(इस किताब को पढ़ते हुए लगातार महसूस होता रहा कि
बात किसी अन्य देश की नहीं, अपने ही प्यारे भारत की हो रही है । वर्तमान तो बहुत
कुछ इतना ही भयावह है, भविष्य के बारे में कुछ कहना मुश्किल है । जब इस अंधेरी
सुरंग से बाहर निकलेंगे तो शायद हमारे पास भी ऐसी ही कुछ गुमनाम कथाएं होंगी ।
तानाशाहों की कब्र पर फूल उगेंगे और उनसे जूझने की बेखौफ़ लड़ाई के किस्से याद रखे
जाएंगे । जो बच्चे आज लाठी खा रहे हैं कल के आजाद देश का निर्माण वही करेंगे ।)
2019 में वर्सो से डैनिएल सोनाबेन्ड की किताब ‘वी
फ़ाइट फ़ासिस्ट्स: द 43 ग्रुप ऐंड देयर फ़ारगाटेन बैटल फ़ार पोस्ट-वार ब्रिटेन’ का
प्रकाशन हुआ । किताब में 43 यहूदियों के उस समूह की कहानी बताई गई है जिसने
फ़ासीवाद से लड़ाई लड़ी थी । इस समूह ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन में
फ़ासीवादियों का मुकाबला किया था । इस समूह के बारे में लेखक को यहूदी होने के
बावजूद पता नहीं था । यहूदी इतिहास के जानकार उनके अन्य दोस्तों को भी इस समूह के
बारे में कुछ खास पता नहीं था । ये लड़ाइयां अक्सर रविवार को होती थीं । लेखक को
अचानक पता चला कि उनके पितामह इस समूह के सदस्य रहे थे । असल में सत्रह साल की
उम्र में फ़ासिस्टों की नुक्कड़ सभाओं की खबर इस समूह तक पहुंचाने का काम वे किया
करते थे । वे थोड़ा डरपोक थे इसलिए असली लड़ाई में शामिल नहीं होते थे । इससे पहले
परिवार के किसी सदस्य को उन्होंने अपनी इस सक्रियता के बारे में कुछ भी नहीं बताया
था । उनको इस समूह के संस्थापक की लिखी और 1993 में छपी किताब का पता चला । उसे
पढ़ने के बाद लेखक ने इसे व्यापक स्तर पर प्रचारित करने का इरादा बनाया । पहले कोशिश
की कि फ़िल्म या टेलीविजन के माध्यम का इस्तेमाल करें लेकिन सफलता नहीं मिली । फिर इस
समूह के बारे में शोध शुरू किया । इसी समय पता चला कि न्यू यार्क की एक फोटोग्राफर
का संबंध समूह के संस्थापक से है । वहां पहुंचकर संस्थापक का साक्षात्कार किया तो ढेर
सारी कहानियों का पता चला । उनकी किताब पढ़ने और साक्षात्कार के बाद भी लेखक ने गहन
शोध जारी रखा ।
समूह के संस्थापक की किताब ही जानकारी का एकमात्र
स्रोत थी । समूह के सदस्यों को शिकायत थी कि लेखक ने समूह के प्रभाव का अतिरंजित वर्णन
किया है । उन्होंने केवल कुछ बड़ी घटनाओं का विस्तार के साथ उल्लेख करके रोजमर्रा के
कष्टसाध्य काम की उपेक्षा की है । सदस्यों का कहना था कि लेखक ने उन्हें व्यर्थ ही
कमान्डो कहा है । असल वे युवा लोग थे और गलती करके उससे सीखते थे । इनमें शामिल होने
वालों को स्कूल में यहूदी होने के नाते अपमान झेलना पड़ा था इसलिए बहुत कम उम्र में
ही वे फ़ासीवाद के विरोध में काम करना शुरू कर चुके थे । स्कूलों के बाहर भी हालात अच्छे
नहीं थे । अभिभावकों की दुकानों पर हमले हो रहे थे । कुछ कुछ इसके चलते भी बीसवीं सदी
के अधिकांश बेहतरीन मुक्केबाज यहूदी रहे । उन्हें स्कूल से ही मुक्केबाजी शुरू करनी
होती थी । इन हालात में बदतरी आई जब 1934 में ब्रिटिश यूनियन आफ़ फ़ासिस्ट्स का गठन
हुआ ।
इसके समर्थकों में अखबारों के मालिक भी थे । इनके
साथ ही कुलीनों और मध्यवर्ग तथा मजदूर वर्ग में भी इनका समर्थन बढ़ने लगा । इनकी
भीड़ भरी सभाओं में विरोधियों पर हमले किए जाते । इन झगड़ों में लोग घायल होते । फ़ासिस्टों
की क्रूरता उजागर होने लगी । जर्मनी में जब उनके कारनामों की खबरें बाहर आने लगीं
तो समर्थन घटना शुरू हुआ । समर्थक अखबार ने भी समर्थन कम कर दिया । धीरे धीरे ऐसे
कट्टर नेताओं का आगमन हुआ जो यहूदियों की आबादी पर खुलेआम हमलों का आवाहन करते थे
