शहीद भगत सिंह
के बारे में
राजेश कुमार लिखित
नाटक ‘पगड़ी
संभाल जट्टा’ का प्रकाशन
आज के माहौल
में खास घटना
है । पहले
अगर उन्हें भावुक
क्रांतिकारी बताकर उनके
विचारों पर परदा
डाला जाता था तो
आज उन्हें भगवा
रंग में रंगने
की व्यवस्थित कोशिश
चल रही है ।
यही माहौल राजेश
कुमार के इस नाटक
को महत्वपूर्ण बना
देता है । देश
की सरकार ने देशभक्ति के नाम पर देश
के अधिकांश लोगों
को कठघरे में
खड़ा कर रखा
है । ऐसे
में स्वाधीनता आंदोलन
के दौरान क्रांतिकारियों
की देशभक्ति की समझ
को उभारना जरूरी
काम बन जाता
है ।
यह नाटक पहले ‘अंतिम युद्ध’ के नाम
से लिखा गया
था । इसी
नाम से अभिनीत
हुआ और सुधीर
विद्यार्थी के संपादन
में निकलने वाली ‘संदर्श’
नामक पत्रिका में
प्रकाशित भी हुआ
था । कहने
की जरूरत नहीं
कि स्वतंत्र भारत
की सत्ता को प्रिय न होने के बावजूद भारत के स्वाधीनता
संग्राम का यह सेनानी शायद सबसे प्रसिद्ध
नायक है । शुरू
में उनकी छवि
बलिदानी मासूम नौजवान
की बनी या सचेत
रूप से बनाई
गई । जैसे
जैसे समय बीतता
गया वे स्वाधीनता
आंदोलन में कांग्रेसी
समझौतावादी कार्यनीति के विरोध में जारी क्रांतिकारी
धारा के प्रतीक
के बतौर उभरते
गए । इस दौरान उनके राजनीतिक व्यवहार
पर अधिक ध्यान
दिया गया । बहुत
बाद में उनकी
समझदारी के प्रमाण
के रूप में
उनके लेखन के गम्भीर विश्लेषण के प्रयास शुरू हुए । इससे
न केवल उनके
लेखन में मौजूद
गहन समाजवादी तत्व
उजागर हुए बल्कि
स्वाधीनता संग्राम की क्रांतिकारी धारा को नई जमीन
देने में उनके
योगदान को भी पहचाना और सराहा जाने
लगा । हम सभी
जानते हैं कि शुरुआत के क्रांतिकारियों के चिंतन और आचरण में
धार्मिक पहलू मुखर
थे । भगत
सिंह ने उसमें
आधुनिक समाजवादी रंग
भरा ।
इन सबके चलते
सिनेमा और तस्वीरों
के लिए वे सबसे
पसंदीदा चरित्र के रूप
में उभरे । बहुत
दिनों तक संसद
में उनकी तस्वीर
लगाने के लिए
अभियान चला जिसके
चलते लगी भी ।
जब नहीं लगी
थी तब भी देश
भर में ट्रक
चालकों के लिए
उनकी तस्वीर कठिन
जीवन के सम्मान
का प्रतीक थी ।
उनकी विरासत के राजनीतिक अधिग्रहण के भी
प्रयास हुए लेकिन
तमाम तरह के शासकों के लिए उन्हें
पचाना मुश्किल साबित
हुआ । भगत
सिंह के लेखन
के संग्रह-संपादन और उसके
प्रकाशन के लिए
चमनलाल ने अकेले
अनथक परिश्रम किया
। इसके कारण
भगत सिंह का लिखा
सब कुछ हिंदी
में न केवल
उपलब्ध हुआ बल्कि
व्यापक रूप से पढ़ा
भी गया । बिपन
चंद्र ने भूमिका
लिखकर उनके लेख
नेशनल बुक ट्रस्ट
से अंग्रेजी में
प्रकाशित करवाए । भगत
सिंह के वैचारिक
पक्ष के इसी
उद्घाटन के परिप्रेक्ष्य
में राजेश कुमार
के वर्तमान नाटक
को देखना चाहिए
।
उन पर चले
मुकदमे का दस्तावेजी
विश्लेषण करते हुए
ए जी नूरानी
ने ‘द ट्रायल आफ़ भगत
सिंह’ नामक अद्भुत
किताब लिखी । ए
जी नूरानी की इस
किताब को पढ़ते
