2018 में ब्लूम्सबरी
एकेडमिक से मार्चेलो मुस्तो की इतालवी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘एनादर मार्क्स: अर्ली मैनुस्क्रिप्ट्स टु द इंटरनेशनल’
प्रकाशित हुआ । अनुवाद पैट्रिक कैमिलर ने किया है । मुस्तो कहते हैं
कि नए विचारों की प्रेरक क्षमता को यदि युवा होने का सबूत माना जाए तो मार्क्स बेहद
युवा साबित होंगे । उनका कहना है कि पूंजीवाद के जीवन में सबसे हालिया 2008
के संकट के बाद से ही कार्ल मार्क्स के बारे में बातचीत शुरू हो गई है
। बर्लिन की दीवार गिरने के बाद मार्क्स की शाश्वत गुमनामी की भविष्यवाणी के विपरीत
उनके विचारों का विश्लेषण, विकास और उन पर बहस मुबाहिसा फिर से
चालू हुआ है । तमाम अखबार और पत्रिकाओं में उन्हें प्रासंगिक और दूरदर्शी विचारक बताया
जा रहा है । उनकी किताबों की बिक्री बढ़ गई है । बीस साल की उपेक्षा के बाद उनके लेखन
का गंभीर अध्ययन हो रहा है ।
उनके लेखन का प्रचार
प्रसार भी लम्बी कहानी है । एंगेल्स ने मुख्य रूप से ‘पूंजी’ को पूरा
करने पर ध्यान दिया । उनके देहांत के बाद जर्मनी के नेताओं ने आगे कोई काम तो नहीं
ही किया उनकी पांडुलिपियों की भी ठीक से देखभाल नहीं की । सोवियत संघ के बनने के बाद
1920 के दशक में डेविड रियाज़ानोव ने समग्र लेखन के प्रकाशन का काम हाथ
में लिया । पार्टी के भीतर की उथल पुथल और द्वितीय विश्वयुद्ध ने इसमें व्यवधान उत्पन्न
किया । इसके बाद 1975 में पूर्वी जर्मनी में काम शुरू हुआ लेकिन
बर्लिन की दीवार गिरने के साथ इसमें भी रुकावट आ गई । 1998 के
बाद से लगातार इस परियोजना पर काम चल रहा है । नई सामग्री के प्रकाश में आने से
मार्क्स की तस्वीर भी बदल रही है ।
इस जीवनी में उसी
बदली हुई तस्वीर को प्रस्तुत करने की कोशिश है । दिक्कत यह है कि मार्क्स के नाम
का इस्तेमाल समाजवादी मुल्कों की सरकारों के तमाम कामों को जायज ठहराने के लिए
किया गया और इसीलिए इन सरकारों के कामों के लिए मार्क्स की आलोचना की गई । किताब
में ताजा शोध के नतीजों को विनम्रता के साथ और असमाप्त रूप में पेश किया गया है ।
इसका कारण है कि मार्क्स का विराट आलोचनात्मक साहित्य मानव ज्ञान के इतने विस्तृत
क्षेत्र में फैला है कि उसे समेटना मुश्किल है । दूसरे कि इस किताब में केवल
आरम्भिक लेखन, पूंजी की तैयारी और इंटरनेशनल की गतिविधियों पर ध्यान दिया गया है ।
इन अलग अलग कालखंडों से चुनिंदा लेखन पर ही विचार किया गया है । पहले भाग में
विचारणीय काल के लेखन और परवर्ती लेखन के बीच संबंध विवादास्पद रहा है । कुछ लोग
आरम्भिक लेखन को अधिक महत्व का मानते रहे तो कुछ अन्य लोग परवर्ती लेखन की
परिपक्वता के समर्थक रहे हैं । इस किताब में इस आरम्भिक लेखन को उनके आलोचनात्मक
कार्यभार का रोचक लेकिन शुरुआती रूप माना गया है । किताब के दूसरे भाग का महत्व पूंजी
की विभिन्न पांडुलिपियों का सिलसिलेवार विवेचन है । अब से पहले आर्थिक और दार्शनिक
पांडुलिपियों के बाद ग्रुंड्रिस फिर पूंजी की सीधी यात्रा होती रही थी लेकिन नई सामग्री
के प्रकाश में मार्क्स के चिंतन की बनावट का व्यापक ढांचा उभारा गया है । तीसरे भाग
