Saturday, December 21, 2019

फ़ासीवाद से जूझने को प्रतिबद्ध


           
                                   
यूरोपीय देशों की कम्यूनिस्ट पार्टियों के दो नेता ऐसे रहे जिन्हें सोवियत मार्क्सवाद के प्रभाव में उचित महत्व नहीं मिला लेकिन वर्तमान सदी में फ़ासीवाद के उभार ने इनको फिर से प्रासंगिक बना दिया है । उनमें से एक रोजा लक्जेमबर्ग की तो हत्या का यह शताब्दी वर्ष है । रोजा का महत्व मार्क्सवाद को लोकतंत्र के साथ जोड़ने के कारण भी बना हुआ है । उनके साथ ही ग्राम्शी को भी याद रखा जाना चाहिए जिन्हें इटली की फ़ासीवादी सत्ता से जूझने का दंड घातक कारावास के रूप में मिला । फ़ासीवादी चुनौती ही उनके समूचे सैद्धांतिक अवदान का ठोस संदर्भ है । इन दोनों ही चिंतकों को मार्क्सवाद की सोवियत धारा के समानांतर खड़ा करने के बहुतेरा प्रयास हुए । वर्तमान समय उनके जीवन और चिंतन को नए आलोक में देखने की प्रेरणा प्रदान कर रहा है । इस प्रसंग में सोवियत मार्क्सवाद के भीतर भी कोमिंटर्न के योगदान को रेखांकित करने की जरूरत है । इस संगठन ने पूरी दुनिया में फ़ासीवाद विरोधी गोलबंदी को वाम तेवर दिया था और उसको निर्णायक तौर पर दफ़न करने में अग्रणी भूमिका निभाई थी ।
2019 में वर्सो से क्लाउस गाइटिंगेर की जर्मन भाषा में 1993 के बाद 2008 में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद द मर्डर आफ़ रोजा लक्जेमबर्गप्रकाशित हुआ । अनुवाद लोरेन बालहोर्न ने किया है । अंग्रेजी संस्करण की भूमिका में लेखक ने बताया है कि बर्लिन की दीवार ढहने के तुरंत बाद उनके मन में रोजा की हत्या के बारे में फ़िल्म बनाने का विचित्र विचार आया । उस समय रोजा किसी की पसंद नहीं थीं । जर्मनी के सार्वजनिक जीवन में सहसा वे पूरी तरह से अवांछित हो गई थीं । उनके कृत्य शैतानी नजर आने लगे थे । फ़िल्म के लिए कोई धन देने को तैयार नहीं था फिर भी वे इस क्रांतिकारी के जीवन के बारे में शोध करते रहे । इसी क्रम में अचानक उन्हें रोजा की हत्या पर चले मुकदमे के अदालती दस्तावेज हाथ लगे । यह मुकदमा जर्मनी के इतिहास में न्याय का सबसे बड़ा मखौल था क्योंकि हत्यारों के दोस्त ही जज थे । किताब जबसे छपी तबसे ही विवाद का विषय हो गई थी । स्वाभाविक था कि रोजा की विचारधारा के विरोधी इसमें मौजूद तथ्यों से इनकार करते ।  
रोजा और लीबक्नेख्त की हत्या के सौ साल बाद माहौल फिर से बदला है । रोजा के जीवन और लेखन में रुचि जागी है । 15 जनवरी 1919 को इन दोनों क्रांतिकारियों की हत्या हुई थी । उनकी हत्या के बाद फ़ासिस्टों के हाथों कम्यूनिस्टों की निर्मम हत्याओं का सिलसिला शुरू हुआ । हत्यारों को पक्का यकीन था कि अदालतें कुछ भी नहीं करेंगी । खास बात यह कि जिस पार्टी के चलते इनकी हत्या हुई थी उसने अब भी इसकी जिम्मेदारी नहीं ली है । लेखक को उम्मीद है कि शताब्दी वर्ष में शायद यह काम होगा । हत्या के पचास साल बाद कुछ सबूतों के आधार पर जब एर्तेल नाम के व्यक्ति ने इसके बारे में नाटक प्रसारित किया तो उन पर मुकदमा चला । डरकर उन्होंने अपनी बात वापस ले ली । इन सबके चलते आज भी उस हत्या की सचाई पूरी तरह से उजागर नहीं हो सकी है । जर्मनी के इतिहास की यह घटना ऐसी थी कि लेखक ने जब किताब की बातें एक सभा में साझा कीं तो हत्यारों की विचारधारा के एक समर्थक ने इनकी सचाई पर सवाल उठाया ।  
हत्यारों की पहचान के मामले में स्पष्टता के आंशिक अभाव में तरह तरह की अफवाहें समय समय पर उड़ती रहती हैं । इन हत्याओं की जड़ में जर्मनी में क्रांति की कोशिश थी । 1918-19 में जर्मनी के तटीय इलाकों में नौसैनिकों के विद्रोह की खबरें शासकों के लिए अचम्भे की बात थी । इस विद्रोह से लगभग सभी अफ़सर चकित रह गए । असल में जर्मनी की सेना में समाज की तरह ही सामंती माहौल था अफ़सर और सैनिक के बीच इतनी दूरी रखी जाती थी कि अफ़सरों को सैनिकों का साहस समझ नहीं आया शुरुआती विस्मय के बाद इन अफ़सरों ने बदला लेने की योजना बनाई । वे साधारण जनता को विद्रोह के लिए उकसाने वाले इन दोनों कम्युनिस्ट नेताओं (रोजा और लीबक्नेख्त) के प्रति प्रचंड नफ़रत से भरे हुए थे । उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से काम शुरू किया । उन्होंने तेजी से काम करने वाला एक छोटा समूह बनाया ताकि लाल विद्रोहियों के गढ़ में खास काम तुरंत निपटाया जा सके । माहौल ऐसा था कि पुरानी व्यवस्था के कल पुर्जे ढीले पड़ गए थे । बर्लिन शहर जनता के कब्जे में प्रतीत हो रहा था । ऐसे में इस समूह को बाहरी प्रभावों से दूर रखकर उसके भीतर वैचारिक मजबूती कायम रखना जरूरी था । इसके लिए उनको प्रतिक्रियावादी विश्व दृष्टि की शिक्षा दी जाती थी । समूह के नेता ने लीबक्नेख्त के भाषण सुने और उन्हें वैचारिक दुश्मन के रूप में चिन्हित किया । कम्यूनिस्ट नेताओं के प्रभाव का अंदाजा तब लगा जब उनके सैनिकों ने रोजा का व्याख्यान कराने की मांग की । अफ़सरों के नेता ने दोनों को दुनिया से उठा देने की ठान ली ।                     
रोजा का क्रांतिकारी व्यक्तित्व बहुत शुरू से चर्चा का विषय रहा है रोजा के इसी महत्व की पहचान सदी के लगभग आरम्भ में ही कराते हुए 2004 में इमेराल्ड ग्रुप पब्लिशिंग लिमिटेड से सुसान सोडेरबेर्ग और पी ज़ारेम्बका के संपादन मेंनियोलिबरलिज्म इन क्राइसिस, एकुमुलेशन, ऐंड रोजा लक्जेमबर्गस लीगेसीका प्रकाशन हुआ । किताब में शामिल लेख तीन भागों में संयोजित हैं । पहले भाग में नवउदारवाद के तहत पूंजी की अनुशासनकारी भूमिका पर विचार करने वाले लेख हैं । दूसरे भाग में पूंजी संचय और वित्त से संबंधित लेख हैं । तीसरे भाग में रोजा के जीवन और सिद्धांत से जुड़े लेख हैं । इस तरह के अध्ययन का बड़ा कारण यह था कि लेनिन के साथ ही रोजा का भी नाम मार्क्स के आर्थिक चिंतन को विकसित करने वालों में लिया जाता है   
