Wednesday, October 14, 2020

लेनिन के 150वें जन्मदिन पर

 

                      

                                        

(लेनिन की 150वीं जयंती पर इंकलाबी नौजवान सभा ने फ़ेसबुक पर बोलने के लिए कहा तो जो कुछ बोल सका उसका लिप्यंतर प्रेमशंकर के सौजन्य से हुआ।)

हम सब जानते हैं कि लेनिन का नाम सोवियत रूस  की क्रांति से जुड़ा है। 1917 की रूसी क्रांति से पहले रूस, पिछड़ा हुआ देश था। लेनिन के बाद के सोवियत संघ के शासक स्तालिन ने कहा था कि लेनिन ने साम्राज्यवाद के दौर का मार्क्सवाद विकसित किया। साम्राज्यवाद के दौर के मार्क्सवाद से उनका तात्पर्य पूंजीवाद की मार्क्सवाद द्वारा विकसित आलोचना के विकास से  है। पूंजीवाद की इस मार्क्सी आलोचना के बाद लेनिन साम्राज्यवाद पर पुस्तक लिखते हैं-  इम्पीरियलिज्म: द हाइएस्ट स्टेज ऑफ कैपिटलिज्म । इस प्रकार साम्राज्यवाद के दौर का मार्क्सवाद लेनिन द्वारा विकसित किया गया। रूसी क्रांति का महत्व ही इस बात में था कि वह साम्राज्यवाद के विरोध में की गयी क्रांति थी। रूसी क्रांति के बाद से ही क्रांतियों का केंद्र यूरोप और पश्चिम के बजाय पूर्व की ओर खिसक गया। उसके पहले की क्रांतियों को हम देखें तो 1789 की क्रांति का केंद्र फ्रांस तथा 1848 की क्रांति का केंद्र यूरोप आदि दिखते हैं। इसका मुख्य कारण यह था कि लेनिन ने अत्यंत सचेतन रूप से रूसी क्रांति की बहुत लम्बी तैयारी की थी, ठीक जिस प्रकार भारत में स्वाधीनता आंदोलन की शुरुआत के दौर में कांग्रेस के बनने से पूर्व क्रांतिकारी लोगों द्वारा अंग्रेजी साम्राज्य के विरोध में की गई थी।  तब रूस में यूरोप की सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी मानी जाने वाली सरकार जारशाही का शासन था, जिसके द्वारा कोई भी जनतांत्रिक अधिकार जनता को नहीं दिये गये थे। लेनिन की पार्टी बनने से पहले इसी जारशाही के खिलाफ क्रांतिकारियों का एक समूह कार्यरत था जिसमें लेनिन के बड़े भाई भी शामिल थे। उन्हें जार पर बम चलाने के आरोप में बाद में फांसी दे दी गई। इसी के बाद लेनिन ने तय किया था कि वे राजनीतिक पार्टी (कम्युनिस्ट पार्टी) बनाकर जारशाही का मुकाबला करेंगे। इस प्रकार लम्बे दौर में कम्युनिस्ट पार्टी गठित हुई जिसने यह तय किया कि रूसी क्रांति में उपनिवेशित देशों का साथ अहम है क्योंकि तीसरी दुनिया पर हावी साम्राज्यवाद, औपनिवेशिक देशों की संपदा के अकूत शोषण के बल पर पश्चिमी देशों में फल फूल रहा था।

मार्क्स का नारा था किदुनिया के मजदूरों एक हो। इसके बाद लेनिन ने नारा दियादुनिया के मजदूरों और उत्पीड़ित राष्ट्रों के जनगण एक हो। लेनिन यहांउत्पीड़ित राष्ट्रों के जनगणका अर्थ उपनिवेशों की संघर्षरत जनता से लेते हैं। इस प्रकार रूसी क्रांति अत्यंत सचेत रूप से मजदूर वर्ग एवम् उपनिवेशवादी विरोधी आंदोलनों को एक करने की कोशिश करती है। इसके बाद ही मार्क्सवाद के शास्त्रीय विमर्श में उपनिवेशवाद विरोध का विमर्श भी शामिल हो गया। हालांकि इसकी झलक मार्क्स के उपनिवेशवाद संबंधी लेखों में भी मिलती है, किंतु इसको व्यवहारिक रूप से लागू करने का श्रेय लेनिन को है। लेनिन की रूसी क्रांति की सफलता के बादकम्युनिस्ट इंटरनेशनलकी स्थापना हुई जिसके जरिए लेनिन ने सचेत रूप से सभी उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों व उनके नेताओं को जोड़ने की कोशिश की थी। इतिहास में से इस तथ्य को मिटाने की बहुत कोशिश की गयी है किंतु यह सच है कि अगर हिटलर को रोका जा सका या अगर दुनिया से फासीवाद और नाजीवाद की पराजय हुई तो इसका एकमात्र श्रेय सोवियत संघ को जाता है जिसने हिटलर को दूसरे विश्वयुद्ध में हराकर उस वक्त पूरी मानवता को बचाने में बहुत बड़ा योगदान किया ।