से मार्क्स के चिंतन के विकास में मजदूर आंदोलन के योगदान का पता चलता है । लेखक को
लगता है कि मार्क्स को शैक्षणिक इस्तेमाल के लिए शास्त्रीय बना देना भी उतनी ही भारी
भूल होगी जितनी उन्हें समाजवादी मुल्कों की सरकारों का समर्थक साबित करना थी । उनका
विश्लेषण वर्तमान के लिए अधिक उपयोगी है ।
आज पूंजीवाद सचमुच वैश्विक
व्यवस्था बन गया है और मानव अस्तित्व के सभी पहलुओं में दखल देकर उन्हें रूपायित कर
रहा है । इस दखलंदाजी के कारण कार्यस्थल के अतिरिक्त सामाजिक संबंधों में भी बदलाव
आ रहा है । इसके चलते सामाजिक अन्याय और भारी पर्यावरणिक विनाश के कार्यक्रम ने गति
पकड़ ली है । पिछले तीस सालों से जारी बाजार समाज का स्तुतिगान कुछ मंद पड़ा है और वर्तमान
को समझने के लिए मार्क्स की ओर से उपलब्ध कराए गए उपकरण कारगर साबित हो रहे हैं । लेखक
ने मार्क्स के लेखन की कालक्रमानुसार सूची भी प्रस्तुत करने की कोशिश की है ।
आरम्भिक लेखन की
पृष्ठभूमि स्पष्ट करते हुए वे उनके बौद्धिक निर्माण के बारे में बताते हैं । असल
में मार्क्स का जन्म जिस नगर में हुआ था वह प्राचीन काल से बहुत महत्व का धार्मिक
स्थान रहा था लेकिन बाद में उसकी प्रतिष्ठा में गिरावट आई थी और उनके जन्म के समय
इसकी आबादी कुल ग्यारह हजार चार सौ रह गई थी । जर्मनी और फ़्रांस की सीमा पर स्थित
यह नगर 1795 से 1814 तक फ़्रांस के कब्जे में रहा था इसलिए इसकी आबादी को नेपोलियन
के आर्थिक और राजनीतिक सुधारों तथा ज्ञानोदय के सांस्कृतिक माहौल का फायदा मिला था
। किसानों को सामंती बंधनों से और बौद्धिकों को धार्मिक जकड़बंदी से मुक्ति मिली थी
तथा पूंजीपतियों को विकास के लिए आवश्यक उदार कानूनी माहौल हासिल था । उद्योगों
वाले इलाके में होने के बावजूद त्रिएर लघु और सीमांत किसानों की प्रमुखता वाला
क्षेत्र था और सर्वहारा की तादाद लगभग शून्य थी । इसके बावजूद चतुर्दिक व्याप्त
गरीबी के चलते इस इलाके में फ़्रांसिसी समाजवादी विचारों का प्रसार जर्मनी के अन्य
नगरों के मुकाबले ज्यादा जल्दी हुआ ।
मार्क्स का जन्म
जिस परिवार में हुआ उसमें माता और पिता दोनों की ओर यहूदी धर्मगुरु रबाई लोगों की
लम्बी परम्परा रही थी । इसके चलते मार्क्स के भी उसी रास्ते जाने की संभावना थी ।
लेकिन उनके पिता ऐसे यहूदी नौजवानों में थे जिन्होंने इसाइयों के बीच रहते हुए
अपने समुदाय के बंधनों से थोड़ी छूटें हासिल कीं और यूरोपीय बौद्धिक सभ्यता में
प्रवेश किया । उन्हें स्थानीय अदालत में कानूनी सलाहकार का ओहदा मिला । बहरहाल जब
1815 में प्रशिया का इस इलाके पर कब्जा हुआ तो यहूदियों को सभी सरकारी पदों से
हटाया जाने लगा । उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया लेकिन बहुसंख्यक कैथोलिक धर्म की
जगह अत्यंत अल्पसंख्यक प्रोटेस्टैन्ट धर्म अपनाया । कैथोलिकों के मुकाबले इस
समुदाय में उदारता बहुत थी । धर्मांतरण और ज्ञानोदयी वातावरण की प्रमुखता के बावजूद
परिवार में यहूदी रस्मो रिवाज की मौजूदगी बनी रही थी ।
बारह वर्ष की उम्र
