सूत्र रूप से कहें तो रचना प्रक्रिया किसी व्यक्ति
और संसार के बीच की अंत:क्रिया है । अर्थ कि कोई भी संवेदनशील
व्यक्ति चारों ओर फैले समाज को महसूस करके अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है । इस प्रतिक्रिया
को आम तौर पर कला कह सकते हैं लेकिन फिलहाल लेखक समुदाय के बीच इसे साहित्य तक सीमित
रखना ठीक होगा । यदि इतना ही मानें तो यह रचना प्रक्रिया के बारे में रोमांटिक नजरिया
होगा । जाहिर है कोई व्यक्ति अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति शून्य में नहीं करता । उसकी
यह अभिव्यक्ति सामाजिक क्रिया होती है । अपनी अभिव्यक्ति को वह दूसरों तक ले जाना चाहता
है । उसके लिए कुछ माध्यमों की जरूरत होती है । अनेक कला रूप एकाधिक माध्यमों का इस्तेमाल
करते हैं । साहित्य में मुख्य रूप से भाषा का इस्तेमाल किया जाता है जो समाज से व्यक्ति
को प्राप्त होती है । इस माध्यम के अतिरिक्त अभिव्यक्ति के कुछ पूर्वनिश्चित रूप होते
हैं जिन्हें हम विधा कहते हैं । ये विधाएं भी हमें विरासत के रूप में ही मिलती हैं
। इन दोनों के प्राप्त होने का अर्थ यह नहीं कि इनमें बदलाव संभव नहीं होता । उलटे,
समय बदलने पर भाषा और विधाओं के स्वरूप में भी बदलाव आता है । रचना की
प्रक्रिया में भाषा और विधा के सिलसिले में परंपरा प्राप्त और नवीन कथ्य का तनाव हमेशा
बना रहता है । इस तनाव को प्रत्येक रचनाकार अपने तरीके से हल करता है ।
1 रामविलास शर्मा ने रचना में इंद्रिय संवेदन और भावबोध के साथ विचार तत्व की मौजूदगी जरूरी मानी है । उनके अनुसार इन सबमें विचार तत्व सबसे तेजी से बदलने वाली चीज है लेकिन क्या भावबोध से विचार पूरी तरह स्वायत्त हो सकता है । यदि मार्क्सवाद की साहित्य संबंधी मान्यताओं को ध्यान में रखें तो विचार की उपस्थिति रचना में सतह पर नहीं होती बल्कि वह खुद लेखक की
दृष्टि को भी प्रभावित करता है । इस अर्थ में यथार्थ और विचार एक दूसरे से भिन्न नहीं ।
मतलब कि जब हम यथार्थ को देखते हैं तो उस देखने में न केवल हमारी सामाजिक हैसियत शामिल
रहती है बल्कि इसके साथ ही मकसद भी शामिल रहता है ।
2 मुक्तिबोध
ने रचना प्रक्रिया संबंधी विश्लेषण में इसे और भी स्पष्ट किया है । रचना प्रक्रिया
के उनके विवेचन में मूल संवेदना जिन अनेक चीजों से पुष्ट होकर प्रकट होती है उनमें
विचार एक महत्वपूर्ण तत्व है । जो लोग साहित्य में विचार की उपस्थिति मात्र का
विरोध करते हैं वे साहित्य से अपेक्षा क्या करते हैं । शायद मनोरंजन लेकिन हम सभी
जानते हैं कि मनोरंजन भी विचार निरपेक्ष नहीं होता । जिस मजाक से किसी
स्त्रीद्वेषी व्यक्ति का मनोरंजन होगा उससे किसी स्त्री का नहीं होगा । असल में साहित्य
के बारे में शाश्वत किस्म के मूल्य उस समाज में गढ़े गए थे जहां साहित्य बहुत ही कम
