हर एक दौर अपनी युगीन समस्याओं और चुनौतियों के
अनुसार अतीत की पुनः व्याख्या करता है। महान विभूतियों के साथ हमारे संबंध भी इसी
आधार पर पुनर्व्याख्यायित होते हैं । यह सही बात है कि एक समय में मार्क्सवादियों
से गांधी जी के संबंध बहुत अच्छे नहीं थे । उनके बीच का यह विरोध कई स्तरों पर
दिखता है। दोनों विचारधाराओं के बीच एक प्रकार की राजनीतिक प्रतियोगिता भी मिलती
है और गांधी के जीवित रहते और उनके बाद भी यह अंतर्विरोध सामने आता है क्योंकि
सत्तारूढ़ लोगों ने स्वयं को गांधी के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत किया और मार्क्सवादी
विचारधारा को लेकर सत्ता के विरोध का तात्पर्य सीधे तौर पर गांधी जी का विरोध माना
गया किंतु आज के दौर में यह विरोध है, या नहीं हमें यह देखना होगा । आज के
दौर में गांधी को एक मार्क्सवादी नजरिये से पुनर्व्याख्यायित करने की आवश्यकता है ।
इस सिलसिले में याद रखना चाहिए कि भारत को एशियाई जागरण का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता रहा है । स्वाधीनता से पूर्व भारत की आत्मछवि पूंजीवाद के विरोधी की रही है क्योंकि जिस व्यवस्था से मुक्ति पानी थी वह विश्व पूंजीवाद की व्यवस्था थी और ब्रिटेन उसका केंद्र था । भारत की एकता के संदर्भ में लिखते समय अनेक लेखकों की सोच सामान्यतः इस भावना से आक्रांत रही है कि अंग्रेजों ने हिंदुस्तान को एक किया । गांधी ’हिंद स्वराज’ में इस पूर्व प्रचलित सोच का पूर्णतः खंडन करते हुए लिखते हैं कि जगह-जगह जो कांग्रेस हुई, उसने इस देश के लोगों में- हम एक हैं- का भाव पैदा किया । वे इस बात के प्रबल समर्थक हैं कि भारत की एकता अंग्रेजों के द्वारा उत्पन्न नहीं है, अपितु अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के दौरान उत्पन्न हुई है । वह अंग्रेजों की बनाई हुई एकता कदापि नहीं है। गांधी का यह आत्मविश्वास था कि इतनी विविधता से भरे देश में साम्राज्यवाद के विरुद्ध और अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए आपसी एकता कायम हुई है । उसके मुकाबले आज हम जिस आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं या जिस नये आत्मविश्वास का जिक्र करते हैं तो यह विचार करना होगा कि क्या यह केवल सूर्य से उधार ली हुई रोशनी से चमकते चंद्रमा की तरह उधार लिया हुआ आत्मविश्वास है या गांधी जी के कथन के अनुसार लड़कर और संघर्ष कर हासिल किया हुआ आत्मविश्वास है । वह एक सामूहिक संघर्ष था और साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ने वाले समूहों में भारत की उस समय अग्रगण्य भूमिका थी । गांधी साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई का एक बहुत महत्त्वपूर्ण नाम है इसीलिए साम्राज्यवाद पर बात करते हुए हम उन्हें नहीं छोड़ सकते । साम्राज्यवाद न केवल पुराने समय में रहा अपितु यह अब भी हमारे समय और समाज में मौजूद एक महत्त्वपूर्ण विमर्श है अतः इस संदर्भ में गांधी सदैव प्रासंगिक रहेंगे ।
ड्यु बोइस ने कहा है कि रंगभेद
को समाप्त किए बिना साम्राज्यवाद के खात्मे की लड़ाई को अंतिम मुकाम तक नहीं पहुंचाया
जा सकता और
गांधी ने भी इस रंगभेद का प्रबल विरोध किया था । दक्षिण
