Wednesday, August 29, 2018

कानूनी चोरी


                                  
2018 में फ़ेर्नवुड पब्लिशिंग से अलैन देनो की फ़्रांसिसी में 2016 में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद लीगलाइजिंग थेफ़्ट: ए शार्ट गाइड टु टैक्स हेवेन्सका प्रकाशन हुआ । अनुवाद कैथरीन ब्राउन ने किया है । इसकी प्रस्तावना द टैक्स जस्टिस नेटवर्क के जान क्रिस्टेन्सेन ने लिखी है । किताब सचमुच संक्षिप्त है लेकिन टैक्स चोरी के इस नए रूप और असर का भली प्रकार से परिचय कराती है । इसकी शुरुआत बेहद रोमांचक तरीके से होती है जब इसकी प्रस्तावना के लेखक बताते हैं कि उनके एक मुवक्किल को कैलिफ़ोर्निया की अदालत में अपने को दिवालिया घोषित करना था क्योंकि भूसंपत्ति के व्यवसाय में उन पर तमाम निर्माण कंपनियों और बैंकों का भारी कर्ज हो गया था और उनकी बीबी ने तलाक के बदले भारी मुआवजा मांगा था । उन्होंने कहा कि जर्सी आधारित ट्रस्ट से संचालित होने वाली उनकी तीसेक कंपनियों का मालिकाना बरमूडा आधारित एक नए ट्रस्ट को स्थानांतरित कर दिया जाए । असल में उनकी समूची संपत्ति ट्रस्ट की थी । पलक झपकते ही वह सारी संपदा नए ट्रस्ट के पास चली गई । नए ट्रस्ट का नया पदाधिकारी तुरंत नियुक्त हो गया । पुराने ट्रस्ट के बारे में सारे सबूत मिटा दिए गए । अब उस ट्रस्ट के अस्तित्व को साबित करना लगभग असंभव हो गया । जो कुछ किया गया वह जर्सी के कानूनों के हिसाब से सही था । प्रस्तावना लेखक ऐसी कंपनी में काम करते थे जो संपत्ति की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार थी । जिम्मेदारी निभाने के लिए सलाह सुझाव हेतु उसके पास वकीलों और लेखाकारों की फौज थी । जिस ट्रस्ट के पास मुवक्किल की संपत्ति का मालिकाना था वह जर्सी के ट्रस्ट कानून के मुताबिक स्थापित किया गया था । यह कानून टैक्स अधिकारियों और सरकारों के जांचकर्ताओं को धोखा देकर संपत्ति जमा करने वालों को सुरक्षा देता था । वे अपने मुवक्किल की टैक्स बचाने की रणनीतियों के बारे में जानते थे । वे यह भी जानते थे कि उनका मुवक्किल कर्ज देने वालों का धन चोरी चोरी पिछले आठ सालों से एक फ़र्जी ट्रस्ट की संपदा मे बदल रहा था ।
लेकिन यह काम वे खुफ़िया तरीके से यह जानने के लिए कर रहे थे कि किन तरीकों से विभिन्न देशों के धन्नासेठ अपने देशों के कानूनों को ठेंगा दिखाकर बड़ी कानूनी फ़र्मों और लेखा कंपनियों की सहायता से भारी रकम डकार जाते हैं । वे जानना चाहते थे कि आपराधिक कामों के लिए सुदूर द्वीप स्थित ट्रस्टों, फ़ाउंडेशनों और कंपनियों के चक्करदार संजाल का किस तरह उपयोग किया जाता है । जब उन्होंने काम शुरू किया तो पता लगा कि इस खेल में कानूनी फ़र्मों, लेखा कंपनियों, बैंकों और अफ़सरों तथा राजनेताओं की मिलीभगत होती है । लेखक ने जिन लोगों के भी मामलों का अध्ययन किया उन सबने टैक्स की चोरी, धोखाधड़ी या गबन किया था लेकिन ये अपराध अन्य प्रांतों या मुल्कों में किए गए थे इसलिए उनकी कानूनी छानबीन असंभव थी । जांच करने वाली सभी संस्थाओं को मालूम है कि किसी भी सूचना की राह में इन ट्रस्टों के वकील और अदालतें बाधा खड़ी करेंगे । आज भी इन द्वीपों के कानून अवैध धन संपत्ति के संचालक ट्रस्टों के पंजीकरण पर जोर नहीं देते । संपत्ति छिपाने में माहिर इन द्वीपों ने खुद को वैश्विक अर्थतंत्र से खूब अच्छी तरह से जोड़ रखा है । देशों के आरपार निवेश और व्यापार का काम कागज पर इस तरह होता है कि मुनाफ़े का स्थानांतरण आराम से होता रहे ।
प्रस्तावना के लेखक को लंदन की एक संगोष्ठी में पता चला कि दुनिया भर के बैंक अपने सबसे धनी ग्राहकों की संपत्ति इन द्वीपों में स्थानांतरित करने की योजना बना रहे थे । इस तरह दुनिया के सबसे धनी मुट्ठी भर अमीरों की अकूत संपदा बिना कोई टैक्स चुकाए और बिना किसी सरकारी लेखा जोखा के इन द्वीपों में सुरक्षित है । यही नहीं उस पर लगातार मुनाफ़ा भी हासिल किया जा रहा है । एक तरह से इन ताकतवर अमीरों के लिए अलग ही कानून है ।
एक जमाने में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब यूरोपीय साम्राज्य बिखरे तो स्पेनी लेखक ओर्तगा इ गस्से ने जनता की बढ़ती राजनीतिक शक्ति से यूरोपीय सभ्यता को उत्पन्न खतरे का संकेत किया था लेकिन उनका अनुमान गलत निकला । दो विश्वयुद्धों और महामंदी के चलते पैदा हुए व्यवधान के बावजूद बीसवीं सदी के अंत में वैश्विक कुलीन ही विजयी साबित हुए और 2008 के वित्तीय संकट के बाद उनकी संपदा और राजनीतिक हैसियत में इजाफ़ा हुआ है । इन कुलीनों ने कोई सभ्यता प्रसारित करने के मुकाबले अपने निहित स्वार्थों की तुष्टि में ही रुचि प्रदर्शित की है । सामाजिक जिम्मेदारी से विद्रोह तो जनता ने नहीं कुलीनों ने किया है । नतीजा कि लगभग एक सदी की यात्रा के बाद अधिकतर देशों में लोकतंत्र क्षरित हो रहा है और अल्पतंत्र की विस्मृत धारणा का बोलबाला कायम हो रहा है ।
बीच में जरूर ही कुछ दिनों के लिए ऐसा समय आया था जब लोकतंत्र के विस्तार के साथ पूंजीवाद भी फल फूल रहा था । कल्याणकारी राज्य ने वंचना और विषमता पर काबू पाने की कोशिश की थी लेकिन 1980 दशक के बाद पूंजी पर नियंत्रण कमजोर होते ही वह दौर समाप्त हो गया है और प्रगति उलटी दिशा में हो रही है । जहां टैक्स न देना हो ऐसे दूर द्वीपों की ओर पूंजी का प्रवाह तेज हो गया है और उसे वही राजनीतिक प्रतिष्ठा हासिल हो गई है जो उन्नीसवीं सदी के साम्राज्यवाद के समय हासिल थी । ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने के नबाबों की तरह आज के अरबपति धन्नासेठ भी लेशमात्र सामाजिक जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहते और सामाजिक मूल्य या नैतिकता के सभी बंधनों को तोड़ देना चाहते हैं । निजी हवाई जहाजों पर सवार ये अतिमानव स्थानीय या राष्ट्रीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बहुत कुछ मुक्त हो चुके हैं और उनकी चिंता बस यही रह गई है कि अपने लाभ के लिहाज से अनुकूल सरकार बनाने के लिए अपनी संपत्ति का उपयोग किस देश में करना ठीक होगा । बिना टैक्स चुकाए ही वे राजनीति और सरकार में अपना प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना चाहते हैं ।
टैक्स न चुकाने वाली स्वर्गतुल्य जगहें कुलीनों के इस विद्रोह का जरिया बन गई हैं । वहां से ही ये नए थैलीशाह लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित राजनेताओं को धमकाकर ऐसे फैसले करा रहे हैं जिनके लिए उन्हें वोट नहीं मिले थे । होड़ के नाम पर पूंजी को रियायतें दी जा रही हैं, मजदूरों के अधिकारों में कटौती हो रही है, सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान खत्म किए जा रहे हैं और पर्यावरण का खुला विध्वंस जारी है । नवउदारवाद के दौर में उम्मीद थी कि आर्थिक विकास का लाभ धनी लोगों के साथ गरीबों को भी मिलेगा लेकिन तथ्य है कि संपदा का रिसाव नीचे की ओर होने की जगह ऊपर के मुट्ठी भर लोगों के पास सिमटती जा रही है और वे लोग वैश्वीकरण को अपने हितों के मुताबिक ढाल रहे हैं । अधिकांश लोगों की नाव कीचड़ में फंस गई है तथा कर्ज के बोझ और घटती आमदनी के ज्वार में डूबा चाहती है । लोग लगातार खाई में गहरे गिरते जा रहे हैं और मुट्ठी भर अमीर लोग सामाजिक बंधनों और जिम्मेदारियों से आजाद होकर पुष्पक विमान की सैर कर रहे हैं । अगर हमें लोकतांत्रिक शासन और कानून का राज वापस चाहिए तो अमीरों की इन ऐशगाहों को मिटाना होगा । 

