Monday, September 3, 2018

अर्थशास्त्र की आलोचना


              
1856 में राजनीतिक अर्थशास्त्र का अध्ययन पूरी तरह उपेक्षित रहा था लेकिन एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट के आगमन से स्थिति बदल गई । अनिश्चितता के माहौल में अफरा तफरी के चलते दिवालिया होने की रफ़्तार बढ़ गई तो मार्क्स ने एंगेल्स को लिखा कि बहुत दिनों तक इसे चुपचाप देखना संभव नहीं रह जाएगा । दस साल भी नहीं बीते थे जब यूरोप भर में क्रांति की लहर व्याप्त थी । उसके फिर से पैदा होने की आशा से दोनों रोमांचित थे । मार्क्स अर्थशास्त्र का काम जल्दी से जल्दी पूरा करना चाहते थे ताकि क्रांति का ज्वार पैदा होने पर उसमें कूद सकें । इस बार तूफान की शुरुआत यूरोप की बजाए अमेरिका में हुई थी । 1857 के शुरुआती महीनों में जमा रकम कम होने के बावजूद बैंकों ने बढ़ चढ़कर कर्ज दिया था । नतीजतन सट्टेबाजी बढ़ी और आर्थिक अवस्था खराब होती गई । ओहायो की बीमा कंपनी डूबी और घबराहट में एक के बाद एक संस्थाएं दिवालिया होने लगीं । बैंकों ने नकद भुगतान स्थगित कर दिया । जिस दिन बीमा कंपनी डूबी उसी दिन मार्क्स ने अपनी किताब की भूमिका लिखनी शुरू की । संकट के विस्फोट ने मानो नई प्रेरणा दे दी । 1848 की पराजय के बाद पूरे दस साल तक मार्क्स को राजनीतिक धक्का और अलगाव झेलना पड़ा था । अब संकट के आने से सामाजिक क्रांति के नए दौर में भाग लेने की झलक मिली । उन्हें क्रांति के लिए महत्वपूर्ण काम आर्थिक परिघटना का विश्लेषण पूरा करना महसूस हुआ । यह संकट सचमुच पहला अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट साबित हुआ । न्यू यार्क से होते हुए समूचे अमेरिका को अपनी चपेट में लेने के कुछ ही हफ़्ते बाद यूरोप, दक्षिण अमेरिका और पूरब के लगभग सभी व्यावसायिक केंद्रों तक फैल गया । इन खबरों से उत्साहित मार्क्स में बौद्धिक सक्रियता का ज्वालामुखी फूट पड़ा । कुछ ही महीनों में इतना लिखा जितना पिछले कुछ सालों में भी नहीं लिखा था ।
अगस्त 1857 से मई 1858 के बीच ग्रुंड्रिस के आठ रजिस्टर भर गए । इसके अतिरिक्त न्यू-यार्क ट्रिब्यून के संवाददाता के बतौर दर्जनों लेख लिखे जिनमें यूरोप में जारी संकट का भी विश्लेषण था । कुछ और धन कमाने के लिए न्यू अमेरिकन साइक्लोपीडिया के लिए अनेक प्रविष्टियां लिखने की सहमति दी । इसके साथ ही तीन रजिस्टर भर की सामग्री एकत्र की । इन्हें संकट संबंधी नोटबुकें कहा जा सकता है । इस तमाम सामग्री के कारण यह धारणा बदली है कि पूंजी के लेखन के पीछे हेगेल की साइंस आफ़ लाजिक की प्रेरणा थी । उनके सोच विचार का प्रमुख विषय बहु प्रतीक्षित आर्थिक संकट था । एंगेल्स को लिखी एक चिट्ठी में इस समय का अपना दोहरा कार्यभार बतलाया था । एक राजनीतिक अर्थशास्त्र की रूपरेखा स्पष्ट करना ताकि जनता इस संकट की जड़ तक पहुंच सके और दूसरा वर्तमान संकट का लेखा जोखा रखना ताकि भविष्य में दोनों मिलकर कोई किताब लिख सकें । बाद में दूसरे कार्यभार को छोड़ दिया और समूची ऊर्जा पहले काम में लगा दी ।
