(सदी की शुरुआत में
प्रकाशित इस किताब को पढ़ते हुए लग रहा था कि वर्तमान भारत की कथा पढ़ रहा हूं ।)
2001 में द फ़्री प्रेस
से नोरीना हर्ट्ज़ की किताब ‘द साइलेन्ट टेकओवर: ग्लोबल कैपिटलिज्म ऐंड द डेथ आफ़ डेमोक्रेसी’ का प्रकाशन
हुआ । किताब की शुरुआत 20 जुलाई 2001 से
होती है जब वैश्वीकरण के विरोध में दुनिया भर से प्रदर्शनकारी जेनोआ में एकत्र हुए
थे । निर्वाचित प्रतिनिधियों को विरोध की आवाज सुनाने के लिए इंटरनेट के जरिए इसकी
गोलबंदी की गयी थी । उस दिन जी8 समूह की सालाना बैठक होनी थी
। वैश्वीकरण विरोधी तमाम अभियानों से जुड़े लोगों को वहां एकत्र होना था । तरह तरह की
भाषाओं में अलग अलग मुद्दों से सरोकार रखने वालों की जुटान होनी थी । लेखिका ने पिछले
प्रदर्शनों के बारे में जो कुछ पढ़ा सुना था उसके आधार पर आंसू गैस के लिए तैयार थीं
। उसके असर से बचने के लिए नीबू और सिरका रख लिया था तथा चेहरे को ढकने के लिए रूमाल
लपेट लिया था । फिर भी इटली की पुलिस की क्रूरता के समक्ष यह सब नाकाफी साबित हुआ ।
पुलिस की क्रूरता से
अधिक अचम्भा उन्हें प्रदर्शनकारियों की इस रंग बिरंगी दुनिया में उत्पन्न प्रचंड एकजुटता
और सामुदायिकता से हुआ । साथ ही उनमें नेताओं और कारपोरेट व्यवसायियों के प्रति जबर्दस्त
मोहभंग भी दिखाई पड़ा । वे सभी चुप्पी के षड्यंत्र को तोड़ने पर आमादा थे । शांतिवादी
प्रदर्शनकारी नौजवान वाटर कैनन का धक्का पीठ पर झेल रहे थे । एक युवती ने लेखिका से
कहा कि वह इस मकसद के लिए जान देने को तैयार है । यह सब कुछ बर्लिन की दीवार ढहने के
बारह बरस बाद ही हो रहा था । रूस के समाजवादी शासन को समाप्त हुए बस दस बरस हुए थे
। विरोध प्रदर्शन करने वालों के इस समूह में पेशेवर राजनेता कोई न थे । सभी सामान्य
लोग थे । उनमें घरेलू स्त्रियों, स्कूल शिक्षकों-शिक्षिकाओं, कस्बे
और शहरों के बाशिंदों की तादाद अच्छी खासी थी । पूरी दुनिया में सरकारों की निष्ठा
और कारपोरेशनों के मकसद के बारे में सवाल उठ रहे हैं । लोगों को लग रहा है कि पूंजीवाद
की कुछ ज्यादा ही खुराक ले ली गयी है, मुक्त बाजार ने कठोर सचाइयों
पर परदा डाल दिया है और सरकारें हमारे हितों की देखरेख नहीं कर रही हैं । विकास की
कीमत कुछ ज्यादा ही चुकानी पड़ रही है और वाणिज्य के शोर में लोगों की आवाजें गुम हो
गयी हैं ।
थैचर के सत्ता में आने
के साथ मुक्त बाजार के नाम पर आक्रामक पूंजी के जिस नये दौर की शुरुआत हुई थी और जिसकी
नकल बाद में दुनिया भर में की गयी उसके खात्मे की आहट सुनायी देने लगी है । तमाम सड़कों
को सोने से मढ़वा देने और अमेरिकी सपने के हकीकत में बदलने के वादों पर यकीन करने के
लिए आज कोई तैयार नहीं है । अमीरी के रिसकर नीचे पहुंचने का सिद्धांत झूठी गप
निकली । बाजार के अदृश्य हाथ से संचालित समाज भी न केवल अपूर्ण बल्कि अन्यायी
साबित हुआ । शीतयुद्ध के बाद उभरने वाली दुनिया में एकता की जगह बिखराव नजर आने
लगा । इसमें भ्रम, अंतर्विरोध और अस्थिरता का दबदबा हो गया । लोगों की राय, उनके