इसी तरह 2011 में ब्रिल से डेविड फ़ेर्नबाख की भूमिका के साथ और उनके संपादन मेंइन द स्टेप्स आफ़ रोजा लक्जेमबर्ग: सेलेक्टेड राइटिंग्स आफ़ पाल लेवीशीर्षक किताब का प्रकाशन हुआ । फ़ेर्नबाख का कहना है कि बीसवीं सदी में दो तरीकों से समाजवादी पार्टियों ने सत्ता पर कब्जा किया । कुछ ने आंशिक सुधारों तक खुद को सीमित रखा जबकि कुछ अन्य ने चुनावी जनादेश पर बिना भरोसा किए विद्रोह से सत्ता कब्जाई । मार्क्स ने जिस तरह सोचा था उससे अलग दोनों ही तरीके थे । इनमें मजदूर वर्ग के मकसद को कुछ आगे बढ़ाने के लिए स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप रास्ता अपनाया गया था । वर्तमान हालात में पहला रास्ता अपर्याप्त लगता है और दूसरा असंभव । धरती को विनाश से बचाने का एकमात्र तरीका मौजूदा शक्ति संरचना के विरुद्ध क्रांति है । यह क्रांति बहुसंख्यक जनता ही करेगी । ऐसी क्रांति करने की कोशिश प्रथम विश्वयुद्ध के फौरन बाद जर्मनी में हुई थी । क्रांति के शुरू में ही हत्या हो जाने के बावजूद इस राजनीति के साथ रोजा का नाम अमिट रूप से जुड़ा हुआ है । विश्वयुद्ध से पहले ही उन्होंने मार्क्सवाद को नया जीवन देने के लिए काफी कुछ किया था । युद्ध शुरू होने के बाद उनके साथ क्रांतिकारी विपक्ष गोलबंद हुआ । इस समूह का नाम आदि विद्रोही के नाम पर स्पार्टाकसबुंद था । रूसी क्रांति की प्रेरणा से मजदूरों और सैनिकों का जन आंदोलन फूट पड़ा थाइससे प्रेरणा लेकर नई क्रांतिकारी पार्टी का गठन हुआ । पंद्रह दिन बाद ही रोजा के साथ लीबक्नेख्त भी मारे गए । इस तरह एक जबर्दस्त सम्भावना का गला घोंट दिया गया फिर भी उस क्रांतिकारी प्रयास की याद बनी रही 2012 में पी एम प्रेस से गैब्रिएल कुह्न के अनुवाद और संपादन मेंआल पावर टु द कौंसिल्स: ए डाकुमेन्टरी हिस्ट्री आफ़ द जर्मन रेवोल्यूशन आफ़ 1918-19’ का प्रकाशन हुआ । रूस में जिस तरह 1917 की क्रांति में सारी सत्ता सोवियतों को का नारा दिया गया था उसी तरह के नारे के साथ जर्मनी में क्रांति की कोशिश का दस्तावेजी इतिहास किताब में प्रस्तुत किया गया है । रोजा लक्जेमबर्ग और कार्ल लीबक्नेख्त के लेखों के आधार पर लेखक ने उस कोशिश को समझने का प्रयास किया है ।
2013 में पालग्रेव मैकमिलन से जेसन शुलमान के संपादन मेंरोजा लक्जेमबर्ग: हर लाइफ़ ऐंड लीगेसीका प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना और एरिक ब्रोन्नेर के संपादक को दिए साक्षात्कार वाले परिशिष्ट के अतिरिक्त किताब में ग्यारह अध्याय हैं । संपादक का मानना है कि समाजवादी राजनीति में जो भी चिंतक पूंजीवाद विरोध के साथ ही लोकतंत्र के लिए संकल्पबद्ध हैं वे रोजा का नाम जरूर लेते हैं । राजनीतिक सक्रियता के चलते उन्हें पोलैंड के साथ जर्मनी में भी जेल की हवा खानी पड़ी थी । वे समाजवादी मजदूर आंदोलन की नायिका तो थीं ही, शहीद भी हुईं । आज भी उनके सैद्धांतिक और व्यावहारिक अवदान के चलते अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में उनकी याद बनी हुई है । इसका सबूत है कि 2015 में वर्सो से नार्मन गेरास की किताबद लीगेसी आफ़ रोजा लक्जेमबर्गका पेपरबैक संस्करण छपा । इससे पहले 1983 में वर्सो ने ही इसे छापा था । वर्सो से पहले न्यू लेफ़्ट बुक्स से 1976 में पहली बार इसका प्रकाशन हुआ था । 2015 में ही रटलेज से रोजमेरी एच टी ओकाने की किताब रोजा लक्जेमबर्ग इन ऐक्शन: फ़ार रेवोल्यूशन ऐंड डेमोक्रेसीका प्रकाशन हुआ । सभी जानते हैं कि बड़े मार्क्सवादी सिद्धांतकारों में रोजा कम्यूनिस्ट क्रांति के साथ ही लोकतंत्र के लिए भी प्रतिबद्ध रही थीं और किताब का शीर्षक इसी तथ्य को उजागर करता है ।  
2018 में प्लूटो प्रेस से जान निक्सन की किताब रोजा लक्जेमबर्ग ऐंड द स्ट्रगल फ़ार डेमोक्रेटिक रीन्यूअलका प्रकाशन हुआ । किताब रोजा की जीवनी है और उनके चिंतन में निहित लोकतंत्र और समाजवादी परंपराओं की एकता पर जोर देती है । इस संदर्भ में उनके सामने कठिनाई यह थी कि जब लोकतंत्र शासक समुदाय के ही विशेषाधिकारों की रक्षा और पुनरुत्पादन का साधन बना दिया गया हो तो भी लोकतांत्रिक कैसे बना रहा जाए । इसके साथ ही उन्हें समाजवाद के मामले में यह दिक्कत लगती थी कि इसमें भी तथाकथित प्रबुद्ध अगुआ के नेतृत्व में सर्वहारा कार्यकर्ता मात्र बनकर रह गया था । इसीलिए वे बुर्जुआ लोकतंत्र की आलोचना करने के साथ ही समाजवाद में निहित केंद्रीकरण के प्रति भी सावधान रहीं । लोकतांत्रिक समाजवाद की संभावना में उनका विश्वास जीवन भर कायम रहा । समाजवादी के बतौर वे इतिहास को उत्पीड़ितों के परिप्रेक्ष्य से देखने की हामी रहीं और लोकतांत्रिक के बतौर इतिहास के निर्माण में इन उत्पीड़ितों की क्षमता में विश्वास बनाए रहीं । इससे तय है कि लोकतांत्रिक समाजवादी के रूप में वे उत्पीड़न से मुक्ति के लिए इन पीड़ितों के साथ मिलकर सोचने और काम करने की पक्षधर रहीं । इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय और अंतर्सांस्कृतिक सोच की तथा मनुष्य की स्वत:स्फूर्तता के महत्व को समझने की जरूरत थी । लेखक की नजर में रोजा के चिंतन की विशेषता अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता और क्रांतिकारी स्वत:स्फूर्तता हैं । उनकी इस विरासत को सामाजिक राजनीतिक रूपांतरण में मनुष्य की क्षमता पर उनके बल के साथ समझना होगा । उनका मानना था कि यह रूपांतरण उत्पीड़ितों, आर्थिक रूप से विपन्न, राजनीतिक रूप से अधिकारविहीन और सामाजिक रूप से बहिष्कृत जनसमुदाय की चेतना के बल पर ही हासिल किया जा सकता है ।