Sunday, August 26, 2018

दो सौ साल बाद मार्क्स का अर्थशास्त्र


       
2018 में लुलु.काम से माइकेल राबर्ट्स की किताब मार्क्स200: -ए रिव्यू आफ़ मार्क्सइकोनामिक्स 200 ईयर्स आफ़्टर हिज बर्थका प्रकाशन हुआ । किताब में मार्क्स के अर्थशास्त्र का संक्षिप्त परिचय देने के बाद पूंजीवाद की गति के नियमों (मूल्य का नियम, पूंजी संचय का नियम और मुनाफ़े की घटती दर का नियम) का विवरण देने के बाद संकट के उनके सिद्धांत का विवेचन किया गया है । इसके बाद मार्क्स के आलोचकों के तर्कों का जायजा लिया गया है । इसके बाद पूंजीवाद के बारे में मार्क्स की उन बातों का उल्लेख है जो अब भी प्रासंगिक लगती हैं । इनमें विषमता और साम्राज्यवाद के साथ उसकी अभिन्नता, धरती के विनाश, मशीन के आगमन तथा वर्ग संघर्ष की निरंतरता पर जोर दिया गया है । किताब का मुख्य मकसद भी मार्क्स के आर्थिक चिंतन की व्याख्या और इस समय के लिए उनकी प्रासंगिकता का विवेचन है । पूंजीवाद की गति के को नियम उन्होंने खोजे उनसे समझा जा सकता है कि उसमें बार बार और नियमित रूप से गिरावट क्यों आती है, विभिन्न देशों के बीच युद्ध को जन्म देने वाली दुश्मनी क्यों बनी रहती है और प्राकृतिक संसाधनों का ऐसा बेलगाम तथा बरबादी भरा इस्तेमाल क्यों होता है जिससे धरती के ही विनाश का खतरा पैदा हो गया है । उनके विचारों को पढ़ने से यह भी पता चलता है कि यह पूंजीवाद हमेशा से मौजूद नहीं था इसलिए हमेशा नहीं बना रहेगा । सवाल यह है कि इस धरती पर पूंजीवाद की जगह पर कैसी उत्पादन पद्धति और कैसा सामाजिक संगठन स्थापित किया जाए ।
लेखक ने मार्क्स के आर्थिक चिंतन के चार चरण माने हैं- बचपन, युवावस्था, परिपक्व और वार्धक्य के । बचपन में उन पर पिता और भावी ससुर के विचारों का असर था । ये दोनों ही प्रबोधन और फ़्रांसिसी क्रांति के मूल्यों से गहरे  प्रभावित थे शायद इसीलिए जब मार्क्स युवावस्था में दाखिल हुए तो धार्मिक अंधविश्वास और तानाशाही के प्रचंड विरोधी तो बन ही गए थे ही उनके विचारों में मूलगामी लोकतांत्रिक तत्व भी प्रबलता से समाए हुए थे । युवावस्था का उनका समय वैचारिक विस्फोट और यूरोप व्यापी राजनीतिक सक्रियता का था । ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के चलते मजदूरों का घनघोर शोषण और उसकी वजह से मशीनों और वस्तुओं का वैश्विक प्रसार हो रहा था । मध्य वर्ग को मताधिकार मिला था और चार्टिस्ट मजदूर आंदोलन इसके विस्तार की मांग कर रहा था । स्वदेश जर्मनी में भी शहरों में मजदूर संगठन बन रहे थे और देहात में विक्षोभ पैदा हो रहा था । उसके विभिन्न प्रांतों के बीच मौजूद व्यापारिक अवरोध खत्म होने से आर्थिक ताकत के बतौर उसका उभार हो रहा था । मार्क्स के विचारों में वर्ग संघर्ष की भौतिकवादी धारणा ने जड़ जमा ली और क्रांतिकारी पत्रकार के रूप में उनका विकास हुआ । इसी समय पूंजीवाद के गढ़ में रहने के कारण उसके समाजार्थिक प्रभावों के जानकार एंगेल्स के प्रभाव से मार्क्स में भी आर्थिक बदलावों की जानकारी में रुचि पैदा हुई । दोनों ने लगभग एक ही साथ पूंजीवाद की जगह पर सामूहिक नियंत्रण वाली उत्पादन पद्धति और सामाजिक संगठन की समर्थक विचारधारा साम्यवाद का झंडा पकड़ा । इस उत्पादन पद्धति और समाज का जन्मदाता पूंजीवाद की कब्र खोदनेवाले मजदूर वर्ग को होना था । मार्क्स और एंगेल्स दोनों ने मिलकर कम्यूनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र लिखा जिसमें पूंजीवाद की बुनियादी प्रकृति की पहचान तो थी लेकिन उसकी गति के नियमों को स्पष्ट नहीं किया गया था । यह किताब 1848 की क्रांतियों से ठीक पहले छपी लेकिन समूचे यूरोप में व्याप्त क्रांति कुचल दी गई । 
इसके बाद मार्क्स की बत्तीस से लेकर तिरेपन साल तक की उम्र के इक्कीस सालों को वे परिपक्व मार्क्स का समय मानते हैं । इस समय यूरोपीय अर्थतंत्र में उन्नति हो रही थी और ब्रिटेन ही प्रधान राजनीतिक आर्थिक शक्तिकेंद्र के रूप में सामने आया था  इसलिए पूंजीवाद के अध्ययन के लिए सर्वोत्तम स्थान था । दीर्घकालीन उन्नति के इस दौर से मार्क्स और एंगेल्स समझ सके कि क्रांति का कोई झटपट फ़ार्मूला नहीं होता और पूंजीवाद का वैश्विक प्रसार जारी रहेगा । 1857 के प्रथम अंतर्राष्ट्रीय संकट से भी न पूंजीवाद नष्ट हुआ न क्रांति हुई । मार्क्स ने पूरी ऊर्जा इंटरनेशनल के संचालन और पूंजी के नियमों को उद्घाटित करने वाले अपने ग्रंथ में लगाई । मार्क्स के जीवन का अंतिम दौर पेरिस कम्यून की पराजय से लेकर ब्रिटेन के गहरे आर्थिक संकट तक चला । पेरिस कम्यून की पराजय के तुरंत बाद अमेरिका में वित्तीय संकट आया जो जल्दी ही यूरोप भर में फैल गया । बाद में इसे पहली महामंदी की शुरुआत माना गया । इससे पूंजीवाद की गति के मार्क्स द्वारा खोजे गए नियमों की पुष्टि हुई ।
देहांत के बाद मार्क्स का नाम कुछेक यूरोपीय सामाजिक जनवादी पार्टियों के नेताओं में ही सुना जाता था, आर्थिक और राजनीतिक चिंतन की दुनिया में उनका नाम लेना गुनाह था । 1890 के बाद आर्थिक हालात में सुधार होने के बाद मजदूरों ने ट्रेड यूनियनें बनानी शुरू कर दीं और मजदूर वर्ग के इन संगठनों से उत्पन्न राजनीतिक पार्टियों को समर्थन भी मिलने लगा । मार्क्स के विचारों का प्रचार हुआ । इसके बाद तो 1917 की बोल्शेविक क्रांति ने उनके विचारों को बीसवीं सदी का संदर्भ विंदु बना दिया ।

Tuesday, August 21, 2018

फ़ासीवाद की ओर यात्रा: चौराहे पर अमेरिका


          
                                              