तक घर पर ही पढ़ाई करने के बाद घर से पिता के प्रभाव में ज्ञानोदयी तार्किकता में
दीक्षित होकर पांच साल तक जेसुइट लोगों द्वारा स्थापित जिम्नेजियम में आरम्भिक
शिक्षा प्राप्त की । वहां का वातावरण भी उदार विचारों से भरा हुआ था लेकिन
प्रशियाई शासन में प्रतिबंध बहुत थे । इस जिम्नेजियम की सरकारी जांच में अनेक
अध्यापक विद्यार्थियों में विद्रोही भावना भरने के दोषी पाए गए थे । उदारपंथी
लोगों के जुटान की जगह एक स्थानीय साहित्यिक सभा थी । उसे भी सरकार ने बहुत ही
भड़काऊ पाया था । सभा के भवन को पुलिस की निगरानी में रखा गया था । जिम्नेजियम की
परीक्षा के लिए ही उन्होंने युवाओं के पेशे के चुनाव के सवाल पर एक निबंध लिखा
जिसे उनके लेखन का लगभग पहला प्रयास कहा जा सकता है । इसमें उन्होंने मानवता के
कल्याण के लिहाज से पेशा चुनने की बात लिखी और बताया कि सार्वभौमिक हित के लिए समर्पित
लोग ही इतिहास में महान साबित होंगे । सत्रह साला व्यक्ति के आदर्शवादी मानवतावाद
की अभिव्यक्ति इस निबंध में हुई थी ।
इसके बाद वे बान
विश्वविद्यालय आगे के अध्ययन के लिए गए । त्रिएर के पास वही सबसे बड़ा बौद्धिक
केंद्र था । तब उसकी कुल आबादी लगभग चालीस हजार थी । विश्वविद्यालय के सात सौ
विद्यार्थियों के लिए विद्वान अध्यापकों समेत साठ कर्मचारी थे । ये विद्यार्थी ही
समाज के सबसे ऊर्जावान सदस्य थे । विद्यार्थियों के स्वतंत्र राइनलैंड सरकार की
स्थापना के प्रयास के चलते संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था । मार्क्स जब
पहुंचे तब भी दमन जारी था । मुखबिरों की मदद से पुलिस सभी संदिग्ध लोगों को पकड़
रही थी । विद्यार्थी राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने के मुकाबले दारूबाजी और
फ़सादात में उलझे रहते थे । संगठन केवल क्षेत्र आधारित ही रह गए थे । मार्क्स ने
त्रिएर के विद्यार्थियों के ऐसे ही संगठन में शिरकत की और उसके अध्यक्ष मंडल में
लिए गए । इसके साथ ही जबर्दस्त पढ़ाई शुरू हुई और कविता लिखने का भी शौक लगा । खूब
किताबें, खासकर इतिहास की खरीदीं और सेहत
की परवाह किए बिना रात दिन पढ़ने में डूबे रहे । पिता के लिखे पत्रों में लगातार
सेहत पर ध्यान देने की नसीहत होती । आखिरकार परेशान पिता ने आगे के अध्ययन के लिए
बर्लिन विश्वविद्यालय भेजने का इरादा किया ।
बर्लिन में प्रवेश
लेने के लिए जाने से पहले की गर्मी की छुट्टी में आगामी जीवन संगिनी जेनी से
रिश्ता पक्का हुआ । फिर भी दोनों ने अपने परिवारों से इस रिश्ते के बारे में नहीं
बताया । जेनी के पिता उच्च वर्ग के सरकारी अधिकारी थे । वे उदार विचारों के थे और
सेंट साइमन के लेखन से मार्क्स का परिचय उन्होंने ही कराया था । मार्क्स ने अपना
शोध प्रबंध उन्हें अकारण नहीं समर्पित किया था । साढ़े तीन लाख की आबादी वाला
बर्लिन, जर्मनी का दूसरा सबसे बड़ा नगर था
। विश्वविद्यालय की स्थापना 1810 में हुई थी और उस समय कुल 2100 विद्यार्थी
अध्ययनरत थे । मशहूर दार्शनिक हेगेल यहां अध्यापन कर चुके थे । मार्क्स की अनंत और
असीम जिज्ञासा के लिए यहां भरपूर अवकाश था । प्रिया के विछोह में कविता लिखने लगे