रोजा के नेतृत्व में जिस क्रांति का प्रयास हुआ था वह असफल तो रही लेकिन उसके प्रभाव दूरगामी सिद्ध हुए । इसे उजागर करते हुए 2019 में पालग्रेव मैकमिलन से गार्ड केट्स और जेम्स मुल्दून के संपादन में द जर्मन रेवोल्यूशन ऐंड पोलिटिकल थियरीका प्रकाशन हुआ । संपादकों की भूमिका के अतिरिक्त किताब के तीन भागों में विभिन्न लेख शामिल किए गए हैं । पहले भाग में क्रांति के बारे में पुनर्विचार संबंधी लेख हैं जिसके तहत जर्मन क्रांति में स्त्री, जर्मन क्रांति और दक्षिणपंथ, बीसवीं सदी में क्रांतिकारी बर्लिन, मजदूर वर्गीय राजनीति, सिद्धांत और रणनीति पर विचार किया गया है । दूसरे भाग में जर्मन क्रांति के राजनीतिक सिद्धांतकारों का विश्लेषण है । इसमें बर्नस्टाइन, काउत्सकी, रोजा, रिचर्ड म्यूलर, गुस्ताव लैंडावर और यहूदी कार्यकर्ताओं के बारे में लिखे लेख हैं । तीसरे भाग में समकालीन राजनीति सिद्धांत में जर्मन क्रांति की मौजूदगी दर्ज की गई है । संपादकों का कहना है कि 1918-19 की जर्मन क्रांति का यूरोपीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान है इसके बावजूद इतिहास लेखन में इसकी उपेक्षा होती रही है । इसके चलते प्रथम विश्वयुद्ध का खात्मा हुआ, जर्मनी में लोकतांत्रिक शासन की स्थापना हुई और नाज़ीवाद के उदय में इससे उपजे टकरावों का निर्णायक योगदान था । इसकी उपेक्षा के चलते इसे विस्मृत क्रांति भी कहा जाता है । प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ इससे उत्पन्न उथ्स्ल पुथल को भुला दिया जाता है । सैनिकों और मजदूरों के इस जन आंदोलन ने जर्मनी की सेना में मौजूद कुलीनता को चुनौती दी जिससे युद्ध का अंत हुआ । जन साधारण की राजनीतिक सक्रियता के कारण जर्मनी के बादशाही और विषमता भरे समाज में सार्वभौमिक मताधिकार और सामाजिक अधिकार पर आधारित लोकतांत्रिक शासन की स्थापना हुई । बहरहाल क्रांति पर जल्दी ही नाज़ीवाद के उभार और दूसरे विश्वयुद्ध के बादल छा गए । क्रांति के सौवें साल राजनीतिक चिंतन के विकास में उस क्रांति के योगदान का विश्लेषण होना चाहिए ।
इसके साथ ही फ़ासीवाद से सिद्धांत और व्यवहार दोनों ही मोर्चों पर युद्धरत अंतोनियो ग्राम्शी के अभिग्रहण पर भी निगाह डालना उचित होगा । पश्चिमी मार्क्सवाद के पुरस्कर्ता बौद्धिकों ने ग्राम्शी को उनके राजनीतिक सन्दर्भ से काटकर अकादमिक मूर्ति में बदल दिया और उन्हें रूसी क्रांति के नेताओं के विरोध का अस्त्र बना लिया । उनकी कुछेक धारणाओं का जिस तरह से उपयोग हुआ उससे वे विश्लेषण के औजार उपलब्ध कराने वाले व्याख्याता मात्र बना दिए गए । समय बदलने के साथ ग्राम्शी के बारे में पुराने रुख के साथ ही उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता पर जोर देते हुए नए तरीके से भी उनकी प्रासंगिकता को उभारने की कोशिश हो रही है ।                
2011 में वर्सो से प्रकाशित लुचियो माग्री लिखितद टेलर आफ़ उल्म: कम्युनिज्म इन द ट्वेंटीएथ सेंचुरीग्राम्शी की जीवनी तो है ही इटली के कम्यूनिस्ट आंदोलन की कथा भी बन जाती है । इसका अंग्रेजी अनुवाद पैट्रिक केमिलर ने किया है । किताब की भूमिका 1989 में कम्यूनिस्ट पार्टी की एक बैठक के विवरण से शुरू होती है जिसमें पार्टी का नाम बदलने पर विचार हो रहा था । बैठक में एक जर्मन कारीगर का जिक्र आया जिसने हवाई जहाज उड़ाने की कला सीख लेने का दावा किया था लेकिन उसके प्रदर्शन के दौरान चोटिल हो गया था । इस दुर्घटना के बावजूद मनुष्य ने उड़ान की कोशिश नहीं छोड़ी । मानव मुक्ति की मार्क्सवादी परियोजना से इसकी तुलना करने पर लेखक को लगता है कि दक्षिणपंथ के लिए कम्युनिस्ट विचार नहीं मरा है । उनके वैचारिक प्रचार में इसकी मुखालफ़त अवश्य होती है । यूरोप की कुछेक छोटी वाम पार्टियों की चुनावी भागीदारी की खबरें भी कभी कभी आती हैं । लेकिन सोवियत संघ को सकारात्मक से अधिक नकारात्मक तरीके से ही देखा जाता है । सही बात है कि पूंजीवाद के बारे में भविष्यवाणी के चलते मार्क्स की वापसी हुई है लेकिन पूंजीवाद के खात्मे का कोई गम्भीर प्रयास नहीं दिखाई देता । इससे जुड़ी स्मृतियों को खारिज करने के जोम में समूचे समाजवादी अनुभव और उसके साथ उदारवादी राजनीति और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों को भी दरकिनार किया जा रहा है । जो भूत यूरोप को सता रहा था उसे दफ़नाया सा जा चुका है । किसी ने कहा कि कम्युनिस्ट हारे भी और जीते भी । दुनिया बदलने की उनकी कोशिशों की हार हुई लेकिन पूंजीवादी आधुनिकता और उसके मूल्यों के वैश्विक प्रसार में उनकी भूमिका रही थी । लेखक के मुताबिक इस माहौल में कम्युनिस्ट परियोजना में यकीन रखने वालों को समीक्षा करनी होगी लेखक ने यूरोपीय देशों में कम्युनिस्ट होने के तर्क की जटिलता को प्रस्तुत करते हुए अपने आपसे पूछा है कि क्या फ़ासीवाद से लड़ने और लोकतंत्र की रक्षा के क्रम में वे कम्यूनिस्ट बने या सोवियत संघ के आकर्षण के चलते । चाहे जो उत्तर हो इस सवाल के जरिए उन्होंने कम्यूनिस्ट आंदोलन और संगठन के स्थानीय स्रोतों की ओर ध्यान खींचा है । 2011 में ही रटलेज से मार्कुस ई ग्रीन के संपादन मेंरीथिंकिंग ग्राम्शीका प्रकाशन हुआ । संपादक की भूमिका के अतिरिक्त किताब चार भागों में विभाजित है । पहला भाग संस्कृति और आलोचना से जुड़ा हुआ है और इसमें चार लेख हैं । दूसरा भाग वर्चस्व, निम्नवर्गीयता और आम समझ जैसी ग्राम्शी की धारणाओं का विवेचन करनेवाले आठ लेखों का है । तीसरा भाग राजनीति दर्शन का है जिसमें मार्क्सवादी दर्शन के साथ ग्राम्शी के पेचीदा रिश्तों का विश्लेषण करनेवाले पांच लेख हैं । आखिरी चौथा भाग ग्राम्शी की जेल नोटबुकों का तात्पर्य खोलने के लिए लिखे पांच लेखों का है ।
