लगता है जैसे हमारे वर्तमान में अतीत घुसा आ रहा हो । कोई साल नहीं बीतता जो किसी घटना की सालगिरह न हो । पिछला साल मार्क्स के जन्म का दो सौवां साल और 1968 के विद्रोहों का पचासवां साल था ।
उससे पिछला रूसी क्रांति की शतवार्षिकी था । मार्क्स के अनन्य मित्र और सहकर्मी एंगेल्स के जन्म
की दो सौवीं सालगिरह इस साल है । सदी के मोड़ पर इतिहास ने हमारी चेतना को इस कदर जकड़ रखा है कि वाम या दक्षिण किसी भी खेमे को पूरी जीत की खुशी मनाने की हिम्मत नहीं हो रही । हो सकता है यह तथ्य अनदेखा ही गुजर जाए कि यह साल भी एक ऐसी घटना की तीसवीं सालगिरह है जिसे केवल घटना कहना उसके साथ न्याय नहीं होगा । बर्लिन की दीवार के गिरने से जो प्रक्रिया शुरू हुई वह अमेरिकी कारनामों और लैटिन अमेरिकी देशों की घटना-दुर्घटनाओं के चलते नजर भले न आए लेकिन अनेक रूपों में अब भी जारी है ।
इसमें उस समय तो वामपंथ की हार नजर आई थी लेकिन जो जीत हुई थी उसके भयावह परिणाम
पहले तो बोस्निया हर्जेगोविना में, फिर अकेली विश्वशक्ति के उद्दंड आचरण में और
उसके बाद पूंजीवाद के आदमखोर चरित्र की वापसी में प्रकट हुए ।
कहने की जरूरत नहीं कि 1989 में जब एकाएक
सोवियत संघ और उसके समर्थक पूर्वी यूरोप के शासन गिरने शुरू हुए तो समूची दुनिया
में वामपंथी ताकतों को बड़ा सदमा लगा । इसलिए उसको समझने या उसके बारे में बातचीत
भी तत्काल नहीं शुरू हुई । उस समय तो अंतों का कानफोड़ शोर गूंज रहा था । इतिहास के
अंत से लेकर विचारधारा के अंत तक की ऐसी दम्भपूर्ण प्रबल घोषणाएं सुनाई पड़ती थीं
कि लगता था मानवता भविष्यविहीन हो गई है । इस भविष्यविहीन समय में जो यथार्थ उभरना
शुरू हुआ उसमें इतनी हिंसा थी कि दिमाग काम नहीं करता था । फिर तो अंतहीन युद्ध और
बरबादी की शुरुआत हुई । एकबारगी आरम्भिक झटके से उबरने के बाद उस विमर्श को
पहचानने की कोशिश होने लगी जो समूची बीसवीं सदी में उस ऐतिहासिक क्रांति और उससे
उपजी सत्ता के चलते निर्मित हुआ था । यहां तक कि उस साल की विशेषता को भी ग्रहण
करने में थोड़ा समय लगा था ।
जिस
तरह 68 का तूफ़ानी साल साल भर के भीतर लगभग समूची दुनिया को उलट पुलट गया था उसी
तरह का तूफ़ानी साल 1989 भी था । इसके बारे में 2004 में वारविक विश्वविद्यालय के रोबिन ओके की किताब
‘द डिमाइस आफ़ कम्युनिस्ट ईस्ट यूरोप: 1989 इन
कानटेक्स्ट’ का प्रकाशन आर्नल्ड द्वारा हुआ । किताब में उस
दौर को ऐतिहासिक मानते हुए एक साथ सभी मुल्कों में कम्युनिस्ट सत्ता के बिखराव को
समझने की कोशिश की गई है । लेखक मानते हैं कि यह साल 1789, 1848 या 1917 जितना ही
निर्णायक था । पूर्वी यूरोप के देशों में कम्युनिस्ट सत्ता के बिखराव पर चीत्कार
भरा आनंद देखने में आया था । उसके कारणों, गतिपथ और नतीजों का विवेचन इस किताब का
घोषित मकसद है ।
इस संदर्भ में सबसे पहले यह याद करना उचित होगा
कि बर्लिन की दीवार गिरने के साथ जिस शीतयुद्ध का खात्मा माना जा रहा था उसकी
वापसी की आहट भी सुनाई दे रही है । 2018 में मंथली रिव्यू प्रेस से जेरेमी कुज़्मारोव और
जान मरकियानो की किताब ‘द रशियंस आर कमिंग, अगेन: द फ़र्स्ट कोल्ड वार ऐज
ट्रेजेडी, द सेकंड ऐज फ़ार्स’ का
प्रकाशन हुआ । हाल के दिनों में रूस के शैतानीकरण की कोशिशों के संदर्भ में यह
किताब लिखी गई है । यहां तक कि अभी 2020 में प्लूटो प्रेस से ग्रेग मैकलागिन की किताब
‘रशिया ऐंड द मीडिया: द मेकिंग आफ़ ए न्यू कोल्ड वार’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का
कहना है कि 1980 दशक में शीतयुद्ध की राजनीति और प्रचार के चलते अस्थिरता का जन्म
हुआ । तब लेखक किशोर थे और परमाणु युद्ध की आशंका से जी छुड़ाने के लिए किताबों में
डूबे रहते थे । ये किताबें हिरोशिमा और नागासाकी के बारे में थीं, उनमें अमेरिका
और सोवियत संघ की शत्रुता का जिक्र होता था तथा उनमें लोकतंत्र और आजादी की भी
व्याख्या होती थी । इनमें कम्युनिज्म को शैतानी बताया जाता था । फिर लेखक ने रूस
के अतिरिक्त अन्य जगहों के क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ाई शुरू की । इन सबसे
दिमाग में भारी भ्रम फैला लेकिन शीतयुद्ध के बारे में जानने समझने का और कोई
रास्ता भी नहीं था ।
बाद में वे संचार
अध्ययन में स्नातक हुए और विश्वविद्यालय से 1988 में रीगन गोर्बाचोव की शिखर
वार्ता की छपी खबरों का विश्लेषण कर शोधोपाधि प्राप्त की । उस समय दोनों
महाशक्तियों की वैचारिक शत्रुता ठंडी पड़ती महसूस हो रही थी । इसके बाद सोवियत संघ
की बदलती छवि पर आगे शोध करने का निश्चय किया । पूर्वी यूरोप के शासन भहरा रहे थे,
शीतयुद्ध की पहचान बर्लिन की दीवार गिरा दी गई थी और 1991 के आते आते जर्मनी का
एकीकरण हुआ तथा सोवियत संघ समाप्त हो गया । शीतयुद्ध अतीत की बात हो गई और लोग
परमाणु बम की बात लगभग पूरी तरह भूल गए । इसके बावजूद शीतयुद्ध की भाषा नहीं
समाप्त हुई । दस से भी कम सालों में पुतिन के रूप में मीडिया ने नया दुश्मन खोज
लिया और उसी भाषा में उसकी तस्वीर गढ़ी जाने लगी ।
2008 में सेंट्रल यूरोपीयन यूनिवर्सिटी प्रेस से ओक्साना सर्किसोवा और पीटर
अपोर के संपादन में ‘पास्ट फ़ार द आईज: ईस्ट
यूरोपीयन रिप्रेजेन्टेशंस आफ़ कम्युनिज्म इन सिनेमा ऐंड म्यूजियम्स आफ़्टर
1989’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों का कहना है कि कम्युनिस्ट शासन के
बिखराव और प्रतिबंधित सूचनाओं के खुलने से पूर्वी यूरोप का अतीत नए रूप में प्रकट
हो रहा है । इस सिलसिले में उन्हें दृश्य और लिखित दस्तावेजों की तुलनात्मक
उपयोगिता की परीक्षा जरूरी लगती है । पहले लिखित पाठ की प्रामाणिकता अधिक समझी
जाती थी । उसके मुकाबले नए समय में छवियों का संसार अधिक प्रभावी हो चला है ।
2008 में सेंट्रल यूरोपीयन यूनिवर्सिटी प्रेस से मिशाल कोपेचेक के संपादन में
‘पास्ट इन द मेकिंग: हिस्टारिकल रिविजनिज्म इन
सेंट्रल यूरोप आफ़्टर 1989’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों का
कहना है कि इस साल को ठीक ही मध्य और पूर्वी यूरोप में युग विभाजक साल माना जाता
है । इस साल न केवल समाजार्थिक और राजनीतिक संगठन में बुनियादी फेरबदल हुआ बल्कि