किसानों और उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों को साथ लाना रूसी क्रांति का बहुत बड़ा कार्यभार था। इसके लिए लेनिन ने शुरू से ही बहुत तैयारी की थी। भारत में जब तिलक को देशनिकाले की सजा हुई तो उसके विरोध में आयोजित बंबई के मजदूरों की हड़ताल के समर्थन में लेनिन ने पत्र लिखा था । इस तरह से कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ  उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन का संबंध जोड़ने में रूसी क्रांति का बहुत बड़ा योगदान रहा । ध्यान देने की बात है कि कोई भी क्रांति जिस देश में संपन्न होती है वहां की विशेष परिस्थितियों से उपजती है। इसीलिए रूस की खास परिस्थितियों से उपजा नारा शांति का नारा था। शांति के नारे का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि सम्पूर्ण विश्व में पूंजीवाद और साम्राज्यवाद अपने अस्तित्व के लिए युद्ध को अनिवार्य समझता है । तबसे लेकर आज तक यह चीज साम्राज्यवाद के साथ जुड़ी हुई है। आज भी लगातार दुनिया को युद्ध में झोंका जा रहा है । वर्तमान साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा हमेशा कहीं ना कहीं युद्ध भड़काने की कोशिश होती रहती है । ऐसी स्थिति में युद्ध के बजाय रूस के सैनिकों द्वारा शांति का सवाल उठाना अहम बन जाता है और इसी के साथ दूसरा नारा जमीन का उठा। रूस में बहुत बड़ी-बड़ी जमींदारियां थीं, तो जमीन का सवाल और शांति का सवाल ये रूसी क्रांति के सवाल बने। आज भी शांति व जमीन के सवाल बहुत महत्वपूर्ण सवाल बने हुए हैं। 

बीसवीं सदी में रूसी क्रांति के अलावा ऐसी कोई अन्य बड़ी घटना नहीं है जिसके जरिए पूरे विश्व की राजनीति को समझा जा सके। यही कारण था कि रूसी क्रांति से लोकप्रिय हुई विचारधारा के प्रसार को रोकने के लिए अमेरिका की मदद से पूरी दुनिया में शीत युद्ध चलाया गया और शीत युद्ध के जरिए पूरी दुनिया के साथ-साथ स्वयं अमेरिका के भीतर भी वामपंथियों के खिलाफ अभियान चलाया गया । यह वैचारिक लड़ाई लम्बे दौर तक चलती रही और कभी भी अमेरिका अथवा पूंजीवादी देशों ने सोवियत रूस को बर्दाश्त नहीं किया । वे उसके खिलाफ क्रांति के पहले दिन से ही षड्यंत्र करते रहे । इस वैचारिक और भौतिक षड्यंत्र को अस्सी साल तक सफलता के साथ रूस ने झेला । इस लम्बी और कठिन लड़ाई के दबाव के चलते समाजवादी व्यवस्था में बड़े पैमाने पर विकार भी पैदा हुए। आखिरकार सदी के लगभग अंत में उस व्यवस्था ने दम तोड़ दिया।   

लेनिन की सबसे बड़ी खूबी यह रही कि उन्होंने क्रांति की परिस्थितियों को समझा और स्पष्ट किया। उन्होंने क्रांति की तीन आवश्यक परिस्थितियों का उल्लेख किया। पहली कि खुद शासक वर्ग अपना राज्य पुराने तरीके से न चला पा रहा हो और दूसरी कि जनता भी पुराने तरह के शासन में रहना बर्दाश्त न कर पा रही हो, लेकिन इन दोनों चीजों के होने के बावजूद एक तीसरी चीज की जरूरत पड़ती है । वह है कि क्रांतिकारी ताकतें और संगठन भी अपनी तैयारी के चरम पर हों। उनके मुताबिक ऐसी स्थिति में क्रांति संपन्न हो सकती है ।