अफ्रीका में रंगभेद और नस्ली शासन के खिलाफ लड़ने वालों
को गांधी से प्रेरणा मिली
थी । इस प्रकार साम्राज्यवाद का एक मुख्य
लक्षण रंगभेद की नीति ठहरता है और इस नीति के विरोध के
साथ गांधी का गहरा संबंध है । यही चीज
उनके उपनिवेशवाद विरोध को पारंपरिक विरोध की पद्धतियों से अलग करती है । गांधी
उपनिवेशवाद को केवल आर्थिक शोषण तक ही नहीं सीमित मानते बल्कि सांस्कृतिक शोषण तक भी ले जाते हैं ।
उन्होंने स्वाधीनता प्राप्ति के दिन कहा था ’दुनिया वालों से
कह दो कि गांधी अंग्रेजी भूल गया है ।’ गांधी एक चुनौतीपूर्ण व्यक्तित्व हैं, वे
मामूली से प्रश्नों पर भी बड़ी बात कह जाते हैं। हिंद स्वराज में हिंदी भाषा के
विषय में वे लिखते हैं कि हिंदी राष्ट्रभाषा हो लेकिन उसे नागरी और फारसी दोनों
लिपियों में लिखने की इजाजत होनी चाहिए । आज तक किसी भी हिंदी के पैरोकार ने न तो इस
नीति को समर्थन प्रदान किया है, न ही ऐसा कोई प्रयास करते हुए दिखते
हैं कि
हिंदी दोनों लिपियों में लिखी जा सके ।
साम्राज्यवाद की समस्या को गांधी ने कई स्तरों
पर महसूस किया था। आज हमारा देश जिस आर्थिक मंदी का सामना कर रहा है वह इसलिए
क्योंकि उपनिवेशवाद विरोधी देशों के समूह से अलग
होकर हम सीधे साम्राज्यवादी देशों से प्रभावित हो रहे हैं । गांधी ने राष्ट्रवाद की ऐसी अवधारणा
विकसित की जो भौगोलिक राष्ट्रवाद के रूप में हमें दिखाई देती है
और सांस्कृतिक
राष्ट्रवाद का विरोध करती है इसीलिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पहला शिकार भी गांधी
ही बने । वास्तव में हमें ऐसा ही राष्ट्रवाद चाहिए था जिसमें हमें आंतरिक दुश्मन
न खोजने पड़ें बल्कि सभी को एकजुट होकर साम्राज्यवाद
के खिलाफ गोलबंद किया जा सके। साम्राज्यवाद के खिलाफ यह गोलबंदी ही सबकी एकता को
सीमेंट करने का काम करती है यानि जोड़ती और
मजबूत करती है ।
लेकिन आज के दौर में हम जैसे साम्राज्यवाद के सामने समर्पण करते जा रहे हैं वह
चिंतनीय है ।
हमें साम्राज्यवाद विरोधी उसी अवधारणा को पुनर्जीवित करना होगा क्योंकि भारत की आत्मछवि
साम्राज्यवाद विरोधी की रही है, किसी
साम्राज्यवाद पोषक देश का गुलाम बनने की नहीं ।
गांधी अहिंसा और शांति की बात करते हैं । शांति की बात मार्क्सवादी भी करते हैं क्योंकि युद्ध अनिवार्यतः पूंजीवाद से गहन रूप से जुड़ा हुआ है। पूंजीवाद सारे विश्व को फिर फिर बांटने की कवायद करता है और उस क्रम में युद्ध होते हैं। इस प्रकार युद्ध साम्राज्यवाद से गहन रूप से जुड़ा हुआ है । आज शांति एक बहुत बड़ा प्रश्न है क्योंकि धरती ही नहीं अंतरिक्ष में भी युद्ध, परमाणु अस्त्र शस्त्र आदि संबंधी तमाम प्रयास चल रहे हैं । जैसे-जैसे मंदी आ रही है, वैसे-वैसे युद्ध सम्बन्धी इन सामग्रियों की बिक्री कम हो रही है । इसीलिए इनकी बिक्री के लिए पूंजीवाद को युद्ध चाहिए ही चाहिए, जिसका उदाहरण हमारे सामने पहले से द्वितीय विश्व युद्ध के रूप में मौजूद है । इस तरह वैश्विक शांति के संदर्भ में गांधी की प्रासंगिकता स्वयंसिद्ध है।
मार्क्स एवं गांधी की
जो छवि बनाई गई है, उसे फिर से समझना और गुनना होगा। हिंद स्वराज में गांधी कहते हैं कि केवल अर्जी देना ही महत्त्वपूर्ण नहीं है