2018 में रटलेज से कार्ल बाग्स की किताब फ़ासिज्म ओल्ड ऐंड न्यू: अमेरिकन पोलिटिक्स ऐट द क्रासरोड्सका प्रकाशन हुआ । किताब इतालवी फ़ासीवाद के शिकार अंतोनियो ग्राम्शी को समर्पित है । लेखक के मुताबिक अमेरिकी राजनीति के प्रसंग में फ़ासीवाद के जिक्र से परहेज किया जाता है । लोग मानते हैं कि इसका रिश्ता किसी अन्य देश के साथ ही संभव है । लगता है कि द्वितीय विश्व युद्ध में उसे पराजित करने में इसी देश ने तो बड़ी भूमिका निभाई थी । असल में पुराने दौर से इस दौर का फ़ासीवाद अलग होगा । वर्तमान सदी के फ़ासीवाद में अतीत के साथ संबंध विच्छेद नहीं होगा बल्कि निरंतरता का पहलू मुखर होगा । इस नए फ़ासीवाद में कारपोरेट, राज्य, सेना और मीडिया के हितों की सेवा के लिए अल्पतंत्र, तानाशाही और युद्ध का सहारा लिया जाएगा । फ़ासीवाद के जिक्र से बौद्धिक वर्ग जितना भी बचना चाहे लेकिन बहुत पहले सी राइट मिल्स ने अपनी किताब द पावर एलीट में इसकी संभावना जाहिर की थी । उनके तर्कों को बौद्धिक जगत में खारिज किया गया लेकिन अब उन पर ध्यान देने की जरूरत महसूस हो रही है । फिलहाल ऐसी समेकित सत्ता संरचना का उदय हुआ है जिसके तहत कारपोरेट प्रभुत्व का विस्तार हुआ है और जखीरेबाज बाजार व्यवस्था कायम हुई है, सैन्य औद्योगिक परिक्षेत्र मजबूत हुआ है, सुरक्षा के नाम पर राज्य की ओर से निगरानी की दमघोंटू व्यवस्था खड़ी की गई है, सभी संस्थाओं में निरंकुशता का बोलबाला बढ़ा है, राजनीति में धन का अश्लील प्राचुर्य दिखाई देता है और मीडिया भोंपू की भूमिका अदा कर रहा है । यह सब नवउदारवादी वैश्वीकरण का अंग बनकर उभरा है ।
स्वाभाविक है कि नागरिकों की भागीदारी, जनपक्षधर निर्णय और सांस्थानिक जिम्मेदारी खोखले शब्द बनकर रह गए हैं । साल दर साल लोकतंत्र कमजोर और उत्सवी होता जा रहा है । जिन चीजों पर गर्व हुआ करता था उन्हें पाना मुश्किल होता जा रहा है । लोकतंत्र, मुक्त बाजार, स्वतंत्र मीडिया, धन्नासेठों पर लगाम जैसी बातें सुनाई भी नहीं पड़तीं । जो संकेंद्रित और एकीकृत सत्ता संरचना निर्मित हुई है उसे और अधिक संपत्ति, सुविधा और भूराजनीतिक लाभ हासिल करने की रह में रंचमात्र भी रुकावट नहीं झेलनी पड़ती । ऐसे में फ़ासीवाद के उभार में बाधा कम होती जाती है । ऊपर से विश्व स्तर पर अमेरिका की सैनिक बरतरी कायम है । सत्ता में रिपब्लिकन हों या डेमोक्रैट इसके दुनिया भर में फैले हुए फौजी अड्डे हैं और हथियारों का सबसे विराट जखीरा है । इसके दबदबे में कमी आने की घोषणाओं के पक्ष में कोई सबूत नहीं है । आर्थिक क्षमता में गिरावट आने से भी फौजी क्षमता में कमी आने के संकेत नहीं मिल रहे । उसके सैनिक संसाधनों पर उतना खर्च होता है जितना सात देशों का संयुक्त खर्च होता होगा । इस सत्ता संरचना के खात्मे के बिना युद्धक राज्य और साम्राज्यी चाहत के अंत की कोई भी ठोस संभावना नहीं है । बहुत छोटे पैमाने पर ऐसी ही सत्ता संरचना फ़ासीवादी निजाम का नाभिक रही है ।
बड़े व्यवसायी, तानाशाह सरकार और फौजी ढांचे का यही संयुक्त मोर्चा सभी देशों में फ़ासीवादी शासन के उभार के वक्त नजर आया है । इसके अलावे चर्च, भूपति और बादशाहत जैसे शक्ति के पारंपरिक उपकरणों पर भी इसकी प्रचुर निर्भरता रही है । हां यह है कि आज के फ़ासीवाद की गतिशीलता अधिक मजबूत, विकसित और तकनीकी हो चली है । लेखक का मानना है कि दोनों विश्वयुद्धों के बीच के फ़ासीवाद के कुछ तत्व इस दौर के अमेरिकी और यूरोपीय फ़ासीवाद में अभी स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ रहे । इनमें उन्होंने नेता की व्यक्ति पूजा, एक ही पार्टी का एकाधिकार, समानांतर सैन्य टुकड़ियां, वर्दी जैसे प्रतीक और विकराल राजकीय प्रचार तंत्र आदि को गिनाया है । इसके अलावे उन्हें किसी सुसंगत फ़ासीवादी विचारधारा का भी अभाव दिखाई पड़ रहा है । संभव है भविष्य में ये तत्व प्रकट हों लेकिन लेखक इनकी मौजूदगी को अनिवार्य नहीं मानते । उदार लोकतांत्रिक संस्थाओं और व्यवहार के साथ भी अल्पतंत्र, सर्वसत्तावाद और साम्राज्यी हित बखूबी कायम रहे हैं और जनसमुदाय के भीतर अलगाव और अराजनीतीकरण की मौजूदगी भी छिपा तथ्य नहीं रहा है । हो सकता है कि व्यक्ति पूजा, वर्दी और हमलावर दस्ते असली काम के लिए बोझ महसूस होते हों इसलिए उनकी उपेक्षा हो रही है । इस दौर के फ़ासीवाद में उस पुराने फ़ासीवाद के मुकाबले नवीनता होनी तय है फिर भी उसने अपने अतीत की नकल करने की कोशिश छोड़ी नहीं है ।
लेखक को अमेरिका में अनेक प्रसंगों में फ़ासीवाद का उभार दिखाई पड़ा है । इसमें सट्टा बाजार की बढ़ती भूमिका, कार्यस्थल पर दमन में इजाफ़ा, समाज का सैनिकीकरण, नागरिक जीवन में हिंसा की बाढ़, चौतरफा निगरानी की व्यवस्था, अमीर गरीब के बीच बढ़ती खाई, प्रतिक्रियावादी लोकप्रियता का उभार, मीडिया में भोंपू संस्कृति का प्रसार आदि प्रमुख हैं और इन्हें रोजमर्रा की चीज मान लिया गया है । युद्ध विरोधी प्रदर्शन अलभग बंद हो गए हैं । अन्य सामाजिक आंदोलन उतार और बिखराव के दौर से गुजर रहे हैं । उनमें टिकाऊपन और राजनीतिक स्वरूप की कमी पहले भी थी । सत्ता संरचना इतनी संस्थाबद्ध हो गई है कि नजर ही नहीं आती । इसका प्रसार लगभग अबाध है । सत्ता के प्रयोग को लेकर कोई भी नैतिक या वैचारिक संकोच गायब हो गया है ।
उनका अनुमान है कि यदि यही प्रवृत्तियां जारी रहीं तो फ़ासीवादी निजाम का आना तय है । इसे किसी एक नेता या उसकी योजना के मत्थे नहीं मढ़ा जा सकता । अमेरिकी समाज में मौजूद कुछेक दूरगामी ऐतिहासिक प्रवृत्तियों के चलते ही वह दिन आएगा । युद्ध, आर्थिक बदहाली, आतंकवादी हमला या अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम आदि से जुड़े गहरे संकट की स्थिति में इन प्रवृत्तियों में त्वरण आ जा सकता है । इसके लिए उथल पुथल, क्रांति, तख्तापलट, सैनिक विद्रोह या निरंकुश शासकों का होना जरूरी नहीं है । इन सब कारणों से लेखक ने डोनाल्ड ट्रम्प की जीत को अमेरिका में फ़ासीवाद की ओर राजनीतिक संक्रमण का कदम माना है । वे उन लोगों की राय को सही नहीं मानते जिनके अनुसार ट्रम्प और कुछ नहीं मुसोलिनी का पुनरावतार है । दिक्कत यह है कि फ़ासीवाद की बात करते हुए अक्सर उसके चरम हिटलरी रूप की कल्पना की जाती है लेकिन उससे कुछ कम कत्लो गारत को भी उसी दिशा में प्रयाण मानना लेखक को उचित लगता है । तात्पर्य की इस दौर का फ़ासीवादी निजाम इतालवी मूल रूप के समान होने की जगह उसके आस पास की परिघटना होगा । इस नई बात के लिए बहुतेरे लोग सर्वसत्तावाद की शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं लेकिन लेखक ने उसका इस्तेमाल करने से परहेज किया है क्योंकि वर्तमान सत्ता संरचना को समझने के लिए उन्हें यह धारणा उचित और पर्याप्त नहीं प्रतीत होती ।

Friday, August 17, 2018

अर्थशास्त्र संबंधी काम की तैयारी


                  
                                         
