सवाल-
आप मार्क्सवाद के
प्रति कैसे आकृष्ट हुए ?
उत्तर- इसे एकाधिक घटनाओं और
प्रवृत्तियों का नतीजा मान सकते हैं । सबसे पहले कि मेरा जन्म बंगाल में हुआ था ।
शायद बाहरी होने के चलते बचपन में वहां मौजूद भेदभाव की व्यवस्था का पता न चला होगा
। बचपन में खुदीराम बोस के बारे में फ़िल्म देखी । तबसे गहरा आदर्श भी मेरी सोच का
हिस्सा बन गया । लोग बताते हैं कि उसका एक गीत ‘एक बार बिदाइ दे मां, घूरे आसी । हांसी हांसी कोरबो फांसी, देखबे भारतवासी’
अकसर गाता था । सात साल की उम्र में गांव वापस आया तो जाति तथा लिंग
आधारित भेदभाव और हिंसा से चिढ़ होती थी । ऐसे में दोस्ती जिनसे हुई वे भी बंगाल
रहे थे और कम्युनिस्ट विचारों के थे । ढेर सारे लोगों का समूह बन गया । उसमें
अधिकतर सवर्ण थे । हम सभी धार्मिक कर्मकांड और पाखंड का घनघोर विरोध करते । प्रेमचंद
के लेखन ने दीवानगी को जन्म दिया । अपने गांव पर पुस्तकालय खोला । दलित और पिछड़ी
जाति के लोगों से घनिष्ठ हुए और उनके साथ होने वाले अन्याय का विरोध भी किया ।
हमारा आदर्शवाद भगत सिंह से मुहब्बत में परिणत हुआ । हमसे पहले की पीढ़ी पर
स्वाधीनता आंदोलन की छाप के साथ ही जमींदारी विरोधी वाम आंदोलन की भी छाप थी । पहले
चुनाव में हमारे जिले के सांसद और चारों विधायक कम्युनिस्ट पार्टी के थे । जिस समय
हम सचेत हुए तब जिले में नक्सल आंदोलन दलित गरीबों में जगह बना रहा था । बगल के
गांव नारायणपुर के शिवमोहन यादव काशी हिंदू विश्वविद्यालय में कृषि विज्ञान के
छात्र थे । वे पढ़ाई छोड़कर पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने और दहेन्दू गांव से उठाकर
पुलिस ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी थी । इसी नारायणपुर गांव के पड़ोस में
इलाहाबाद के रहने वाले कुलवक्ती नक्सल कार्यकर्ता लालचंद गुप्ता की हत्या हुई थी ।
वे लेखा विभाग की नौकरी छोड़कर आंदोलन में शरीक हुए थे । कभी घर भी आए थे । ऐसा
लगता है कि रात में एक कहानी सुनाई थी जिसका सार था- जिनका
नाम लक्ष्मी था वे खेत में गिरे अन्न के दाने बीन रही थीं, जिनका
धनपाल था वे हल चला रहे थे और जिनका अमर था वे अर्थी पर जा रहे थे इसलिए सबसे
अच्छा नाम ठठपाल है । उसी आंदोलन के क्रम में शेरपुर गांव में दलितों की बस्ती जला
दी गई थी । पीड़ित लोगों के जुलूस को स्कूल की खिड़की से जाते देखा था । लम्बा
मुकदमा चला । वह आंदोलन, घटनाक्रम, आगजनी
और मुकदमा- सब कुछ विशाल महाकाव्य है । पता नहीं कब लिखा जाए
। मार्क्स का नाम सुना और राहुल सांकृत्यायन की लिखी उनकी जीवनी पढ़ी । आगे के अध्ययन
के लिए बनारस गए तो वहां नुक्कड़ नाटक करने वालों की एक टोली में शरीक हुए । यह
मंडली शम्सुल इस्लाम के प्रशिक्षण में गुरुशरण सिंह के नाटक करती थी । बड़े भाई
अवधेश प्रधान के पास किताबों का जखीरा था । लेनिन, स्तालिन
और माओ की जीवनियां भी पढ़ गया । ताल्सताय और गोर्की भी रास आने लगे । धीरे धीरे
समझ बढ़ी तो मार्क्सवाद को चारों ओर हो रही घटनाओं को समझने के लिए सबसे कारगर पाया
।
सवाल- आपने बनास के लिए
दो बार मार्क्सवाद की समसामयिक स्थितियों पर पुस्तिकाएं लिखी हैं, यह विचार कैसे आया ?