और उनका संग्रह जेनी को उपहार के बतौर दिया । कविता तो बस शौकिया लिखी लेकिन मुख्य
चुनौती दर्शन के क्षेत्र में महसूस होती थी । जबर्दस्त अध्ययन के सहारे लगभग तीन सौ
पृष्ठ लिखे लेकिन उन्हें खो भी दिया । विधि दर्शन पर इस प्रस्तावित पुस्तक को
लिखने के क्रम में ढेर सारी किताबें देख डालीं । इसी क्रम में पढ़ी गई किताबों से
उद्धरण या उनका सार लिख डालने की आदत पड़ी और जीवन भर कायम रही । कड़ी मेहनत के चलते
सेहत ने जवाब दे दिया और कुछ दिन आराम करना पड़ा । इसी समय उन्होंने हेगेल का समस्त
लेखन पढ़ डाला । इसके बाद पैदा असंतुष्टि के चलते विधिशास्त्र की ढेर सारी किताबें
देख डालीं । स्पष्टता न हासिल होने की झुंझलाहट में अब तक का लिखा सब कुछ नष्ट कर
दिया । हेगेल अब भी परेशान किए हुए थे । तभी ऐसे दोस्त मिले जो परिपक्व हेगेल के
मुकाबले युवा हेगेल के वामपंथी तेवर को विकसित करना चाहते थे । इनमें कुछ अध्यापक
और कुछ विद्यार्थी थे । इन्हें ही युवा हेगेलपंथी कहा गया ।
इधर पुत्र की सेहत
के लिए परेशान रहने वाले पिता की तपेदिक से मृत्यु हो जाने के बाद घर से बांधने
वाली जंजीर कमजोर हो गई । हेगेलपंथियों में दक्षिणपंथी और वामपंथी एक दूसरे से अलग
हो चुके थे । मार्क्स के मित्रों का समूह सबसे अधिक प्रगतिशील और उदारवादी
विचारकों के समूह के रूप में प्रतिष्ठित हो चला था । कुल बीस साल की उम्र में
मार्क्स इस समूह में शामिल हुए थे लेकिन उनकी प्रतिभा के चलते समूह के दस साल बड़े
सदस्य भी उनकी इज्जत करते थे । ब्रूनो बावेर से उनकी नजदीकी बनी । वे जल्दी से
जल्दी औपचारिक शिक्षा खत्म करने के पक्ष में थे इसलिए परिश्रम करके ग्रीक दर्शन पर
एक मोटी पोथी तैयार कर ली । शोध संबंधी इस अध्ययन के अतिरिक्त उन्होंने आधुनिक
दार्शनिकों को भी घोट डाला । उम्मीद थी कि विश्वविद्यालय में दर्शन के अध्यापन का
मौका मिलेगा । बर्लिन के मुकाबले कुछ अधिक उदार जेना विश्वविद्यालय से शोधोपाधि
प्राप्त होने तक राजनीतिक माहौल इस कदर बदल चुका था कि अध्यापन की रही सही आशा भी
खत्म हो गई ।
ऐसी स्थिति में मार्क्स
ने बान लौटकर नास्तिकता के पक्ष में बावेर के साथ पत्रिका निकालने की योजना बनाई ।
इसके लिए धर्म के बारे में काफी अध्ययन भी किया लेकिन बावेर से राजनीतिक विरोध पैदा
हो जाने के चलते पत्रिका की योजना खटाई में पड़ गई । बाकी रास्ते बंद होने के कारण पत्रकारिता
करने का फैसला किया और कोलोन स्थित राइनिशे जाइटुंग के संपादन का भार संभाला । अखबार
में काम करते हुए राजनीतिक अर्थशास्त्र पर अधिकार और प्रत्यक्ष राजनीतिक दखलंदाजी की
जरूरत महसूस हुई ।
उनके जीवन का अगला अध्याय
फ़्रांस में शुरू हुआ । बाल्जाक के मुताबिक फ़्रांस की राजधानी पेरिस आंदोलनों, मशीनों और विचारों का विचित्र संग्रह
थी । 1848 की क्रांति से पहले पेरिस के दस्तकार और कामगार लगातार
राजनीतिक आंदोलन में सक्रिय थे । उपनिवेशों से आए प्रवासियों, क्रांतिकारियों, लेखकों और कलाकारों के चलते घनघोर सामाजिक
उथल पुथल मची हुई थी । तमाम स्त्री-पुरुष किताबें और पत्रिकाएं