मुस्तो की किताब का दूसरा खंड राजनीतिक अर्थशास्त्र संबंधी मार्क्स के अध्ययन पर केंद्रित है जिसकी शुरुआत पेरिस प्रवास में हो चुकी थी । 1845 में ब्रसेल्स आए और पत्नी तथा पहली पुत्री जेनी के साथ तीन साल रहे । वहां रहने की इजाजत इस शर्त के साथ मिली कि वर्तमान राजनीति के बारे में कुछ नहीं लिखेंगे । अर्थशास्त्र की घनघोर पढ़ाई का सबूत यह कि शुरू के छह महीनों में ही छह नोटबुकें भर गईं । इसके बाद दो महीने मानचेस्टर रहकर अन्य अर्थशास्त्रियों खासकर अंग्रेजों के चिंतन का गहन अध्ययन किया और नौ नोटबुकें भर डालीं । इस समय ही इंग्लैंड के मजदूर वर्ग के हालात पर एंगेल्स की पहली किताब प्रकाशित हुई । अर्थशास्त्र के अध्ययन के अतिरिक्त इसी दौरान नए हेगेलपंथियों के विचारों के विरोध में ढेर सारा लेखन किया जो मरणोपरांत जर्मन विचारधारा के नाम से छपा । इस मेहनत का मकसद जर्मनी में लोकप्रिय नव हेगेलपंथ के ताजातरीन रूपों का खंडन करना और मार्क्स के क्रांतिकारी अर्थशास्त्रीय विचारों को ग्रहण करने की जमीन तैयार करना था । किताब पूरी तो नहीं हुई लेकिन जिसे बाद में एंगेल्स ने इतिहास की भौतिकवादी धारणा कहा उसकी पुख्ता जमीन तैयार हो गई ।
प्रकाशक को 1846 में सूचित किया कि पहले खंड की पांडुलिपि तैयार है लेकिन बिना फिर से सुधारे उसे छपाने का इरादा नहीं है । सुधार का काम तीन महीने में पूरा हो जाने की आशा थी । दूसरा खंड ऐतिहासिक होना था इसलिए उसके जल्दी लिख जाने की उम्मीद थी । जब एक साल बाद तक भी पांडुलिपि नहीं मिली तो प्रकाशक ने अनुबंध मंसूख करने का फैसला किया । असल में वे इस दौरान कम्यूनिस्ट पत्राचार कमेटी के काम में भी व्यस्त थे जिसे यूरोप भर के श्रमिक संगठनों के बीच आपसी संपर्क स्थापित करने के लिए गठित किया गया था । इसके बावजूद सैद्धांतिक काम भी जारी था । आर्थिक इतिहास के अध्ययन के नोटों से तीन और रजिस्टर भर गए । बीच में प्रूधों की किताब दरिद्रता का दर्शन पढ़ी तो उसका प्रतिवाद दर्शन की दरिद्रता फ़्रांसिसी में लिखा क्योंकि प्रूधों जर्मन नहीं समझते थे । राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में प्रकाशित यह उनकी पहली किताब थी । इसमें मूल्य के सिद्धांत के बारे में विचार, सामाजिक यथार्थ को समझने की सुसंगत पद्धति और उत्पादन संबंधों की परिवर्तनशील प्रकृति के बारे में बताया गया था । जो किताब उन्हें लिखनी थी उसकी विषयवस्तु इतनी विराट थी कि हालांकि उन्हें अंदाजा नहीं था लेकिन अभी उसकी बस शुरुआत ही हुई थी ।
1847 के आते आते सामाजिक खलबली तेज हो जाने के कारण मार्क्स की राजनीतिक सक्रियता बढ़ चली । जून में जर्मन मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय संस्था कम्यूनिस्ट लीग की लंदन में स्थापना हुई । अगस्त में ब्रसेल्स में जर्मनी के मजदूरों का एक संगठन मार्क्स और एंगेल्स ने बनाया । नवंबर में मार्क्स थोड़ा क्रांतिकारी किस्म के संगठन ब्रसेल्स डेमोक्रेटिक एसोसिएशन के उपाध्यक्ष बने । साल का अंत आते आते कम्यूनिस्ट लीग ने मार्क्स और एंगेल्स को एक राजनीतिक कार्यक्रम लिखने की जिम्मेदारी दी और अगले साल फ़रवरी में इसेकम्यूनिस्ट पार्टी का घोषणापत्रनाम से छापा गया । इसका प्रकाशन एकदम ही सही समय पर हुआ । प्रकाशन के तुरंत बाद इतना अप्रत्याशित तीव्र और व्यापक क्रांतिकारी आंदोलन उठ खड़ा हुआ कि समूचे यूरोपीय महाद्वीप की सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था पर संकट घहरा पड़ा । विद्रोह को कुचलने के लिए सरकारों ने सभी संभव उपाय किए और मार्च 1848 में मार्क्स को बेल्जियम से वापस पेरिस भेज दिया गया । राजनीतिक अर्थशास्त्र का अध्ययन रोककर मार्क्स ने क्रांति के पक्ष में पत्रकारीय लेखन शुरू किया ताकि राजनीतिक दिशा तय करने में क्रांतिकारियों की मदद की जा सके । अप्रैल में वे जर्मनी के राइनलैंड इलाके में चले आए और कोलोन से प्रकाशित होने वाले अखबार न्यू राइनिशे जाइटुंग का जून में संपादन शुरू किया । अखबार के जरिए उन्होंने सर्वहारा से विद्रोहियों का साथ देकर सामाजिक और गणतांत्रिक क्रांति को आगे बढ़ाने की गुहार लगाई ।
राजनीतिक घटनाओं के विवेचन के अतिरिक्त उन्होंने राजनीतिक अर्थशास्त्र संबंधी संपादकीय लिखे । उन्हें बुर्जुआ वर्ग के शासन और मजदूरों की गुलामी कायम रखने वाले रिश्तों की छानबीन की जरूरत महसूस हुई । ब्रसेल्स में उन्होंने जर्मन मजदूरों में जो व्याख्यान दिए थे उनके आधार पर लिखे लेखों का संकलनमजदूरी, श्रम और पूंजीशीर्षक से छपा । इसमें मजदूरों के लिए बोधगम्य भाषा में विस्तार से समझाया गया था कि पूंजी कैसे मजूरी श्रम का शोषण करती है । बहरहाल 1848 में उपजी क्रांतिकारी आंदोलनों की यूरोप व्यापी लहर को जल्दी ही कुचल दिया गया । निर्मम दमन के अतिरिक्त इस पराजय के कारण आर्थिक हालात में सुधार, मजदूर वर्ग में कुशल संगठन की कमी और मध्यवर्ग में क्रांति के भय के चलते सुधारों के लिए समर्थन में घटोत्तरी आदि थे । इनके चलते सरकार पर प्रतिक्रियावादी राजनीतिक ताकतों की पकड़ मजबूत हुई । नतीजतन मई 1848 में फिर से देशनिकाला मिला । फ़्रांस पहुंचे लेकिन वहां भी प्रतिक्रिया का बोलबाला था सो पेरिस की जगह दूर कहीं भेजने का सरकारी फैसला सुनकर लंदन जाने की योजना बनाई ताकि कोई जर्मन अखबार निकालने की कोशिश कर सकें । आगे का समूचा जीवन उन्हें वहीं गुजारना पड़ा लेकिन एक तरह से अच्छा हुआ क्योंकि राजनीतिक अर्थशास्त्र संबंधी शोध के लिए दुनिया में लंदन से बेहतर कोई जगह न थी । इकतीस साल की उम्र में मार्क्स इंग्लैंड पहुंचे ।
लंदन दुनिया भर की आर्थिक और वित्तीय गतिविधियों का केंद्र था । वहां रहकर ताजातरीन आर्थिक गतिविधियों और पूंजीवादी समाज को देखा और परखा जा सकता था । शुरुआती दिन बहुत सुखद नहीं रहे । छह बच्चों और हेलेन देमुथ के साथ सोहो में प्रचंड गरीबी में दिन गुजारने पड़े । इसके साथ ही जर्मन प्रवासियों की सहायता के काम में भी काफी समय और ऊर्जा लगानी पड़ी । इन सबके बावजूद एक मासिक पत्रिका की योजना बनाई । उन्हें लगा कि क्रांति के अवसान के शांतिकाल को क्रांति पर विचार करने, प्रतियोगी पक्षों के चरित्र का विश्लेषण करने और इनकी मौजूदगी तथा टकराव की निर्धारक सामाजिक स्थितियों की तलाश में लगाना चाहिए । इसी किस्म का विश्लेषण उनकी किताब फ़्रांस में वर्ग संघर्ष 1840 से 1850में सामने आया । इसमें उन्होंने कहा कि वास्तविक क्रांति उत्पादन की आधुनिक शक्तियों और बुर्जुआ उत्पादन संबंधों के बीच टकराव से पैदा होती है । उसका होना उतना ही तय है जितना संकट का फूट पड़ना निश्चित है ।
उनको यकीन था कि आगामी क्रांतिकारी ज्वार पैदा होने से पहले की यह खामोशी अल्पकालिक है । आर्थिक समृद्धि का प्रसार होते देखकर भी उन्होंने आशा नहीं खोई । समृद्धि उन्हें अस्थायी सुधार ही लगा । अति उत्पादन और रेलवे में सट्टेबाजी के चलते उन्हें ऐसा संकट आने की उम्मीद थी जैसा संकट पहले कभी नहीं आया था । इसके साथ ही वे कृषि में भी संकट गहराता हुआ महसूस कर रहे थे । अमेरिका में भी उन्हें संकट का प्रसार होता हुआ दिखाई दे रहा था । उनके मुताबिक यह माहौल मजदूर वर्ग के लिए बेहतर होगा । अब उनके चिंतन का केंद्र आर्थिक संकट हो गया जिसके फलस्वरूप क्रांति का फूट पड़ना निश्चित है । उन्हें लगा कि आगामी संकट के समय औद्योगिक और व्यावसायिक संकट के साथ कृषि संकट भी मिल जाएगा । उनका अनुमान सही साबित नहीं हुआ ।
लेकिन उनके विचार लंदन आने वाले बाकी प्रवासी नेताओं से अलग थे । आर्थिक स्थिति का अनुमान गलत होने के बावजूद राजनीतिक गतिविधियों के लिए वर्तमान राजनीतिक आर्थिक हालात का अध्ययन वे अपरिहार्य समझते थे । अन्य ढेर सारे नेता जिन्हें वे क्रांति की कीमियागिरी में काबिल कहते थे, मानते थे कि क्रांति की अंतिम जीत हेतु अपनी सांगठनिक तैयारी ही पर्याप्त है । इस तैयारी से उनका आशय षड़यंत्र की पुख्ता योजना होता था । ऐसे ही एक समूह का मानना था कि 1848 की क्रांति की असफलता का कारण नेताओं की निजी महात्वाकांक्षा और उनकी आपसी ईर्ष्या थी । उनका यह भी मत था कि सरकार का तख्ता पलट देना ही क्रांति की जीत है । उनकी आशा के मुकाबले आगामी विश्व आर्थिक संकट पर आश्रित मार्क्स की आशा पूरी तरह अलग किस्म की आशा थी । वे इन हवाई आशावादियों से दूरी बनाकर अपने अर्थशास्त्रीय अध्ययन में डूब गए । जीवंत संपर्क केवल मांचेस्टर आ बसे एंगेल्स से रह गया था । दोनों की प्रमुख चिंता लेखन और उसका प्रकाशन हो चला । प्रवासी नेताओं के बीच के क्षुद्र टकरावों का एकमात्र जवाब उन्हें अपने लेखन के जरिए हस्तक्षेप प्रतीत हुआ । नतीजतन मार्क्स छूटे काम को पूरा करने में लग गए ।