व्यक्तियों के जीवन प्रवाह में भी मोड़ आया । व्यक्तियों के जीवन के विभिन्न चरण
व्यापक इतिहास के बदलावों की संगति या विसंगति से जुड़े होते हैं और इनके चलते ही
इतिहास की धारा सीधी रेखा में नहीं चलती । इस साल पुराने शासनों की जगह उदार
लोकतंत्र का आगमन सुनाई पड़ा । इसके साथ वैश्वीकरण और उत्तर आधुनिकता का भी अनुभव
हुआ ।
2008 में द यूनिवर्सिटी आफ़ मिशिगन प्रेस से कैथरीन पेन्स और पाल बेट्स के संपादन
में ‘सोशलिस्ट माडर्न: ईस्ट जर्मन एवरीडे
कल्चर ऐंड पोलिटिक्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों का कहना है कि
1989 में जर्मनी के एकीकरण ने पूर्वी जर्मनी के साम्यवादी प्रयोग को
समाप्त भले कर दिया लेकिन उस प्रयोग का ऐतिहासिक आकलन शेष है । इस एकीकरण ने
जर्मनी के इतिहास को शीतयुद्ध की छाया से अचानक मुक्त कर दिया । एकीकृत जर्मनी के
अतीत की बात होने लगी । असल में शीतयुद्धोत्तर भूराजनीति में जर्मनी की जगह बदल गई
जिससे उसके अतीत को नई रोशनी में देखना जरूरी लगने लगा ।
2009 में यूनिवर्सिटी आफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस से जोशुआ क्लोवर की किताब ‘1989: बाब डिलन डिडन’ट हैव दिस टु सिंग एबाउट’ का प्रकाशन हुआ । लेखक के
मुताबिक यह साल दुनिया में कई बदलावों के लिए याद रखा जाएगा । फ़्रांसिसी क्रांति
की दो सौवीं सालगिरह के इस साल में बास्तील का किला टूटने के दिन पेरिस में अमीर
देशों की संस्था जी-7 का सम्मेलन हो रहा था । चीन में
तिएनमान चौराहे पर हुए छात्र प्रदर्शनों का दमन इसी साल हुआ । पूर्वी और पश्चिमी
जर्मनी के बीच की बर्लिन की दीवार भी इसी साल गिरी । इस तरह यह साल 1945 के बाद
सर्वाधिक घटनाओं से भरा हुआ साल रहा । इस तीव्र बदलाव को ही समझने के क्रम में 2004
में वारविक विश्वविद्यालय के रोबिन ओके की किताब ‘द डिमाइस आफ़ कम्यूनिस्ट ईस्ट यूरोप: 1989 इन
कानटेक्स्ट’ का प्रकाशन आर्नल्ड द्वारा हुआ । किताब में उस
दौर को ऐतिहासिक मानते हुए एक साथ सभी मुल्कों में कम्यूनिस्ट सत्ता के बिखराव को
समझने की कोशिश की गई है ।
2011 में प्लूटो प्रेस से गारेथ डेल के संपादन में ‘फ़र्स्ट
द ट्रांजीशन, देन द क्रैश: ईस्टर्न यूरोप
इन द 2000स’ का प्रकाशन हुआ । किताब पूर्वी
यूरोप के मुल्कों में समाजवादी सत्ता के ढहने के बाद की प्रक्रिया का अध्ययन करने के
लिहाज से छापी गई है । शुरू में संपादक की भूमिका के अलावा एक लेख 1989 को मार्क्स की नजर से विश्लेषित करते हुए शामिल किया गया है । इसके बाद किताब
दो भागों में विभाजित है । पहले भाग में तीन लेखों में पुतिन के समय वर्गों और सत्ता
की स्थिति का विवेचन है । दूसरे भाग के छह लेख क्रमश: लातविया,
यूक्रेन, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया,
हंगरी तथा सर्बिया में बाजारोन्मुखी सुधारों और तज्जनित संकट का वर्णन
करते हैं । अंत में संपादक ने उपसंहार लिखा है ।
पूर्व
समाजवादी देशों में पिछले तीस सालों के हालात जानने में क्रिस्टेन घोडसी की
किताबों से बहुत मदद मिलती है । उनकी पहली किताब 2010 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से ‘मुस्लिम लाइव्स इन ईस्टर्न यूरोप: जेन्डर, एथनिसिटी, ऐंड द ट्रान्सफ़ार्मेशन आफ़ इस्लाम इन पोस्ट
सोशलिस्ट बुल्गारिया’ का प्रकाशन हुआ । किताब इन मुल्कों के
एक नए पहलू को सामने ले आई है । दूसरी 2011 में ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस से ‘लास्ट
इन ट्रान्जीशन: एथनोग्राफीज आफ़ एवरीडे लाइफ़ आफ़्टर कम्युनिज्म’ का प्रकाशन हुआ ।
लेखिका का कहना है कि बीसेक साल पहले सोवियत साम्राज्य ध्वस्त हुआ था । इतिहास के
करवट बदलते ही एक समूची राजनीतिक आर्थिक प्रणाली अतीत की बात हो गई । वह व्यवस्था
इतनी क्रांतिकारी विचारधारा पर आधारित थी कि बीसवीं सदी के शायद ही किसी व्यक्ति
पर उसका असर न रहा हो । 1945 के बाद समूची दुनिया में दैनन्दिन जीवन ऐसी वैश्विक
होड़ से संचालित होता था जिसके चलते धरती ही हिंसक आत्मसंहार की ओर बढ़ी प्रतीत होने
लगी थी । तापवृद्धि और जलवायु बदलाव के इस दौर में इसकी याद शायद ही किसी को हो कि
कुछ ही दिन पहले परमाणु युद्ध के विनाश की आशंका सबको हुआ करती थी । लेखिका की
किशोरावस्था आपसी विनाश की इसी आशंका में बीता था । इनकी विचारधारा बहुत सहज थी । समझना
बस यही था कि मुनाफ़े की जड़ क्या है, वर्ग टकराव से मानव इतिहास आगे बढ़ता है और हम
सब अधिकाधिक सामाजिक न्याय की ओर प्रगति कर रहे हैं । तीसरी 2015 में ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस से ‘द लेफ़्ट साइड आफ़
हिस्ट्री: वर्ल्ड वार II ऐंड द
अनफ़ुलफ़िल्ड प्रामिस आफ़ कम्यूनिज्म इन ईस्टर्न यूरोप’ का
प्रकाशन हुआ । चौथी किताब ‘रेड हैंगओवर: लीगेसीज आफ़ ट्वेन्टीएथ-सेन्चुरी कम्यूनिज्म’ का प्रकाशन 2017 में ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस से हुआ । किताब को चार भागों में बांटा गया है ।
पहले भाग के चार लेखों में समाजवाद के खात्मे के बाद की अवस्था के बारे में विवेचन
है । दूसरे भाग के तीन लेखों का विषय अलग हुए टुकड़ों को फिर से एकत्र करने की
प्रक्रिया का अध्ययन है । तीसरे भाग में भी तीन ही लेख हैं और इनमें इतिहास को
मिटा देने की कोशिशों का जायजा लिया गया है । चौथे भाग के पांच लेखों के जरिए इन
मुल्कों में स्थापित लोकतांत्रिक शासन की समस्याओं को उजागर किया गया है । उनकी सबसे
नई किताब ‘ह्वाइ वीमेन हैव बेटर सेक्स अंडर सोशलिज्म: ऐंड
अदर आर्गुमेन्ट्स फ़ार इकोनामिक इनडिपेंडेन्स’ का प्रकाशन 2018
में नेशन बुक्स से हुआ है । पिछले दो दशकों
से लेखिका पूर्वी यूरोप में राजकीय समाजवाद से राजनीतिक और आर्थिक संक्रमण के सामाजिक
असरात का अध्ययन कर रही हैं । बर्लिन की दीवार गिरने के कुछ महीने बाद ही उन्होंने
इस क्षेत्र की यात्रा की लेकिन शोध 1997 से शुरू किया । इन यूरोपीय
देशों में कम्यूनिस्ट विचारधारा के खात्मे का सामान्य लोगों पर पड़े प्रभाव की पड़ताल
करने में उन्हें रुचि थी । उन्हें इस पूरे क्षेत्र में नवउदारवादी पूंजीवाद द्वारा
मचाई तबाही के दर्शन हुए । उन्होंने देखा कि अनियंत्रित मुक्त बाजार ने स्त्रियों को