बल्कि उस अर्जी के पीछे कितना जनबल है, यह महत्त्वपूर्ण है । यानि हमने कोई
अर्जी प्रदान की, उस पर विचार किया जाएगा या नहीं इसके लिए उस अर्जी से भी अधिक
महत्त्वपूर्ण है कि उसके पीछे कितना जनबल है। वर्तमान समय में कई बार लोग यह कहते
पाए जाते हैं कि हम हार गए, इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि किसी
भी आंदोलन के विषय में हार जीत का निर्णय हम इस आधार पर नहीं कर सकते कि हमने अपने
मांगपत्र में से कितनी मांगों को मनवा लिया बल्कि उन मांगों के पीछे तैयार या उसके
समर्थन में खड़े जनबल को देखना होगा। गांधी ने भौतिक तौर पर भले ही कोई लड़ाई नहीं
जीती किंतु उनकी सफलता का पैमाना भिन्न था । वे मानते थे कि लोगों की हिम्मत बढ़ाना, लोगों को घरों
के बाहर ले आना, उन्हें सामाजिक भूमिका निभाने में सक्षम बनाना
किसी भी लड़ाई में सफलता का पैमाना है और यही बात गांधी को बार-बार हारने के बाद भी
फिर से उठकर लड़ने की प्रेरणा देती थी । सुमित सरकार अपनी पुस्तक में इस बात को रेखांकित करते हैं कि
कांग्रेस की इज्जत तब लोगों की निगाह में बढ़ जाती थी जब वे देखते थे कि अंग्रेज
कांग्रेस से बात कर रहे हैं । आज के दौर में भी हमें गांधी से यह
सीखना होगा कि सिर्फ जीतने की ही बात नहीं बल्कि सफलता इस बात पर निर्भर करती है
कि हम कितने लोगों को खड़ा होने का साहस प्रदान कर सके हैं । जनबल महत्त्वपूर्ण है और यही सफलता
मापने का उचित पैमाना भी है।
आज सत्तारूढ़ लोग यह तथ्य भुलवा देना चाहते हैं कि गांधी की हत्या हुई थी किंतु गांधी स्वयं इस बात को जानते थे कि समाज में जितने बड़े पैमाने पर वे परिवर्तन करना चाहते हैं, यह एक दिन उनके प्राण भी ले सकता है । हिंद स्वराज में वे एक ऐसे समाज का स्वप्न देखते हैं कि अगर कोई मुसलमान भाई को मारना चाहेगा तो गाय को बचाने के बजाय मैं अपने भाई के लिए मर जाना पसंद करूंगा। वे धार्मिक भेदभाव के पूर्ण रूप से विरोधी थे । वे एक बड़े समाज सुधारक के रूप में हमारे सामने आते हैं । खिलाफत आंदोलन के पहले और बाद में वे किसी भी धार्मिक आंदोलन में शामिल नहीं हुए। उन्होंने अछूतोद्धार के अनेक प्रयास किये और इसी दौरान उन पर जानलेवा हमले भी हुए । जीवन के अंतिम समय में उन्होंने कहा था मैं सिर्फ अंतरजातीय विवाहों में सम्मिलित होऊँगा । अंतरजातीय विवाह जातिवाद के खात्मे का एक ओर महत्त्वपूर्ण मार्ग हैं, तो दूसरी ओर स्त्री के प्रसंग में उसकी स्वतंत्रता का उद्घोष भी । अंतरजातीय विवाह का अर्थ ही है स्त्री की जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता । इसी प्रकार उन्होंने समाज सुधार की दिशा में अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाये। गांधी अत्यधिक केंद्रीकरण के विरोधी थे और पूंजीवाद के भी । इसीलिए आज के समय में जिस प्रकार पूंजीवाद हावी होता जा रहा है, और हम ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहां सिर्फ पूंजी ही सर चढ़कर बोलती है, ऐसे में पूंजीवाद विरोध के पैरोकार के रूप में गांधी जी सदैव प्रसंगिक और स्मरणीय रहेंगे।
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