अगले तीन सालों की पढ़ाई से छब्बीस रजिस्टर भर गए जिनमें लंदन के मशहूर पुस्तकालय में पैठकर हासिल तथ्य और तमाम विद्वानों के मतों की समीक्षा भी मौजूद है । उन्होंने खासकर आर्थिक संकटों के इतिहास और सिद्धांत, मुद्रा और उसकी उत्पत्ति समझने के लिए कर्ज आदि का व्यापक अध्ययन किया । प्रूधों मानते थे कि मुद्रा और कर्ज की व्यवस्था में सुधार करके संकट से बचा जा सकता है । इसके विपरीत मार्क्स को लगा कि इससे संकट गंभीर या कमजोर तो हो सकते हैं लेकिन संकटों के वास्तविक कारण उत्पादन के अंतर्विरोधों में खोजना होगा । तैयारी इस स्तर की हो चुकी थी कि एंगेल्स को पांच हफ़्तों में काम खत्म करने का आश्वासन दे डाला । लेकिन यह कहना उनकी अपने आपसे उम्मीद ही थी क्योंकि पांडुलिपि की शक्ल में कुछ भी नहीं था । अभी अध्ययन भी अर्थशास्त्र के इतिहास का ही ठीक से हुआ था ।
1851 से पढ़ाई की दूसरी किस्त शुरू हुई । आर्थिक धारणाओं के इस अध्ययन में रिकार्डो के साथ सबसे गहरा संवाद हुआ लेकिन जमीन के किराये और मूल्य के बारे में गहन अध्ययन के साथ तथा कुछ मामलों में उनसे परे भी गए । इन बुनियादी सवालों पर अपनी पुरानी मान्यताओं में कुछ संशोधन किया और अपनी जानकारी का दायरा बढ़ाते हुए कुछ और विद्वानों की पढ़ाई शुरू की । इस बार रिकार्डो के सिद्धांतों में अंतर्विरोध देखने और उनकी धारणाओं को आगे बढ़ाने वाले विचारकों पर ध्यान केंद्रित किया । ज्ञान और शोध के इस क्षेत्र विस्तार के बावजूद मार्क्स को उम्मीद बनी रही कि वे अपना काम जल्दी ही पूरा कर लेंगे । दो महीनों में किताब के लिख जाने की आशा थी क्योंकि सामग्री का संग्रह हो चुका था । एक बार फिर वे चूके और निश्चित समय पर प्रकाशक को भेजने लायक पांडुलिपि तैयार न हो सकी । वजह आर्थिक तंगी थी । आमदनी के लिए कोई अखबार खोजना शुरू किया जहां लिखकर कुछ धन मिल सके । अगस्त महीने में अमेरिका में सबसे अधिक बिकने वाले अखबार न्यू-यार्क ट्रिब्यून के संवाददाता बन गए । अगले दस सालों में सैकड़ों पन्ने इस अखबार के लिए उन्होंने लिखे । समसामयिक राजनीतिक कूटनीतिक घटनाओं पर लिखने के अतिरिक्त विभिन्न आर्थिक और वित्तीय मसलों पर भी प्रचुर लिखा जिसके चलते कुछ ही सालों में पत्रकारों की दुनिया में भी उनका नाम लिया जाने लगा । साथ ही पढ़ाई भी जारी रही । जमीन के किराये के लिहाज से कृषि रसायन जरूरी लगा तो उस पर अधिकार करने में जुट गए । साथ ही प्राक-पूंजीवादी संरचनाओं की छानबीन भी की । इसके बाद तकनीक के इतिहास और राजनीतिक अर्थशास्त्र से उसके रिश्ते की गहरी खोजबीन की ताकि इस पहलू से भी कृषि अर्थतंत्र के बारे में अधिकारपूर्वक लिख सकें ।
साल का अंत आते आते फ़्रैंकफ़ुर्त के एक प्रकाशक को प्रस्तावित किताब छापने में रुचि जागी । मार्क्स ने तीन खंडों की योजना बनाई । पहले खंड में उनकी अपनी धारणाओं को प्रस्तुत किया जाना था, दूसरे खंड में अन्य समाजवादों की आलोचना होनी थी और तीसरे खंड में राजनीतिक अर्थशास्त्र का इतिहास लिखा जाना था । एंगेल्स ने अनुबंध कर लेने के लिए प्रेरित किया लेकिन प्रकाशक की ही रुचि खत्म हो गई । दो महीने बाद मार्क्स फिर से उपयुक्त प्रकाशक की खोज करने लगे । इस बीच संकट के आगमन और क्रांति के फूट पड़ने की आशा भी बनी रही । बीच में लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर लिखी लेकिन उसका प्रकाशन अमेरिका से हुआ । जर्मनी में कोई भी प्रकाशक उनका लिखा छापने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था ।
अगले दो सालों में फिर से छूटी हुई पढ़ाई चलती रही । इस बार मानव समाज के विभिन्न चरणों के विवेचन में ध्यान लगाया । भारत में खास रुचि पैदा हुई और इसके बारे में न्यू-यार्क ट्रिब्यून के लिए लगातार लिखा । इस विराट अध्ययन में बाधा आर्थिक तंगी की वजह से बीच बीच में आती रही । एक बार तो लिखने के लिए कागज तक खरीदने के लिए एक पुराना कोट गिरवी रखना पड़ा । फिर भी वित्तीय बाजारों की उठापटक से वे उत्साहित बने रहे । लासाल नामक एक साथी को गहरी आत्म विडंबना के साथ चिट्ठी लिखी कि मैं तो अपने को व्यवसायियों की तरह दिवालिया भी नहीं घोषित कर सकता । थोड़े दिनों बाद फिर एक मित्र को लिखा कि कैलिफ़िर्निया और आस्ट्रेलिया में सोने के नए भंडार मिलने और भारत के साथ लाभप्रद व्यापार के चलते संकट एक साल के लिए टल सकता है लेकिन उसके बाद इसका रूप और विकराल होगा, क्रांति को उस समय तक इंतजार करना पड़ेगा । इसके कुछ दिनों बाद जब अमेरिका में सट्टा बाजार में गिरावट आई तो एंगेल्स को लिखा कि क्रांति हमारी आशा से पहले भी आ सकती है । चिट्ठियों के अलावे न्यू-यार्क ट्रिब्यून में भी इसी किस्म के लेख लिखते रहे ।
1852 में प्रशिया की सरकार ने एक साल पहले से गिरफ़्तार कम्यूनिस्ट लीग के सदस्यों पर मुकदमा शुरू किया । आरोप था कि उन्होंने प्रशियाई राजतंत्र के विरोध में मार्क्स द्वारा संचालित अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र में भाग लिया है । साल के आखिरी तीन महीने उन्हें इन आरोपों को झूठा साबित करने के अभियान में लगे रहना पड़ा । इसके लिए पूरे मामले का भंडाफोड़ करते हुए एक अनाम किताब लिखी जिसका प्रकाशन स्विट्ज़रलैंड से हुआ लेकिन उसकी अधिकतर प्रतियों को पुलिस ने जब्त कर लिया । परिश्रम के साथ लिखी किताब का यह हश्र देखकर मार्क्स को भारी निराशा हुई । प्रशियाई सरकार के मंत्री जो भी कहें, इस समय मार्क्स बहुत अलगाव में थे । कम्यूनिस्ट लीग आधिकारिक तौर पर भंग हो चुकी थी । इंग्लैंड, अमेरिका, फ़्रांस और जर्मनी में मार्क्स के समर्थक उंगलियों पर गिने जा सकते थे । ये समर्थक भी बहुधा उनकी रानीतिक मान्यताओं को ठीक से समझ नहीं पाते थे और अक्सर फायदे की जगह नुकसान कर बैठते थे । ऐसी हालत में बस एंगेल्स से अपना क्षोभ जाहिर करके रह जाना पड़ता था । आगामी क्रांति का सपना देखने वालों के किसी भी संगठन का साथ उन्होंने नहीं दिया, बस चार्टिस्ट आंदोलन के वाम नेता अर्नेस्ट जोन्स से संबंध बरकरार रखे । इसलिए मजदूरों में से नए समर्थकों की आमद जरूरी हो गई थी । जो सैद्धांतिक काम कर रहे थे उसका भी यही मकसद था । समर्थन राजनीतिक के साथ सैद्धांतिक भी होना आवश्यक था । मार्क्स के साथ लगी गरीबी काम करने नहीं दे रही थी । सोहो में हैजा फैल गया । पेट भरने के लिए भी घर की चीजें गिरवी रखनी पड़ती थीं । लेखों पर समय देने के बावजूद उनसे होने वाली आमदनी कम होती जा रही थी । अर्थशास्त्र के बारे में लिखने की जगह अखबार में लिखना पड़ रहा था । लेख दुनिया जहान के बारे में हों लेकिन दिमाग में अर्थशास्त्र गूंज रहा था इसलिए आर्थिक पहलू हमेशा ही प्रमुखता से उभर आता था ।
तीन साल तक इन स्थितियों में रहने के बाद 1855 में अर्थशास्त्र का काम फिर से शुरू हो सका । लंबे अंतराल के बाद शुरू करने से पहले पुरानी सामग्री को एक बार देखना जरूरी लगा । इसी समय निजी जीवन की परेशानियों ने फिर से आ घेरा । आठ साल के पुत्र की मौत ने तोड़कर रख दिया । इन्हीं हालात में सबसे छोटी पुत्री एलीनोर का जन्म हुआ जिसे वे अपना ही प्रतिरूप कहते थे । लंबे जीवन संघर्ष ने शरीर पर प्रभाव डालना शुरू कर दिया । उधर चिकित्सक ने फ़ीस वसूलने के लिए कानूनी दावा कर दिया । बचने के लिए कुछ दिनों के लिए मानचेस्टर चले गए और लौटे तो भी घर में छिपकर रहना पड़ा । संयोग से पत्नी के परिवार में किसी बुजुर्ग की मौत से विरासत का कुछ धन मिला तो बला टली । इस संक्षिप्त अंतराल के बाद 1856 में फिर से राजनीतिक अर्थशास्त्र पर काम शुरू किया । घर के हालात में कुछ सुधार हुए तो सोहो वाला मकान छोड़कर थोड़ा बेहतर जगह पर आ गए । इसके बाद राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में जो काम किया उसे ही ग्रुंड्रिस के नाम से जाना गया । 


