अगुवाई
कर रहे थे । यह संगठन ब्रिटेन और यूरोप के ट्रेड यूनियनों और समाजवादी समूहों का संयुक्त
मोर्चा था । इसका अंत मार्क्स के समर्थकों और अराजकतावादियों की खींचतान के चलते हुआ
। इससे सिद्ध है कि इसमें विभिन्न विचारधाराओं के लोग यूरोप के उदीयमान मजदूर आंदोलन
को प्रभावित करने की कोशिश करते थे । बहरहाल इंटरनेशनल में मार्क्स की अहमियत का कारण
मजदूर वर्ग के हित में राजनीतिक कार्यक्रम के प्रति उनका बौद्धिक समर्पण था । वे मानते
थे कि वर्ग संघर्ष के जरिये मजदूर खुद की मुक्ति में सक्षम हैं । राजनीतिक अर्थशास्त्र
की आलोचना को मजदूर वर्ग की आत्म मुक्ति की राजनीति के साथ जोड़ने से वह मार्क्सवाद
उपजा जो इन दोनों के देहांत के बाद मजदूर वर्ग की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों का दिशा
निर्देशक रहा । मार्क्सवाद और उससे जुड़े चिंतकों में इतनी भारी विविधता रही थी कि उन्हें
एक साथ रखकर देखना मुश्किल है फिर भी चार प्रकार से उन्हें वर्गीकृत किया जा सकता है
।
इसका पहला चरण उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में सामने आया जब समाजवादी विचारधारा के सबसे व्यवस्थित रूप के बतौर मार्क्सवाद उभरा और भारी जन समर्थन वाली समाजवादी पार्टियों का उदय हुआ । इसके बाद बीसवीं सदी की शुरुआत में उस पर वाम और दक्षिण दोनों की ओर से हमला हुआ और प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने के साथ इसमें दरार पड़ गयी । दूसरा चरण 1917 की अक्टूबर क्रांति के साथ शुरू होता है जिसके बाद मजदूर आंदोलन क्रांतिकारी और सामाजिक जनवादी खेमों में विभाजित हो गया । इससे तीसरे चरण की बुनियाद पड़ी जिसके तहत कम्युनिस्ट आंदोलन और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलनों के बीच संवाद कायम हुआ । आखिरकार चौथा चरण 1968 में दिखायी पड़ा जिसमें आधिकारिक और सामाजिक जनवादी वामपंथ से असंतुष्ट क्रांतिकारी वामपंथ का बड़े पैमाने पर उभार हुआ और मजदूर वर्ग के विद्रोह भी फूट पड़े । यह तो मार्क्सवाद का राजनीतिक इतिहास हुआ । इसका अर्थ यह नहीं कि मार्क्सवाद से जुड़ी हरेक चीज को विश्लेषण, रणनीति और संगठन की राजनीतिक समस्याओं तक सीमित किया जा सकता है । कारण कि समकालीन मार्क्सवाद में बौद्धिक गवेषणा और वामपंथी पार्टियों के बीच का जुड़ाव ढीला पड़ा है । लेकिन सिद्धांत और व्यवहार की एकता की सोच अब भी इन कोशिशों को निर्देशित करती है ।
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