रूसी क्रांति के समय अत्यंत प्राचीन स्वप्न पहली बार साकार हुआ कि जनता के हाथ में सत्ता आ गई । इस बात को लेनिन ने रूसी  क्रांति से ठीक पहले एक पुस्तक के रूप में लिखा जिसका नाम थास्टेट ऐंड रेवोल्यूशन’ (राज्य और क्रांति) । इसमें मार्क्स की राज्य संबंधी मान्यताओं को लेनिन ने एक जगह रखकर विस्तार से व्याख्यायित किया । इस किताब में लेनिन ने बताया कि तंत्र तथा सत्ता समाज से ही उत्पन्न होती है किंतु वह खुद को समाज से ऊपर दिखाना शुरू कर देती है । इस सत्ता अथवा तंत्र पर हमेशा ही संपत्तिशाली लोगों का कब्जा रहा है इस प्रकार सत्ता ने हमेशा संपत्तिशाली लोगों के हित में कार्य किये हैं । इसी कारण यह सवाल बहुत दिनों से मौजूद रहा कि जनता अथवा सामान्य जन राज्य पर कब्जा कैसे करें? उसके तंत्र क्या होंगे? कैसे उसे व्यावहारिक रूप प्रदान किया जाएगा? लेनिन रूसी क्रांति के जरिए इस सवाल को हल करते हैं और बहुत पुराना सपना साकार करते हैं ।

तत्पश्चात एक नवीन चीज सामने आई जिसने मार्क्स को लेनिन से जोड़ा। हम जानते हैं कि जबसे आधुनिक राजनीति पैदा हुई और उसमें प्रतिनिधिमूलक संस्थाएं पैदा हुई उसी समय यूरोप में बादशाहत के साथ लड़कर लोकतंत्र कायम करने के फलस्वरूप राजनीति में एक विचारधारा पैदा हुई जिसे वर्तमान समय में उदारवाद कहा जाता है। यह वर्तमान उदारवाद सामंतवाद के साथ संघर्ष के समय में उन लोगों की विचारधारा थी  जिन्होंने लोकतंत्र का वादा करके जनता को साथ तो लिया था किंतु लेकिन फिर उस लोकतंत्र को इस तरह से परिभाषित किया कि वह सामान्य लोगों का शासन नहीं होगा बल्कि जनता के शासन के नाम पर महज एक औपचारिकता रह जानी थी। इस तरह की औपचारिकता के विरोध में मार्क्स ने स्वयं बहुत दिनों तक लड़ाई लड़ी व उसे केवल राजनीतिक क्रांति न कहकर सामाजिक क्रांति कहा।  लेनिन मार्क्स की इसी विचारधारा को सामने लाते हैं कि समाज में महज राजनीतिक क्रांति नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति होनी चाहिए, जिसमें मजदूर वर्ग के साथ-साथ समाज के सभी तबके शामिल हों। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि उनकी पार्टी का नाम क्रांतिकारी सामाजिक जनवादी लेबर पार्टी था। रूसी क्रांति में जिस सोवियतशब्द का प्रयोग किया जाता है उसका तात्पर्य पंचायत जैसी एक संस्था से है । क्रांति से पहले, क्रांति के आवेग में क्रांतिकारी संगठनों के कारण सेना में, किसानों में, फैक्ट्रियों में पंचायत जैसी संस्थाओं का निर्माण हो गया था। लेनिन यही कहते हैं कि सत्ता इन सोवियतों को दी जाये। इन संस्थाओं के जरिए जनता का कब्जा शासन पर होगा। राजनीतिक सत्ता अब केवल पूंजीपतियों के हित में कार्य नहीं करेगी, बल्कि उसे जनता के हित में कार्य करना होगा।