पहले के समाजी हालात में हासिल आर्थिक स्वाधीनता खत्म करके उन्हें पुरुषों पर फिर से
निर्भर बना दिया है । सभी समझ सकते हैं कि समाजवादी शासन की समाप्ति का सबसे
नुकसानदेह असर स्त्री समुदाय को झेलना पड़ा । इसी प्रसंग में सामाजिक बदलाव को
स्त्री समुदाय की निगाह से समझने के लिए 2007 में इंडियाना यूनिवर्सिटी
प्रेस से जेनेट एलिस जानसन और ज्यां सी राबिन्सन के संपादन में ‘लिविंग जेंडर आफ़्टर कम्यूनिज्म’ शीर्षक किताब प्रकाशित
हुई । संपादकों की भूमिका के अलावे किताब चार भागों में बंटी है ।
इस प्रक्रिया
का अध्ययन नई सदी के आगमन से पहले या कहें कि बर्लिन की दीवार गिरने के दस साल बाद
ही शुरू हो गया था । सबूत है कि 1998 में रटलेज से स्यू ब्रिजेर और फ़्रान्सेस पाइन
के संपादन में ‘सर्वाइविंग पोस्ट-सोशलिज्म: लोकल स्ट्रेटेजीज ऐंड रीजनल
रिस्पान्सेज इन ईस्टर्न यूरोप ऐंड द फ़ार्मर सोवियत यूनियन’ का प्रकाशन हुआ । किताब
की खास बात समाजवादी शासनों के खात्मे के बाद की प्रक्रिया की इकहरी तस्वीर पेश
करने की जगह अलग अलग देशों में उसकी विशेषता को प्रकट करना है । किताब की
प्रस्तावना लिखते हुए सी एम हान ने इस प्रक्रिया की तुलना इंग्लैंड में अठारहवीं
सदी के उत्तरार्ध के बदलावों से की है जब वहां के प्रधानत: ग्रामीण समाज को आर्थिक
संगठन और संपत्ति संबंधों के मामले में भारी बदलाव झेलना पड़ा था । कार्ल पोलान्यी
और ई पी थाम्पसन जैसे इतिहासकारों ने बताया कि इन बदलावों का दूरगामी असर नैतिकता
और सामुदायिकता जैसी मान्यताओं पर पड़ा था । तीसरी दुनिया के ग्रामीण समाजों को भी
ऐसे ही बदलावों से बीसवीं सदी में गुजरना पड़ा था । उसी तरह के बदलाव बाजार आधारित
पूंजीवाद और निजी संपत्ति से भिन्न आधार पर समाज का संगठन करने का सपना देखने वाले
दूसरी दुनिया के देशों को झेलने पड़ रहे हैं । इन समाजों को ग्रामीण तो नहीं कहा जा
सकता, इनमें पर्याप्त उद्योगीकरण हुआ था । ऐसे में पहले के बदलावों के साथ इसकी
तुलना करने में थोड़ी मुश्किल पेश आती है । किसी भी गम्भीर समाज-विज्ञानी के समक्ष
यह सवाल पैदा होगा ।
1989 में जो बिखरा उस सोवियत संघ को एक अनूठे प्रयोग के लिए भी याद किया जाना चाहिए
। सोवियत संघ बहुजातीय राष्ट्र था । उस प्रयोग का असर यूगोस्लाविया और चेकोस्लोवाकिया
जैसे पूर्वी यूरोप के अन्य बहुजातीय राष्ट्रों पर भी पड़ा था । इस पहलू पर केंद्रित
1998 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से रोनाल्ड ग्रिगोर
सनी की किताब ‘द सोवियत एक्सपेरिमेन्ट: रशिया, द यू एस एस आर, ऐंड द
सक्सेसर स्टेट्स’ का प्रकाशन हुआ । इसी पहलू पर इस अध्येता
ने 2001 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से टेरी मार्टिन के
साथ मिलकर ‘ए स्टेट आफ़ नेशन्स: एम्पायर
ऐंड नेशन-मेकिंग इन द एज आफ़ लेनिन ऐंड स्तालिन’ का संपादन किया । इसी पहलू पर ध्यान देते हुए 2001 में
कार्नेल यूनिवर्सिटी प्रेस से टेरी मार्टिन की किताब ‘द
एफ़र्मेटिव ऐक्शन एम्पायर: नेशन्स ऐंड नेशनलिज्म इन द सोवियत
यूनियन, 1923-1939’ का प्रकाशन हुआ । इसी मसले पर 2013 में
कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से जेरेमी स्मिथ की किताब ‘रेड नेशंस: द नेशनलिटीज
एक्सपीरिएन्स इन ऐंड आफ़्टर द यू एस एस आर’ का प्रकाशन हुआ ।
सोवियत संघ के बिखराव ने बहुजातीय राष्ट्रों के प्रयोग के लिए भी समस्याओं
को जन्म दिया । 2002 में रटलेज से इयान जेफ़्रीस की किताब ‘द फ़ार्मर
यूगोस्लाविया ऐट द टर्न आफ़ द ट्वेंटी-फ़र्स्ट सेंचुरी:
ए गाइड टु द इकोनामीज इन ट्रांजीशन’ का
प्रकाशन हुआ । युगोस्लाविया को सोवियत रूस के मुकाबले अधिक लोकतांत्रिक समाजवादी
मुल्क माना जाता था । शायद समाजवादी व्यवस्था ही उसे एक देश के रूप में इकट्ठा
रखने में कामयाब था । सोवियत संघ के साथ जब युगोस्लाविया भी ढहा तो उसके न केवल
टुकड़े हो गए, बल्कि इन टुकड़ों में ऐसी मारकाट चली कि यूरोप
के इस देश की छवि गृहयुद्ध में उलझे अफ़्रीकी मुल्कों जैसी हो गई । इसी तकलीफदेह
संक्रमण का विवेचन इस किताब की विशेषता है ।
सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप की व्यवस्था के लोकतंत्र विरोधी होने की बात तो
बहुत की जाती रही है लेकिन उन समाजों के भीतर की गतिशीलता को समझने की गम्भीर कोशिश
नहीं हुई । उस गतिशीलता को उजागर करने की कोशिश के तहत 2002 में प्लूटो प्रेस से लास्ज़लो कूर्ती
की किताब ‘यूथ ऐंड द स्टेट इन हंगरी: कैपिटलिज्म,
कम्यूनिज्म ऐंड क्लास’ का प्रकाशन हुआ । इसी तरह
2008 में द यूनिवर्सिटी आफ़ मिशिगन प्रेस से कैथरीन पेन्स और पाल
बेट्स के संपादन में ‘सोशलिस्ट माडर्न: ईस्ट जर्मन एवरीडे कल्चर ऐंड पोलिटिक्स’ का प्रकाशन हुआ
। इसके जरिए हंगरी के अतिरिक्त एक और मुल्क की आधुनिकता का स्वरूप स्पष्ट होता है ।
संपादकों का कहना है कि 1989 में जर्मनी के एकीकरण ने पूर्वी
जर्मनी के साम्यवादी प्रयोग को समाप्त भले कर दिया लेकिन उस प्रयोग का ऐतिहासिक आकलन
शेष है । जर्मनी के ही सिलसिले में 2009 में स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी
प्रेस से बेन्जामिन रोबिन्सन की किताब ‘द स्किन आफ़ द सिस्टम:
आन जर्मनी’ज सोशलिस्ट माडर्निटी’ का प्रकाशन हुआ । इसी आधुनिकता के एक और प्रतिफलन को रेखांकित करते हुए 2011
में यूनिवर्सिटी आफ़ पिट्सबर्ग प्रेस से किम्बर्ली एलमैन ज़ारेकोर की किताब ‘मैनुफ़ैक्चरिंग ए सोशलिस्ट माडर्निटी: हाउसिंग इन चेकोस्लोवाकिया,
1945-1960’ का प्रकाशन हुआ ।
पूर्वी यूरोप के देशों के बिखराव का जायजा लेते हुए 2003 में रौमन ऐंड लिटिलफ़ील्ड पब्लिशर्स
से एलन डब्ल्यू काफ़्रुनी और मैगनुस राइनेर के संपादन में ‘ए रूइन्ड
फ़ोर्ट्रेस?: नियोलिबरल हेजेमनी ऐंड ट्रान्सफ़ार्मेशन इन यूरोप’
का प्रकाशन हुआ । यूरोप के हाल के बदलावों के लिहाज से यह उपयोगी किताब
है । संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में शामिल ग्यारह लेख तीन भागों
में संयोजित हैं । पहले भाग के लेखों में यूरोपीय संघ में एकीकरण और उससे
नवउदारवादी प्रभुत्व के जुड़ाव का विवेचन है । दूसरे भाग के लेख इस प्रभुत्व से