उत्तर- जे एन यू में रहते हुए दुनिया
जहान में चल रही बहसों की जानकारी रहती थी । नौकरी के लिए दूर दराज रहना पड़ा ।
घटनाक्रम से वाकिफ़ रहता था लेकिन आस पास के माहौल में बहसों का वह स्तर नहीं था ।
फिर भी जीवन को बेहतर समझने के लिहाज से बेहद लाभप्रद समय बीता । अनुवाद, पढ़ाई और छिटपुट लेखन जारी रहा । चौदह साल देश के इस कोने से उस कोने की
खाक छानने के बाद दिल्ली वापस आया तो पी वी श्रीनिवास उर्फ़ गणेशन ने मुझे हाल के
चर्चित मार्क्सवादियों के लेखन की जानकारी दी । मुझे लगा कि हिंदी में इस सामग्री
को उपलब्ध होना चाहिए । मार्क्सवाद की समाप्ति के शोर का मुकाबला करने के लिए भी
ऐसा जरूरी लगा । हमारे देश में मार्क्सवाद से भावनात्मक तौर पर जुड़े लोग तो थे
लेकिन नेताओं में हताशा थी । मुझसे अधिक सक्षम मित्रों से इस काम को करने की
प्रार्थना की लेकिन उनकी अपनी व्यस्तताएं थीं इसलिए मुझे ही इस काम में हाथ लगाना
पड़ा । मेरा विश्वास है कि वे लोग बेहतर तरीके से इस काम को कर सकते थे । कुछ
प्रेरणा जे एन यू के मेरे शिक्षक मैनेजर पांडे से मिली । उन्होंने मार्क्स के लेखन
का अनुवाद लम्बी भूमिका के साथ ‘संकट के बावजूद’ शीर्षक से प्रकाशित कराया था । पुस्तिकाओं को पसंद किया गया यह मेरा
सौभाग्य है । ऊपर से पता नहीं चलता लेकिन सचाई है कि सतह के नीचे बेचैन पाठकों की
विशाल फौज है । उसके सवालों को ध्यान में रखते हुए अध्ययन सामग्री उपलब्ध नहीं हो
रही है । लगता है हिंदी में केवल साहित्य है लेकिन गम्भीर साहित्येतर लेखन हिंदी
में हो रहा है ।
सवाल- क्या मार्क्सवादी
दृष्टिकोण अब भी प्रासंगिक लगता है ?
उत्तर- युद्ध, हिंसा,
गरीबी, बेरोजगारी और विषमता को व्याख्यायित
करने में कोई भी अन्य विचार पद्धति मार्क्सवाद से अधिक सक्षम नहीं प्रतीत हो रही ।
जाति और लिंग आधारित हिंसा और भेदभाव का विरोध करने वाली ताकतों को अब भी सामाजिक
समता के मार्क्सवादी आदर्श और शोषण विहीन समाज का स्वप्न आकर्षित करता है । हमारे
देश में पूंजीवाद ने ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को नवजीवन प्रदान किया है । सामाजिक
न्याय के लिए लड़ने वाले लोग भी इसे महसूस कर रहे हैं । इसके साथ पर्यावरण का सवाल
भी जुड़ गया है । अकूत मुनाफ़े की लालच ने धरती के प्राकृतिक संसाधनों को दूह लेने
की होड़ पैदा कर दी है और इसके चलते यह धरती मनुष्य के रहने लायक नहीं रह गई है ।
इस दोहन से जिन्हें लाभ हो रहा है उन्हें इस प्राकृतिक विनाश की कीमत नहीं चुकानी
पड़ेगी । विकसित देशों की जीवनशैली को बरकरार रखने की कीमत गरीब देशों के लोगों को
चुकानी पड़ रही है । औपनिवेशिक शासन ने उपनिवेशित देशों का आर्थिक और बौद्धिक दोहन
करने के साथ प्राकृतिक संसाधनों का भी दोहन किया । आज भी वह प्रक्रिया जारी है ।
अनुपनिवेशीकरण का कार्यभार अधूरा है । वर्तमान सदी में सच्चे और आमूल
अनुपनिवेशीकरण के लिए पूंजीवाद के सबसे तीक्ष्ण आलोचक विचार होने के नाते
मार्क्सवाद से संवाद करना होगा । हमारे देश में स्वाधीनता की लड़ाई के दौरान
मार्क्सवाद से जुड़कर उपनिवेशवाद विरोध को व्यापक आयाम मिला था । आज भी उस काम को
ही आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी सबसे बड़ी देश सेवा होगी ।
सवाल- आपने छायावादयुगीन
आलोचना और वाद विवादों पर शोध किया, अकादमिक हिंदी के मध्य विचारधारा पर अतिरिक्त आग्रह क्यों ?