Monday, August 13, 2018

एक और मार्क्स


                          
                                        
2018 में ब्लूम्सबरी एकेडमिक से मार्चेलो मुस्तो की इतालवी किताब का अंग्रेजी अनुवादएनादर मार्क्स: अर्ली मैनुस्क्रिप्ट्स टु द इंटरनेशनलप्रकाशित हुआ । अनुवाद पैट्रिक कैमिलर ने किया है । मुस्तो कहते हैं कि नए विचारों की प्रेरक क्षमता को यदि युवा होने का सबूत माना जाए तो मार्क्स बेहद युवा साबित होंगे । उनका कहना है कि पूंजीवाद के जीवन में सबसे हालिया 2008 के संकट के बाद से ही कार्ल मार्क्स के बारे में बातचीत शुरू हो गई है । बर्लिन की दीवार गिरने के बाद मार्क्स की शाश्वत गुमनामी की भविष्यवाणी के विपरीत उनके विचारों का विश्लेषण, विकास और उन पर बहस मुबाहिसा फिर से चालू हुआ है । तमाम अखबार और पत्रिकाओं में उन्हें प्रासंगिक और दूरदर्शी विचारक बताया जा रहा है । उनकी किताबों की बिक्री बढ़ गई है । बीस साल की उपेक्षा के बाद उनके लेखन का गंभीर अध्ययन हो रहा है ।
उनके लेखन का प्रचार प्रसार भी लम्बी कहानी है । एंगेल्स ने मुख्य रूप सेपूंजीको पूरा करने पर ध्यान दिया । उनके देहांत के बाद जर्मनी के नेताओं ने आगे कोई काम तो नहीं ही किया उनकी पांडुलिपियों की भी ठीक से देखभाल नहीं की । सोवियत संघ के बनने के बाद 1920 के दशक में डेविड रियाज़ानोव ने समग्र लेखन के प्रकाशन का काम हाथ में लिया । पार्टी के भीतर की उथल पुथल और द्वितीय विश्वयुद्ध ने इसमें व्यवधान उत्पन्न किया । इसके बाद 1975 में पूर्वी जर्मनी में काम शुरू हुआ लेकिन बर्लिन की दीवार गिरने के साथ इसमें भी रुकावट आ गई । 1998 के बाद से लगातार इस परियोजना पर काम चल रहा है । नई सामग्री के प्रकाश में आने से मार्क्स की तस्वीर भी बदल रही है ।
इस जीवनी में उसी बदली हुई तस्वीर को प्रस्तुत करने की कोशिश है । दिक्कत यह है कि मार्क्स के नाम का इस्तेमाल समाजवादी मुल्कों की सरकारों के तमाम कामों को जायज ठहराने के लिए किया गया और इसीलिए इन सरकारों के कामों के लिए मार्क्स की आलोचना की गई । किताब में ताजा शोध के नतीजों को विनम्रता के साथ और असमाप्त रूप में पेश किया गया है । इसका कारण है कि मार्क्स का विराट आलोचनात्मक साहित्य मानव ज्ञान के इतने विस्तृत क्षेत्र में फैला है कि उसे समेटना मुश्किल है । दूसरे कि इस किताब में केवल आरम्भिक लेखन, पूंजी की तैयारी और इंटरनेशनल की गतिविधियों पर ध्यान दिया गया है । इन अलग अलग कालखंडों से चुनिंदा लेखन पर ही विचार किया गया है । पहले भाग में विचारणीय काल के लेखन और परवर्ती लेखन के बीच संबंध विवादास्पद रहा है । कुछ लोग आरम्भिक लेखन को अधिक महत्व का मानते रहे तो कुछ अन्य लोग परवर्ती लेखन की परिपक्वता के समर्थक रहे हैं । इस किताब में इस आरम्भिक लेखन को उनके आलोचनात्मक कार्यभार का रोचक लेकिन शुरुआती रूप माना गया है । किताब के दूसरे भाग का महत्व पूंजी की विभिन्न पांडुलिपियों का सिलसिलेवार विवेचन है । अब से पहले आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों के बाद ग्रुंड्रिस फिर पूंजी की सीधी यात्रा होती रही थी लेकिन नई सामग्री के प्रकाश में मार्क्स के चिंतन की बनावट का व्यापक ढांचा उभारा गया है । तीसरे भाग से मार्क्स के चिंतन के विकास में मजदूर आंदोलन के योगदान का पता चलता है । लेखक को लगता है कि मार्क्स को शैक्षणिक इस्तेमाल के लिए शास्त्रीय बना देना भी उतनी ही भारी भूल होगी जितनी उन्हें समाजवादी मुल्कों की सरकारों का समर्थक साबित करना थी । उनका विश्लेषण वर्तमान के लिए अधिक उपयोगी है ।
आज पूंजीवाद सचमुच वैश्विक व्यवस्था बन गया है और मानव अस्तित्व के सभी पहलुओं में दखल देकर उन्हें रूपायित कर रहा है । इस दखलंदाजी के कारण कार्यस्थल के अतिरिक्त सामाजिक संबंधों में भी बदलाव आ रहा है । इसके चलते सामाजिक अन्याय और भारी पर्यावरणिक विनाश के कार्यक्रम ने गति पकड़ ली है । पिछले तीस सालों से जारी बाजार समाज का स्तुतिगान कुछ मंद पड़ा है और वर्तमान को समझने के लिए मार्क्स की ओर से उपलब्ध कराए गए उपकरण कारगर साबित हो रहे हैं । लेखक ने मार्क्स के लेखन की कालक्रमानुसार सूची भी प्रस्तुत करने की कोशिश की है ।
आरम्भिक लेखन की पृष्ठभूमि स्पष्ट करते हुए वे उनके बौद्धिक निर्माण के बारे में बताते हैं । असल में मार्क्स का जन्म जिस नगर में हुआ था वह प्राचीन काल से बहुत महत्व का धार्मिक स्थान रहा था लेकिन बाद में उसकी प्रतिष्ठा में गिरावट आई थी और उनके जन्म के समय इसकी आबादी कुल ग्यारह हजार चार सौ रह गई थी । जर्मनी और फ़्रांस की सीमा पर स्थित यह नगर 1795 से 1814 तक फ़्रांस के कब्जे में रहा था इसलिए इसकी आबादी को नेपोलियन के आर्थिक और राजनीतिक सुधारों तथा ज्ञानोदय के सांस्कृतिक माहौल का फायदा मिला था । किसानों को सामंती बंधनों से और बौद्धिकों को धार्मिक जकड़बंदी से मुक्ति मिली थी तथा पूंजीपतियों को विकास के लिए आवश्यक उदार कानूनी माहौल हासिल था । उद्योगों वाले इलाके में होने के बावजूद त्रिएर लघु और सीमांत किसानों की प्रमुखता वाला क्षेत्र था और सर्वहारा की तादाद लगभग शून्य थी । इसके बावजूद चतुर्दिक व्याप्त गरीबी के चलते इस इलाके में फ़्रांसिसी समाजवादी विचारों का प्रसार जर्मनी के अन्य नगरों के मुकाबले ज्यादा जल्दी हुआ ।
मार्क्स का जन्म जिस परिवार में हुआ उसमें माता और पिता दोनों की ओर यहूदी धर्मगुरु रबाई लोगों की लम्बी परम्परा रही थी । इसके चलते मार्क्स के भी उसी रास्ते जाने की संभावना थी । लेकिन उनके पिता ऐसे यहूदी नौजवानों में थे जिन्होंने इसाइयों के बीच रहते हुए अपने समुदाय के बंधनों से थोड़ी छूटें हासिल कीं और यूरोपीय बौद्धिक सभ्यता में प्रवेश किया । उन्हें स्थानीय अदालत में कानूनी सलाहकार का ओहदा मिला । बहरहाल जब 1815 में प्रशिया का इस इलाके पर कब्जा हुआ तो यहूदियों को सभी सरकारी पदों से हटाया जाने लगा । उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया लेकिन बहुसंख्यक कैथोलिक धर्म की जगह अत्यंत अल्पसंख्यक प्रोटेस्टैन्ट धर्म अपनाया । कैथोलिकों के मुकाबले इस समुदाय में उदारता बहुत थी । धर्मांतरण और ज्ञानोदयी वातावरण की प्रमुखता के बावजूद परिवार में यहूदी रस्मो रिवाज की मौजूदगी बनी रही थी ।
बारह वर्ष की उम्र तक घर पर ही पढ़ाई करने के बाद घर से पिता के प्रभाव में ज्ञानोदयी तार्किकता में दीक्षित होकर पांच साल तक जेसुइट लोगों द्वारा स्थापित जिम्नेजियम में आरम्भिक शिक्षा प्राप्त की । वहां का वातावरण भी उदार विचारों से भरा हुआ था लेकिन प्रशियाई शासन में प्रतिबंध बहुत थे । इस जिम्नेजियम की सरकारी जांच में अनेक अध्यापक विद्यार्थियों में विद्रोही भावना भरने के दोषी पाए गए थे । उदारपंथी लोगों के जुटान की जगह एक स्थानीय साहित्यिक सभा थी । उसे भी सरकार ने बहुत ही भड़काऊ पाया था । सभा के भवन को पुलिस की निगरानी में रखा गया था । जिम्नेजियम की परीक्षा के लिए ही उन्होंने युवाओं के पेशे के चुनाव के सवाल पर एक निबंध लिखा जिसे उनके लेखन का लगभग पहला प्रयास कहा जा सकता है । इसमें उन्होंने मानवता के कल्याण के लिहाज से पेशा चुनने की बात लिखी और बताया कि सार्वभौमिक हित के लिए समर्पित लोग ही इतिहास में महान साबित होंगे । सत्रह साला व्यक्ति के आदर्शवादी मानवतावाद की अभिव्यक्ति इस निबंध में हुई थी ।
इसके बाद वे बान विश्वविद्यालय आगे के अध्ययन के लिए गए । त्रिएर के पास वही सबसे बड़ा बौद्धिक केंद्र था । तब उसकी कुल आबादी लगभग चालीस हजार थी । विश्वविद्यालय के सात सौ विद्यार्थियों के लिए विद्वान अध्यापकों समेत साठ कर्मचारी थे । ये विद्यार्थी ही समाज के सबसे ऊर्जावान सदस्य थे । विद्यार्थियों के स्वतंत्र राइनलैंड सरकार की स्थापना के प्रयास के चलते संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था । मार्क्स जब पहुंचे तब भी दमन जारी था । मुखबिरों की मदद से पुलिस सभी संदिग्ध लोगों को पकड़ रही थी । विद्यार्थी राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने के मुकाबले दारूबाजी और फ़सादात में उलझे रहते थे । संगठन केवल क्षेत्र आधारित ही रह गए थे । मार्क्स ने त्रिएर के विद्यार्थियों के ऐसे ही संगठन में शिरकत की और उसके अध्यक्ष मंडल में लिए गए । इसके साथ ही जबर्दस्त पढ़ाई शुरू हुई और कविता लिखने का भी शौक लगा । खूब किताबें, खासकर इतिहास की खरीदीं और सेहत की परवाह किए बिना रात दिन पढ़ने में डूबे रहे । पिता के लिखे पत्रों में लगातार सेहत पर ध्यान देने की नसीहत होती । आखिरकार परेशान पिता ने आगे के अध्ययन के लिए बर्लिन विश्वविद्यालय भेजने का इरादा किया ।