उपजे आर्थिक बदलावों का विश्लेषण करते हैं । तीसरे भाग के लेखों में पुरानी
व्यवस्था के साथ बदलाव की नयी व्यवस्था के टकराव के संदर्भ में किसी नये रास्ते की
तलाश पर जोर दिया गया है । इस तलाश का कारण एकीकरण की नवउदारवादी प्रक्रिया से
उपजी वर्तमान तबाही और उथल पुथल है । इस क्षेत्र के अध्ययन की इसी प्रक्रिया को
विस्तार देते हुए 2003 में येल यूनिवर्सिटी प्रेस से टिमोथी
स्नाइडर की किताब ‘द रीकंस्ट्रक्शन आफ़ नेशंस: पोलैंड, यूक्रेन, लिथुआनिया,
बेला रूस 1569-1999’ का प्रकाशन हुआ । इस
प्रक्रिया में समाज के भीतर पैदा सामाजिक बिखराव को समझने और नयी राजनीति के
स्वरूप की पहचान के मकसद से 2003 में रटलेज से पेत्र कोपेकी
और कस मुद्दे के संपादन में ‘अनसिविल सोसाइटी?: कंटेन्शस पोलिटिक्स इन पोस्ट-कम्यूनिस्ट यूरोप’
का प्रकाशन हुआ । असल में उस क्षेत्र में कम्युनिस्ट शासन की
समाप्ति से उदारपंथी बौद्धिकों को मजबूत सिविल सोसाइटी के निर्माण की उम्मीद बंधी
थी लेकिन असल जीवन में लूट खसोट और हिंसा का माहौल कायम हुआ । इसे संपादकों ने
उत्तर-कम्युनिस्ट राजनीति का अंधेरा पक्ष कहा है और नौ लेखों में विभिन्न देशों
में इस प्रक्रिया को स्पष्ट करने का प्रयास किया है । चेकोस्लोवाकिया में
वैश्वीकरण से उत्पन्न कुछ बदलावों को रेखांकित करते हुए 2003 में कोलम्बिया यूनिवर्सिटी प्रेस से जैक़्वी ट्रू की किताब ‘जेंडर, ग्लोबलाइजेशन, ऐंड पोस्टसोशलिज्म:
द चेक रिपब्लिक आफ़्टर कम्यूनिज्म’ का प्रकाशन हुआ
।
2004 में पालग्रेव मैकमिलन से जानोस कोरनाइ और सुसान रोजे-एकरमान के संपादन में ‘बिल्डिंग ए ट्रस्टवर्दी स्टेट
इन पोस्ट-सोशलिस्ट ट्रांजीशन’ का प्रकाशन
हुआ । किताब में संपादक की भूमिका के अतिरिक्त ग्यारह अध्याय हैं जिन्हें तीन भागों
में संयोजित किया गया है । किताब इस विडम्बना को रेखांकित करती है कि पूर्ववर्ती
शासन व्यवस्था की तमाम आलोचनाओं के बावजूद उसकी समाप्ति के बाद समाजवादोत्तर देशों
में भरोसेमंद शासन तंत्र की स्थापना नहीं हो सकी है । पहले भाग के लेखों में भरोसे
और संस्थान निर्माण के रिश्तों को स्पष्ट किया गया है । दूसरे भाग में भ्रष्टाचार
के राज्य पर कब्जे की असलियत को उजागर करने वाले लेख हैं । तीसरे भाग में उस
विचित्र लोकतंत्र की ओर इन देशों के संक्रमण की कथा कही गयी है जो इन देशों में
कायम किया गया । ठीक इसी लोकतंत्रीकरण के हवाल देखने के लिए जान एस ड्राइज़ेक और लेस्ली
टेम्पल मैनहोम्स की किताब ‘पोस्ट-कम्यूनिस्ट
डेमोक्रेटाइजेशन: पोलिटिकल डिस्कोर्सेज एक्रास थर्टीन कंट्रीज’
का प्रकाशन पहली बार कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से 2002 में हुआ था । 2004 में उसका इलेक्ट्रानिक संस्करण प्रकाशित
हुआ है । तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में रूपांतरण को समझने के लिहाज से माइकेल मैकफ़ाउल
और कैथरीन स्टोनर-वेइस के संपादन में ‘आफ़्टर
द कोलैप्स आफ़ कम्यूनिज्म: कंपेरेटिव लेसन्स आफ़ ट्रांजीशन’
का प्रकाशन कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से सबसे पहले 2004 में हुआ । फिर 2007 में वह दोबारा छपी । 2010
में इसका पहला पेपरबैक संस्करण प्रकाशित हुआ है ।
शासन के अतिरिक्त इस संक्रमण का आर्थिक पक्ष भी है । इसे समझने के लिए 2004 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस
से ओलिविएर ब्लांशार्ड की किताब ‘द इकोनामिक्स आफ़ पोस्ट-कम्यूनिस्ट ट्रांजीशन’ का दुबारा प्रकाशन हुआ । पहली
बार 1997 में यह किताब छपी थी । इसी तरह 2009 में एडवर्ड एल्गर से पाल ड्रागोस अलीगिका और एंथनी जे इवान्स की किताब
‘द नियोलिबरल रेवोल्यूशन इन ईस्टर्न यूरोप: इकोनामिक
आइडियाज इन द ट्रांजीशन फ़्राम कम्यूनिज्म’ का प्रकाशन हुआ ।
भूमिका और उपसंहार के अतिरिक्त किताब में लेखकों के नौ लेख शामिल हैं जिन्हें तीन
भागों में संयोजित किया गया है । पहले भाग में पूर्वी यूरोप में पश्चिम के आर्थिक
विचारों के प्रसार पर विचार किया गया है । दूसरे भाग में आर्थिक विचारों के प्रसार
की समझ और विश्लेषण के लिए उपयुक्त ढांचों का विवेचन है । तीसरे भाग में अलग अलग
मामलों में नवउदारवादी विचारों की विविधता और बदलाव को देखने की कोशिश की गई है । एक
देश के भीतर इस अति दुखदायी प्रक्रिया का जायजा लेते हुए 2004 में पीटर लैंग से गारेथ डेल की किताब ‘बीट्वीन स्टेट
कैपिटलिज्म ऐंड ग्लोबलाइजेशन: द कोलैप्स आफ़ द ईस्ट जर्मन इकोनामी’
का प्रकाशन हुआ । जो संक्रमण हुआ उसने भांति भांति के पूंजीवाद को
जन्म दिया । इस विविधता के निदर्शन के लिए 2007 में पालग्रेव
मैकमिलन से डेविड लेन और मार्टिन म्यांट के संपादन में ‘वेराइटीज
आफ़ कैपिटलिज्म इन पोस्ट-कम्यूनिस्ट कंट्रीज’ का प्रकाशन हुआ । किताब एक बहुत अछूते विषय का विश्लेषण करती है इसलिए रुचिकर
है ।
2005 में पालग्रेव मैकमिलन से योर्ग हफ़्शमिड के संपादन में
‘इकोनामिक पालिसी फ़ार ए सोशल यूरोप: ए क्रिटिक़
आफ़ नियो-लिबरलिज्म ऐंड प्रोपोजल्स फ़ार अल्टरनेटिव्स’ शीर्षक किताब का प्रकाशन हुआ । संपादक की भूमिका में बताया गया है कि हाल में
यूरोप में काफी बदलाव आए हैं । 2004 की एक मई को समाजवादी खेमे
के पूर्वी यूरोप के आठ देश यूरोपीय संघ में शामिल हुए । इससे पूर्व-पश्चिम का पारंपरिक विभाजन खत्म हुआ और समूचे यूरोप के विकास की रणनीति बनाने
की राह साफ हुई । दो महीने से भी पहले यूरोपीय संविधान बना था ताकि इसे आर्थिक एकीकरण
से आगे जाकर संविधान आधारित राजनीतिक संघ में परिणत किया जाए । सोचा यह गया था कि पूर्ण
रोजगार की गारंटी के साथ ‘यूरोपीय सामाजिक माडल’ खड़ा किया जाएगा जिसमें होड़ जनित बेहतर रोजगार के अवसरों के साथ ही जनता का
घनिष्ठ सामाजिक एकीकरण और शासन में उनकी लोकतांत्रिक भागीदारी होगी । इस कदम से दुनिया
में यूरोप की स्थिति मजबूत होती तथा पूरी दुनिया से गरीबी खत्म करने के लिए रणनीतिक
कदम उठाने और पर्यावरण की बेहतरी के लक्ष्य को हासिल करने में गति आती । यूरोप के एकीकरण
का यह सुखद सपना तो टूटा ही, खुद यूरोप के कुछेक देशों के लिए
यह एकीकरण मुसीबत की वजह बन गया और कुछेक देशों में संघ से बाहर निकलने की मांग लोकप्रिय