लोगों को उपलब्ध होता था । हालांकि उस समय भी भिन्न माध्यमों से इसका संचार तो होता
ही था । शायद इसीलिए सुख कम उपलब्ध होने से प्रयत्न पक्ष और वंचना के चित्रण का
महत्व बताना पड़ा था । आगे चलकर जैसे जैसे साहित्य के उपभोक्ता और विस्तारित हुए, उनकी रुचियों का अंतर स्पष्ट होता गया । इसे बहुत व्यावहारिक स्तर पर वीर
रस के उदाहरण के रूप में अलग अलग पाठ की पसंद के रूप में देखा जा सकता है । लड़कों
को ‘भाग मिल्खा भाग’ और लड़कियों को ‘मेरी काम’ को पसंद करते देखना मुश्किल नहीं । असल में
बीती सदी में ही साहित्य के भीतर विचार की जरूरत के समर्थन और विरोध पर बहस उठी और
इस बहस पर शीतयुद्ध की वैचारिक बहसों का प्रभाव था । इस खेमेबंदी में साहित्य में विचार
की उपस्थिति को उस पर मार्क्सवाद का प्रभाव माना गया ।
3 बीसवीं सदी के अंत में समाजवादी खेमे के पराभव
के कुछ ही समय बाद ऐसी तमाम परिघटनाएं प्रकट हुईं जिनकी व्याख्या के लिए
मार्क्सवाद का सहारा लेना जरूरी लगने लगा । इसका एक कारण था और वह यह कि पूंजीवाद
के आगमन के साथ उसके विरोध के जो अनेक सिद्धांत आए थे उनमें मार्क्स के चिंतन ने थोड़ा
आपसी वाद विवाद के जरिए और बहुत हद तक पूंजीवादी यथार्थ की सही व्याख्या साबित
होने के जरिए बरतरी हासिल की थी । सदी के मोड़ पर बहुतेरे विद्वानों ने साबित करने की
कोशिश की कि दुनिया किसी और युग में दाखिल हो गई है । इसके लिए जिन बदलावों को
चिन्हित किया गया उनके सहारे पूंजीवाद से अलग किसी बेहतर समाज में प्रवेश का अनुभव
लोगों को नहीं हुआ । ऐसी स्थिति में पूंजीवाद की सबसे मूलगामी व्याख्या होने के
नाते मार्क्सवाद की ओर लोगों का व्यापक झुकाव शुरू हुआ । इस दौर के मार्क्सवादी विमर्श
में बीसवीं सदी के विमर्श से बहुतेरे अलगाव हैं । बीसवीं सदी के शुरू में घटित रूसी
क्रांति ने इसे विशेष क्रांतिकारी स्वरूप प्रदान किया था । सदी का मध्य आते आते चीन
की क्रांति हुई और उसने भी मार्क्सवाद के इस क्रांतिकारी स्वरूप को आगे बढ़ाया । लेकिन
दोनों ही देशों में शुरुआती क्रांतिकारी आवेग के बाद सत्ता की स्थिरता महत्वपूर्ण हो
गई । फ़ासीवाद के विरुद्ध लड़ाई ने जरूर फिर से मार्क्सवाद में रुचि पैदा की लेकिन उसके
बाद कमोबेश समाजवादी देशों के भीतर स्थिरता कायम रही । इसके मुकाबले वर्तमान उत्थान
के साथ किसी सत्ता के मुकाबले जन आंदोलनों की आंच मौजूद है । इस हालत के अगर नुकसान
हैं तो लाभ भी हैं । पहले दुनिया भर के मार्क्सवादी किसी केंद्र की ओर निर्देश हेतु
देखते थे । उसके बरक्स इस दौर में पैदा होने वाले लगभग सभी सवालों के जवाब हमें खुद
ही तलाशने होंगे । इस भिन्नता के साथ मार्क्स के वर्तमान उत्थान में साहित्य और
संस्कृति संबंधी सवालों की अनुपस्थिति सबने मानी है । असल में बीसवीं सदी के
मार्क्सवादी विमर्श में सोवियत संघ और उसके समानांतर पश्चिमी मार्क्सवादी दोनों ही