अभिमत चुनाव की जगह धार्मिक संस्थानों, बाजार और सड़क पर व्यक्त होने लगे । लोगों
और पार्टियों की निष्ठा निश्चित नहीं रह गयी । ब्रिटेन की लेबर पार्टी निजीकरण की
मुहिम चलाने लगी । सरकारों की जिम्मेदारी कारपोरेट घरानों ने संभाल ली, नेताओं से
अधिक ताकतवर व्यवसायी हो गये और व्यावसायिक हित सिर चढ़कर बोलने लगे । ऐसे में उनकी
मनमानी पर रोक लगाने और नीति निर्माण पर असर डालने का एकमात्र तरीका विरोध प्रदर्शन
ही रह गया । इनकी व्याप्ति का बड़ा कारण यही माहौल है ।
सरकार पर कारपोरेट जगत
के इस गुपचुप कब्जे को थैचर और उनके साथी रीगन के शासन संभालने के साथ जोड़ा जाना उचित
होगा । इन दोनों शासकों ने बलपूर्वक सरकार और राजनीति को कारपोरेट घरानों के हाथ में
गिरवी रख दिया । साथ ही लोकतंत्र को मटियामेट करने का बीड़ा उठाया । उनकी कोशिशों के
दूरगामी नतीजे निकले । इसके चलते आज की तारीख में राजनीति अधिकाधिक विक्रेय माल में
बदलती जा रही है । इस माहौल को लेखिका ने बेनेटान के विज्ञापनों से तुलनीय बताया है
जिनमें तस्वीर दर तस्वीर देखने वाले को धक्का तो लगता है लेकिन कुछ न कर पाने की असहायता
भी महसूस होती है । युद्ध, गरीबी
और एड्स के बारे में इस किस्म के विज्ञापन जारी करने के अतिरिक्त यह कंपनी और कुछ नहीं
करती । उसका मकसद इन विज्ञापनों के सहारे अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाना होता है,
कोई सार्वजनिक बहस चलाना या लोगों में संवेदना जगाना नहीं । उन विज्ञापनों
की तरह ही राजनेता आजकल चुनाव जीतने के लिए अपने विरोधियों के बारे में धक्का पहुंचाने
वाला प्रचार करते हैं । उनके बारे में कोई सनसनीखेज आरोप प्रचारित करके मतदाता के सामने
खुद को रक्षक की तरह पेश करते हैं । हालात को बदलने के हवाई वादे करते हैं । उनकी बातों
का सचाई से कोई लेना देना नहीं होता । उनके वादे बेनेटान के विज्ञापनों की तरह के वादे
होते हैं जिनकी हकीकत तस्वीर तक ही सिमटी रहती है । राजनीतिक समाधान ब्रांडेड कपड़ों
की तरह एकरंगा होते हैं । पार्टियों के भेद से उनके वादों में अंतर नहीं आता । सभी
पार्टियों के नेता मुक्त अर्थतंत्र, उपभोक्तावाद, वित्तीय ताकत और खुले व्यापार की वकालत करते हैं । इसे वे जिस भी तरह से पेश
करें, अगुआ कारपोरेट घराना ही होता है जिसकी सेवा सरकार करती
है और नागरिक उसके उपभोक्ता होते हैं ।
लेखिका का कहना है कि
सर्वसम्मति के बावजूद यह व्यवस्था सफल नहीं हो पा रही है । कुल वैचारिक घटाटोप और पूंजीवाद
की जीत के उद्घोष के बावजूद दरारें प्रकट होना शुरू कर चुकी हैं अन्यथा लोग इतनी भारी
तादाद में दुकानों की बजाय सड़क पर क्यों नजर आते । अगर नेता नागरिकों की चाहत के मुकाबले
कारपोरेट घरानों के हितों से संचालित हो रहे हैं तो लोकतंत्र का अर्थ ही क्या है ।
आंदोलनों में लोगों
की भागीदारी अचानक नहीं बढ़ी, इसमें कुछ समय लगा । उनको सरकारों की इस हकीकत को स्पष्ट देखने में वक्त लगा
कि वे ऐसी साफ और सुरक्षित दुनिया बनाने में विफल हो गयी हैं जिनमें बच्चों को जीवन