मांग बन गयी । जिस कदम को समूची दुनिया में सहकार का अलमबरदार होना था वही बहिष्करण
की नयी लहर का कारण साबित हुआ ।
पूर्वी यूरोप के देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों की अजीबो गरीब स्थिति को
बताने के लिए 2005 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से मार्टिन मेवियस की किताब ‘एजेन्ट्स आफ़ मास्को: द हंगारियन कम्यूनिस्ट पार्टी ऐंड
द ओरिजिन्स आफ़ सोशलिस्ट पैट्रियाटिज्म 1941-1953’ का प्रकाशन
हुआ । इसके दूसरे पहलू को सामने लाने के लिए 2006 में हार्पर
कालिन्स ई बुक्स की ओर से माइकेल कोर्डा की किताब ‘जर्नी टु
ए रेवोल्यूशन: ए पर्सनल मेमायर ऐंड हिस्ट्री आफ़ द हंगारियन
रेवोल्यूशन आफ़ 1956’ का प्रकाशन हुआ । इसे निर्विवाद तथ्य की
तरह मान लिया जाता है कि रूस के प्रभाव से ही पूर्वी यूरोपीय मुल्कों में
क्रांतियां हुईं । इसीलिए इन क्रांतियों की स्वतंत्र भूमिका पर ध्यान नहीं दिया
जाता रहा है । लेकिन बिना स्थानीय गोलबंदी के ये बदलाव संभव नहीं थे । इन्हीं
स्थानीय पहलों को एक देश के संदर्भ में रेखांकित करते हुए यह किताब लिखी गई है । 2006
में मासाचुसेट्स इंस्टीच्यूट आफ़ टेकनोलाजी प्रेस से जानोस कोरनाइ की
आत्मकथा ‘बाइ फ़ोर्स आफ़ थाट: इररेगुलर
मेमोयर्स आफ़ ऐन इंटेलेक्चुअल जर्नी’ का प्रकाशन हुआ । साढ़े
चार सौ पृष्ठों की यह आत्मकथा इक्कीस अध्यायों में हंगरी के समाजवादी बनने से लेकर
फिर से पूंजीवाद की ओर लौटने की कहानी को निजी और शैक्षणिक यात्रा के जरिए बयान
करती है ।
समाजवादी शासन गिरने के बाद उन देशों में जो कुछ हुआ उसे ठीक ठीक परिभाषित
करने की कठिनाई के चलते ही 2007
में पालग्रेव मैकमिलन से डेविड लेन के संपादन में ‘द ट्रान्सफ़ार्मेशन आफ़ स्टेट सोशलिज्म: सिस्टम चेन्ज,
कैपिटलिज्म आर समथिंग एल्स?’ का प्रकाशन हुआ ।
संपादक के मुताबिक 1986 में जब गोर्बाचेव ने पेरेस्त्रोइका की शुरुआत की तो वे
विश्व समाजवादी व्यवस्था के मुखिया थे । उसमें मध्य और पूर्वी यूरोप, एशिया तथा
लैटिन अमेरिका में स्थित 16 देश हुआ करते थे । इनके अतिरिक्त सात अफ़्रीकी देश खुद
को मार्क्सवादी-लेनिनवादी कहा करते थे । इन देशों में केंद्रीय स्तर पर नियोजित
अर्थतंत्र था, कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभुत्व था तथा सामाजिक कल्याण, विज्ञान और
शिक्षा की सांगोपांग सरकारी व्यवस्था थी । इसे पूंजीवाद का विकल्प माना जाता था ।
इनमें पेरेस्त्रोइका के जरिए बाजारोन्मुख सुधारों की शुरुआत की गयी, केंद्रीय
नियंत्रण ढीला किया गया और चुनाव आधारित बहुल राजनीतिक प्रणाली को प्रोत्साहित
किया गया । मकसद था कि पश्चिमी ताकतों के साथ सम्पर्क संबंध बनाया जाये । इसके
नतीजे सोवियत संघ के लिए निहायत अवांछित निकले । आर्थिक वृद्धि में तेजी से गिरावट
आयी, मुद्रास्फीति तेजी से चढ़ी और जनता का मोहभंग क्रमश: प्रत्यक्ष होने लगा ।
चुनाव आधारित लोकतंत्र के चलते राजनीतिक अस्थिरता पैदा हुई । इसी रूपांतरण को
समझने के लिए किताब में चार भाग बनाकर विभिन्न लेखों के जरिए हालात का जायजा लिया
गया है । पहले भाग में इन देशों की सामाजिक शक्तियों के साथ इस रूपांतरण के रिश्ते
को परखा गया है । दूसरे भाग में मध्य और पूर्वी यूरोप के देशों में इस रूपांतरण के
नतीजों का विश्लेषण है । तीसरे भाग के लेख इन देशों के नये शासनों के समक्ष
उपस्थित चुनौतियों का विवेचन प्रस्तुत करते हैं । आखिरी चौथे भाग के लेख व्यवस्था
बदले बिना सुधार की वैकल्पिक सम्भावनाओं की बात करते हैं । साफ है कि अब भी इन
देशों में आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता बनी हुई है । किताब इस सचाई की ओर हमारा
ध्यान खींचती है । बाद में 2014 में रटलेज से इन्हीं डेविड
लेन की किताब ‘द कैपिटलिस्ट ट्रान्सफ़ार्मेशन आफ़ स्टेट
सोशलिज्म: द मेकिंग ऐंड ब्रेकिंग आफ़ स्टेट सोशलिस्ट सोसाइटी,
ऐंड ह्वाट फ़ालोड’ का प्रकाशन हुआ । इसमें बीस लेखों
के जरिए लेखक ने राजकीय समाजवाद के निर्माण और उसकी बाजारोन्मुख समाजवादी आलोचना तथा
बदलाव के बाद के विचित्र हासिल का विवेचन किया है ।
शेरोन ज़ुकिन की किताब
‘बियांड मार्क्स ऐंड टीटो: थियरी ऐंड
प्रैक्टिस इन यूगोस्लाव सोशलिज्म’ का प्रकाशन कैंब्रिज
यूनिवर्सिटी प्रेस से बहुत पहले 1975 में हुआ था लेकिन
2008 में इसका इलेक्ट्रानिक संस्करण प्रकाश में आया है । एक समय ऐसा
भी था जब सोवियत संघ के शासन के तरीके के विकल्प में यूगोस्लाविया और टीटो का नाम
लिया जाता था । टीटो का नाम गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापकों में नेहरू और नासिर
के साथ लिया जाता था । किताब इसी परिघटना को समझने के क्रम में लिखी गई थी ।
89 के बाद माहौल के बदलाव ने अतीत को भी नयी निगाह से देखने का मौका
मुहैया कराया । इसके तहत 2008
में न्यू एकेडेमिया पब्लिशिंग से बलाज़ अपोर, पीटर
अपोर और ई ए रीस के संपादन में ‘द सोवियताइजेशन आफ़ ईस्टर्न
यूरोप: न्यू पर्सपेक्टिव्स आन द पोस्ट वार पीरियड’ का प्रकाशन हुआ । इसी तरह 2008 में ही सेंट्रल
यूरोपीयन यूनिवर्सिटी प्रेस से ओक्सानास र्किसोवा और पीटर अपोर के संपादन में
‘पास्ट फ़ार द आईज: ईस्ट यूरोपीयन
रिप्रेजेन्टेशंस आफ़ कम्यूनिज्म इन सिनेमा ऐंड म्यूजियम्स आफ़्टर 1989’ का प्रकाशन हुआ । इस अतीत के निर्माण पर 2008 में
सेंट्रल यूरोपीयन यूनिवर्सिटी प्रेस से मिशाल कोपेचेक के संपादन में ‘पास्ट इन द मेकिंग: हिस्टारिकल रिविजनिज्म इन
सेंट्रल यूरोप आफ़्टर 1989’ का प्रकाशन हुआ । 2010 में सोशल साइंस रिसर्च सेंटर की ओर से ‘रेमेम्बरिंग
कम्यूनिज्म’ का प्रकाशन हुआ जिसमें तमाम लोगों के लेख संकलित
हैं । मारिया तोदोरोवा ने इसकी भूमिका लिखी है जिसमें उनका कहना है कि ‘वास्तविक समाजवाद’ के खात्मे के बाद संग्रहालयों के
खुलने, संस्मरणों के प्रकाशन के चलते पूर्व समाजवादी मुल्कों
के इतिहास में रुचि का विस्तार हुआ है । 2014 में सेन्ट्रल यूरोपियन यूनिवर्सिटी
प्रेस से मारिया तोदोरोवा, औगुस्ता दिमाउ और स्तेफान
त्रोएब्स्त के संपादन में ‘रेमेम्बरिंग कम्यूनिज्म: प्राइवेट