धाराओं ने साहित्य और संस्कृति को महत्वपूर्ण क्षेत्र मानकर गहराई से विचार किया
था । इससे पहले की उन्नीसवीं सदी में ऐसा नहीं था । नए समय में शायद साहित्येतर
सवाल अधिक गंभीर हो गए हैं इसलिए अर्थतंत्र, राजनीति
और विचारधारा के सवाल अधिक उत्तेजना पैदा कर रहे हैं । इस लिहाज से जो सवाल अधिक
ध्यान खींच रहे हैं उन पर एक नजर डालना अनुचित न होगा ।
4 सबसे पहले बदलाव के रूप में आर्थिक जगत में वित्तीकरण
नजर आता है । अर्थशास्त्र की पारंपरिक भाषा में इसे कृषि और उद्योग के मुकाबले तृतीयक
सेवा क्षेत्र का विस्तार कहा जाता है । इसने मुनाफ़े का एक नया तंत्र खड़ा किया है जिसमें
रोजगार विहीन वृद्धि नजर आती है । इससे पश्चिमी देशों में नया सूदखोर वर्ग उत्पन्न
हुआ है । वित्तीय क्षेत्र के इस अतिरिक्त विकास ने पहले तो एशियाई बाजारों में संकट
पैदा किया लेकिन फिर बाद में वह पूंजी के समग्र संकट में बदल गया । इसका सबसे बड़ा कारण
मुद्रा की कीमत में आया नकली उछाल है । इस परिघटना ने दुनिया भर के वित्त बाजारों को
अस्थिर कर दिया है और कोई भी देश इस अंतर्राष्ट्रीय पूंजी की मनमानी से स्वतंत्र नहीं
रह गया है । इसके साथ ही उत्पादन के पुराने रूपों में भी बदलाव आ रहे हैं । उत्पादक
संयंत्र अधिकाधिक सस्ते श्रम और प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों से युक्त तीसरी दुनिया के
देशों में भेजे जा रहे हैं । इन देशों के शासक श्रम और संसाधनों की लूट की खुली छूट
प्रदान करते हैं । प्राकृतिक संसाधनों में भी सबसे जरूरी और सीमित होने के कारण जमीन
एक बार फिर से लड़ाई का नया क्षेत्र बन गई है । इन दोनों बदलावों के चलते पर्यावरण का
सवाल नए तेवर के साथ उपस्थित हुआ है । वित्तीकरण ने वैश्विक विषमता को नए तरीके से
आकार दिया है । साथ ही इसने विभिन्न देशों के भीतर भी विषमता बढ़ाई है । विषमता का यह
अनुभव तीसरी दुनिया के साथ पश्चिमी देशों के लोगों को भी हो रहा है । हाल के दिनों
में मार्क्सवादियों के अतिरिक्त मुख्य धारा के बहुत सारे अर्थशास्त्रियों ने भी विषमता
के विस्फोटक उभार पर चिंता जाहिर की है । वित्तीकरण के साथ विषमता नए किस्म के सामंतवाद
को जन्म दे रही है जिसमें पीढ़ी दर पीढ़ी पैतृक संपत्ति का हस्तांतरण सामाजिक गतिशीलता
को बाधित कर रहा है । इसी विषमता को जोसेफ स्तिगलित्ज़ ने सूत्रबद्ध करते हुए
99 और 1 प्रतिशत का सवाल उठाया था जो बाद में पश्चिमी
देशों का सबसे लोकप्रिय नारा बन गया । एक और गैर मार्क्सवादी अर्थशास्त्री पिकेटी ने
इस समस्या के समाधान के लिए विरासत की संपदा पर शत प्रतिशत कर लगाने का सुझाव दिया
है । समाज में लोकतंत्र के वर्तमान क्षरण के साथ ही राजनीति में भी उसकी अभिव्यक्ति
हो रही है । राजनीति के इस बदलाव को भी सामाजिक विषमता से जोड़कर देखा जा रहा है ।