हुए कुल चौबीस
साल के उस युवा
की हिम्मत और समझ
का पता चलता
है । जिन
लोगों की गिरफ़्तारी
को अंग्रेजी सरकार
डकैतों की गिरफ़्तारी
बताने में एक हद
तक कामयाब हो गई
थी उन लोगों
ने कुछ ही दिनों बाद ऐसा माहौल
बना दिया कि स्वाधीनता आंदोलन के लगभग
सभी नेताओं को उनके
लिए सोचना पड़ा
। पूरे मुकदमे
में कभी उन्हें
जेल से बाहर
नहीं लाया गया
। जेल के भीतर
से ही मुकदमे
को उन्होंने मंच
की तरह इस्तेमाल
किया । जजों
में एक हिंदुस्तानी
थे । पहली
ही सुनवाई में
वरिष्ठ जज ने भारतीयों के विरोध में
कोई टिप्पणी की ।
भगत सिंह ने हिंदुस्तानी जज महोदय से उनकी
राय पूछी । नतीजतन पहली सुनवाई के बाद
उनके जजों में
केवल गोरे अंग्रेज
रहे । इसके
चलते इस मुकदमे
का नस्ली पहलू
भी उजागर हुआ
। अंग्रेजी शासन
का यही पहलू
साइमन कमीशन के गठन
में भी दिखाई
पड़ता है जिसके
सारे सदस्य गोरे
अंग्रेज थे और इसके
विरोध में लाहौर
में प्रदर्शन इतना
विशाल था कि एक
रिपोर्ट के मुताबिक
उस दिन मानो
पूरा लाहौर नंगे
सिर था ।
भगत सिंह को दो
नारे सबसे अधिक
प्रिय थे- ‘साम्राज्यवाद का नाश
हो’ और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ ।
दूसरे वाले नारे
यानी इंकलाब जिंदाबाद
के शीर्षक से गुरशरण सिंह ने भगत
सिंह के बारे
में एक बेहद
मशहूर नाटक लिखा
था । पहले
वाले नारे यानी
साम्राज्यवाद का नाश
हो के बारे
में थोड़ी बातचीत
जरूरी है । कहना
मुश्किल है कि हमारे देश पर अंग्रेजों
के शासन को उस
समय के कितने
लोग साम्राज्यवाद समझते
थे लेकिन उनकी
संख्या निश्चित ही बहुत
कम रही होगी
। इसका एक कारण
यह भी था कि
यह शब्दावली मार्क्स
के अनुयायियों में
लोकप्रिय हुई और मार्क्स का प्रभाव हमारे
देश के स्वाधीनता
आंदोलन पर कुछ
देर से पड़ा
हालांकि खुद मार्क्स
ने भारत के स्वाधीनता के सवाल में
उत्कट रुचि ली और
1857 के विद्रोह के बारे
में लगातार लेख
लिखे । प्रथम
विश्व युद्ध के दौरान विभिन्न पश्चिमी
ताकतों ने एक दूसरे के सैनिकों का खून
बहाया । उसके
बाद साम्राज्यवाद के प्रति दुनिया भर में
हिकारत फैली । इसका
नेतृत्व रूसी समाजवादी
क्रांति के नायक
लेनिन ने किया
जिनकी जीवनी भगत
सिंह फांसी लगाए
जाने से पहले
पढ़ रहे थे ।
लेनिन ने मजदूरों
के क्रांतिकारी आंदोलन
और उपनिवेशों के मुक्ति संघर्षों की एकता
की वकालत की और
साम्राज्यवाद को शिकस्त देने के लिए
इस रणनीति को सबसे
कारगर माना । इसके
कारण उपनिवेशों के मुक्ति संघर्षों में
मार्क्सवाद के लिए
उत्सुकता का जन्म
हुआ । इस उत्सुकता से उत्पन्न संवाद
की सबसे महत्वपूर्ण
उपलब्धि भगत सिंह
थे ।
असल में हमारे
देश के स्वाधीनता
संग्राम में 1920 का असहयोग आंदोलन जनता
की भागेदारी के लिहाज से सबसे बड़ी
गोलबंदी था । उस
आंदोलन को गांधी
जी ने जिस
तरह अचानक वापस
लिया उससे कांग्रेस