ऐंड पब्लिक रिकलेक्शंस आफ़ लिव्ड एक्सपीरिएन्स इन साउथईस्ट यूरोप’ का प्रकाशन हुआ ।
इस इलाके विभिन्न देशों के अतीत खुलने के प्रसंग में 2011 में ब्रिल से यानिस सिग केलोस
की किताब ‘नेशनलिज्म फ़्राम द लेफ़्ट: द
बुल्गारियन कम्यूनिस्ट पार्टी ड्यूरिंग द सेकंड वर्ल्ड वार ऐंड द अर्ली पोस्ट-वार ईयर्स’ का प्रकाशन हुआ । बुल्गारिया के ही बारे
में 2013 में कार्नेल यूनिवर्सिटी प्रेस से मेरी सी न्यूबर्गर
की किताब ‘टोबैको ऐंड द मेकिंग आफ़ माडर्न बुल्गारिया’
का प्रकाशन हुआ । किताब में उन्नीसवीं सदी में बुल्गारिया के आधुनिकीकरण
से शुरू करके कम्यूनिस्ट शासन तक के लम्बे इतिहास में तम्बाकू की भूमिका की छानबीन
की गई है । इसी क्रम में बुल्गारिया के राजनीतिक इतिहास के साथ जोड़कर सामाजिक बदलावों
को भी परखा गया है ।
अतीत के स्मरण का एक पहलू इन देशों की बौद्धिक समृद्धि का उत्खनन भी था । 2010 में लेक्सिंगटन बुक्स से कोस्टिका
ब्रैडटन और सेर्गेई अलेक्स आउशाकिने के संपादन में ‘इन मार्क्स’
शैडो: नालेज, पावर,
ऐंड इंटेलेक्चुअल्स इन ईस्टर्न यूरोप ऐंड रशिया’ शीर्षक किताब का प्रकाशन हुआ । संपादकों की भूमिका के अतिरिक्त किताब चार भागों
में बांटी गई है । पूर्वी यूरोप की मार्क्सवादी बौद्धिक समृद्धि को उजागर करने के चलते
किताब महत्वपूर्ण है । संपादकों ने प्रस्तावना में बताया है कि मार्क्सवाद राजनीतिक
आंदोलन से पहले बहुमुखी दार्शनिक विचार था । इसमें मानव समाज और मानव इतिहास के बारे
में कुछ धारणाएं शामिल हैं और मनुष्य की संभावनाओं को साकार करने के साधनों पर विचार
किया गया है । बौद्धिकों ने सबसे पहले इस विचार को अपनाया और खास तरह की राजनीतिक भाषा
में प्रस्तुत किया । इसे इतिहास की नियति साबित करने के लिए बौद्धिकों की लगातार जरूरत
पड़ती रहती है । ये लोग मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के लेखन से
तमाम विचारों, धारणाओं और शब्दावली का आयात करके न केवल पुष्ट
इतिहास दर्शन का निर्माण करते हैं बल्कि वास्तविक जीवन से उत्पन्न तमाम चुनौतियों का
समाधान भी प्रस्तुत करते हैं । इसके विरोधियों को भी इसी तरह दार्शनिक मोर्चे पर उनका
खंडन करना पड़ता है ।
आज या समाजवादी दुनिया के लम्बे उथल पुथल से भरे इतिहास में यह बात भूल
जाती है कि इस खित्ते में इस्लाम के अनुयायियों की आबादी भी अच्छी खासी थी ।
समाजवादी व्यवस्था और विचारों का ही असर है कि कट्टरपंथ के उदय के साथ इस इलाके का
कोई जुड़ाव दिखाई नहीं देता । इस पहलू को उजागर करते हुए 2010 में रटलेज से रोलैन्ड डैनरायथर
और ल्यूक मार्च के संपादन में ‘रशिया ऐंड इस्लाम: स्टेट, सोसाइटी ऐंड रैडिकलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की भूमिका और उपसंहार के अतिरिक्त किताब में बारह
लेख संकलित हैं । आम तौर पर रूस के साथ ईसाइयत जुड़ी रही है । इस चक्कर में लोग भूल
जाते हैं कि रूस में दस प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है और रूस में दूसरा सबसे बड़ा धर्म
इस्लाम ही है । सारी दुनिया की राजनीति में इस्लाम जिस तरह चर्चा में आया उस तरह रूस
में इस्लाम के सवाल पर बात नहीं होती । सोवियत संघ के पतन और इस्लाम में मूलगामी प्रवृत्तियों
के उभार के चलते रूस में इस्लाम का सवाल जटिल हो गया है ।
सोवियत संघ के पतन के बाद बदलाव की दृष्टि से पोलैंड का नाम सबसे अधिक
सुनाई पड़ा था । 2011 में मंथली रिव्यू प्रेस से तेदेउष कोवालिक की पोलिश में 2009 में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘फ़्राम सोलिडैरिटी
टु सेलआउट: द रेस्टोरेशन आफ़ कैपिटलिज्म इन पोलैंड’ का प्रकाशन हुआ । अनुवाद एलिज़ा लेवान्दोव्सका ने किया है । किताब में
पिछले बीस सालों में पोलैंड में आए बदलावों पर लेखक के लिखे लेखों का संग्रह किया
गया है । अनुवाद के दौरान अंग्रेजी भाषी पाठकों का ध्यान रखा गया है । इसी मसले पर
भिन्न निगाह से 2013 में ब्रिल से जैक एम ब्लूम की किताब
‘सीइंग थ्रू द आइज आफ़ द पोलिश रेवोल्यूशन: सालिडैरिटी
ऐंड द स्ट्रगल अगेन्स्ट कम्यूनिज्म इन पोलैंड’ का प्रकाशन
हुआ ।
नवउदारीकरण की वित्तीकरण की लहर ने पूर्वी यूरोप के देशों को नये किस्म से
पुनर्गठित किया । इन हालात का बयान करते हुए 2011 में पालग्रेव मैकमिलन से दानिए लागाबोर की किताब
‘सेन्ट्रल बैंकिंग ऐंड फ़ाइनैन्शियलाइजेशन: ए
रोमानियन एकाउन्ट आफ़ हाउ ईस्टर्न यूरोप बीकेम सबप्राइम’ का
प्रकाशन हुआ ।
जर्मनी की राजधानी में बनी दीवार शीतयुद्ध का जीवंत स्मारक थी । 2011 में
आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से एडिथ शेफ़र की किताब ‘बर्न्ड ब्रिज: हाउ ईस्ट ऐंड वेस्ट
जर्मन्स मेड द आयरन कर्टेन’ का प्रकाशन हुआ । किताब की
प्रस्तावना पीटर श्नाइडर ने लिखी है । इस भूमिका में उन्होंने लेखिका की पद्धति की
विशेषता यह चिन्हित की है कि वे व्यापक स्तर पर जर्मनी के विभाजन और एकीकरण की
सामान्य कथा सुनाने की जगह किसी एक मसले के सहारे समस्या की पर्याप्त गहराई से
पड़ताल करती हैं । वे विभाजक सीमा के दोनों ओर के दो कस्बों की कहानी के जरिए इस
विभाजन की त्रासदी को उजागर करने का प्रयास करती हैं । वे प्रचुर संग्रहालयी
सामग्री के बल पर ग्रामीण जर्मनी को प्रत्यक्ष कर देती हैं । उनके उठाए गए सवाल
ऐतिहासिक महत्व के तो हैं ही, उनमें मानवीय और साहित्यिक
परिप्रेक्ष्य भी भरपूर है । दो करीबी कस्बों के दोस्ताना रिश्तों के आपस में शत्रु
बन बैठे देशों और परस्पर विरोधी व्यवस्थाओं के रिश्तों में बदलने की त्रासदी को
लेखिका ने शिद्दत से उठाया है ।
2012 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से पालिना ब्रेन और मेरी
न्यूबर्गर के संपादन में ‘कम्यूनिज्म अनरैप्ड: कनजम्पशन इन कोल्ड वार ईस्टर्न यूरोप’ का प्रकाशन हुआ
। किताब में पूर्वी यूरोप के समाजवादी खेमे के देशों में रोजमर्रा के जीवन में उपभोग
का अध्ययन किया गया है । समाजवादी सामूहिकता के आदर्श और उपभोग के निजी चरित्र के बीच
के तनाव को भी उभारने और समझने का प्रयास किया गया है ।
सोवियत संघ के पतन के बावजूद इतिहास की निरंतरता की याद दिलाते हुए 2014
में मेहरिंग बुक्स से डेविड नार्थ की किताब ‘द रशियन रेवोल्यूशन ऐंड द अनफ़िनिश्ड