5 राजनीतिक क्षेत्र में सबसे गहरा बदलाव
लोकतंत्र का क्षरण है । शीतयुद्ध के दौरान पश्चिमी देश लोकतांत्रिक शासन पद्धति को
वैचारिक द्वंद्व में सबसे कारगर हथियार की तरह इस्तेमाल करते थे । वामपंथी बौद्धिकों
में भी इस सवाल पर थोड़ी शर्मिंदगी भरी चुप्पी पाई जाती थी । अब उन्हीं पश्चिमी देशों
में बुर्जुआ लोकतंत्र के सारहीन होते जाने के साथ दक्षिणपंथ और यहां तक कि फ़ासीवादी
ताकतों का मजबूत उभार देखा जा रहा है । वाम हलकों में वर्तमान परिघटना को समझने के
लिए फ़ासीवाद की शब्दावली का प्रयोग बढ़ रहा है । निरंतर इस दौर के फ़ासीवाद की नई विशेषताओं
को समझने पर जोर दिया जा रहा है ताकि इसका कारगर मुकाबला किया जा सके । कामू ने अपने
उपन्यास ‘प्लेग’ में बताया था कि प्लेग
के जीवाणु हरेक बार इस हद तक अपना रूप बदलकर प्रकट होते हैं कि डाक्टर भी शुरू में
उन्हें पहचान नहीं पाते । इसी तरह राजनीतिक परिघटनाओं का दुहराव भी जस का तस नहीं होता
। खास बात कि जिस तरह वामपंथी लोग अपने इतिहास से सीखते हैं उसी तरह दक्षिणपंथ भी अपने
इतिहास से सीखता है । यहां तक कि जिस तरह अलग अलग देशों का समाजवाद अलग अलग था या होगा
उसी तरह विभिन्न देशों में फ़ासीवादी निजाम के भी एक समान होने की उम्मीद नहीं करनी
चाहिए । फ़ासीवादी शासन की अंतर्वस्तु पूंजी का संकट होता है । आम तौर पर पूंजी का शासन
लोकतांत्रिक तरीके से चलाया जाता है लेकिन संकट में आने पर वह अपना यह चोला उतार फेंकती
है । पूंजी के संकट की यह बात फ़ासीवाद के साथ लगी हुई है । इस समानता के बावजूद राष्ट्रीय
राजनीतिक परिस्थितियों के भेद से उसके रूप अपने ही अतीत से तो अलग होंगे ही आपस में
भी अलग अलग हो सकते हैं । उदाहरण के लिए हमारे देश में उसका उत्थान लंबे समय में धीरे
धीरे हुआ है इसलिए उसको परास्त करने की लड़ाई के भी दीर्घकालीन होने की आशा है । मुख्य
धारा की समूची राजनीति में दक्षिणपंथी झुकाव आने के साथ मध्यमार्ग भी अधिकाधिक दक्षिण
की ओर खिंचता जा रहा है । असल में तो राजनीति में मध्यमार्ग की जगह रोज ब रोज संकुचित
होती जा रही है । मध्यमार्ग के साथ एक अन्य प्रक्रिया भी चल रही है । उसके भीतर ही
कम से कम ब्रिटेन और अमेरिका में वामपंथ का उभार हो रहा है । युवा समुदाय जिसे
‘जेनरेशन 2 के’ भी कहा जा
रहा है उसमें वाम सोच-विचार और विशेषकर मार्क्सवाद के प्रति आकर्षण
देखा जा रहा है । जिस बुर्जुआ राजनीति ने अपने को लोकतंत्र का साकार रूप घोषित किया
था उसके हाथों ही लोकतंत्र की हत्या को देखते हुए मार्क्स के चिंतन में मौजूद लोकतंत्र
की विशेषता को रेखांकित किया जा रहा है । उनके चिंतन में निहित लोकतंत्र को केवल राजनीतिक
की जगह विभिन्न सामाजिक समुदायों की अधिकारसंपन्नता के रूप में समझा जा रहा है । मार्क्स
की इस नई समझ ने अंबेडकर चिंतन के साथ उसके रचनात्मक और सार्थक संवाद की गुंजाइश पैदा