लिख और छाप रहे थे, कविता लिखते तथा सड़क के किनारे या चाय की
दुकान में भाषण देते तथा अंतहीन उत्तेजक बहसों में उलझे रहते थे । यह ऐसा समुदाय था
जिसका आगमन अभी जर्मनी में नहीं हुआ था । मार्क्स के लिए वहां होना सही समय पर सही
जगह होना था । पचीस साल की उम्र में दिमागी रूप से बेचैन आदमी के लिए पेरिस से
बेहतर अन्य कोई जगह न थी ।
फ़्रांस में रहते हुए
मजदूर वर्ग और क्रांति, थोड़ी
अस्पष्ट किस्म की कम्यूनिस्ट विचारधारा के प्रति निष्ठा, हेगेल
और उनके अनुयायियों की व्यवस्थित आलोचना, इतिहास की भौतिकवादी
धारणा की रूपरेखा और राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना की शुरुआत आदि उनके बौद्धिक और
व्यावहारिक गतिविधियों के कुछ प्रमुख आयाम रहे । जर्मनी में जब उनकी पढ़ाई चल रही थी
उस समय अनुशासन के रूप में राजनीतिक अर्थशास्त्र अभी उभरना शुरू ही हुआ था । राइनिशे
जाइटुंग में काम करते हुए आर्थिक सवालों पर उन्हें लिखना पड़ा था लेकिन कानूनी या राजनीतिक
पहलू से ही । अखबार के बंद हो जाने के बाद हेगेल के अधिकार दर्शन की आलोचना लिखते हुए
राज्य के आधार के रूप में नागरिक समाज को पहचाना और सामाजिक संबंधों में आर्थिक कारक
के महत्व की घोषणा की । पेरिस में राजनीतिक अर्थशास्त्र की असली पढ़ाई शुरू हुई । असल
में कानून और राजनीति के अंतर्विरोध अपनी ही परिधि में सुलझ नहीं रहे थे और सामाजिक
समस्याओं का समाधान भी इनके सहारे नहीं सूझ रहा था । ऐसे में एंगेल्स के आर्थिक सवालों
पर लिखे दो लेखों ने इस क्षेत्र में मार्क्स की रुचि जगा दी और जीवन भर के लिए गवेषणा
का एक नया क्षितिज खोल दिया ।
इस मामले में सबसे
पहले उन्होंने मुद्रा की आर्थिक मध्यस्थता की आलोचना पर ध्यान केंद्रित किया और
उसे मानव सार को साकार करने की राह में बाधा समझा । यहूदी प्रश्न को उन्होंने ऐसा
सामाजिक प्रश्न माना जो समूची पूंजीवादी सभ्यता के दार्शनिक और समाजैतिहासिक
मान्यताओं का प्रतिनिधि है । व्यापार से यहूदी समुदाय के जुड़ाव के कारण उन्हें ऐसा
लगा था । जल्दी ही रुचि के इस नए क्षेत्र में उनका गंभीर अध्ययन शुरू हो गया ।
उन्होंने इस रहस्य पर से परदा उठाने का संकल्प किया कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की
कोटियां सदैव और सर्वत्र वैध होती हैं । अर्थशास्त्रियों में इतिहास बोध की इस कमी
के चलते ही वे अपने समय के अमानवीय आर्थिक हालात को प्राकृतिक तथ्य के रूप में पेश
करके उन्हें छिपाते और जायज ठहराते थे । राजनीतिक अर्थशास्त्र निजी संपत्ति के
तथ्य को मानकर शुरू होता था लेकिन उसे व्याख्यायित नहीं करता था । इस तरह
अर्थशास्त्र निजी संपत्ति की सत्ता,
उत्पादन पद्धति और अन्य आर्थिक कोटियों को शाश्वत समझता था ।
बुर्जुआ समाज का नागरिक प्राकृतिक मनुष्य महसूस होता था । निजी संपत्ति मनुष्य से
अलग कोई स्वतंत्र सत्ता नजर आती थी । मार्क्स ने सबसे पहले इस विभाजन को सामाप्त
किया ।
इतिहास के अपने व्यापक
अध्ययन से वे इस नतीजे पर पंहुच चुके थे कि सभी सामाजिक संरचनाओं का विकास कालबद्ध
होता है । इसके साथ ही निजी संपत्ति को प्राकृतिक अधिकार मानने की प्रूधों की आलोचना