ट्वेन्टीएथ सेन्चुरी’ का प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि प्रथम विश्वयुद्ध के
साथ बीसवीं सदी की शुरुआत 2014 से मानने के सवाल पर लगभग सभी सहमत हैं लेकिन सदी
के खात्मे का सवाल विवादों के घेरे में है । तारीख के हिसाब से तो हम इक्कीसवीं
सदी में आ गए हैं लेकिन डेढ़ दशक बीत जाने के बाद भी बीसवीं सदी की छाया से दुनिया
बाहर नहीं आ सकी है । जीवंत उपस्थिति के अतिरिक्त उसकी विरासत का सवाल भी उठता रहता है । 2014 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से मार्क आर बेसिंगेर और स्टीफेन कोटकिन के संपादन में ‘हिस्टारिकल लीगेसीज आफ़ कम्युनिज्म इन रशिया ऐंड ईस्टर्न यूरोप’ का प्रकाशन हुआ । किताब में कुल ग्यारह लेख संकलित हैं जिनमें पहला संपादकों की प्रस्तावना है ।
2015 में वाइकिंग से डोमिनिक लाइवेन की किताब ‘द एन्ड आफ़ जारिस्ट रशिया: वर्ल्ड वार I ऐंड द मार्च टु रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ । लेखक
का मानना है कि प्रथम विश्वयुद्ध के केंद्र में रूस था । इस तरह किताब रूसी
क्रांति का अंतर्राष्ट्रीय इतिहास भी बन जाती है । रूस के यूरोपीकरण की कोशिश ने
आधुनिक रूस के इतिहास और उसकी जनता पर सबसे अधिक प्रभाव डाला । लेखक का कहना है कि
प्रथम विश्वयुद्ध के बिना भी बोल्शेविक सत्ता पर कब्जा तो कर सकते थे लेकिन उस पर
कब्जा बनाए रखना युद्ध के बिना सम्भव न था । दूसरी ओर रूस ने उस युग में जो
अंतर्राष्ट्रीय भूमिका निभाई उसकी अनदेखी हुई है । लेखक को लगता है कि अब तक प्रथम
विश्वयुद्ध को ब्रिटिश, अमेरिकी, जर्मन
और फ़्रांसिसी निगाह से देखा गया है लेकिन उन्हें उम्मीद है कि अगर इसे रूस की
निगाह से देखा जाए तो अलग तस्वीर उभरेगी ।
जिस शासन का अंत हुआ उसकी अन्य तमाम खूबियों के साथ कला और संस्कृति बेहद
महत्व का अंग था । समूची दुनिया को प्रभावित करने और पूंजीवाद विरोधी मूल्य के
बतौर कला संस्कृति की रक्षा और प्रोत्साहन को इन देशों ने लड़ाई का हथियार बना दिया
था । 2016 में सेंट्रल
यूरोपीयन यूनिवर्सिटी प्रेस से जेरोम बाज़िन, पास्कल द्यूबोर्ग
ग्लातिनी और प्योत्र प्योत्रोव्सकी के संपादन में ‘आर्ट बीयान्ड
बार्डर्स: आर्टिस्टिक एक्सचेन्ज इन कम्यूनिस्ट यूरोप
[1945-1989]’ का प्रकाशन हुआ । प्योत्र प्योत्रोव्सकी ने किताब की प्रस्तावना
की शक्ल में आलोचनात्मक कला इतिहास की रूपरेखा पेश की है । इसके बाद संपादकों की लिखी
भूमिका है । किताब में शामिल पैंतीस लेखों को चार भागों में बांटा गया है । सबसे पहला
भाग कलाकारों के आवागमन पर केंद्रित है । दूसरे भाग में कलाकृतियों के आवागमन का विश्लेषण
है । तीसरे भाग में पारदेशीय वैचारिक एकता का उल्लेख है । आखिरी चौथे भाग में यूरोप
को परिभाषित करनेवाले तत्वों की पहचान करने की चेष्टा है । 2018 में
प्लूटो प्रेस से बाब डेन्ट की किताब ‘पेंटिंग द टाउन रेड: पोलिटिक्स ऐंड आर्ट्स ड्यूरिंग द 1919 हंगारियन
सोवियत रिपब्लिक’ का प्रकाशन हुआ ।
कला संस्कृति की दुनिया से ही जुड़े एक काम, अनुवाद के सिलसिले में 2019
में यूनिवर्सिटी आफ़ मासाचुसेट्स प्रेस से नतालिया कामोव्निकोवा की किताब ‘मेड अंडर
प्रेशर: लिटररी ट्रान्सलेशन इन द सोवियत यूनियन, 1960-1991’ का प्रकाशन हुआ । सभी
जानते हैं कि शीतयुद्ध की वैचारिक लड़ाई में सोवियत संघ ने प्रचार प्रसार के लिए
अनुवाद को रणनीति के बतौर अपनाया था । राजकीय निर्देशन में अनुवाद की इस विशाल
परियोजना पर बहुत कम विचार हुआ है । लेखिका ने इस सरकारी परियोजना को किताब में
समझने की कोशिश की है । यह अनुवाद साहित्यिक था । इस तरह के अनुवाद के लिए लगाव की
जरूरत होती है । साहित्य के प्रति अनुवादकों के लगाव, लिखित और उच्चरित शब्द के
प्रति उनके सम्मान और ज्ञान के प्रसार की उनकी आकांक्षा ने अनेकानेक रचनाओं को नई
संस्कृति में नया जीवन प्रदान किया । साहित्य और भाषाओं से लगाव के चलते अनुवादकों
ने आधुनिक साहित्य की अलक्षित रचनाओं को चुना और तमाम बाधाओं के बावजूद उनके
अनुवाद प्रकाशित कराने का रास्ता खोजा । किताब लिखने के दौरान लेखिका की मुलाकात
इस काम में लगे तमाम प्रतिभाशाली लोगों से हुई । किताब का लेखन लेखिका के नगर
पीटर्सबुर्ग में हुआ । यह नगर पूरी दुनिया में अपने स्थापत्य, कला और साहित्य के
लिए मशहूर है । इसके अनुवादकों की चर्चा कम ही होती है जिन्होंने मास्को के
अनुवादकों के साथ मिलकर बीसवीं सदी में रूसी साहित्य, अनुवाद और प्रकाशन की दुनिया
ही बदल दी । उनमें से अनेक अनुवादक अब भी जीवित हैं । सामान्य जीवन में भी वे अपने
पेशे की तरह ही पृष्ठभूमि में मौजूद रहते हैं । उन्होंने चुन चुनकर दुनिया भर के श्रेष्ठ
साहित्य से रूसी जनता को परिचित कराया ।
लेखिका ने जब किताब पर काम प्रारम्भ किया तो अनुवादकों ने उनको एक दूसरे के
बारे में बताना शुरू किया । धीरे धीरे इसकी जद मे मास्को के अनुवादक भी आ गए । इनकी
याददाश्त में अंतर्विरोध थे,
उनके विचार भी भिन्न भिन्न थे लेकिन उन्हें एक सूत्र में बांधने वाली
चीज साहित्यानुराग और अनुवाद की ताकत पर भरोसा थी । सोवियत संघ के समूचे जीवनकाल में
अनूदित साहित्य में रूसी पाठकों की रुचि बनी रही । उन्हें राजनीतिक वजहों से विदेश
यात्रा का अवसर नहीं मिलता था । ऐसी स्थिति में दूसरे देशों के बारे में जानकारी हासिल
करने का स्रोत बहुत हद तक अनूदित साहित्य ही था । दुर्लभ विदेशी साहित्य के अनुवाद
खरीदने के लिए लोग घंटों कतार में खड़े रहते थे । इसके अतिरिक्त दोस्तों से उधार लेकर
पढ़कर अगले रसिक को दे देते थे । पाठक इसे मनोरंजन के साथ ज्ञान का स्रोत भी समझते थे
।
उस समय अनुवादकों को दूसरी दुनिया का बाशिंदा समझा जाता था । उन्हें विदेशी
भाषाएं मालूम होती थीं । रूस में माध्यमिक शिक्षा का अनिवार्य अंग विदेशी भाषा होती
लेकिन उसके अध्यापन के तरीके के चलते शायद ही कोई उसे बोल समझ पाता । ऐसे में अनुवादकों
को श्रद्धा से देखा जाता । विदेशी भाषा में उनकी दक्षता के कारण विदेशी माहौल और विदेशी
साहित्य की उनकी जानकारी प्रामाणिक मानी जाती । सोवियत संघ से बाहर की दुनिया उनके