उनके सामने सबसे बड़ा सवाल था कि आखिर राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना शुरू कहां से करें । जवाब देने में दो बातों से मदद मिली । एक कि कुछ सिद्धांतों की वैधता के बावजूद अर्थशास्त्र कोई ऐसी ज्ञानात्मक प्रक्रिया नहीं विकसित कर सका था जिसके सहारे यथार्थ को सही सही पकड़ा और समझाया जा सके । दूसरे कि लिखने का काम शुरू करने से पहले अपने तर्क और विवेचन क्रम को स्पष्ट करना उन्हें जरूरी लगा । इसके चलते उन्हें पद्धति की समस्याओं को गहराई से देखना पड़ा और शोध के निर्देशक नियमों को सूत्रबद्ध करना पड़ा । यह काम ग्रुंड्रिस की भूमिका के जरिए संपन्न हुआ । इसका मकसद कोई पद्धति वैज्ञानिक गुत्थी सुलझाना न होकर खुद के लिए आगामी लंबी यात्रा की दिशा स्पष्ट करना था । जो विराट सामग्री उन्होंने एकत्र कर रखी थी उसको याद रखने के लिए भी यह काम जरूरी लगा । मकसद बहुविध थे और लिखा कुल हफ़्ते भर में गया था इसलिए यह भूमिका जटिल और विवादास्पद हो गई है । इसके चार अनुभाग हैं- 1) उत्पादन, 2) उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग के बीच संबंध, 3) राजनीतिक अर्थशास्त्र की पद्धति और 4) उत्पादन के साधन (ताकतें) और उत्पादन संबंध तथा परिचालन के संबंध आदि ।
अपने अध्ययन का क्षेत्र निर्धारित करते हुए वे घोषित करते हैं कि भौतिक उत्पादन उनकी गवेषणा का केंद्रविंदु है । समाज में उत्पादन में लगा हुआ व्यक्ति यानी सामाजिक रूप से निर्धारित व्यक्तिगत उत्पादन उनका प्रस्थानविंदु रहेगा । इस मान्यता के जरिए उन्होंने पूंजीवादी वैयक्तिकता को शाश्वत मानने की धारणा से मुक्ति पा ली । उनके लिए उत्पादन सामाजिक परिघटना है । असामाजिक व्यक्तिवाद आधुनिक समाज की परिघटना है और इसे पूंजीवादी विचारक सर्वकालिक बनाकर पेश करते हैं । मार्क्स ने पाया कि सभी युगों के चिंतक अपने समय की विशेषता को शाश्वत ही कहते आए हैं । अपने समय के राजनीतिक अर्थशास्त्रियों के बनाए इस व्यक्ति की धारणा के विपरीत मार्क्स ने कहा कि समाज से बाहर व्यक्ति द्वारा उत्पादन उसी तरह बेवकूफाना बात है जैसे लोगों के एक साथ रहने और आपसी संवाद के बिना भाषा के विकास की कल्पना करना । वे वैयक्तिकता को सामाजिक परिघटना मानते थे । जिस तरह नागरिक समाज का उदय आधुनिक दुनिया में हुआ उसी तरह पूंजीवादी युग का मजदूरी पर आश्रित स्वतंत्र कामगार भी दीर्घकालीन ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज है । उसका उदय सामंती समाज के विघटन और सोलहवीं सदी से विकासमान उत्पादन की नई ताकतों के चलते हुआ है । आधुनिक पूंजीवादी व्यक्ति के उदय की समस्या को सुलझाने के बाद मार्क्स कहते हैं कि वर्तमान उत्पादन सामाजिक विकास के एक निश्चित चरण के अनुरूप है । इस धारणा के सहारे वे उत्पादन की अमूर्त कोटि को किसी खास ऐतिहासिक क्षण में उसके साकार रूप से जोड़ देते हैं ।
असल में तमाम अर्थशास्त्री उत्पादन की अमूर्तता के आधार पर अपने समय के सामाजिक संबंधों को स्वाभाविक बना देते हैं । इसके विरोध में ही मार्क्स ने प्रत्येक युग के विशेष लक्षणों की पहचान की । उनकी इस ऐतिहासिकता के बावजूद सभी युगों में उत्पादन के लिए मानव श्रम और प्राकृतिक संसाधन आवश्यक तत्व रहे हैं । अन्य तमाम अर्थशास्त्री इनके अतिरिक्त तीसरे तत्व पूंजी को भी आवश्यक मानते हैं जो असल में पहले के श्रम का ही संचित भंडार होता है । इसी तीसरे तत्व