2012 में ब्रिल से कारलोस नेलसन काउटिनहो की पुर्तगाली किताब का अंग्रेजी अनुवादग्राम्शीज पोलिटिकल थाटका प्रकाशन हुआ । अनुवाद पेद्रो सेट्टे-कमारा ने किया है । भूमिका जोसेफ ए बुट्टीगिएग ने लिखी है । उनका मानना है कि किताब जड़सूत्रवाद से लड़ने में मदद करती है । ग्राम्शी ने शुरू से अंत तक इस चिंतन का विरोध किया कि इतिहास में सब कुछ तय होता है । रूसी क्रांति को भी उन्होंने इस तरह की जड़ता पर जनता की क्रियाशीलता की जीत के रूप में देखा था । इसलिए लेखक ने ग्राम्शी को जड़सूत्र की तरह देखने की जगह आलोचनात्मक नजर से देखा है । इसके चलते उन्होंने ग्राम्शी की मौलिक और तलस्पर्शी अंतर्दृष्टि का खुलासा किया है । ग्राम्शी पूरब और पश्चिम में लड़ाई की रणनीति में अंतर समझाते हैं क्योंकि राज्य और समाज का आपसी संबंध दोनों क्षेत्रों में भिन्न किस्म का रहा था । इस अंतर को हम फ़ासीवादी माहौल में अच्छी तरह समझ सकते हैं जब शासन केवल सरकारी तंत्र के भरोसे चलाने की जगह तरह तरह की अवैध संस्थाओं की सहायता से चलाया जाता है । ऐसे माहौल में ही शिक्षा और संस्कृति जैसे मामलों को गम्भीरता से समझने तथा वैचारिक संघर्ष में वर्चस्व कायम करने पर उनके जोर को सही तरीके से समझा जा सकता है । 2014 में ब्रिल से एलन शैन्ड्रो की किताबलेनिन ऐंड द लाजिक आफ़ हेजेमनी: पोलिटिकल प्रैक्टिस ऐंड थियरी इन द क्लास स्ट्रगलका प्रकाशन हुआ । जिस तरह बौद्धिक जगत में ग्राम्शी की वर्चस्व की धारणा को पूरी तरह मौलिक और एक हद तक लेनिन का विरोधी बना दिया जाता रहा है, उसी के खंडन के रूप में यह किताब लिखी गई है ।
2014 में ब्रिल से फ़्रैंक रोजेनगार्टेन की किताबद रेवोल्यूशनरी मार्क्सिज्म आफ़ अंतोनियो ग्राम्शीका प्रकाशन हुआ । किताब के लेख पहले ही विभिन्न अवसरों पर छपे या पढ़े हुए हैं । किताब चार भागों में है । पहला भाग राजनीतिक चिंतक और कार्यकर्ता के रूप में ग्राम्शी पर विचार करता है । दूसरा भाग ग्राम्शी के जेल के अनुभवों पर है । तीसरा भाग ग्राम्शी के तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य पर केंद्रित है । आखिरी चौथा भाग अमेरिका में ग्राम्शी के दो अनुयायियों के बारे में है । ग्राम्शी को मार्क्सवाद की मूलधारा से काटकर देखने पर बल देनेवालों को देखते हुए किताब का महत्व बढ़ जाता है । लेखक के मुताबिक सभी लेख एक ही सवाल के अलग अलग पहलुओं को समझने के क्रम में लिखे गए कि इस समय ग्राम्शी का महत्व क्या है । इसी क्रम में गाइडो लिगौरी की 2006 में प्रकाशित इतालवी किताब का अंग्रेजी अनुवादग्राम्शीज पाथवेजशीर्षक से 2015 में ब्रिल से प्रकाशित हुआ । यह अनुवाद डेविड ब्रोडर ने किया है । लेखक ने अंग्रेजी संस्करण के लिए अलग भूमिका लिखी है । ग्राम्शी की प्रमुख धारणाओं को मार्क्सवाद की परंपरा के भीतर अवस्थित करने के अतिरिक्त उनकी प्रासंगिकता को भी समझने की कोशिश लेखक ने की है ।
2015 में पालग्रेव मैकमिलन से मार्क मैकनेली के संपादन मेंअंतोनियो ग्राम्शीका प्रकाशन हुआ । शुरू में संपादक ने ग्राम्शी की जीवनी लिखी है । उसके बाद किताब में चार भाग हैं । पहले भाग के दो लेखों में ग्राम्शी के ऐतिहासिक संदर्भ को स्पष्ट किया गया है । दूसरे भाग के दो लेखों में ग्राम्शी से जुड़ी मुख्य बहसों का जायजा लिया गया है । तीसरे भाग के दो लेखों में प्रमुख धारणात्मक मुद्दों को स्पष्ट किया गया है और आखिरी चौथे भाग के चार लेखों में समकालीन प्रासंगिकता को समझने की कोशिश की गई है । इस प्रकार ग्राम्शी के संबंध में समग्र तरीके से विचार करने की चेष्टा इस किताब में की गई है । अंत में उपसंहार में संपादक ने उन वर्तमान विषयों को गिनाया है जिनके तहत ग्राम्शी को देखा-परखा जा रहा है । संपादक ने शुरू में ही साफ कर दिया है कि ग्राम्शी के चिंतन को उनके राजनीतिक व्यवहार से अलगाकर देखने से भ्रम पैदा होने की सम्भावना है । असल में ग्राम्शी का जीवन क्रांतिकारी का जीवन था । अपने विचारों की प्रतिबद्धता के चलते उन्हें कैद और मृत्यु का वरण करना पड़ा ।   2015 में ही रटलेज से जान श्वार्ज़मान्टेल की किताबद रटलेज गाइडबुक टु ग्राम्शीज प्रिजन नोटबुक्सका प्रकाशन हुआ । इसमें ग्राम्शी की मशहूर नोटबुकों के अध्ययन के लिए सहायिका की तरह तैयार किया गया है । सबसे पहले इन नोटबुकों से पहले के ग्राम्शी का विवेचन है । इसके उपरांत इनकी प्रकृति और उद्भव पर विचार किया गया है । फिर नोटबुकों के अलग अलग विषयों- बुद्धिजीवी और शिक्षा, इतिहास और आधुनिकता, राजनीति और राज्य तथा नागरिक समाज, दर्शन और मार्क्सवाद- का विश्लेषण करने के बाद इनके उत्तर-जीवन और प्रभाव को समझा गया है ।
2016 में ब्रिल से मार्कोस डेल रोइओ की 2015 में पुर्तगाली में प्रकाशित किताब का अंग्रेजी अनुवादद प्रिज्म्स आफ़ ग्राम्शी: द पोलिटिकल फ़ार्मूला आफ़ द यूनाइटेड फ़्रंटका प्रकाशन हुआ । लेखक का कहना है कि ग्राम्शी के लेखन में फ़ासीवादी शासन द्वारा उन्हें कैद कर लेने के बाद की जेल डायरियों को सबसे अधिक महत्व दिया जाता है और उन्हें ग्राम्शी के शेष लेखन या राजनीतिक आचरण से काटकर देखा जाता है । लेखक के मुताबिक इस तरह की धारणा के विपरीत ग्राम्शी का लेखन उनकी पार्टी के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है । इसी साल ब्लूम्सबरी एकेडमिक से जार्ज होर और नथान स्पर्बर की किताब ऐन इंट्रोडक्शन टु अंतोनियो ग्राम्शी: हिज लाइफ़, थाट ऐंड लीगेसीका प्रकाशन हुआ । प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब में ग्राम्शी के जीवन, चिंतन, अनुप्रयोग और विरासत संबंधी चार विभाग हैं । एक हिस्से में अध्ययन की उपलब्ध सामग्री का भी विवेचन है । लेखकों का मानना है कि ग्राम्शी के नाम पर लेखन का जखीरा है जिसके चलते तरह तरह के ग्राम्शी बन गए हैं । इसकी जगह वे सुसंगत और एकताबद्ध ग्राम्शी की भावना पर बल देते हैं । इसके लिए वे अपने समय को समझने के क्रम में ग्राम्शी द्वारा निर्मित और विकसित सैद्धांतिक उपकरणों को देखने का आग्रह करते हैं ।
हमने पहले ही जिक्र किया था कि पूरी दुनिया के कम्युनिस्टों ने रूसी क्रांति के बाद स्थापित कोमिंटर्न के दिशा निर्देश के अनुरूप फ़ासीवाद से लड़ाई लड़ी । आगे हम कोमिंटर्न संबंधी अध्ययनों के जरिए इस संघर्ष की रूपरेखा देखेंगे । प्रसंगवश दिमित्रोव ने कोमिंटर्न में ही फ़ासीवाद के बारे में अपनी थीसिस पेश करते हुए संयुक्त मोर्चे की नीति प्रस्तावित की थी । दुर्भाग्य से कुछेक बुद्धिजीवी कोमिंटर्न को अलग अलग देशों के कम्युनिस्ट आंदोलन के विकास के लिए अहितकर समझते हैं । असल में सच्चाई इतनी एकहरी कभी नहीं होती । फ़ासीवाद के विरोध में राजनीतिक से लेकर साहित्यिक-सांस्कृतिक मोर्चों तक व्यापक गोलबंदी के पीछे कोमिंटर्न की प्रेरणा रही थी ।         