की है । लोकतंत्र की इस मार्क्सी धारणा ने अस्मिता आंदोलनों और मार्क्सवाद के बीच संवाद
की गुंजाइश भी बनाई है । लगभग सभी अस्मिता आंदोलन मार्क्सवाद के साथ अपनी असहमति घोषित
करते रहे हैं । सच तो यह है कि जिन सामाजिक अस्मिताओं के सवाल उठाने का दावा अस्मिता
आंदोलन करते हैं उन समुदायों के अधिकारों के लिए मार्क्सवादी भी लड़ते रहे हैं । इसके
चलते आपसी प्रतियोगिता के साथ संवाद की गुंजाइश भी बनी रही है । हाल के दिनों में पूंजी
के नए तेवर में हमलावर होने के साथ उसके शिकार ये दमित तबके हो रहे हैं जिसके चलते
आपसी संवाद का पहलू और बढ़ा है । इसी क्रम में मार्क्सवादी चिंतन के भीतर सामाजिक
प्रश्न की प्रमुखता को न केवल लक्षित किया जा रहा है बल्कि बदलाव के राजनीतिक पहलू
पर अधिक बल के मुकाबले सामाजिक बदलाव को अधिक मूलगामी भी समझा जा रहा है ।
6 साठ के दशक में ही उत्पन्न नए सामाजिक
आंदोलनों में स्त्री और अश्वेत अस्मिता आंदोलनों के साथ पर्यावरण का आंदोलन भी था ।
अन्य नव सामाजिक आंदोलनों की तरह उसके साथ भी मार्क्सवाद का संबंध बहुत सहज नहीं रहा
था । मार्क्सवादियों को लगता था कि पर्यावरणवादी लोग वर्तमान व्यवस्था के भीतर सुधार
तक ही सीमित रहना चाहते हैं । इसी तरह पर्यावरणवादियों को रूस और चीन में मौजूद सत्ता
विमर्श से परेशानी का अनुभव होता था । हाल के दिनों में इन दोनों धाराओं के बीच भी
संवाद मजबूत हुआ है । पर्यावरणवादी लोग पूंजीवाद जनित प्रकृति के विनाश की प्रवृत्ति
को पहचान रहे हैं । पर्यावरण आंदोलन के भीतर इस समय एक वैज्ञानिक धारणा सबसे अधिक लोकप्रिय
हुई है । उसे एंथ्रोपोसीन कहा जाता है । इसका अर्थ है कि हमारी सभ्यता एक नए भूगर्भीय
युग में दाखिल हो गई है । इस युग में धरती को प्रभावित करने वाले कारक मुख्य तौर पर
प्राकृतिक नहीं रह गए हैं बल्कि अब वह मनुष्य की हरकतों से अधिकतर प्रभावित हो रही
है । जलवायु संबंधी बदलाव भी मौसम चक्र में हुए ऐसे परिवर्तनों के चलते हो रहे हैं
जिनकी मूल वजह मनुष्य का प्रकृति में हस्तक्षेप है । इसकी शुरुआत के बतौर औद्योगिक
क्रांति को चिन्हित किया जा रहा है । पर्यावरणवादियों की सोच बदलने के साथ मार्क्सवादी
लोग भी मार्क्स के चिंतन में निहित पूंजीवाद विरोध के इस पहलू पर बल दे रहे हैं । साहित्य
के साथ पर्यावरण के इस रिश्ते के बारे में अमिताभ घोष ने बेहद महत्वपूर्ण किताब लिखी
। इसमें उन्होंने पर्यावरण की चिंता जाहिर करने वाले साहित्यिक लेखन को विज्ञान कथा
के खाते में डालने का विरोध किया है । जिस तरह के बदलाव आ रहे हैं उससे लगता है कि
आगामी दिनों में पर्यावरण का सवाल बेहद महत्वपूर्ण होने जा रहा है । अकाल, बाढ़, बीमारी और भुखमरी जैसी चीजों की बढ़ोत्तरी के पीछे
पर्यावरण संबंधी बदलाव ही हैं । अब तक पर्यावरण का प्रश्न विद्वत्तापूर्ण बातचीत का