उत्तर- छायावाद स्वाधीनता आंदोलन की
सर्वोत्तम साहित्यिक उपलब्धि है । भारत का स्वाधीनता आंदोलन इतना रूपांतरकारी था
कि उसने भक्ति साहित्य के बाद समाज के लगभग सभी तबकों को जगा दिया । आश्चर्य नहीं
कि महादेवी, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे लेखकों के साहित्यिक
हस्तक्षेप के अतिरिक्त उस समय के साहित्य में सामाजिक भूमिका निभाने वाले भास्वर
स्त्री चरित्रों की भरमार है । मार्क्सवाद और छायावाद में रुचि में कोई विरोध नहीं
है । खुद मार्क्स पूंजीवाद की कब्र खोदने वालों के पक्षधर थे । भारत के स्वाधीनता
आंदोलन में उनकी जैसी रुचि थी वैसी रुचि बहुत कम पश्चिमी विद्वानों में थी । 1853
में उन्होंने भारत की स्वाधीनता का सपना देखा था । स्वाधीनता आंदोलन
को लेनिन के नेतृत्व में संचालित तीसरे इंटरनेशनल का सक्रिय समर्थन प्राप्त था ।
छायावाद की ओर शायद मेरा मार्क्सवाद प्रेम ही अनजाने ले गया था । रहा विचारधारा का
सवाल तो न केवल साहित्य के सृजन में बल्कि यथार्थ को देखने में भी विचारधारा मौजूद
रहती है ।
सवाल- हिंदी आलोचना के
लिए विचारधारा कितनी जरूरी है ?
उत्तर- साहित्यिक रचनाओं में विचारधारा
सतह पर नहीं तैरती अंतर्निहित रहती है । यदि आलोचक का धर्म साहित्य के मर्म का
उद्घाटन करना है तो उसे इस अंतर्निहित तत्व की पहचान होनी चाहिए । प्रेमचंद ने
साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा ‘जीवन की आलोचना’ मानी है । इस आलोचना का अर्थ जीवन स्थितियों की आलोचना है । यहां याद
दिलाना जरूरी नहीं कि मार्क्स भी वर्तमान की निर्मम आलोचना को अपना कार्यभार समझते
थे । इस आलोचना का मकसद बदलाव की प्रेरणा देना होता है । इसकी पहचान के लिए
विचारधारा की जानकारी जरूरी है । कोई भी साहित्यकार जीवन की आलोचना करते हुए पक्ष
ग्रहण करता है । मनुष्य की अवस्था के प्रति तटस्थ और निरपेक्ष होकर साहित्य की
रचना मुश्किल है । रचना के भीतर मौजूद इन नाजुक तत्वों को ममता के साथ पहचानने और
उजागर करने के लिए विचारधारा का ज्ञान अत्यंत आवश्यक प्रतीत होता है ।
सवाल- आपने लघु पत्रिकाओं
के लिए बराबर लिखा है। कोई विशेष कारण ?