के लोग भी संतुष्ट नहीं थे । व्यापक जन समुदाय को ठगे
जाने का अनुभव
हुआ और लड़ने
के लिए तैयार
उस जनता की कुंठा सांप्रदायिक झगड़ों
के रूप में
फूट पड़ी । उसके
बाद राजनीतिक स्तर
पर कांग्रेस से स्वतंत्र होकर अनेक राजनीतिक
नेताओं और धाराओं
का जन्म हुआ
और उन्हें जनता
में खूब लोकप्रियता
भी मिली । इनमें लोहिया के वैचारिक नेतृत्व में
उत्पन्न समाजवादियों की धारा
और बाबा साहब
के वैचारिक नेतृत्व
में उपजी धाराओं
की गिनती मुख्य
रूप से होती
है । इनके
साथ ही सशस्त्र
क्रांतिकारियों की धारा
का भी जिक्र
जरूरी है क्योंकि
भगत सिंह का रिश्ता इसी धारा से था
। भगत सिंह
का स्वाधीनता आंदोलन
की मुख्य धारा
के साथ रिश्ता
जटिल किस्म का था
। उन्होंने अपनी
वैचारिक यात्रा की शुरुआत पंजाब के प्रमुख कांग्रेसी नेता
लाला लाजपत राय
की आलोचना से की
थी लेकिन उनको
फांसी हुई लाजपत
राय पर लाठी
बरसाकर उनकी जान
लेने के दोषी
सांडर्स की जान
लेने के आरोप
में । नाटक
में भगत सिंह
के वैचारिक उभार
का आरम्भ साइमन
कमीशन के विरोध
में आयोजित उसी
जुलूस से होता
है जिसमें लाला
जी को लाठी
पड़ी थी । स्पष्ट है कि वे लाजपत राय की राजनीति
के विरोध में
थे । इस राजनीति में समझौता परस्ती
और हिंदू संप्रदायवाद
के साथ हेल
मेल की प्रवृत्ति
थी ।
इस सवाल पर थोड़ा
ठहरकर विचार करने
की जरूरत है ।
औपनिवेशिक समय देश
में सांप्रदायिक गोलबंदी
के लिए भी मशहूर है । यहां
तक कि उसी
समय हमारे देश
में इटली में
उत्पन्न फ़ासीवाद से प्रभावित धारा का भी उदय
हुआ था जो हिंदू सांप्रदायिकता को उभारकर स्वाधीनता आंदोलन
को कमजोर कर रही
थी । इस धारा
में हिंदू समाज
में व्याप्त जातिवाद
के प्रति भी लगाव
देखा जाता था ।
अनायास नहीं कि भगत
सिंह सांप्रदायिकता के साथ
ही जाति प्रथा
के भी कट्टर
विरोधी थे । असल
में ब्रिटिश औपनिवेशिक
शासन की समाप्ति
के बाद बनने
वाले भारत के सिलसिले में यही बुनियादी
लड़ाई थी । एक
नजरिया आगामी भारत
को अतीत के पुनरुत्थान के बतौर कल्पित
कर रहा था ।
उसके विरोध में
भगत सिंह आगामी
भारत को मेहनतकशों
की आजादी और बराबरी पर आधारित देखना
चाहते थे । कांग्रेस से उनका विरोध
इसी विंदु पर था
कि वह इस मामले में सुसंगत रुख
नहीं अपनाती है ।
जिन कानूनों के विरोध में उन्होंने बम फेंके थे उनमें से एक
मजदूरों के अधिकारों
को समाप्त करने
के उद्देश्य से लाया
जा रहा था ।
दूसरा ऐसा कानून
था जो नागरिक
सुरक्षा के नाम
पर आम लोकतांत्रिक
अधिकारों पर बंदिश
लगाने वाला था ।
विरोध के लिए
इनका चुनाव ही भगत
सिंह की वैचारिक
प्रतिबद्धता को जाहिर
करने के लिए
काफी है । दक्षिण भारत में पेरियार
ने यदि भगत
सिंह की सजा
के विरोध में
कलम उठाई तो उसका
कारण यही था कि
वे भगत सिंह
के आंदोलन में
निहित सामाजिक बदलाव
की ऊर्जा को पहचान रहे थे । प्रचंड उपनिवेशवाद विरोध
