Wednesday, August 29, 2018

कानूनी चोरी


                                  
2018 में फ़ेर्नवुड पब्लिशिंग से अलैन देनो की फ़्रांसिसी में 2016 में छपी किताब का अंग्रेजी अनुवाद लीगलाइजिंग थेफ़्ट: ए शार्ट गाइड टु टैक्स हेवेन्सका प्रकाशन हुआ । अनुवाद कैथरीन ब्राउन ने किया है । इसकी प्रस्तावना द टैक्स जस्टिस नेटवर्क के जान क्रिस्टेन्सेन ने लिखी है । किताब सचमुच संक्षिप्त है लेकिन टैक्स चोरी के इस नए रूप और असर का भली प्रकार से परिचय कराती है । इसकी शुरुआत बेहद रोमांचक तरीके से होती है जब इसकी प्रस्तावना के लेखक बताते हैं कि उनके एक मुवक्किल को कैलिफ़ोर्निया की अदालत में अपने को दिवालिया घोषित करना था क्योंकि भूसंपत्ति के व्यवसाय में उन पर तमाम निर्माण कंपनियों और बैंकों का भारी कर्ज हो गया था और उनकी बीबी ने तलाक के बदले भारी मुआवजा मांगा था । उन्होंने कहा कि जर्सी आधारित ट्रस्ट से संचालित होने वाली उनकी तीसेक कंपनियों का मालिकाना बरमूडा आधारित एक नए ट्रस्ट को स्थानांतरित कर दिया जाए । असल में उनकी समूची संपत्ति ट्रस्ट की थी । पलक झपकते ही वह सारी संपदा नए ट्रस्ट के पास चली गई । नए ट्रस्ट का नया पदाधिकारी तुरंत नियुक्त हो गया । पुराने ट्रस्ट के बारे में सारे सबूत मिटा दिए गए । अब उस ट्रस्ट के अस्तित्व को साबित करना लगभग असंभव हो गया । जो कुछ किया गया वह जर्सी के कानूनों के हिसाब से सही था । प्रस्तावना लेखक ऐसी कंपनी में काम करते थे जो संपत्ति की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार थी । जिम्मेदारी निभाने के लिए सलाह सुझाव हेतु उसके पास वकीलों और लेखाकारों की फौज थी । जिस ट्रस्ट के पास मुवक्किल की संपत्ति का मालिकाना था वह जर्सी के ट्रस्ट कानून के मुताबिक स्थापित किया गया था । यह कानून टैक्स अधिकारियों और सरकारों के जांचकर्ताओं को धोखा देकर संपत्ति जमा करने वालों को सुरक्षा देता था । वे अपने मुवक्किल की टैक्स बचाने की रणनीतियों के बारे में जानते थे । वे यह भी जानते थे कि उनका मुवक्किल कर्ज देने वालों का धन चोरी चोरी पिछले आठ सालों से एक फ़र्जी ट्रस्ट की संपदा मे बदल रहा था ।
लेकिन यह काम वे खुफ़िया तरीके से यह जानने के लिए कर रहे थे कि किन तरीकों से विभिन्न देशों के धन्नासेठ अपने देशों के कानूनों को ठेंगा दिखाकर बड़ी कानूनी फ़र्मों और लेखा कंपनियों की सहायता से भारी रकम डकार जाते हैं । वे जानना चाहते थे कि आपराधिक कामों के लिए सुदूर द्वीप स्थित ट्रस्टों, फ़ाउंडेशनों और कंपनियों के चक्करदार संजाल का किस तरह उपयोग किया जाता है । जब उन्होंने काम शुरू किया तो पता लगा कि इस खेल में कानूनी फ़र्मों, लेखा कंपनियों, बैंकों और अफ़सरों तथा राजनेताओं की मिलीभगत होती है । लेखक ने जिन लोगों के भी मामलों का अध्ययन किया उन सबने टैक्स की चोरी, धोखाधड़ी या गबन किया था लेकिन ये अपराध अन्य प्रांतों या मुल्कों में किए गए थे इसलिए उनकी कानूनी छानबीन असंभव थी । जांच करने वाली सभी संस्थाओं को मालूम है कि किसी भी सूचना की राह में इन ट्रस्टों के वकील और अदालतें बाधा खड़ी करेंगे । आज भी इन द्वीपों के कानून अवैध धन संपत्ति के संचालक ट्रस्टों के पंजीकरण पर जोर नहीं देते । संपत्ति छिपाने में माहिर इन द्वीपों ने खुद को वैश्विक अर्थतंत्र से खूब अच्छी तरह से जोड़ रखा है । देशों के आरपार निवेश और व्यापार का काम कागज पर इस तरह होता है कि मुनाफ़े का स्थानांतरण आराम से होता रहे ।
प्रस्तावना के लेखक को लंदन की एक संगोष्ठी में पता चला कि दुनिया भर के बैंक अपने सबसे धनी ग्राहकों की संपत्ति इन द्वीपों में स्थानांतरित करने की योजना बना रहे थे । इस तरह दुनिया के सबसे धनी मुट्ठी भर अमीरों की अकूत संपदा बिना कोई टैक्स चुकाए और बिना किसी सरकारी लेखा जोखा के इन द्वीपों में सुरक्षित है । यही नहीं उस पर लगातार मुनाफ़ा भी हासिल किया जा रहा है । एक तरह से इन ताकतवर अमीरों के लिए अलग ही कानून है ।