उत्तर- असल में जो कुछ लिखा है वह किसी
फ़ैशन में समा नहीं सकता । बड़ी पत्रिकाओं में दुर्भाग्य से सनसनी और गतानुगतिकता के
प्रति अधिक लगाव है । विचित्र लिखने की अपनी आदत का पता है इसलिए जानता हूं कि
स्थापित के लिए शर्मिंदगी पैदा करूंगा । ढेर सारी बदनामी ने नुकसान किया तो सुनने
वाले भी दिए । आदरणीय होना कभी काम्य नहीं था । मंचस्थ होने पर असहज हो जाता हूं ।
लघु पत्रिकाओं में अलक्षित रह जाने की सुविधा होती है । ऐसा नहीं कि बड़ी पत्रिकाओं
में लिखना नहीं चाहता लेकिन उन्हें जो चाहिए वह पैदा करना सम्भव नहीं । इसे अपनी
पसंद भी कह सकते हैं ।
सवाल- चेखव पर एक किताब
भी लिखी थी। क्या कोई मौलिक गद्य कृति भी लिख रहे हैं ?
उत्तर- रुचियां इतनी विविध हैं कि किसी
एक दिशा में देर तक और दूर तक चलना अच्छा लगने के बावजूद हो नहीं पाता । किताब
रामचंद्र शुक्ल पर, प्रेमचंद पर, महादेवी
पर और आधुनिक कथेतर गद्य पर लिखनी है । कहना मुश्किल है कि कब तक लिखी जाएंगी ।
कभी ताल्सताय और भारत पर भी लिखने की कोशिश की थी । मौका मिले तो नागार्जुन पर भी
लिखना है ।
आगामी योजनाएं ?
उत्तर-
सबसे
बड़ी
महात्वाकांक्षा अपने जिले का इतिहास लिखने की है । भू-संपत्ति में बदलाव के साथ सामाजिक बदलाव को परखना उत्तेजक लगता है । आबादी के प्राचीन और अर्वाचीन आवागमन, खेती की फसलों के चुनाव में मौसम की भूमिका और सामाजिक गतिशीलता के संदर्भ में साहित्य को परखने से उसके अलग ही मानी खुलते हैं । दूसरी महात्वाकांक्षा आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने की है । इस सिलसिले में वर्तमान विधा आधारित इतिहास लेखन इतना अपर्याप्त है कि उससे तोता रटंत विद्वत्ता ही पैदा हो सकती है जिसका प्राचुर्य चिंताजनक स्तर पर पहुंच चुका है । आधुनिक काल की समग्र गतिशीलता में अवस्थित करके आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन ही साहित्य और साहित्येतर की पारस्परिक समृद्धि को उजागर कर सकता है । खासकर पत्रकारिता के साथ साहित्य की घनिष्ठता पर विशेष पहलू के बतौर एकबारगी ध्यान नहीं जाता तो उसका कारण हिंदी की पत्रकारीय सक्रियता को साहित्यिक माहौल से अलग कर देने में निहित है । तीसरी महात्वाकांक्षा हिंदी अनुवादों पर एक ग्रंथ तैयार करने की है । अनुवाद के अध्ययन के लिए विभिन्न शिक्षा संस्थानों में विभाग खोल लिए गए हैं लेकिन उनमें तकनीकी या अमूर्त सैद्धांतिकी की चर्चा होती है । अनुवाद के ठोस संदर्भ से बात नहीं होती । आधुनिक हिंदी साहित्य को आकार देने में भारतीय भाषाओं और यूरोपीय भाषाओं से हुए अनुवादों की महत्वपूर्ण भूमिका है । अनुवाद को सांस्कृतिक संवाद के रूप में ग्रहण करने पर इस विराट आलोड़न को समझा जा सकता है । सभी महात्वाकांक्षाओं की तरह इन्हें भी किसी दूसरे के सहारे पूरा होने की आशा छोड़ी नहीं है । कभी किताब लिखने की योजना बनाई तो लेख भी पूरा नहीं हो सका ।
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