विषय हुआ करता था लेकिन जल्दी ही यह सवाल किसान और मजदूर दोनों ही आंदोलनों के लिए
गंभीर सरोकार बनने जा रहा है । लोगों के जीवन में पैदा होने वाली तकलीफ का स्रोत पर्यावरणिक
बदलाव होने से साहित्य में भी उसकी अभिव्यक्ति हो रही है । साहित्य का एक स्थायी विषय
प्रकृति रही है जिसके भीतर होने वाले बदलावों को विभिन्न भाषाओं के साहित्य में व्यक्त
किया जा रहा है । इससे जुड़ा लेखन विधाओं के बंटवारों पर भी सवाल उठा रहा है ।
7 इन सभी चीजों ने मार्क्स के चिंतन को
नए तरीके से देखने और समझने का अवसर उपलब्ध कराया है । एक और चीज ने मार्क्स के
लेखन में रुचि बढ़ा दी है । उनके समग्र लेखन को छापने का एक नया प्रयास चल रहा है
जिसके तहत उनकी तमाम प्रकाशित पुस्तकों के अतिरिक्त उनकी तैयारी के क्रम में बनी सारी
नोटबुकों को छाना जा रहा है । हम सब जानते हैं कि मार्क्स के जीवित रहते उनका लिखा
बहुत अल्प मात्रा में प्रकाशित हुआ था । उन्हें बुर्जुआ बुद्धिजीवी जैसी निश्चिंतता
नहीं हासिल थी । जीवन भर लगभग समूचे यूरोप का सत्ता प्रतिष्ठान उनके पीछे पड़ा रहा था
। धन का दिल दहला देने वाला अभाव लगातार बना रहा था । कड़े परिश्रम के चलते स्वास्थ्य
चौपट हो चला था । जिस सामाजिक वर्ग के लिए उन्होंने यह सब सहा वह मजदूर, समाज का सबसे कमजोर समुदाय था । उसकी राजनीतिक चेतना का उभार हो ही रहा था
। पूंजीवाद उसके भीतर विभाजन और होड़ पैदा करके एकता नहीं बनने दे रहा था । इन सबके
कारण उनके लिखे का बेहद छोटा हिस्सा ही प्रकाशित हुआ था । इस प्रकाशित अंश के मुकाबले
अनछपा लेखन बहुत अधिक था । देहांत के बाद एंगेल्स ने कुछ चीजों को व्यवस्थित और संपादित
करके छपवाया । इसके बावजूद हाथ से लिखा बहुत अधिक बचा हुआ था । अब नए सिरे से संपादित
करके सब कुछ छापने की योजना बनी है । इस नए प्रयास के कारण प्रकाशित लेखन से इस
तैयारी का रिश्ता समझने के क्रम में मार्क्स की जीवन भर चलते रहने वाली जिज्ञासा और
विचारों में लगातार नवीकरण का तथ्य खुलकर प्रकट हो रहा है ।
8 सोवियत संघ के ढहने के बाद दुनिया के
एकध्रुवीय होते ही साम्राज्यवाद की परिघटना ने सिर उठाया है । यह साम्राज्यवाद भी पुराने
से भिन्न किस्म का है जिसके चलते मार्क्सवादियों के भीतर ही विवाद जारी हैं । इसकी
नवीनता पहचानने के साथ ही पुरानेपन की मौजूदगी देखने के चलते औपनिवेशिक अतीत की
छानबीन भी तेज हुई है । इसलिए मार्क्स के चिंतन में मौजूद उपनिवेशवाद विरोध का
पहलू पुन: प्रासंगिक हुआ है । मार्क्स ने कहा
ही था कि चीजें जितना अधिक बदलती हैं उतना ही वे पहले की तरह होती जाती हैं । अतीत
पूरी तरह से तो नहीं दुहराया जाता लेकिन दुहराया जाता है । इसी संदर्भ में देखें तो
बीच के बदलावों के साथ जिन पुरानी चीजों की वापसी हो रही है उनमें पूंजीवाद के