के साथ ही सामाजिक बदलाव का यही
एजेंडा उन्हें साम्राज्यवाद
के साथ सामंतवाद
के भी विरोध
का लड़ाकू सिपाही
बना देता है ।
इसी एजेंडे ने स्वाधीनता आंदोलन के भीतर
मजबूत वाम अंतर्वस्तु
को जन्म दिया
था जिसे मटियामेट
करने की जल्दबाजी
सत्ता पर काबिज
लोगों को बनी
रही । इस काम
में वे भगत
सिंह की तस्वीर
का भी इस्तेमाल
करते रहते हैं
। राजेश कुमार
का प्रस्तुत नाटक
असल में भगत
सिंह के इसी
किस्म के दोहन
के विरोध में
उनके वैचारिक लेखन
को उसके सही
परिप्रेक्ष्य में
रखने की कोशिश
करता है । इस
नाटक की प्रासंगिकता
वर्तमान समय में
बहुत बढ़ गई है
क्योंकि देश के फिर
से उपनिवेशीकरण के साथ
साथ मेहनतकश जनता
के अधिकारों का दमन
और जाति आधारित
ऊँच नीच की वापसी तथा धार्मिक आधार
पर लोगों को बाँटने की कोशिश भी अपने
चरम पर है ।
स्वाधीनता आंदोलन की ऊर्जा का यह क्षरण
एक दिन में
नहीं हुआ बल्कि
आहिस्ता आहिस्ता उसे
कुंद और नष्ट
किया गया ।
आजादी के बाद
सत्ता कांग्रेस के नेतृत्व में चलनेवाली धारा
को मिली । लोहिया के नेतृत्व वाली
धारा को भी समय
समय पर केंद्र
या विभिन्न प्रांतों
में सत्ता प्राप्त
होती रही । बाबा
साहब के नेतृत्व
में स्थापित धारा
के वारिस भी देर
से ही सही
उत्तर प्रदेश में
शासन में रहे
। आजादी के बाद
बनी व्यवस्था के लिए
भगत सिंह वाली
धारा को समायोजित
करना संभव नहीं
हुआ । असल
में जो व्यवस्था
कायम हुई उसमें
संसद के भीतर
विपक्ष को भी समाहित कर लिया गया
। और प्रतीकात्मक
तौर पर भी कहें
तो भगत सिंह
संसद में बम फेंकने के लिए जाने
जाते हैं । आश्चर्य नहीं कि राजेश
कुमार का यह नाटक
संसद में बम फेंकने के उसी साहसिक
कृत्य की पुनर्रचना
के साथ शुरू
होता है । न
केवल भगत सिंह
के इस साहसिक
कृत्य बल्कि उसके
साथ जुड़े नारों
और बयानों को एक
पात्र आज दोहराता
है । इस दृश्य से राजेश कुमार
भगत सिंह के कार्यभार की निरंतरता पर जोर
देना चाहते हैं
। वह पात्र
शहीदों के सपनों
को पूरा करना
चाहता है । यहीं
से राजेश कुमार
आज के सपनों
और स्वाधीनता आंदोलन
के सपनों की बहस
शुरू करते हैं
। इस बहस
के बीच में
शैलेंद्र का वह मशहूर गीत बजता है जो
आजादी के बाद
के शासन के भगत
सिंह विरोधी चरित्र
पर प्रकाश डालता
है ।
आजादी के बाद
भी तत्कालीन सत्ता
को समाज में
संपूर्ण वैचारिक राजनीतिक
वर्चस्व तुरंत प्राप्त
नहीं हुआ । स्वाधीनता आंदोलन के दौरान वामपंथ की मजबूत उपस्थिति और स्वाधीनता आंदोलन का वाम
अंतर्य लंबे दिनों
तक कायम रहा
। तेलंगाना आंदोलन
तो आजादी से पहले
ही शुरू हो चुका
था । आजादी
मिलने के चार
साल बाद विद्रोहियों
ने अपने हथियार
सौंपे । इसी
तरह नाविक विद्रोह
भी हुआ था जिसके समर्थन में
बंबई के मजदूरों
ने आम हड़ताल
की । सुभाष
चंद्र बोस की आजाद
हिंद फौज के विद्रोहियों पर मुकदमा चला
और उसके विरोध
में बड़ी भारी