बर्लिन में प्रवेश लेने के लिए जाने से पहले की गर्मी की छुट्टी में आगामी जीवन संगिनी जेनी से रिश्ता पक्का हुआ । फिर भी दोनों ने अपने परिवारों से इस रिश्ते के बारे में नहीं बताया । जेनी के पिता उच्च वर्ग के सरकारी अधिकारी थे । वे उदार विचारों के थे और सेंट साइमन के लेखन से मार्क्स का परिचय उन्होंने ही कराया था । मार्क्स ने अपना शोध प्रबंध उन्हें अकारण नहीं समर्पित किया था । साढ़े तीन लाख की आबादी वाला बर्लिन, जर्मनी का दूसरा सबसे बड़ा नगर था । विश्वविद्यालय की स्थापना 1810 में हुई थी और उस समय कुल 2100 विद्यार्थी अध्ययनरत थे । मशहूर दार्शनिक हेगेल यहां अध्यापन कर चुके थे । मार्क्स की अनंत और असीम जिज्ञासा के लिए यहां भरपूर अवकाश था । प्रिया के विछोह में कविता लिखने लगे और उनका संग्रह जेनी को उपहार के बतौर दिया । कविता तो बस शौकिया लिखी लेकिन मुख्य चुनौती दर्शन के क्षेत्र में महसूस होती थी । जबर्दस्त अध्ययन के सहारे लगभग तीन सौ पृष्ठ लिखे लेकिन उन्हें खो भी दिया । विधि दर्शन पर इस प्रस्तावित पुस्तक को लिखने के क्रम में ढेर सारी किताबें देख डालीं । इसी क्रम में पढ़ी गई किताबों से उद्धरण या उनका सार लिख डालने की आदत पड़ी और जीवन भर कायम रही । कड़ी मेहनत के चलते सेहत ने जवाब दे दिया और कुछ दिन आराम करना पड़ा । इसी समय उन्होंने हेगेल का समस्त लेखन पढ़ डाला । इसके बाद पैदा असंतुष्टि के चलते विधिशास्त्र की ढेर सारी किताबें देख डालीं । स्पष्टता न हासिल होने की झुंझलाहट में अब तक का लिखा सब कुछ नष्ट कर दिया । हेगेल अब भी परेशान किए हुए थे । तभी ऐसे दोस्त मिले जो परिपक्व हेगेल के मुकाबले युवा हेगेल के वामपंथी तेवर को विकसित करना चाहते थे । इनमें कुछ अध्यापक और कुछ विद्यार्थी थे । इन्हें ही युवा हेगेलपंथी कहा गया ।
इधर पुत्र की सेहत के लिए परेशान रहने वाले पिता की तपेदिक से मृत्यु हो जाने के बाद घर से बांधने वाली जंजीर कमजोर हो गई । हेगेलपंथियों में दक्षिणपंथी और वामपंथी एक दूसरे से अलग हो चुके थे । मार्क्स के मित्रों का समूह सबसे अधिक प्रगतिशील और उदारवादी विचारकों के समूह के रूप में प्रतिष्ठित हो चला था । कुल बीस साल की उम्र में मार्क्स इस समूह में शामिल हुए थे लेकिन उनकी प्रतिभा के चलते समूह के दस साल बड़े सदस्य भी उनकी इज्जत करते थे । ब्रूनो बावेर से उनकी नजदीकी बनी । वे जल्दी से जल्दी औपचारिक शिक्षा खत्म करने के पक्ष में थे इसलिए परिश्रम करके ग्रीक दर्शन पर एक मोटी पोथी तैयार कर ली । शोध संबंधी इस अध्ययन के अतिरिक्त उन्होंने आधुनिक दार्शनिकों को भी घोट डाला । उम्मीद थी कि विश्वविद्यालय में दर्शन के अध्यापन का मौका मिलेगा । बर्लिन के मुकाबले कुछ अधिक उदार जेना विश्वविद्यालय से शोधोपाधि प्राप्त होने तक राजनीतिक माहौल इस कदर बदल चुका था कि अध्यापन की रही सही आशा भी खत्म हो गई ।
ऐसी स्थिति में मार्क्स ने बान लौटकर नास्तिकता के पक्ष में बावेर के साथ पत्रिका निकालने की योजना बनाई । इसके लिए धर्म के बारे में काफी अध्ययन भी किया लेकिन बावेर से राजनीतिक विरोध पैदा हो जाने के चलते पत्रिका की योजना खटाई में पड़ गई । बाकी रास्ते बंद होने के कारण पत्रकारिता करने का फैसला किया और कोलोन स्थित राइनिशे जाइटुंग के संपादन का भार संभाला । अखबार में काम करते हुए राजनीतिक अर्थशास्त्र पर अधिकार और प्रत्यक्ष राजनीतिक दखलंदाजी की जरूरत महसूस हुई ।
उनके जीवन का अगला अध्याय फ़्रांस में शुरू हुआ । बाल्जाक के मुताबिक फ़्रांस की राजधानी पेरिस आंदोलनों, मशीनों और विचारों का विचित्र संग्रह थी । 1848 की क्रांति से पहले पेरिस के दस्तकार और कामगार लगातार राजनीतिक आंदोलन में सक्रिय थे । उपनिवेशों से आए प्रवासियों, क्रांतिकारियों, लेखकों और कलाकारों के चलते घनघोर सामाजिक उथल पुथल मची हुई थी । तमाम स्त्री-पुरुष किताबें और पत्रिकाएं लिख और छाप रहे थे, कविता लिखते तथा सड़क के किनारे या चाय की दुकान में भाषण देते तथा अंतहीन उत्तेजक बहसों में उलझे रहते थे । यह ऐसा समुदाय था जिसका आगमन अभी जर्मनी में नहीं हुआ था । मार्क्स के लिए वहां होना सही समय पर सही जगह होना था । पचीस साल की उम्र में दिमागी रूप से बेचैन आदमी के लिए पेरिस से बेहतर अन्य कोई जगह न थी ।
फ़्रांस में रहते हुए मजदूर वर्ग और क्रांति, थोड़ी अस्पष्ट किस्म की कम्यूनिस्ट विचारधारा के प्रति निष्ठा, हेगेल और उनके अनुयायियों की व्यवस्थित आलोचना, इतिहास की भौतिकवादी धारणा की रूपरेखा और राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना की शुरुआत आदि उनके बौद्धिक और व्यावहारिक गतिविधियों के कुछ प्रमुख आयाम रहे । जर्मनी में जब उनकी पढ़ाई चल रही थी उस समय अनुशासन के रूप में राजनीतिक अर्थशास्त्र अभी उभरना शुरू ही हुआ था । राइनिशे जाइटुंग में काम करते हुए आर्थिक सवालों पर उन्हें लिखना पड़ा था लेकिन कानूनी या राजनीतिक पहलू से ही । अखबार के बंद हो जाने के बाद हेगेल के अधिकार दर्शन की आलोचना लिखते हुए राज्य के आधार के रूप में नागरिक समाज को पहचाना और सामाजिक संबंधों में आर्थिक कारक के महत्व की घोषणा की । पेरिस में राजनीतिक अर्थशास्त्र की असली पढ़ाई शुरू हुई । असल में कानून और राजनीति के अंतर्विरोध अपनी ही परिधि में सुलझ नहीं रहे थे और सामाजिक समस्याओं का समाधान भी इनके सहारे नहीं सूझ रहा था । ऐसे में एंगेल्स के आर्थिक सवालों पर लिखे दो लेखों ने इस क्षेत्र में मार्क्स की रुचि जगा दी और जीवन भर के लिए गवेषणा का एक नया क्षितिज खोल दिया ।
इस मामले में सबसे पहले उन्होंने मुद्रा की आर्थिक मध्यस्थता की आलोचना पर ध्यान केंद्रित किया और उसे मानव सार को साकार करने की राह में बाधा समझा । यहूदी प्रश्न को उन्होंने ऐसा सामाजिक प्रश्न माना जो समूची पूंजीवादी सभ्यता के दार्शनिक और समाजैतिहासिक मान्यताओं का प्रतिनिधि है । व्यापार से यहूदी समुदाय के जुड़ाव के कारण उन्हें ऐसा लगा था । जल्दी ही रुचि के इस नए क्षेत्र में उनका गंभीर अध्ययन शुरू हो गया । उन्होंने इस रहस्य पर से परदा उठाने का संकल्प किया कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की कोटियां सदैव और सर्वत्र वैध होती हैं । अर्थशास्त्रियों में इतिहास बोध की इस कमी के चलते ही वे अपने समय के अमानवीय आर्थिक हालात को प्राकृतिक तथ्य के रूप में पेश करके उन्हें छिपाते और जायज ठहराते थे । राजनीतिक अर्थशास्त्र निजी संपत्ति के तथ्य को मानकर शुरू होता था लेकिन उसे व्याख्यायित नहीं करता था । इस तरह अर्थशास्त्र निजी संपत्ति की सत्ता, उत्पादन पद्धति और अन्य आर्थिक कोटियों को शाश्वत समझता था । बुर्जुआ समाज का नागरिक प्राकृतिक मनुष्य महसूस होता था । निजी संपत्ति मनुष्य से अलग कोई स्वतंत्र सत्ता नजर आती थी । मार्क्स ने सबसे पहले इस विभाजन को सामाप्त किया ।
इतिहास के अपने व्यापक अध्ययन से वे इस नतीजे पर पंहुच चुके थे कि सभी सामाजिक संरचनाओं का विकास कालबद्ध होता है । इसके साथ ही निजी संपत्ति को प्राकृतिक अधिकार मानने की प्रूधों की आलोचना से वे सहमत थे । इनके आधार पर वे इतिहास की गतिशीलता को देख सके । पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के नियमों को बुर्जुआ विचारक मानव समाज के शाश्वत नियमों की तरह पेश करते थे । इसके विपरीत मार्क्स ने अपने औद्योगिक समय के विशेष संबंधों को इतिहास का एक चरण मानकर उनका अध्ययन शुरू किया जिसे खुद के अंतर्निहित अंतर्विरोधों के चलते किसी नए संबंध में परिणत होना था । सामाजिक संबंधों की इस नई समझदारी के नतीजे बहुत महत्व के साबित हुए । मसलन अलगाव को हेगेल, समाज की स्थायी अवस्था मानते थे लेकिन मार्क्स ने इसे औद्योगिक श्रम के ठोस ऐतिहासिक हालात में अवस्थित किया । आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों में मार्क्स ने अलगाव को इसी तरह पेश किया । अलगाव के चार विशेष रूपों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि 1) श्रम के उत्पाद से ही श्रमिक का अलगाव हो जाता है और उसी के श्रम का उत्पाद उस पर शासन करने लगता है, 2) श्रम को वह अपने विरुद्ध लक्षित वस्तु के रूप में ग्रहण करता है जिससे उसका नाता टूटा हुआ महसूस होता है, 3) अपने मानव सार से उसका अलगाव हो जाता है और मनुष्यता कोई भिन्न चीज लगने लगती है, और 4) अन्य श्रमिकों से भी उसका अलगाव हो जाता है । मार्क्स की नजर में अलगाव, मजूरी श्रम और और श्रम से उत्पादित वस्तुओं का उत्पादकों के विरोध में खड़ा हो जाने में निहित है । एक विशेष समय से जुड़े होने के कारण ही अलगाव को निजी संपत्ति के उन्मूलन के साथ समाप्त किया जा सकता है ।