बिताना खुशनुमा लगे । जब तक लोगों की जिंदगी में बेहतरी कायम रही उन्होंने व्यवस्था
पर सवाल नहीं उठाये । शेयर बाजार में तेजी थी, ब्याज की दर में
कमी आ रही थी । बहुतेरे लोगों को अपना घर हासिल हुआ । घरों में टेलीविजन आया,
कारें आयीं । कुल मिलाकर मध्य वर्ग का विस्तार हो रहा था । यह भ्रम बना
हुआ था कि ऐसे ही सब कुछ बना या बढ़ता रहेगा । इस पूंजीवादी सपने की गिरफ़्त हम पर बनी
रहती है । संचार माध्यमों के जरिए इसको रंग पोतकर प्रसारित प्रचारित किया जाता है और
इसकी रंचमात्र आलोचना को सचेत रूप से कुचल दिया जाता है । विरोध प्रदर्शनों में जनता
की भारी मौजूदगी के बावजूद प्रचार माध्यमों में उनका जिक्र तक नहीं होता । टेलीविजन
को जब कभी खोलकर देखने बैठिये उसमें मुनाफ़ा आधारित समाज व्यवस्था को राजनीतिक,
आर्थिक और नैतिक आधार पर जायज ठहराया जाता है । जब किसी संस्था ने अमेरिकी
लोगों के उपभोग के स्तर को देखते हुए साल के एक दिन कोई खरीदारी न करने का विज्ञापन
प्रसारित करना चाहा तो सभी टेलीविजन वालों ने इनकार कर दिया हालांकि संस्था विज्ञापन
की कीमत देने को तैयार थी । अमेरिकी उपभोक्ता मेक्सिकोवासी से पांच गुना, चीनवासी से दस गुना और भारतीय से तीस गुना अधिक वस्तुओं का उपभोग करता है ।
एक चैनल ने तो कहा कि संस्था का विज्ञापन अमेरिका की वर्तमान आर्थिक नीति के विरुद्ध
और नुकसानदेह है ।
लेखिका के मुताबिक हम
ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां उपभोक्तावाद को ही आर्थिक नीति माना जाता है, कारपोरेट हितों का दबदबा है और संचार
मध्यमों से उनकी ही शब्दावली उगली जाती है तथा उनके साम्राज्यवादी शासन तले देश का
गला घोंट दिया जाता है । ये कारपोरेशन विकराल वैश्विक दैत्य में बदल चुके हैं जिनके
हाथ में अथाह राजनीतिक ताकत है । निजीकरण, खुलापन और तकनीकी उन्नति
के चलते शक्ति केंद्र में बदलाव आया है । सबसे बड़े सौ कारपोरेशनों के कब्जे में दुनिया
की कुल विदेशी संपदा का पांचवां हिस्सा है और दुनिया के सबसे बड़े सौ अर्थतंत्रों में
इक्यावन कारपोरेट प्रक्रम ही हैं । ढेर सारे छोटे देशों का समूचा सालाना बजट इन कंपनियों
की कमाई के आगे कुछ भी नहीं है । इन कंपनियों का आकार लगातार बढ़ता जा रहा है । दो या
दो से अधिक कंपनियों के विलय के चलते इनकी आर्थिक गतिविधि का आंकड़ा दिमाग को चकरा देने
वाली संख्याओं में व्यक्त होता है । सन 2000 में पांच हजार कंपनियों
का विलय हुआ था । नतीजतन इनका आकार इतना बड़ा होता जा रहा है कि कोई सरकार इनके रास्ते में खड़ा होने की
हिम्मत नहीं जुटा पा रही है । भोजन पकाने की गैस, दवा,
पानी, यातायात, सेहत और शिक्षा
जैसी सभी आवश्यक सामान उनके जरिए हम तक पहुंचता है । स्कूलों के लिए कंप्यूटर और खेतों
की फसलों तक पर उनका कब्जा है जो अपनी मर्जी के मुताबिक चाहे हमारा ध्यान रखें या हमें
भूखा मार दें ।
नयी सदी की शुरुआत में
दुनिया ऐसी ही है जिसमें सरकारों के हाथ बंधे हैं और जनता कारपोरेट घरानों पर आश्रित
हो गयी है । व्यवसायी समाज को चला रहे हैं,