। इन भड़काऊ भाषणों के चलते यहूदियों के घरों, दुकानों और उपासना स्थलों पर तोड़फोड़
हुई और कुछ व्यक्तियों पर भी शारीरिक हमले हुए । इन हमलों को खामोशी से सहने की
जगह यहूदी समुदाय ने आत्मरक्षा के उपाय किए और फ़ासीवाद विरोधी संगठनों में शामिल
हुए । इन संगठनों में सबसे मजबूत कम्युनिस्ट पार्टी थी । इसका नतीजा यह निकला कि
यहूदियों ने थोक के भाव कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ली । कम्युनिस्ट पार्टी ने
भी फ़ासिस्टों की तरह सभाओं का आयोजन शुरू किया । इसके चलते जो टकराव होते उन्हें
अखबार, नेता और पुलिस राजनीतिक होड़ के रूप में प्रचारित करते जिनमें गलती दोनों
तरफ से हुई साबित की जाती ।
कुछ यहूदी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण
किए बिना फ़ासीवाद से लड़ना चाहते थे । ऐसे लोग ब्रिटेन के यहूदियों के एक आधिकारिक
संगठन से कुछ करने की उम्मीद लगा बैठे । उस संगठन के पदाधिकारी विवाद से बचना
चाहते थे और डरते थे कि कोई बात होने पर यहूदी विरोध बढ़ जाएगा । उन्होंने फ़ासीवाद
का भी विरोध करने से इनकार कर दिया । नतीजतन युवा यहूदियों में इस संगठन से चिढ़ का
भाव उपजा । इस अंतराल को पाटने के लिए यहूदियों के अन्य संगठन सामने आए । इनका
महासंघ स्थापित हुआ । इधर फ़ासीवादी संगठन ने यहूदियों के इलाके से जुलूस निकालने
की घोषणा की । महासंघ ने विरोध का फैसला किया । पुलिस ने फ़ासीवादी संगठन का जुलूस
निकालने के लिए स्थानीय निवासियों की जत्थेबंदी को हटाने के लिए हिंसा का सहारा
लिया । फिर भी जुलूस को रोकने में महासंघ सफल रहा । इस सफलता ने लड़ाकुओं के
उपर्युक्त समूह की स्थापना की प्रेरणा प्रदान की । दूसरी तरफ फ़ासीवादी समूह ने
अपनी असफलता के प्रतिकार स्वरूप यहूदी बस्ती में आतंक का राज बरपा करने का प्रयास
किया । उन्होंने यहूदी समुदाय पर छिटपुट हमले तेज कर दिए । इन लड़ाइयों में यहूदी नौजवानों
ने बहादुरी का परिचय दिया । इनसे उनके भीतर फ़ासीवाद विरोधी राजनीतिक समझ का भी
विकास हुआ । इन्होंने ही दस साल बाद उपर्युक्त जुझारू समूह का निर्माण करके
विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद फ़ासीवादियों का जीवन दूभर कर दिया ।
बहरहाल फ़ासीवादियों के नेता ने अपने संगठन में कुछ
बदलाव किए और उसे आसन्न युद्ध के विरोध करने के लिए तैयार किया । अब उसने शांतिवादी
का चोला धारण करके हिटलर और मुसोलिनी के साथ सहयोग की वकालत शुरू की और चर्चिल के ‘युद्धोन्माद’ का विरोध किया । युद्ध शुरू हो जाने के बाद उस संगठन ने अपनी कोशिशों में तेजी
लाई और शांतिपूर्ण समझौते के लिए अभियान चलाया । इस बदलाव के बावजूद यहूदियों पर उनके
हमलों में कमी नहीं आई । फ़ासीवादियों के संगठन एकाधिक थे । एक के दिशा बदलने से उससे
अधिक कट्टर दूसरा संगठन केंद्र में आ जाता था । इनमें एक सांसद भी थे जिनके संगठन का
घोषित मकसद ‘संगठित यहूदीपन की गतिविधियों का रहस्योद्घाटन और
विरोध करना’ था । उन्होंने एक दक्षिणपंथी क्लब बना रखा था और
उसके 135 सदस्यों के नाम दर्ज कर रखे थे । संख्या कम लग सकती
है क्योंकि सांसद महोदय इसमें केवल कुलीनों और बड़े लोगों को शामिल करना चाहते थे ।
इससे फ़ासीवाद विरोधियों के इस संदेह की पुष्टि हुई कि ऊंचे पदों पर बैठे लोग फ़ासीवाद
के समर्थक हैं । 1940 के अंत तक एक हजार फ़ासिस्टों की गिरफ़्तारी हुई । उन्हें
आरामदेह जगहों पर कैद में रखा गया । वे लोग आखिरकार प्रभावशाली लोग थे फिर भी इस
गिरफ़्तारी का तात्कालिक कारण यह था कि हिटलर इंग्लैंड के मुहाने तक आ पहुंचा था ।
ऐसे में इन्हें आजाद छोड़ने में खतरा था ।
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