2002 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से मैनुएल कबारेलो की किताबलैटिन अमेरिका ऐंड द कोमिंटर्न: 1919-1943’ का पेपरबैक संस्करण प्रकाशित हुआ । मूल रूप से इसका प्रकाशन 1986 में हुआ था । यह किताब कैम्ब्रिज लैटिन अमेरिकन स्टडीज के तहत प्रकाशित हुई थी । भूमिका में किताब का संदर्भ स्पष्ट करते हुए लेखक बताते हैं कि लैटिन अमेरिका में कोमिंटर्न का इतिहास आम तौर पर अलग अलग कम्युनिस्ट पार्टियों के राजनीतिक और सांस्थानिक इतिहास के जमाजोड़ के बतौर समझा जाता है । इस समझ का उपयोग अन्य चीजों के लिए हो सकता है लेकिन तीसरे इंटरनेशनल को समझने में इससे सहूलियत नहीं होती । इसके अंतर्राष्ट्रीय चरित्र, इसके केंद्रीय संगठन और विश्वक्रांति के उसके अंतिम लक्ष्य से पैदा होने वाली उसकी विशेषता ओझल हो जाती है । कोमिंटर्न के नेताओं को गंभीरता के साथ कभी यह यकीन नहीं रहा कि यूरोप या एशियाई मुल्कों में क्रांति के बिना लैटिन अमेरिका में समाजवादी क्रांति संभव है । 1919 में इसकी स्थापना के पीछे लक्ष्य ही रूस से शुरू हुई विश्वक्रांति की प्रक्रिया को पूरा करना था । लेनिन और उनके साथियों को लगा कि विश्वकांति की जो आग उन्होंने रूस में जलाई है वह जर्मन क्रांति की सफलता के साथ पश्चिमी यूरोप में फैलेगी । इस उम्मीद के पूरा न होने की स्थिति में एक साल बाद उन्होंने एशिया से उम्मीद बांधी । लैटिन अमेरिकी नेताओं को विश्वकांति के समर्थक की भूमिका निभानी थी । बहरहाल लैटिन अमेरिका में कोमिंटर्न का असर तेजी से फैला । सैद्धांतिक क्षेत्र में यह असर ढेर सारे यूरोपीय एशियाई देशों के मुकाबले काफी दिनों तक बना रहा । यूरोपीय और एशियाई देशों के मुकाबले अधिक महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थापना लैटिन अमेरिकी देशों में हुई । 1930 के दशक में अलसल्वाडोर और ब्राजील में तथा 1940 के दशक में चिली में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में विद्रोह हुए । ये कार्यवाहियां अधिकांश यूरोपीय और एशियाई देशों के मुकाबले पहले हुईं । कोमिंटर्न के विघटन के बीस साल बाद भी क्यूबा की क्रांति की अगुआ पार्टी ने उसके नारों और लैटिन अमेरिकी महाद्वीप की क्रांतिकारी संभावना की उसकी समझ के आधार पर खुद को लेनिनीय समाजवादी आंदोलन का अंग घोषित किया । इन परिघटनाओं को सोवियत संघ के सैनिक, औद्योगिक और राजनीतिक प्रभाव से जोड़ना आसान है । असल में रूस को कम्युनिज्म से अलगाना बेहद कठिन है लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि सोवियत संघ के महाशक्ति बनने से पहले ही यूरोप, एशिया और लैटिन अमेरिका में अक्टूबर क्रांति का प्रभाव गहरा चुका था । अगर इसे खासकर बुद्धिजीवियों में महज मार्क्सवाद का असर कहा जाए तो बात पूरी नहीं होगी । उन्हें विश्व ऐतिहासिक प्रक्रिया की व्याख्या के रूप में मार्क्सवाद ने तो आकर्षित किया ही, लेकिन क्रांति घटित होने की वास्तविक संभावना के बतौर लेनिनीय सिद्धांत और पद्धति ने उसे ठोस आधार दिया था । कम्युनिस्ट पार्टी की मौजूदगी से लेनिनवाद का जुड़ाव गहरा है और कोमिंटर्न के अस्तित्व से कम्युनिस्ट पार्टी का, और कोमिंटर्न के अस्तित्व की उपेक्षा करने से समकालीन विश्व इतिहास, खासकर दोनों विश्वयुद्धों के बीच के इतिहास की सही समझ नहीं बन सकेगी । इसी तरह किसी लैटिन अमेरिकी विद्वान को लग सकता है कि क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार की वजह से लैटिन अमेरिका में लेनिनवाद का असर है लेकिन यह सरलीकरण होगा क्योंकि लेनिनवाद का असर खुद क्यूबा के भीतर भी 1959 से पहले से था । तमाम कम्युनिस्ट विरोधी प्रचार के बावजूद सच यही है कि दोनों विश्वयुद्धों के बीच लैटिन अमेरिका में लेनिनवाद की ठोस उपस्थिति थी । इसकी अभिव्यक्ति विभिन्न देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थापना के जरिए होती है । लैटिन अमेरिका में कोमिंटर्न का इतिहास इस इलाके में बीसवीं सदी के दौरान क्रांतिकारी आंदोलनों के इतिहास से घनिष्ठ तौर पर जुड़ा हुआ है । बहरहाल कोमिंटर्न के बारे में विश्व संगठन के बतौर जो कुछ कहा गया है कमोबेश वही लैटिन अमेरिका में इसके इतिहास पर भी लागू हो सकता है । इस सदी के या शायद समूचे इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी संगठन होने के बावजूद इसका अध्ययन बहुत कम हुआ है । इसका एक कारण यह है कि इसकी अधिकांश गतिविधियां भूमिगत तौर पर संचालित होती थीं और इसीलिए इसका इतिहास निर्मित कर पाना बेहद कठिन हो जाता है ।    
2019 में ब्रिल से जान सेक्सटन के संपादन में ‘एलायंस आफ़ एडवर्सरीज: द कांग्रेस आफ़ द ट्वायलर्स आफ़ द फ़ार ईस्ट’ का प्रकाशन हुआ । किताब में कोमिंटर्न की 1922 की एक कांग्रेस के दस्तावेजों का संकलन किया गया है जो कोमिंटर्न की राष्ट्रीयता संबंधी नीति के विस्तार के रूप में धुर पूरब के देशों के लिए अलग से आयोजित की गई थी । संपादक ने कोमिंटर्न के बारे में बताया है कि प्रथम विश्वयुद्ध में दूसरे इंटरनेशनल की राष्ट्रवाद संबंधी नीतियों की प्रतिक्रिया में 1919 में इसे गठित किया गया था । इसका मकसद विश्व पूंजीवाद का खात्मा और समाजवादी सत्ता की स्थापना था । 1943 में अपने अवसान के पहले इसकी सात कांग्रेसों का आयोजन हुआ । संगठन तो बहुत बड़ा नहीं था लेकिन 1920 और 1930 के कठिन दशकों में अत्यंत प्रभावकारी तरीके से इसने विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन का नेतृत्व किया ।