इसी समय मार्क्स ने साम्यवाद की अपनी धारणा भी प्रस्तुत की लेकिन अर्थशास्त्र का अध्ययन शुरुआती स्थिति में होने के कारण और राजनीतिक अनुभव की कमी के चलते उनकी यह धारणा अमूर्त है । पेरिस में मार्क्स का जीवन विशद अध्ययन और उत्साहपूर्ण परियोजनाओं से भरा हुआ था । उन्होंने इतनी बड़ी योजनाएं बनाईं कि उन्हें कभी पूरा नहीं कर सके । जानकारी जैसे जैसे बढ़ती गई रुचि के नए क्षेत्र खुलते गए । वाम हेगेलपंथियों में बाकी सबसे अधिक प्रतिभाशाली होने के बावजूद सबसे कम लेखन प्रकाशित हुआ था क्योंकि वे एक वाक्य लिखने को तब तक तैयार नहीं होते जब तक उसे दस तरीकों से साबित न कर सकें । इसीलिए उनके अप्रकाशित नोट बेहद महत्वपूर्ण है । 1844 के मई से अगस्त तक के इन नोटों का संग्रह आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियां नाम से छापा गया ।
इस विवादित संग्रह के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं । इनमें व्यवस्था का भारी अभाव है । इसे पढ़ते हुए यात्रा के बीच के पड़ाव की अनुभूति होती है । इन पांडुलिपियों से मार्क्स के चिंतन के लिए ईंधन सामग्री का पता चलता है । इनसे उनके आर्थिक सिद्धांतों के बनने की प्रक्रिया स्पष्ट होती है । से और स्मिथ से उन्होंने आर्थिक कोटियों या धारणाओं को ग्रहण करने और समझने का प्रयास किया । रिकार्डो के प्रसंग में वे मूल्य और कीमत की धारणा पर बहस करते हैं और उन्हें अलगाते हैं । इसी रास्ते वे विनिमय मूल्य के निर्धारण में प्रतियोगिता का महत्व समझाते हैं । इसके बाद के लेखकों को पढ़ते हुए वे अपनी धारणाओं को भी मांजते चलते हैं । जेम्स मिल तक आते आते वे मुद्रा की मध्यस्थता की आलोचना शुरू करते हैं जिसके चलते मनुष्य पर वस्तुओं की प्रभुता पूरी तरह स्थापित हो जाती है । इन नोटों का एक हिस्सा फ़्रांस के जर्मन प्रवासियों की एक पाक्षिक पत्रिका में छपा । ये अप्रकाशित नोट बाद में प्रकाशित सामग्री से पूरी तरह जुड़े हुए हैं ।
मार्क्स के इन विचारों का निर्माण जिस समय हो रहा था वह समय गहरे समाजार्थिक बदलावों का था । सर्वहारा की तादाद तेजी से बढ़ रही थी । सर्वहारा से परिचय के जरिए उन्होंने हेगेल की नागरिक समाज की धारणा को वर्गीय पहलू से देखना शुरू किया । उन्हें यह भी लगा कि सर्वहारा गरीब से अलग नया वर्ग है । उसकी गरीबी का जन्म काम के हालात से हो रहा था । ऐसे में पूंजीवादी समाज के इस मुख्य अंतर्विरोध को जाहिर करने की जरूरत थी कि कामगार जितनी संपत्ति का सृजन करता है, उसके द्वारा उत्पादित सामग्री जितनी बढ़ती जाती है उतनी ही उसकी दरिद्रता भी बढ़ती जाती है । 1844 में सिसीलिया के बुनकरों ने विद्रोह किया तो मार्क्स ने मजदूर वर्ग संबंधी चिंतन को और धार दी । हेगेलीय सोच के मुताबिक सामान्य हित का एकमात्र प्रतिनिधि राज्य होता है और नागरिक समाज का कोई भी आंदोलन आंशिक हितों की नुमाइंदगी करता है । इसके विपरीत मार्क्स ने सामाजिक क्रांति को समग्र का द्योतक माना । सिसीलिया की घटनाओं को देखते हुए उन्होंने राज्य के किसी खास रूप को गलत मानकर उसकी जगह किसी अन्य रूप को लाने की बजाय राज्य मात्र को दोषपूर्ण मानने का आग्रह किया । इस तर्क को सुधारवाद की उनकी आलोचना से जोड़कर देखना चाहिए । उस समय के ज्यादातर समाजवादी समाज सुधार, वेतन की समानता और पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर ही काम के पुनर्गठन की बात करते थे । मार्क्स के अनुसार ये लोग अलगावग्रस्त श्रम और निजी संपत्ति के बीच का सही रिश्ता नहीं समझते थे । ऊपर से निजी संपत्ति अलगावग्रस्त श्रम का कारण नजर आती है लेकिन असल में वह इस श्रम का परिणाम होती है । इसलिए इस समाज को बदलने का काम पूंजी के उन्मूलन से जुड़ा हुआ है ।
वे जिस गति से विचारों की दुनिया में आगे बढ़ रहे थे उसके कारण आत्मालोचन जरूरी हो गया था । हेगेलपंथियों के विचारों के प्रभाव से वे मुक्त हो रहे थे । हेगेलपंथी साथी आलोचना को ही ध्येय समझते थे जबकि मार्क्स उसे साधन मान रहे थे । उन्हें लगा कि भौतिक शक्तियों को भौतिक शक्ति से ही टक्कर दी जा सकती है और किसी सामाजिक व्यवस्था को केवल व्यक्तिबद्ध आचरण से नहीं बदला जा सकता । मनुष्य के अलगाव के बारे में जानने का अर्थ है उसके वास्तविक उन्मूलन के लिए काम करना । केवल धारणाओं की लड़ाई से इसे हासिल नहीं किया जा सकता । आत्म चेतना की मुक्ति की खोज और श्रम की मुक्ति की कोशिश एक ही चीज नहीं होते । युवा हेगेल पंथियों के साथ उनका यह मतभेद मामूली नहीं था ।
पेरिस प्रवास में उन्हें पता चल गया कि दुनिया को बदलना व्यावहारिक सवाल है । इसे सैद्धांतिक स्तर पर समझने के कारण शायद दर्शन इसे हल नहीं कर सकता । अब उन्होंने शुद्ध खयाली दर्शन को अलविदा कहा और व्यवहार के दर्शन की राह पकड़ी । अब उनका विश्लेषण श्रम के अलगाव से शुरू होने की जगह श्रमिक के वास्तविक जीवन से शुरू हुआ । उनके निष्कर्ष क्रांतिकारी सक्रियता की दिशा में ले जाने लगे । राजनीति की भी उनकी धारणा में काफी बदलाव आया । अपने समय के प्रचलित संकीर्ण समाजवादी या साम्यवादी विचारों को स्वीकार करने की जगह वे समाज को जोड़ने वाले आर्थिक संबंधों को समझने में जुट गए जिसके सामान्य नियमों के तहत ही धर्म, परिवार, राज्य, कानून, नैतिकता, विज्ञान, कला आदि विशेष उत्पादन संबंध चलते हैं । हेगेलीय दर्शन में निहित राज्य की प्रमुखता खत्म हुई और वह समाज में अंतर्भुक्त हो गया और मानव संबंधों को निर्धारित करने की जगह उनसे निर्धारित होने लगा । उनका कहना था कि नागरिक जीवन को राज्य द्वारा संचालित मानना केवल राजनीतिक अंधविश्वास है, असल में नागरिक जीवन ही राज्य को संचालित करता है । क्रांतिकारी शक्ति की भी मान्यता बदली । पहले तकलीफ भोगने वाली मानवता का जिक्र होता था, उसकी जगह सर्वहारा ने ले ली । सर्वहारा भी पहले सिद्धांत के दूसरे पहलू के बतौर निष्क्रिय तत्व था, अब पूंजीवादी समाज व्यवस्था में क्रांतिकारी संभावना से भरा हुआ अपनी मुक्ति में सक्षम एकमात्र वर्ग प्रतीत होने लगा । मानव सार को साकार करने में बाधक राज्य की राजनीतिक मध्यस्थता और मुद्रा की आर्थिक मध्यस्थता की अमूर्त आलोचना की जगह पर भौतिक उत्पादन के ऐतिहासिक संबंधों की आलोचना, वर्तमान के विश्लेषण और रूपांतरण के आधार के रूप में प्रकट हुई । मुक्ति की मांग की जगह उत्पादन की वास्तविक प्रक्रिया के रूपांतरण के प्रयास ने ले ली ।
इसी समय एंगेल्स से मुलाकात हुई और चालीस साला दोस्ती की नींव पड़ी । अर्थशास्त्र संबंधी मार्क्स के अध्ययन का उन्हें भी अंदाजा हुआ । इसे जल्दी से जल्दी प्रकाशित करने के आग्रह के साथ पहली चिट्ठी लिखी । मार्क्स को इस क्षेत्र में अपनी जानकारी का भरोसा नहीं था इसलिए वह तो नहीं हुआ लेकिन एंगेल्स के साथ मिलकर होली फ़ेमिली नामक ग्रंथ लिखा । यह किताब हेगेलपंथियों के साथ गंभीर बहस है । इसमें संपत्तिवान वर्ग और सर्वहारा के अलगाव संबंधी अनुभव का अंतर स्पष्ट किया गया है और सर्वहारा के अलगाव को वास्तविक संघर्ष के जरिए दूर करने पर जोर दिया गया है । एंगेल्स ने अर्थशास्त्र संबंधी काम भी प्रकाशित करने पर जोर दिया तो काम पूरा होने की उम्मीद में फ़्रांस छोड़ने का आदेश मिलने के बाद प्रकाशक से दो खंडों में राजनीति और राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना संबंधी ग्रंथ देने का अनुबंध किया ।
पेरिस प्रवास के लेखन में अनुशासन के हिसाब से विभाजन बहुत मुश्किल है । पेरिस के सर्वहारा जीवन को फ़्रांसिसी क्रांति के अध्ययन के साथ जोड़ा गया है, स्मिथ का अध्ययन प्रूधों की अंतर्दृष्टि से संवलित है, सिसीलियाई बुनकरों का विद्रोह राज्य की हेगेलीय धारणा की आलोचना के साथ गुंथा हुआ है तो गरीबी संबंधी बुरेत का विश्लेषण साम्यवाद की ओर इंगित करता है ।