भीतर नव सामंती तत्वों का प्रकट होना, उत्पीड़न और बहिष्करण के
लगभग सभी पुराने तरीकों की हिंसक वापसी, राज्यतंत्र का
धनतंत्र के समक्ष कमजोर होते जाना, तर्क की जगह आस्था की
प्रतिष्ठा, समस्या के समाधान में तकनीक पर जोर आदि विचारणीय
प्रसंग हो चले हैं ।
9 पूंजीवाद की गति के जो नियम मार्क्स ने खोजे थे उनसे समझा जा सकता है कि पूंजीवाद
में बार बार और नियमित रूप से गिरावट क्यों आती है, विभिन्न देशों के बीच युद्ध को जन्म देने वाली दुश्मनी
क्यों बनी रहती है और प्राकृतिक संसाधनों का ऐसा बेलगाम तथा बरबादी भरा इस्तेमाल
क्यों होता है जिससे धरती के ही विनाश का खतरा पैदा हो गया है । उनके विचारों को
पढ़ने से यह भी पता चलता है कि यह पूंजीवाद हमेशा से मौजूद नहीं था इसलिए हमेशा
नहीं बना रहेगा । उदारवाद की विचारधारा को सोखकर दक्षिणपंथ का व्यापक उभार हुआ है
। इसके विरोध में उदारपंथ की मदद लेते हुए भी उसकी सीमाओं के प्रति सचेत रहना होगा
।
10 मार्क्स के
जीवन और चिंतन को समझने की इन नई कोशिशों के चलते उनके दार्शनिक, आर्थिक और राजनीतिक सोच के तमाम पहलू
उभर रहे हैं और फिर से प्रासंगिक हो रहे हैं । उदाहरण के लिए पूंजीवाद के बुनियादी
अंतर्विरोध के रूप में उन्होंने उत्पादन के सामाजिक स्वरूप और अधिग्रहण के निजी रूप
के बीच का अंतर्विरोध पहचाना था । आज की तकनीक और इंटरनेट की दुनिया में भी पूंजीवाद
का यह अंतर्विरोध न केवल बना हुआ है बल्कि उस दुनिया में काम करने वाले ज्यादातर लोग
इस बात को उठा भी रहे हैं । इसी तरह शासन में विचारों के प्रभुत्व की भूमिका को रेखांकित
करने के जरिए उन्होंने ब्राह्मणवाद समेत सभी तरह की विचारधाराओं से लड़ने का रास्ता
खोला । धर्म के सवाल पर भी अपने समय के अन्य अनगढ़ भौतिकवादियों के मुकाबले उनकी द्वंद्वात्मक
समझ हमें धर्म के फंदे में जकड़े हुए व्यक्ति से भी संवाद की गुंजाइश प्रदान करती है
। हिंदी साहित्य के सामान्य अध्ययन से भी हम जानते हैं कि कभी कभी रचनात्मक साहित्य
के मुकाबले ज्ञानकांड अधिक महत्व का हो जाता है । हिंदी में जिसे द्विवेदी युग कहते
हैं उस समय अर्जित समझ का परिपाक ही छायावाद और प्रेमचंद के लेखन में हुआ था । इसी
तरह के किसी संक्रमणशील समय में हमारा भी प्रवेश अनचाहे हुआ है और इस चुनौती का मुकाबला
हमें अपने ही औजारों से करना होगा । साहित्य के लिए ये औजार शायद विचार ही होते हैं
। सभी पीढ़ियों की तरह हमें भी अपने समय उठे सवालों के हल खुद खोजने होंगे । इसमें मार्क्स
के लेखन और वैचारिक संघर्ष से केवल दिशा प्राप्त हो सकती है । कारण यह कि न केवल जिन
सवालों से वे जूझे उनकी उपस्थिति बनी हुई है बल्कि हमारी दुनिया अपने नएपन के साथ बहुत
हद तक उनकी उन्नीसवीं सदी की दुनिया जैसी बनती जा रही है ।
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