नियम वे निर्धारित करते हैं और सरकारों की जिम्मेदारी उन नियमों का पालन
कराने की रह गयी है । गतिशील कारपोरेशन घुमंतू भोजनालय की तरह हो गये हैं जिन्हें अपने
दरवाजे पर रोके रखने के लिए विभिन्न देशों की सरकारें तरह तरह के प्रलोभन देती हैं
। उनकी टैक्स चोरी को अनदेखा कर दिया जाता है । रूपर्ट मर्डोक ने दुनिया भर में केवल
छह फ़ीसद टैक्स चुकाया और ब्रिटेन में 1987 से ही भारी कमाई करने
के बावजूद टैक्स के बतौर कौड़ी भी नहीं अदा की । सार्वजनिक सेवाओं और संसाधनों के लिए
धन की किल्लत होने के बावजूद नेतागण इन कारपोरेट घरानों की जीहुजूरी में लगे रहते हैं
। सरकारें पहले भूक्षेत्र के लिए मारामारी करती थीं, अब बाजार
में हिस्से के लिए छीनाझपटी में लिप्त रहती हैं । अब उनका प्रमुख काम व्यवसाय के अनुकूल
माहौल बनाना है । व्यवसायियों के लिए न्यूनतम कीमत पर सरकारी सेवा और सुविधा मुहैया
कराने तक उनकी भूमिका सीमित रह गयी है ।
इस चक्कर में
न्याय, समता, अधिकार, पर्यावरण और राष्ट्रीय सुरक्षा तक के सवालों को दरकिनार कर
दिया जाता है । तेल के बाजार के लोभ में अमेरिका ने तालिबान की सरकार का लम्बे समय
तक समर्थन किया । सामाजिक न्याय का मतलब बाजार तक पहुंच रह गया है । सामाजिक
सुरक्षा के इंतजामात खत्म कर दिये गये हैं और यूनियन की ताकत कुचल दी गयी है ।
आधुनिक काल में अमीर गरीब के बीच की खाई कभी इतनी चौड़ी नहीं थी । इस समय संपत्ति
का सृजन उसके वितरण से अधिक जरूरी काम नजर आ रहा है । पिछली सदी के अंत में एक
आदमी, माइक्रोसाफ़्ट के मालिक बिल गेट्स की संपदा सबसे नीचे की आधी आबादी के बराबर
थी । पूंजीवाद को विजय तो मिली लेकिन इस जीत में हिस्सा बहुत कम लोगों को मिला । सरकारों
ने इसकी कमियों से आंख मूंद ली है और अपनी ही बनायी नीतियों के चलते इसके दुष्परिणामों
से निपटने में अक्षम साबित हो रही हैं ।
व्यवस्था सड़ गयी है । लगभग सभी राजनेता व्यावसायिक घोटालों में गले गले तक डूबे हुए हैं । अमेरिका में यह बात सबसे अधिक प्रत्यक्ष है । राष्ट्रपति भी घोटालों में लिप्त पाये जा रहे हैं । चुनाव में उनके प्रत्याशी बनने की सम्भावना कारपोरेट जगत से धन जुटाने की उनकी क्षमता पर निर्भर हो गयी है । चंदा लेने पर सीमा समाप्त करने के पक्ष में दोनों ही पार्टियों के नेतागण एकजुट हैं । ऐसे में अचरज की बात नहीं कि नेताओं पर से लोगों का भरोसा उठता जा रहा है । 1980 के दशक में दुनिया भर में शासन पद्धति के रूप में लोकतंत्र का विस्तार हो रहा था लेकिन 1990 दशक तक मतदान का अनुपात कम होने लगा, पार्टियों की सदस्यता में गिरावट आने लगी और नेताओं के मुकाबले अन्य लोगों की लोकप्रियता में इजाफ़ा होने लगा । दस साल पहले भी जितने लोग सरकारी संस्थाओं में यकीन करते थे उनके मुकाबले ऐसे लोगों की तादाद तेजी से कम होती जा रही है । लोकतंत्र के लिए यह कोई शुभ संकेत नहीं है । राजनीति पर कारपोरेट कब्जे की इसी दुनिया की कहानी किताब में सुनायी गयी है ।
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