 रूसी क्रांति का महत्व इस बात में भी है कि वह वर्तमान लोकतंत्र का वास्तविक रूप सामने लाती है । साथ ही वह यह भी बताती है कि सामान्य लोग कैसे अपनी संस्था के जरिए सत्ता पर कब्जा करेंगे और सत्ता को चलाएंगे। इसी कारण तत्कालीन समय में जर्मनी जैसी फौज की पूरी ताकत को रूस जैसे प्रधानत: किसानी मुल्क ने पराजित किया और इतिहास में अपना नाम दर्ज किया। इतनी बड़ी सेना को एक जगह घेरकर कहीं भी आज तक सरेंडर नहीं कराया जा सका है जितनी बड़ी हिटलर की सेना को रूस ने घेर लिया और जिसे इसके बाद सरेंडर करना पड़ा। जब बाकी पूंजीपति देश (अमेरिका आदि) हिटलर के साथ परदे के पीछे बातचीत तथा होबनॉबिंग कर रहे थे, तब अकेले रूस की जनता जिसके हाथ में राजनीति चलाने का अधिकार रूसी क्रांति ने दिया था, वह उस अधिकार की रक्षा के लिए खड़ी होती है। हिटलर के खिलाफ जो लड़ाई हुई उसमें केवल रूस की सेना नहीं लड़ी, बल्कि जिन जगहों पर हिटलर की सेना का कब्जा हो गया था वहां के सामान्य लोगों ने लड़ाई लड़ी और सामान्य लोगों ने उसे पराजित किया। इसका मुख्य कारण था- रूसी क्रांति। क्योंकि जनता के भीतर की इस लड़ाकू पहलकदमी को रूसी क्रांति ने खोल दिया था। उसने इस उद्देश्य को परिभाषित किया कि यह सिर्फ राजनीतिक क्रांति नहीं है, बल्कि उसके सभी उद्देश्यों में से मात्र एक उद्देश्य राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करना है बल्कि यह पूर्णतया सामाजिक क्रांति है। अर्थतंत्र को पूंजीपतियों से लेकर सामान्य जन के मातहत ले आना इसका लक्ष्य था। इस बहुत पुराने सपने को रूसी क्रांति ने अमलीजामा पहनाया।

लेनिन की 150 वीं वर्षगांठ पर यह विचार आज भी प्रासंगिक है कि राजसत्ता को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए, उसे जनता के अधिकार में होना चाहिए और यही रूसी क्रांति का लक्ष्य भी था। तमाम आंदोलनकारी या उपनिवेशवादविरोधी जन, जो भी मानवता के पक्ष में खड़े हैं वे रूसी क्रांति के समर्थन में रहे हैं। जब रूस को पूरी तरह घेर लिया गया था तब लेनिनन्यू इकोनामिक पॉलिसीनामक नई नीति बनाते हैं जिसमें पूंजीपतियों से लड़ने के लिए थोड़ा वक्त मांगा गया। तारिक अली कहते हैं कि अगर लेनिन रूस में सही समय पर न आये होते तो रूसी क्रांति न हुई होती क्योंकि उस वक्त तत्कालीन प्रोविजनल गवर्नमेंट के समर्थन में बुर्जुआ वर्ग के साथ कुछ उनके  लोग भी जा चुके थे। तब लेनिन ने कहा था कि या तो भयानक नरसंहार होगा या फिर क्रांति के जरिए शांति स्थापित होगी। हम जानते हैं कि लेनिन का अनुमान गलत नहीं था। सबूत है कि उस समय की सरकार ने पूंजीपतियों की सहमति से जनता को मरने देने के लिए मास्को को खाली करने का निर्णय ले लिया था। इसके बाद रूस की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक पार्टी) की सहायता से लेनिन ने सचेतन रूप से कोशिश करके सोवियतों का सम्मेलन बुलाया और सम्मेलन के दौरान सत्ता सम्भालने की घोषणा की। फिर तो सोवियतों ने रूस की सत्ता संभाल ली। कहने की जरूरत नहीं कि रूस दुनिया के बहुभाषिक मुल्क का एकमात्र ऐसा उदाहरण है जिसने विविधता से भरे हुए देश को एक साथ जोड़कर रखना तथा संघीयता को भी अपने वास्तविक रूप में साकार करने जैसी चीजें लम्बे दौर में दुनिया को सिखाईं ।

आज भी हम यह देख रहे हैं कि लगातार पूंजी जैसे-जैसे संकट में आ रही है और दुनिया में दक्षिणपंथी ताकतों का उभार हो रहा है तो  मार्क्सवादी तथा वामपंथी विचारधाराओं पर हमले बढ़  रहे हैं। हम सब जानते हैं कि त्रिपुरा में जब भाजपा की जीत हुई तो उन्होंने लेनिन की एक मूर्ति का सिर गिरा कर जश्न मनाया। इस प्रकार सिद्ध है कि लेनिन जनता की मुक्ति का प्रतीक हैं, शासन पर जनता के कब्जे का प्रतीक हैं और इसलिए जनता के  विरोध में बोलनेवालों के लिए जरूरी हो जाता है कि वे सबसे पहले लेनिन को बदनाम करें ।

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