से वे सहमत थे । इनके आधार पर वे इतिहास की गतिशीलता को देख सके । पूंजीवादी उत्पादन
पद्धति के नियमों को बुर्जुआ विचारक मानव समाज के शाश्वत नियमों की तरह पेश करते थे
। इसके विपरीत मार्क्स ने अपने औद्योगिक समय के विशेष संबंधों को इतिहास का एक चरण
मानकर उनका अध्ययन शुरू किया जिसे खुद के अंतर्निहित अंतर्विरोधों के चलते किसी नए
संबंध में परिणत होना था । सामाजिक संबंधों की इस नई समझदारी के नतीजे बहुत महत्व के
साबित हुए । मसलन अलगाव को हेगेल, समाज की स्थायी अवस्था मानते थे लेकिन मार्क्स ने इसे औद्योगिक श्रम के ठोस
ऐतिहासिक हालात में अवस्थित किया । आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों में मार्क्स ने
अलगाव को इसी तरह पेश किया । अलगाव के चार विशेष रूपों का जिक्र करते हुए उन्होंने
कहा कि 1) श्रम के उत्पाद से ही श्रमिक का अलगाव हो जाता है और
उसी के श्रम का उत्पाद उस पर शासन करने लगता है, 2) श्रम को वह
अपने विरुद्ध लक्षित वस्तु के रूप में ग्रहण करता है जिससे उसका नाता टूटा हुआ महसूस
होता है, 3) अपने मानव सार से उसका अलगाव हो जाता है और मनुष्यता
कोई भिन्न चीज लगने लगती है, और 4) अन्य
श्रमिकों से भी उसका अलगाव हो जाता है । मार्क्स की नजर में अलगाव, मजूरी श्रम और और श्रम से उत्पादित वस्तुओं का उत्पादकों के विरोध में खड़ा
हो जाने में निहित है । एक विशेष समय से जुड़े होने के कारण ही अलगाव को निजी संपत्ति
के उन्मूलन के साथ समाप्त किया जा सकता है ।
इसी समय मार्क्स ने
साम्यवाद की अपनी धारणा भी प्रस्तुत की लेकिन अर्थशास्त्र का अध्ययन शुरुआती स्थिति
में होने के कारण और राजनीतिक अनुभव की कमी के चलते उनकी यह धारणा अमूर्त है । पेरिस
में मार्क्स का जीवन विशद अध्ययन और उत्साहपूर्ण परियोजनाओं से भरा हुआ था । उन्होंने
इतनी बड़ी योजनाएं बनाईं कि उन्हें कभी पूरा नहीं कर सके । जानकारी जैसे जैसे बढ़ती गई
रुचि के नए क्षेत्र खुलते गए । वाम हेगेलपंथियों में बाकी सबसे अधिक प्रतिभाशाली होने
के बावजूद सबसे कम लेखन प्रकाशित हुआ था क्योंकि वे एक वाक्य लिखने को तब तक तैयार
नहीं होते जब तक उसे दस तरीकों से साबित न कर सकें । इसीलिए उनके अप्रकाशित नोट बेहद
महत्वपूर्ण है । 1844 के मई से अगस्त तक के इन नोटों का संग्रह आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियां
नाम से छापा गया ।
इस विवादित संग्रह के
अनेक संस्करण उपलब्ध हैं । इनमें व्यवस्था का भारी अभाव है । इसे पढ़ते हुए यात्रा के
बीच के पड़ाव की अनुभूति होती है । इन पांडुलिपियों से मार्क्स के चिंतन के लिए ईंधन
सामग्री का पता चलता है । इनसे उनके आर्थिक सिद्धांतों के बनने की प्रक्रिया स्पष्ट
होती है । से और स्मिथ से उन्होंने आर्थिक कोटियों या धारणाओं को ग्रहण करने और समझने
का प्रयास किया । रिकार्डो के प्रसंग में वे मूल्य और कीमत की धारणा पर बहस करते हैं
और उन्हें अलगाते हैं । इसी रास्ते वे विनिमय मूल्य के निर्धारण में प्रतियोगिता का
महत्व समझाते हैं । इसके बाद के लेखकों को पढ़ते हुए वे अपनी धारणाओं को भी मांजते चलते