सम्पर्क के भीतर होने की आशंका के चलते सरकार भी चौकन्ना रहती थी । मास्को और पीटर्सबुर्ग
इनके केंद्र थे ।
जिस क्षेत्र में समाजवाद का प्रभाव था उस क्षेत्र में नयी पहचानों का
निर्माण हो रहा है । इनमें से एक उदीयमान पहचान की विशेषता बताते हुए 2018 में पालग्रेव मैकमिलन से आयन ला
और मार्टिन कोवात्स की किताब ‘रीथिंकिंग रोमा: आइडेन्टिटीज, पोलिटिसाइजेशन ऐंड न्यू एजेन्डाज’
का प्रकाशन हुआ । इसी तरह 2018 में आइ बी तौरिस से अलुन थामस की
किताब ‘नोमाड्स ऐंड सोवियत रूल’ का प्रकाशन हुआ ।
2018 में लेक्सिंगटन बुक्स से स्तेफानो बोतोनी की किताब ‘स्तालिन’स
लीगेसी इन रोमानिया: द हंगारियन आटोनोमस रीजन, 1952-1960’ का
प्रकाशन हुआ । 2018 में रटलेज से आग्नेश्का म्रोज़िक और स्तानिस्लाव होलुबेक के
संपादन में ‘हिस्टारिकल मेमोरी आफ़ सेंट्रल ऐंड ईस्ट यूरोपीयन कम्युनिज्म’ का
प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब के तीन भागों में ग्यारह लेख
संकलित हैं । पहले भाग के लेखों में उत्तर समाजवादी यूरोप में वाम की यादगार का
विश्लेषण है । दूसरे भाग के लेखों में मध्य और पूर्वी यूरोप में यादगारी भूदृश्य
की परीक्षा है । तीसरे भाग के लेख 1989 के पहले चल रही स्मृति की राजनीति का
विवेचन करते हैं ।
2019 में इंडियाना यूनिवर्सिटी प्रेस से अनस्तासिया लख्तिकोवा, एंजेला ब्रिंटलिंगर और इरिना ग्लुश्चेंको के संपादन में ‘सीजन्ड सोशलिज्म: जेंडर ऐंड फ़ूड इन लेट सोवियत एवरीडे लाइफ़’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की भूमिका के अतिरिक्त किताब के तीन भागों में ग्यारह लेख संकलित हैं । पहले भाग के लेखों में घरेलू या सार्वजनिक रसोई में स्त्रियों के लगाने के रुख के बारे में बताया गया है । दूसरे भाग में उत्पादकों, वितरकों और उपभोक्ताओं के संघर्ष और समर्पण का बयान है । तीसरे भाग के लेख अभाव से उत्पन्न भोजन की आदतों का विश्लेषण है । इसके अतिरिक्त डायने पी कोएनकर ने पश्चलेख भी लिखा है ।
2020 में स्प्रिंगेर से मेरी डेलेनबाग-लोसे की किताब ‘इनवेन्टिंग बर्लिन:
आर्किटेक्चर, पोलिटिक्स ऐंड कल्चरल मेमोरी इन द न्यू/ओल्ड जर्मन कैपिटल
पोस्ट-1989’ का प्रकाशन हुआ । किताब जर्मनी के इस नगर को ऐतिहासिक महत्व प्रदान करने
की प्रक्रिया की छानबीन करती है ।
2020 में पालग्रेव मैकमिलन से अलेक्सांद्र एकिमोव और गेन्नादी कज़ाकेविच के
संपादन में ’30 ईयर्स सिन्स द फ़ाल आफ़ द बर्लिन वाल: टर्न ऐंड ट्विस्ट्स इन
इकोनामीज, पोलिटिक्स, ऐंड सोसाइटीज इन द पोस्ट-कम्युनिस्ट कंट्रीज’ का प्रकाशन हुआ
। संपादकों की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब के चार भागों में कुल सोलह लेख संकलित
हैं । पहले भाग के लेखों में उत्तर-कम्युनिस्ट देशों के हाल का बयान है । दूसरे भाग के लेख रूस के मूल्यों,
सुरक्षा और विदेश नीति से जुड़े हुए हैं । तीसरे भाग के लेखों में मध्य
एशिया के समाजार्थिक हालात का जायजा लिया गया है । आखिरी चौथे भाग के लेखों में इतिहास,
उदारवाद, संस्कृति और राजनीतिक बदलाव के मामले
में पूरब और पश्चिम की तुलना की गई है ।
2020 में पालग्रेव मैकमिलन से जूडिथ मैककिनी की किताब ‘रशियन वीमेन ऐंड द
एन्ड आफ़ सोवियत सोशलिज्म: एवरीडे एक्सपीरिएन्सेज आफ़ इकोनामिक चेन्ज’ का प्रकाशन
हुआ । गोर्बाचेव को सोवियत संघ का समापन किए पचीस साल बीते और कम्युनिस्ट पार्टी
का महासचिव पद ग्रहण किए तीस साल । उनके शासन में देश के योजना आधारित केंद्रीय
अर्थतंत्र और उत्पादन के साधनों पर राज्य के अधिकार से बाजार और निजी मालिकाने की
प्रधान भूमिका वाली अर्थव्यवस्था में संक्रमण हुआ था । इसके बाद न तो वह अमेरिकी
अर्थतंत्र की तरह का देश बना न पहले जैसा
ही रह सका । सही बात है कि कुछ मामलों में राज्य के नियंत्रण की वापसी हुई है
लेकिन सामान्य रूसी जनता का जीवन पूरी तरह से बदल चुका है । व्यवस्था और नीतियों
में बदलाव के अतिरिक्त तकनीकी प्रगति भी इसका बड़ा कारण है ।
2020 में कार्नेल यूनिवर्सिटी प्रेस से माया नाडकर्णी की किताब ‘रीमेन्स
आफ़ सोशलिज्म: मेमोरी ऐंड द फ़्यूचर्स आफ़ द पास्ट इन पोस्टसोशलिस्ट हंगरी’ का
प्रकाशन हुआ ।
2020 में यू
सी एल प्रेस से जोनाथन बाख और मिचल मुराव्सकी के संपादन में ‘री-सेन्टरिंग द सिटी:
ग्लोबल म्यूटेशंस आफ़ सोशलिस्ट माडर्निटी’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना
के अतिरिक्त किताब में शामिल बीस लेख छह भागों में संयोजित हैं ।
किताबों की
इस सूची को देखने से अनुमान होता है कि शीतयुद्ध की वापसी के इस दौर में रूस और
चीन के विरुद्ध संगठित प्रचार अभियान के साथ ही नवउदारवादी वैचारिकी को ऊंचाई पर
ले जाकर राजकीय कल्याण की किसी भी प्रक्रिया को संदिग्ध बना देने का प्रयास जारी
है । तीस साल बाद भी समाजवाद का नाम दुनिया की एकमात्र महाशक्ति को परेशान करने के
लिए काफी है । इस सुनियोजित लड़ाई के साथ ही उस भूभाग को दिमाग से अदृश्य बना देने
का नतीजा है कि आम तौर पर पहले जिन इलाकों में समाजवादी शासन हुआ करता था वहां की
हलचलों की कोई सूचना तक नहीं मिलती । आज भी उन क्षेत्रों में स्थिरता कायम नहीं हो
सकी है और पूंजीवाद अपनी इस विफलता को सामने नहीं आने देना चाहता ।
महामारी के
इस दौर में अर्थतंत्र की बर्बर निरंकुशता पर सामाजिक अंकुश लगाने के उस मानव
प्रयास को इतिहास से मिटा देने की महीन और मोटी कोशिशों के बावजूद दुनिया के किसी
न किसी हिस्से से उसके प्रति दुर्निवार आकर्षण की खबर आती रहती है । मनुष्य को
गरिमा और सम्मान का जीवन प्रदान करने के उस प्रयास ने न केवल कामगारों बल्कि
स्त्री, बालक, युवक और अशक्त लोगों को जैसा सामाजिक जीवन उपलब्ध कराया था उसका
अध्ययन आज भी आधुनिकता के साथ सहकार और मानवीय सरोकार पर आधारित सामुदायिक जीवन
गढ़ने के रचनात्मक तरीकों को आजमाने की प्रेरणा देता रहेगा ।
"तीस साल बाद भी समाजवाद का नाम दुनिया की एकमात्र महाशक्ति को परेशान करने के लिए काफी है।" बहुत माकूल निष्कर्ष।
ReplyDelete-रविरंजन
बहुत बढ़िया लेख सर।💐💐💐
ReplyDeleteशुक्रिया प्यारे । आपका ब्लाग भी देखता हूं
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