की आलोचना अर्थशास्त्रियों की बुनियादी सीमा को उजागर करने के लिए उन्हें जरूरी लगी । पूंजी को अन्य अर्थशास्त्री सदा से मौजूद मानते थे लेकिन मार्क्स ने उसे श्रम का संचित रूप कहकर उसे ऐतिहासिक कोटि में बदल दिया । उनके मुताबिक पूंजी के आगमन से पहले उत्पादन और उत्पाद मौजूद थे जिन्हें पूंजी अपनी प्रक्रिया के मातहत ले आई । उत्पादक कर्ता को उत्पादन के साधनों से अलग करके ही पूंजीपति को ऐसे संपत्तिविहीन मजदूर मिले जो अमूर्त श्रम में लगे । पूंजी और जीवित श्रम के बीच विनिमय के लिए यह अमूर्त श्रम आवश्यक होता है । इसका जन्म ऐसी प्रक्रिया की उपज है जिसके बारे में अर्थशास्त्री चुप्पी लगाए रहते हैं । पूंजी और मजदूरी पाने वाले श्रम का इतिहास इसी प्रक्रिया से निर्मित होता है ।
मार्क्स ने अर्थतंत्र के लगभग सारे तत्वों को ऐतिहासिक बनाया । मुद्रा को अर्थशास्त्री शाश्वत मानते थे । मार्क्स ने कहा कि सोने या चांदी में मुद्रा की संभावना निहित होने के बावजूद सामाजिक विकास के एक निश्चित क्षण में ही वे इस भूमिका को निभाना शुरू करते हैं । इसी तरह कर्ज भी इतिहास के विशेष क्षण में प्रकट हुआ है । मार्क्स का कहना है कि सूदखोरी की तरह लेनदेन की परंपरा रही है लेकिन जैसे काम को औद्योगिक या मजदूरी पाने वाला श्रम नहीं कहा जा सकता उसी तरह आधुनिक कर्ज भी पुराने उधारी लेनदेन से अलग विकसित उत्पादन संबंधों में पूंजी आधारित वितरण से पैदा होता है । कीमत और विनिमय भी पहले से मौजूद थे लेकिन उत्पादन की लागत से कीमत का निर्धारण तथा सभी उत्पादन संबंधों पर विनिमय का दबदबा बुर्जुआ समाज के अभिलक्षण हैं । स्पष्ट है कि मार्क्स का मकसद पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की ऐतिहासिकता को साबित करना था । इस नजरिए के चलते श्रम प्रक्रिया समेत ढेर सारे सवालों को उन्होंने अलग तरीके से देखा । इस सवाल को वे बुर्जुआ समाज के निहित स्वार्थ से भी जोड़ते हैं । यदि कोई कहता है कि मजदूरी पाने वाला श्रम उत्पादन के विशेष ऐतिहासिक रूप से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि मनुष्य के आर्थिक अस्तित्व का सार्वभौमिक यथार्थ है तो इसका अर्थ है कि शोषण और अलगाव हमेशा से मौजूद रहे हैं और भविष्य में भी सर्वदा कायम रहेंगे ।
इस तरह पूंजीवादी उत्पादन की विशेषता से इनकार के ज्ञानात्मक नतीजों के साथ राजनीतिक नतीजे भी निकलते हैं । एक ओर इससे उत्पादन की विशेष ऐतिहासिक अवस्था को समझने में बाधा आती है तो दूसरी ओर वर्तमान स्थितियों को अपरिवर्तित और अपरिवर्तनीय कहकर पूंजीवादी उत्पादन को सामान्य उत्पादन और बुर्जुआ सामाजिक संबंधों को स्वाभाविक मानव संबंध साबित करने की कोशिश की जा सकती है । इसलिए अर्थशास्त्रियों के सिद्धांतों की मार्क्सी आलोचना का दोहरा महत्व है । किसी भी यथार्थ को समझने के लिए उसकी विशेष ऐतिहासिक अवस्था की जानकारी जरूरी होती है । इसके साथ ही इससे पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की अपरिवर्तनीयता का तर्क खंडित भी होता है । पूंजीवादी व्यवस्था की ऐतिहासिकता और अस्थायित्व साबित होने से उसके उन्मूलन की संभावना बलवती होगी ।

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