इसका लक्ष्य केंद्रीकरण था लेकिन इसकी संरचना और गतिविधियों में मतभेदों के लिए पर्याप्त जगह थी । कांग्रेसों में विरोधी विचार भी व्यक्त होते थे और उन पर तीखे विवाद भी चलते थे । इसकी दूसरी कांग्रेस में लेनिन ने जातीयता और औपनिवेशिक सवाल के बारे में मशहूर थीसिस प्रस्तुत की जिसके चलते ही एशियाई क्रांति को विश्व क्रांति की कुंजी के बतौर ग्रहण किया गया । उनके दिमाग में कहीं विकसित देशों के मजदूरों के साथ साम्राज्यवाद विरोधी संश्रय, सोवियत सत्ता और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों का एका कायम करने की रणनीति थी । बहरहाल उपनिवेशित देशों की बुर्जुआ ताकतों के साथ एका के सवाल पर विवाद पैदा हो गया । मानवेंद्र नाथ राय के नेतृत्व में पूरक थीसिस भी पारित हुई । दूसरी कांग्रेस के बाद दो सम्मेलन हुए । 1920 में बाकू में पूरब के लोगों की कांग्रेस और 1922 में पेत्रोग्राद में धुर पूरब के कमेरों का सम्मेलन । बाकू कांग्रेस के मुकाबले पेत्रोग्राद सम्मेलन छोटा था । इसमें चीन, जापान, कोरिया और मंगोलिया से लगभग 150 प्रतिनिधि शरीक हुए । इसके बावजूद इस सम्मेलन का असर अधिक दूरगामी सिद्ध हुआ क्योंकि इसमें संबंधित देशों के वास्तविक नेता और समूह मौजूद थे ।              



Thursday, December 5, 2019

एक कविता की कहानी


                
                           
हाल में रविश कुमार ने हर्ष गोयनका के एक ट्वीट में गोरख पांडे की कविता का जिक्र किया है । इससे पहले यह कविता ह्वाट्सऐप में भी एक कागज की पुर्जी पर लिखी हुई प्रसारित होती रही । उसमें इसे गोरख की लिखी हुई बताया गया । राजा और रानी के जिक्र से संदेह पुष्ट भी हुआ । जर्मन कवि बर्टोल्ट ब्रेष्ट की किसी कविता के गीत में अनुवाद के प्रसंग में गोरख जी ने ‘राजा चाहें खून खराबा, रानी झांसापट्टी, चोरवा रात अन्हरिया जइसे सेन्हिया लगाई ।’ की शब्दावली अपनाई थी । गोरख पांडे के किसी संग्रह में लेकिन यह कविता नहीं है इसलिए संदेह हुआ । फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के गोविन्द प्रसाद का नाम भी कविता के साथ जुड़ा । गोरख की कविता की विशेषता शब्द संक्षिप्ति है इसलिए ‘राजा बोला रात है, रानी बोली रात है, ये सुबह सुबह की बात है’ के उनके लिखे होने पर यकीन था । बहरहाल गोविन्द जी का नाम जुड़ने पर उनसे फोन पर बात की तो उन्होंने इसकी लम्बाई थोड़ी ज्यादा बताई । इस कविता के सिलसिले में कुछ अन्य कथाएं भी सुनने में आईं । किसी का कहना था कि अरुंधति राय को यह कविता तिहाड़ जेल के किसी कैदी की मार्फ़त मिली थी । उस कैदी को जे एन यू के किसी विद्यार्थी ने इसे सुनाया था । एक कथा यह भी है कि जब गोरख जी जे एन यू में थे तो राष्ट्रीय नाटक संस्थान के किसी साथी के नाटक के लिए प्रोमोशनल कविता के रूप में उनके मांगने पर उन्होंने इसे लिखकर तत्काल दे दिया था । गोरख जी को नजदीक से जानने वाले सलिल मिश्र ने मुझे बताया कि उनका कुछ भी कमरे में नहीं रहता था । जो कुछ भी होता था वह दिमाग या जेब में होता था । जब भी किसी ने मांगा निकालकर दे दिया । इसलिए इस कहानी पर अविश्वास करना मुश्किल है । उनके कुछ गीत और कविताएं मुझे केवल कैसेट में मिलीं । देहांत के बाद अंतिम कविता तो सचमुच उनकी डायरी से लेकर छापी गई जिसमें नई सदी में युद्ध या शांति की प्रबलता को लेकर चिंता जाहिर की गई थी । खुद मुझे गाजीपुर के एक भोजपुरी कवि की डायरी में उनके हाथ से लिखी कविता देखने को मिली थी । इसके बावजूद जिस रूप में गोयनका जी ने इसे उद्धृत किया है उस रूप में बहुत सम्भव है वह गोविन्द जी की ही हो क्योंकि उसकी संक्षिप्ति गोरख जी वाली नहीं है । वैसे दोनों के जे एन यू से जुड़े होने के कारण आपसी संवाद की सम्भावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता । जो भी हो इस कविता को अब उसके तमाम रूपों में जनता की सम्पत्ति मानना उचित होगा । बहुत सारे मुहावरों और कहावतों का जन्म इसी तरह हुआ होगा । संघर्ष के दौर इसी तरह की रचना को जन्म देते हैं और बार बार उसको नया जीवन देते रहते हैं । मुख्य बात है कि यह खास शब्द संयोजन व्यंग्य की ऐसी तीखी धार को जन्म देता है जो तानाशाही और चाटुकारिता के दु:खद प्रसार को व्यक्त करने में अतुलनीय है । आश्चर्य नहीं कि तानाशाह इस तरह के व्यंग्य से घबराते हैं । किसी भी कवि की गुस्सैल तुर्शी को व्यंग्य में ही सबसे बेहतर अभिव्यक्ति मिलती है और ऐसी कविताओं को जनता में लोकप्रिय होकर ही मुक्ति मिलती है ।          

Tuesday, November 19, 2019

अंबेडकर के बुद्ध


                       
                                     
अंबेडकर के बौद्ध बनने के बारे में अक्सर इस सोच के साथ बात होती है मानो अशोक के बौद्ध होने की घटना की पुनरावृत्ति हुई हो । स्वाभाविक बात तो यह थी कि इस घटना को अंबेडकर के समय संदर्भ में रखकर समझने की कोशिश की जाती लेकिन धर्मांतरण के विरोध में खड़ी ताकतें तो इसकी याद भी मिटा देना चाहती हैं । साफ है कि अंबेडकर यह काम अपने समय के हिसाब से कर रहे थे । इसके लिए उन्होंने बुद्ध को नए समय के मुताबिक प्रासंगिक बनाया । बुद्ध के इस नवीनीकरण को अंबेडकर की इस किताब के सहारे देखा जा सकता है । यह किताब 1956 में काठमांडू में बौद्धों के एक सम्मेलन में दिया गया उनका भाषण है । 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के बाद 20 नवंबर को उन्होंने यह भाषण दिया था । इस भाषण में जो बातें उन्होंने सूत्र रूप में कहीं उन्हें विस्तारित करके 2 दिसंबर को पुस्तिका का रूप दिया । यह उनका आखिरी लेखन साबित हुआ । 6 दिसंबर को उनका देहांत हो गया । आश्चर्य नहीं कि सवर्ण सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पैरोकारों ने बाबरी मस्जिद की शहादत के लिए यही तारीख तय की      