एक जमाने में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब यूरोपीय साम्राज्य बिखरे तो स्पेनी लेखक ओर्तगा इ गस्से ने जनता की बढ़ती राजनीतिक शक्ति से यूरोपीय सभ्यता को उत्पन्न खतरे का संकेत किया था लेकिन उनका अनुमान गलत निकला । दो विश्वयुद्धों और महामंदी के चलते पैदा हुए व्यवधान के बावजूद बीसवीं सदी के अंत में वैश्विक कुलीन ही विजयी साबित हुए और 2008 के वित्तीय संकट के बाद उनकी संपदा और राजनीतिक हैसियत में इजाफ़ा हुआ है । इन कुलीनों ने कोई सभ्यता प्रसारित करने के मुकाबले अपने निहित स्वार्थों की तुष्टि में ही रुचि प्रदर्शित की है । सामाजिक जिम्मेदारी से विद्रोह तो जनता ने नहीं कुलीनों ने किया है । नतीजा कि लगभग एक सदी की यात्रा के बाद अधिकतर देशों में लोकतंत्र क्षरित हो रहा है और अल्पतंत्र की विस्मृत धारणा का बोलबाला कायम हो रहा है ।
बीच में जरूर ही कुछ दिनों के लिए ऐसा समय आया था जब लोकतंत्र के विस्तार के साथ पूंजीवाद भी फल फूल रहा था । कल्याणकारी राज्य ने वंचना और विषमता पर काबू पाने की कोशिश की थी लेकिन 1980 दशक के बाद पूंजी पर नियंत्रण कमजोर होते ही वह दौर समाप्त हो गया है और प्रगति उलटी दिशा में हो रही है । जहां टैक्स न देना हो ऐसे दूर द्वीपों की ओर पूंजी का प्रवाह तेज हो गया है और उसे वही राजनीतिक प्रतिष्ठा हासिल हो गई है जो उन्नीसवीं सदी के साम्राज्यवाद के समय हासिल थी । ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने के नबाबों की तरह आज के अरबपति धन्नासेठ भी लेशमात्र सामाजिक जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहते और सामाजिक मूल्य या नैतिकता के सभी बंधनों को तोड़ देना चाहते हैं । निजी हवाई जहाजों पर सवार ये अतिमानव स्थानीय या राष्ट्रीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बहुत कुछ मुक्त हो चुके हैं और उनकी चिंता बस यही रह गई है कि अपने लाभ के लिहाज से अनुकूल सरकार बनाने के लिए अपनी संपत्ति का उपयोग किस देश में करना ठीक होगा । बिना टैक्स चुकाए ही वे राजनीति और सरकार में अपना प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना चाहते हैं ।
टैक्स न चुकाने वाली स्वर्गतुल्य जगहें कुलीनों के इस विद्रोह का जरिया बन गई हैं । वहां से ही ये नए थैलीशाह लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित राजनेताओं को धमकाकर ऐसे फैसले करा रहे हैं जिनके लिए उन्हें वोट नहीं मिले थे । होड़ के नाम पर पूंजी को रियायतें दी जा रही हैं, मजदूरों के अधिकारों में कटौती हो रही है, सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान खत्म किए जा रहे हैं और पर्यावरण का खुला विध्वंस जारी है । नवउदारवाद के दौर में उम्मीद थी कि आर्थिक विकास का लाभ धनी लोगों के साथ गरीबों को भी मिलेगा लेकिन तथ्य है कि संपदा का रिसाव नीचे की ओर होने की जगह ऊपर के मुट्ठी भर लोगों के पास सिमटती जा रही है और वे लोग वैश्वीकरण को अपने हितों के मुताबिक ढाल रहे हैं । अधिकांश लोगों की नाव कीचड़ में फंस गई है तथा कर्ज के बोझ और घटती आमदनी के ज्वार में डूबा चाहती है । लोग लगातार खाई में गहरे गिरते जा रहे हैं और मुट्ठी भर अमीर लोग सामाजिक बंधनों और जिम्मेदारियों से आजाद होकर पुष्पक विमान की सैर कर रहे हैं । अगर हमें लोकतांत्रिक शासन और कानून का राज वापस चाहिए तो अमीरों की इन ऐशगाहों को मिटाना होगा । 

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