हैं । जेम्स मिल तक आते आते वे मुद्रा की मध्यस्थता की आलोचना शुरू करते हैं जिसके
चलते मनुष्य पर वस्तुओं की प्रभुता पूरी तरह स्थापित हो जाती है । इन नोटों का एक हिस्सा
फ़्रांस के जर्मन प्रवासियों की एक पाक्षिक पत्रिका में छपा । ये अप्रकाशित नोट बाद
में प्रकाशित सामग्री से पूरी तरह जुड़े हुए हैं ।
मार्क्स के इन विचारों
का निर्माण जिस समय हो रहा था वह समय गहरे समाजार्थिक बदलावों का था । सर्वहारा की
तादाद तेजी से बढ़ रही थी । सर्वहारा से परिचय के जरिए उन्होंने हेगेल की नागरिक समाज
की धारणा को वर्गीय पहलू से देखना शुरू किया । उन्हें यह भी लगा कि सर्वहारा गरीब से
अलग नया वर्ग है । उसकी गरीबी का जन्म काम के हालात से हो रहा था । ऐसे में पूंजीवादी
समाज के इस मुख्य अंतर्विरोध को जाहिर करने की जरूरत थी कि कामगार जितनी संपत्ति का
सृजन करता है, उसके द्वारा उत्पादित
सामग्री जितनी बढ़ती जाती है उतनी ही उसकी दरिद्रता भी बढ़ती जाती है । 1844 में
सिसीलिया के बुनकरों ने विद्रोह किया तो मार्क्स ने मजदूर वर्ग संबंधी चिंतन को और
धार दी । हेगेलीय सोच के मुताबिक सामान्य हित का एकमात्र प्रतिनिधि राज्य होता है
और नागरिक समाज का कोई भी आंदोलन आंशिक हितों की नुमाइंदगी करता है । इसके विपरीत
मार्क्स ने सामाजिक क्रांति को समग्र का द्योतक माना । सिसीलिया की घटनाओं को
देखते हुए उन्होंने राज्य के किसी खास रूप को गलत मानकर उसकी जगह किसी अन्य रूप को
लाने की बजाय राज्य मात्र को दोषपूर्ण मानने का आग्रह किया । इस तर्क को सुधारवाद
की उनकी आलोचना से जोड़कर देखना चाहिए । उस समय के ज्यादातर समाजवादी समाज सुधार,
वेतन की समानता और पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर ही काम के पुनर्गठन
की बात करते थे । मार्क्स के अनुसार ये लोग अलगावग्रस्त श्रम और निजी संपत्ति के
बीच का सही रिश्ता नहीं समझते थे । ऊपर से निजी संपत्ति अलगावग्रस्त श्रम का कारण
नजर आती है लेकिन असल में वह इस श्रम का परिणाम होती है । इसलिए इस समाज को बदलने
का काम पूंजी के उन्मूलन से जुड़ा हुआ है ।
वे जिस गति से
विचारों की दुनिया में आगे बढ़ रहे थे उसके कारण आत्मालोचन जरूरी हो गया था ।
हेगेलपंथियों के विचारों के प्रभाव से वे मुक्त हो रहे थे । हेगेलपंथी साथी आलोचना
को ही ध्येय समझते थे जबकि मार्क्स उसे साधन मान रहे थे । उन्हें लगा कि भौतिक
शक्तियों को भौतिक शक्ति से ही टक्कर दी जा सकती है और किसी सामाजिक व्यवस्था को
केवल व्यक्तिबद्ध आचरण से नहीं बदला जा सकता । मनुष्य के अलगाव के बारे में जानने
का अर्थ है उसके वास्तविक उन्मूलन के लिए काम करना । केवल धारणाओं की लड़ाई से इसे
हासिल नहीं किया जा सकता । आत्म चेतना की मुक्ति की खोज और श्रम की मुक्ति की
कोशिश एक ही चीज नहीं होते । युवा हेगेल पंथियों के साथ उनका यह मतभेद मामूली नहीं
था ।
पेरिस प्रवास में
उन्हें पता चल गया कि दुनिया को बदलना व्यावहारिक सवाल है । इसे सैद्धांतिक स्तर
पर समझने के कारण शायद दर्शन इसे हल नहीं कर सकता । अब उन्होंने शुद्ध खयाली दर्शन