बाबा साहब अंबेडकर के धर्मांतरण के तथ्य को उजागर करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उनके तईं धर्म बदलने का अधिकार सामाजिक लोकतंत्र का सबूत है । चाहे अंतर्जातीय विवाह का मामला हो या धर्मांतरण का, उनकी बातें और काम लोकतंत्र को महज औपचारिक बनाए रखने के विरुद्ध लक्षित हैं । लोकतंत्र को वे समता और स्वतंत्रता से अलग करके देखने के पक्ष में नहीं थे । पेशे के चुनाव में स्वतंत्रता के जरिए वे सामाजिक गतिशीलता हासिल करना चाहते थे तो अंतर्जातीय विवाह के जरिए स्त्री स्वाधीनता की गारंटी करना चाहते थे । धर्मांतरण का अधिकार मनुष्य के बालिग होने पर स्वतंत्र पहचान बनाने के उसके हक से जुड़ा हुआ है बालिग व्यक्ति जिस तरह स्वतंत्र तरीके से अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने के लिए आजाद होता है उसी तरह अपना जीवनसाथी और धर्म चुनने की आजादी भी उसका हक है यह सवाल जातिप्रथा के उन्मूलन की उनकी कोशिश से भी सम्बद्ध है व्यक्ति की जाति का निर्धारण जैसे जन्मना नहीं होना चाहिए उसी तरह उसके धर्म का निर्धारण भी उसके जन्म के आधार पर नहीं होना चाहिए धार्मिक स्वतंत्रता के भीतर ही धर्मांतरण का अधिकार भी आता है धर्मांतरण पर पाबंदी की कोशिश का मतलब धार्मिक स्वतंत्रता की समाप्ति है । इसलिए यह धार्मिक स्वतंत्रता मनुष्य की निजी अनुल्लंघनीय स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है । इन तमाम स्वाधीनताओं के आधार पर वे लोकतंत्र को राजनीतिक सीमा से मुक्त करके समाज में एक जीवन पद्धति के बतौर स्थापित करना चाहते थे ।
बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के उनके फैसले का भी सन्दर्भ व्यापक है । स्वाधीनता से पहले न केवल अंबेडकर बल्कि बहुतेरे बौद्धिक जन इस धर्म के बारे में लिख पढ़ रहे थे । हिंदी के विद्यार्थी राहुल सांकृत्यायन के नाम से भली भांति परिचित हैं । उन्होंने राहुल नाम बुद्ध के पुत्र से लिया था और बौद्ध भी बने थे । उनके ही साथी हिंदी के मशहूर कवि नागार्जुन का नाम भी प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक के नाम से लिया हुआ है । इन दोनों ने अपने मूल नाम छोड़कर न केवल बुद्ध से जुड़े नाम अपनाए बल्कि सामंती विरासत से प्राप्त जातिगत पहचान से भी मुक्ति पाने की कोशिश की । दोनों का संबंध कम्यूनिस्ट आंदोलन से था । इस आंदोलन की प्रेरणा भी बुद्ध के साथ अपने को जोड़ने के उनके फैसले के पीछे जरूर रही होगी । अकारण नहीं था कि अंबेडकर ने बुद्ध को मार्क्स के साथ जोड़ा ।
इस जुड़ाव का रिश्ता स्वाधीनता आंदोलन से भी था । हमारे देश के स्वाधीनता आंदोलन को पूरी दुनिया के उपनिवेशों में जारी मुक्ति आंदोलनों का अंग समझा जाता था । आजादी के आंदोलन के भीतर भी यह चेतना 1920 के बाद तेजी से बढ़ने लगी थी । गांधी से लेकर भगत सिंह तक लगभग प्रत्येक स्वाधीनता सेनानी ने विदेशों में चलने वाले लोकतांत्रिक आंदोलनों के साथ खुद को जोड़ा था । उपनिवेशवाद से पीड़ित पड़ोसियों में बौद्ध धर्म को मानने वालों की तादाद अधिक थी । उस समय चीन, जापान, बर्मा और श्रीलंका को ही हम अपना पड़ोसी मानते थे और जानते थे कि आजादी के बाद हमारी किस्मत इनके साथ नत्थी रहने वाली है । बुद्ध और बौद्ध धर्म में तत्कालीन व्यापक रुचि को इस सन्दर्भ में भी देखा जाना चाहिए । बुद्ध में व्यापक रुचि का सबूत उस जमाने में लिखी अनेकानेक हिंदी किताबें हैं । इन किताबों के लेखक परशुराम चतुर्वेदी से लेकर रामवृक्ष बेनीपुरी तक थे । बुद्ध के प्रति इस अनुराग का सीधा संबंध भारत के उपनिवेशोत्तर सपने से था । तब कौन सोच सकता था कि एक समय ऐसा आएगा जब साम्राज्यवादी अमेरिका की गैर बराबर दोस्ती से देश को आत्मविश्वास हासिल होगा । खास बात कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन में वामपंथ की मजबूत उपस्थिति थी । सबको मालूम था कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध सबसे सुसंगत मोर्चा कोमिंटर्न (तीसरा इंटरनेशनल) के नेतृत्व में खुला हुआ था । इसका नेतृत्व रूस की कम्युनिस्ट पार्टी कर रही थी । स्वाधीनता के लिए संघर्षरत दुनिया की लगभग सभी उपनिवेशवाद विरोधी ताकत के साथ लेनिन की पार्टी का सक्रिय संवाद था । इस विशेष स्थिति के चलते मार्क्स के चिंतन का गहरा प्रभाव हमारे देश के बौद्धिक समुदाय पर भी था । बुद्ध के साथ मार्क्सवाद के संवाद की यह लम्बी परम्परा स्वाधीनता के बाद भी लम्बे समय तक बनी रही । अचरज की बात नहीं है कि हिंदी साहित्य में नक्सल आंदोलन की सबसे सुसंगत साहित्यिक अभिव्यक्ति लेकर आने वाले गोरख पांडे ने भी एक लेख लिखा ‘बौद्ध दर्शन और धर्मनिरपेक्षता’ । सनद रहे कि यह लेख सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में आयोजित दर्शन की एक संगोष्ठी में प्रस्तुत किया गया था । जिस तरह मार्क्सवाद के साथ संवाद के लिए अंबेडकर ने बुद्ध के चिंतन को नया रूप दिया था उसी तरह गोरख पांडे ने धर्मनिरपेक्षता से उसके रिश्ते को व्याख्यायित करने के लिए बौद्ध धर्म और बौद्ध दर्शन को एक दूसरे से अलगाया और बौद्ध दर्शन में भावना की जगह बुद्धि की प्रबलता को माना ।       
अंबेडकर की इस पुस्तिका पर देश के भीतर और दुनिया भर में व्याप्त मार्क्सवाद के तत्कालीन आकर्षण की छाया है । उस समय के बौद्धिकों में रूस की बोल्शेविक सत्ता का आकर्षण तो था ही, 1949 में चीन की क्रांति भी संपन्न हो चुकी थी । उसके ठीक पड़ोसी देश नेपाल में वह सम्मेलन चल रहा था जिसमें अंबेडकर भाषण दे रहे थे । चीन के बौद्धों में मार्क्सवाद का गहरा असर था शायद इसलिए भी वे इस पुस्तिका में मार्क्सवाद से संवाद करना जरूरी समझ रहे थे । इस अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति के साथ हमारे देश के वातावरण ने भी उन्हें मार्क्सवाद के साथ संवाद के लिए प्रेरित किया होगा । 1952 के पहले आम चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी संसद में दूसरा सबसे दल बनकर उभरी थी । उस पहले ही चुनाव में सबसे अधिक वोट एक कम्युनिस्ट प्रत्याशी को मिले थे । केरल, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु समेत कई विधानसभाओं में अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी की मजबूत मौजूदगी थी । कुछ ही समय बाद दूसरे चुनाव में पहली विपक्षी सरकार का गठन कम्युनिस्टों के नेतृत्व में होना था । ‘हिन्दी-चीनी भाई भाई’ का जमाना था । इन सब चीजों का गहरा प्रभाव इस पुस्तिका पर दिखाई पड़ता है ।        