गोलबंदी हुई थी ।
इस गोलबंदी में
भी वामपंथी कतारों
की भूमिका महत्वपूर्ण
थी । फिर
भी धीरे धीरे
नवस्थापित सत्ता की पकड़
समाज पर बढ़ती
गई और संसद
के चुनाव तक ही
लोकतंत्र सीमित रह गया
। वास्तविक जीवन
में धारा 144 से शुरू
होकर धारा 120 तक समाज
में स्वतंत्रता को सीमित करने की प्रक्रिया
चलती रही । फिलहाल तो न केवल
भारत में बल्कि
समूची दुनिया में
ही चुनाव आधारित
लोकतंत्र के ही सारहीन होने की सच्चाई
पर चिंता जाहिर
की जा रही
है । रूसी
क्रांति के शताब्दी
वर्ष में इस बात
को याद करना
जरूरी है कि उसके
नेता लेनिन का मानना था कि संसद
केवल मुखौटा भर होती
है, वास्तविक शक्ति
सेना और कार्यपालिका
के पास होती
है । आश्चर्य
नहीं कि लोकतांत्रिक
संस्थाओं के मुकाबले
सेना की प्रतिष्ठा
का अभियान संचालित
किया जा रहा
है ।
लोकतंत्र को दूसरा खतरा धनतंत्र से होता है ।
आधुनिक लोकतंत्र की धारणा
का विकास ही एक ओर सामंती दबदबे से राजनीति को स्वतंत्र रखने के लिए हुआ था तो
दूसरी ओर सार्वभौमिक बालिग मताधिकार का संघर्ष संपत्ति आधारित सीमित मताधिकार के
विरोध में हुआ था । इसीलिए लोकतंत्र की सेहत इन दोनों के विरोध से तय होती है ।
धर्म और जाति का उभार जहां लोकतांत्रिक सबलीकरण के लिए घातक है वहीं निजीकरण के
जरिए धनतंत्र के उभार से भी वह सारहीन होता जाता है । इन सबके चलते सत्ता के
वैकल्पिक केंद्रों का उभार होता है जो धीरे धीरे असली केंद्र बन जाते हैं । भगत
सिंह ने श्रमिकों को अधिकार संपन्न बनाने की जो लड़ाई शुरू की थी वह आज और भी गहन
तथा कठिन चुनौती का सामना कर रही है ।
भगत सिंह ने औपनिवेशिक शासन द्वारा भारत
की जनता को शक्तिहीन बनाने की प्रक्रिया का वर्णन करते
हुए बताया कि 1857 के
बाद आर्म्स ऐक्ट
के जरिए इसकी
शुरुआत की गई थी
। आंबेडकर ने दलित
समुदाय के प्रसंग
में शक्तिहीन बनाए
जाने की इस प्रक्रिया को वर्ण व्यवस्था
से जोड़ा और कहा
कि वर्ण व्यवस्था
ने दलित समुदाय
को ज्ञान और हथियार दोनों से वंचित कर दिया । इन
दोनों ही महान
विचारकों ने अधिकारविहीनता
की प्रक्रिया को जिस
तरह समझा उससे
साफ है कि वे
लोकतंत्र को केवल
मताधिकार में सीमित
नहीं देखते थे, बल्कि वंचित समुदाय
की प्रत्यक्ष भौतिक
सबलता में स्थित
समझते थे । इसकी
बात कौन करे
अब तो भोजन, वस्त्र और विचार तक की
आजादी पर पाबंदी
कानूनी तौर पर भी
है । राजेश
कुमार ने नाटक
लिखा है और हम
सभी जानते हैं
कि नाटक करने
के लिए पुलिस
की अनुमति आवश्यक
होती है । व्यापक तौर पर कहें
तो राजेश कुमार
का यह नाटक
पाबंदी के विरोध
में स्वतंत्रता, सामाजिक विषमता
के विरोध में
बराबरी और उपनिवेशीकरण
की वर्तमान मुहिम
के विरोध में
वास्तविक लोकतंत्र की प्राप्ति हेतु बहुत पुरानी
पुकार की मजबूत
अनुगूँज है ।
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