को अलविदा कहा और व्यवहार के दर्शन की राह पकड़ी । अब उनका विश्लेषण श्रम के अलगाव
से शुरू होने की जगह श्रमिक के वास्तविक जीवन से शुरू हुआ । उनके निष्कर्ष
क्रांतिकारी सक्रियता की दिशा में ले जाने लगे । राजनीति की भी उनकी धारणा में
काफी बदलाव आया । अपने समय के प्रचलित संकीर्ण समाजवादी या साम्यवादी विचारों को
स्वीकार करने की जगह वे समाज को जोड़ने वाले आर्थिक संबंधों को समझने में जुट गए
जिसके सामान्य नियमों के तहत ही धर्म,
परिवार, राज्य, कानून,
नैतिकता, विज्ञान, कला
आदि विशेष उत्पादन संबंध चलते हैं । हेगेलीय दर्शन में निहित राज्य की प्रमुखता
खत्म हुई और वह समाज में अंतर्भुक्त हो गया और मानव संबंधों को निर्धारित करने की
जगह उनसे निर्धारित होने लगा । उनका कहना था कि नागरिक जीवन को राज्य द्वारा
संचालित मानना केवल राजनीतिक अंधविश्वास है, असल में नागरिक
जीवन ही राज्य को संचालित करता है । क्रांतिकारी शक्ति की भी मान्यता बदली । पहले
तकलीफ भोगने वाली मानवता का जिक्र होता था, उसकी जगह
सर्वहारा ने ले ली । सर्वहारा भी पहले सिद्धांत के दूसरे पहलू के बतौर निष्क्रिय
तत्व था, अब पूंजीवादी समाज व्यवस्था में क्रांतिकारी
संभावना से भरा हुआ अपनी मुक्ति में सक्षम एकमात्र वर्ग प्रतीत होने लगा । मानव
सार को साकार करने में बाधक राज्य की राजनीतिक मध्यस्थता और मुद्रा की आर्थिक
मध्यस्थता की अमूर्त आलोचना की जगह पर भौतिक उत्पादन के ऐतिहासिक संबंधों की
आलोचना, वर्तमान के विश्लेषण और रूपांतरण के आधार के रूप में
प्रकट हुई । मुक्ति की मांग की जगह उत्पादन की वास्तविक प्रक्रिया के रूपांतरण के
प्रयास ने ले ली ।
इसी समय एंगेल्स से
मुलाकात हुई और चालीस साला दोस्ती की नींव पड़ी । अर्थशास्त्र संबंधी मार्क्स के
अध्ययन का उन्हें भी अंदाजा हुआ । इसे जल्दी से जल्दी प्रकाशित करने के आग्रह के
साथ पहली चिट्ठी लिखी । मार्क्स को इस क्षेत्र में अपनी जानकारी का भरोसा नहीं था
इसलिए वह तो नहीं हुआ लेकिन एंगेल्स के साथ मिलकर होली फ़ेमिली नामक ग्रंथ लिखा ।
यह किताब हेगेलपंथियों के साथ गंभीर बहस है । इसमें संपत्तिवान वर्ग और सर्वहारा
के अलगाव संबंधी अनुभव का अंतर स्पष्ट किया गया है और सर्वहारा के अलगाव को
वास्तविक संघर्ष के जरिए दूर करने पर जोर दिया गया है । एंगेल्स ने अर्थशास्त्र
संबंधी काम भी प्रकाशित करने पर जोर दिया तो काम पूरा होने की उम्मीद में फ़्रांस
छोड़ने का आदेश मिलने के बाद प्रकाशक से दो खंडों में राजनीति और राजनीतिक
अर्थशास्त्र की आलोचना संबंधी ग्रंथ देने का अनुबंध किया ।
पेरिस प्रवास के
लेखन में अनुशासन के हिसाब से विभाजन बहुत मुश्किल है । पेरिस के सर्वहारा जीवन को
फ़्रांसिसी क्रांति के अध्ययन के साथ जोड़ा गया है, स्मिथ का अध्ययन प्रूधों की अंतर्दृष्टि से संवलित है,
सिसीलियाई बुनकरों का विद्रोह राज्य की हेगेलीय धारणा की आलोचना के
साथ गुंथा हुआ है तो गरीबी संबंधी बुरेत का विश्लेषण साम्यवाद की ओर इंगित करता है
।
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