मार्क्सवाद के साथ संवाद बनाने की अंबेडकर की इसी प्रवृत्ति का परिणाम है कि एक पाश्चात्य मार्क्सवादी अंतोनियो ग्राम्शी के साथ उनकी तुलना करते हुए 2013 में रटलेज से कोसिमो ज़ीन के संपादन मेंद पोलिटिकल फिलासफीज आफ़ अंतोनियो ग्राम्शी ऐंड बी आर अंबेडकर: इटिनेरेरीज आफ़ दलित्स ऐंड सबअल्टर्न्सका प्रकाशन हुआ । किताब के शुरू में संपादक की लंबी भूमिका और अंत में उपसंहार के अलावा पांच भाग हैं । पहले भाग के तीन लेखों में निम्न वर्गों और दलितों को इतिहास के कर्ता के रूप में देखने और स्थापित करने की प्रक्रिया का विवरण है । दूसरे भाग के दो लेखों में बौद्धिकों के प्रकार्य का विश्लेषण किया गया है । तीसरे भाग के तीन लेखों में निम्नवर्गीयता और सहजबोध का संबंध समझाया गया है । चौथे भाग के दो लेखों में दलित साहित्य, निम्नवर्गीयता और चेतना के निर्माण को देखा गया है । अंतिम पांचवें भाग में तीन लेखों में निम्न वर्गों तथा दलितों के धर्म की चर्चा की गई है । कहने की जरूरत नहीं कि दलित समस्या पर विचार के मामले में एक मशहूर मार्क्सवादी विचार की सृजनात्मक विश्लेषण क्षमता का मेल अंबेडकर की पद्धति से नजर आता है जिसमें दलित प्रश्न पर एकांगी तरीके से नहीं बल्कि समग्रता के साथ सोचा गया है ।
अंबेडकर के साथ मार्क्सवाद के मिलाप की सम्भावना को ही ध्यान में रखकर भाकपा (माले) के महासचिव विनोद मिश्र ने उन्हें ‘क्रांतिकारी जनवादी’ कहा था । मार्क्सवादी लोग यह विशेषण आम तौर पर उन गैर मार्क्सवादियों को देते हैं जिनका चिंतन मार्क्स के चिंतन से सबसे अधिक निकट का होता है । यही नहीं जमीन पर सामंती स्वामित्व को तोड़ने के लिए अंबेडकर की ही तर्ज पर उन्होंने भूमि के राष्ट्रीकरण का प्रस्ताव किया था । वर्ग और जाति की पारस्परिकता का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखाकतिपय ऐतिहासिक परिस्थितियों में यह (वर्ग) खुद को जातियों के रूप में अभिव्यक्त कर सकता है, दूसरी स्थितियों में ये दोनों साथ-साथ गुंथे भी रह सकते हैं, एक दूसरे को ढंक ले सकते हैं और उसी समय एक दूसरे को काट भी सकते हैं । फिर एक भिन्न परिस्थिति में जातियां विखंडित होकर वर्गों का भी निर्माण करती हैं ।जाति और वर्ग के अंतर्संबंध की इस गतिशील समझ ने भाकपा (माले) को दलित महासभा के गठन की प्रेरणा भी दी थी । उन्होंने मार्क्सवाद और अंबेडकर के बीच व्यावहारिक सहकार की गुंजाइश का संकेत करते हुए बतायाबेशक, भारतीय जनवादी क्रांति के फौरी संदर्भ में कार्यवाहियों का मार्क्सवादी कार्यक्रम अंबेडकरवाद के रैडिकल पक्ष के साथ काफी कुछ साझेदारी कर सकता है---’। इसी बात को और भी अच्छी तरह से फिर बताते हैं ‘---मैं स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि रैडिकल अंबेडकरपंथी शक्तियों के साथ किसी मंच में शामिल होना या अंबेडकर जयन्ती समारोह में हमारे लोगों का शरीक होना किसी भी तरह हमारी पार्टी की नीति के खिलाफ नहीं जाता है । हम अंबेडकर को एक रैडिकल जनवादी मानते ही हैं और अपने मुश्तरका जनवादी प्रयासों में हम रैडिकल अंबेडकरपंथी शक्तियों के साथ हाथ मिलाने के बिलकुल पक्षधर हैं ।उन्होंने पार्टी की नीति घोषित किया किजाति उत्पीड़न के खिलाफ और दलितों की सामाजिक समानता के लिए संघर्ष का बीड़ा उठाते समय वर्गसंघर्ष का दायरा बढ़ाना ही मार्क्सवादियों के लिए एकमात्र प्रस्थान बिन्दु हो सकता है ।अंबेडकर का समग्र मूल्यांकन करते हुए उन्होंने लिखासामाजिक-आर्थिक पहलू से अंबेडकर गांधी से, और यहां तक कि नेहरू से भी ज्यादा रैडिकल थे । राजनीतिक रूप से भी वे भारत में राष्ट्र निर्माण की जटिलताओं के बारे में ज्यादा वाकिफ थे । उन्होंने कभी भी तमाम चीजों से ऊपर एक राष्ट्रीय नेता होने का दिखावा नहीं किया, और दलित मुक्ति को स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न अंग बनाने की जोरदार पैरवी की। साथ ही ‘—यही वह सवाल है जिससे स्वतंत्रता के बाद भी भारत जूझ रहा है ।कहना न होगा कि मार्क्सवाद की ओर से अंबेडकर के मूल्यांकन के मामले में इस बेहद रचनात्मक रुख का आधार इस तथ्य में है कि भाकपा (माले) जिन खेत मजदूरों की लड़ाई लड़ रही थी उनकी भारी तादाद दलित जाति से जुड़ी हुई है । बिहार में इस संगठन की नींव रखने वाले जगदीश मास्टर के राजनीतिक जीवन का आरम्भ अछूतिस्तान के लिए आंदोलन से हुई थी ।     
मार्क्सवाद के साथ अंबेडकर ने थोड़ी बहस इससे पहलेजाति भेद का उच्छेदमें भी की है । उसके तीसरे अनुभाग में वे समाजवादियों के साथ बहस करते हुए कहते हैंधर्म, सामाजिक स्तर तथा सम्पत्ति- यह सभी ताकत और सत्ता के साधन हैं, जिन्हें दूसरे की स्वतंत्रता नियंत्रित करने के लिए व्यक्ति अपने पास रखता है । इनमें कोई एक समय तो दूसरा दूसरे समय प्रभावकारी होता है ।कुल मिलाकर वे भी वर्गसंघर्ष का दायरा बढ़ाने की वकालत कर रहे थे । असल में वे मार्क्सवाद को आर्थिक संघर्ष तक सीमित करके देख रहे थे लेकिन जहां तक सामाजिक क्रांति का सवाल है मार्क्स खुद ही इसके पक्षधर थे । उत्पादन संबंधों को वेसामाजिक अस्तित्व के उत्पादन की प्रक्रिया में बनाए गए अनिवार्य संबंधसमझते थे । शायद इसीलिए इन उत्पादन संबंधों के जंजीर बन जाने के बाद वे सामाजिक क्रांति की शुरुआत की वकालत करते थे । अपने विश्लेषण में राजनीतिक तत्व के मुकाबले सामाजिक तत्व को उन्होंने हमेशा प्राथमिकता दी । यहां तक कि अर्थतंत्र को भी वे सामाजिक स्वामित्व के मातहत लाना चाहते थे ।