इस समय देश में फ़ासिस्ट शासन की मौजूदगी के चलते जीवित लोगों
के लिए खतरा तो है ही लेकिन उससे अधिक बड़ा खतरा हमारी परम्परा के लिए पैदा हो गया है
क्योंकि इस परम्परा को समाप्त किए बिना उसके लिए लोगों को आपस में बांटना, नकली दुश्मन
खड़ा करना, अज्ञान और अंधविश्वास को प्रामाणिकता प्रदान करना तथा
चतुर्दिक अराजक कत्लो-गारत का वातावरण बनाना मुश्किल साबित हो
रहा है । देश के अतीत की इस बहुविध और बहुआयामी समृद्ध परम्परा को विकृत, बदनाम और बरबाद करने का सुनियोजित अभियान वर्तमान फ़ासिस्ट शासन की प्रमुख विशेषता
के बतौर उभरकर सामने आया है ।
बहुत शुरू में ही अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में इस धरती, इस पर
रहने वाले विभिन्न लोगों और उनकी विविध भाषाओं का प्रसन्न अभिनन्दन किया गया है । इस
सोच में निहित विविधता के साथ इहलौकिक यथार्थ की स्वीकृति ही आगे चलकर भारतीय दर्शन
की समृद्ध भौतिकवादी परम्परा के रूप में प्रकट हुई । भारतीय दर्शन में कम से कम छह
धाराएं मौजूद रही हैं और इनमें से कई अनीश्वरवादी भी रही हैं । यदि कुछ लोग साकार ईश्वर
के उपासक रहे तो बहुतेरे लोग निराकार के भी पुजारी रहे हैं । इससे भी आगे बढ़कर मानव
शरीर को ही देवस्थान मानने की परम्परा भी हमारे देश में न केवल मौजूद रही बल्कि फली
फूली और योग दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित हुई । इस देश ने हिंदू, बौद्ध और जैन तथा सिक्ख धर्म जैसे एकाधिक धर्मों को जन्म दिया, उनके भीतर के भांति भांति के सम्प्रदायों को बनाए रखा और बाहर से आनेवाले प्रत्येक
धर्म का दिल खोलकर स्वागत किया । इसके परिणामस्वरूप तंत्र विद्या से लेकर ध्यान तक
और मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे से लेकर चर्च
तक फैला हुआ धार्मिक आचार का व्यापक फलक किसी भी पर्यवेक्षक को सचमुच अचम्भे में डाल
देता है । धर्मों के मामले में हमारे देश की सृजन क्षमता बाद तक जारी रही और इस
क्रम में ब्राम्ह समाज से लेकर आर्य समाज तक तमाम किस्म के नए रूप सामने आए । इन सबने
मिलकर इस देश को ऐसी विविधवर्णी रंगत प्रदान की है जिसे मिटाकर भाजपा का ‘एक धर्म- एक ग्रंथ’ का सपना पूरा
होना मुश्किल है । फ़ासिस्ट सोच भारतीय संस्कृति की इस खूबसूरत विविधता को समाप्त करके
उसे हिंदुत्ववादी रंग में रंगना चाहती है और इसके लिए मुख्य धारा से भिन्न किसी भी
आचार को खतरा मानकर उसके विरुद्ध हमला करने पर उतारू है । उसने हिंदू धर्म के जिस रूप
को अपने राजनीतिक स्वार्थ के चलते प्रश्रय और प्रोत्साहन दिया है उसमें राजनीतिक प्रदूषण
तो है ही सत्ता का सहारा लेकर ऐसे लोग धर्म का झंडा उठाए घूम रहे हैं जो किसी भी अर्थ
में धार्मिक न होकर शुद्ध रूप से व्यावसायिक हित साध रहे हैं । धीरे धीरे धार्मिक समुदाय
में भी धर्म के इस स्वरूप का विरोध शुरू हुआ है ।
सांस्कृतिक मोर्चे पर भाजपा भले ही संस्कृत की वापसी की वकालत
करती हो लेकिन वह इस भाषा में निहित रचनात्मक विस्तार को मटियामेट करके उसे ब्राह्मणवाद
के हथियार में बदल देना चाहती है । आयुर्वेद से लेकर नाट्यशास्त्र और कामसूत्र तक संस्कृत
भाषा में रचित ज्ञान इस देश में प्रवाहमान भौतिकवादी विचारधारा की उपस्थिति का प्रमाण
प्रस्तुत करता है । खास बात यह है कि भाजपा भारतीय इतिहास के जिस कालखंड को उपनिवेशवादी
चिंतकों की तरह मध्ययुग और मुस्लिम शासन मानकर तिरस्कार की नजर से देखती है उसी समय
भक्ति आंदोलन चला जिसमें हमारे देश की लगभग सभी भाषाओं और लगभग सभी क्षेत्रों में न
केवल महान साहित्य की रचना हुई बल्कि बौद्ध धर्म के उत्थान के बाद जातिवाद के विरुद्ध
सबसे प्रबल आवाज उठी । उस आंदोलन ने धर्म और ईश्वर को सहज लौकिक स्वरूप प्रदान किया, हिंदू
धर्म-समाज में व्याप्त जातिप्रथा के विरोध के लिए उसका उपयोग
किया और सबसे आगे बढ़कर भारत की विभिन्न जातीयताओं के गठन का मार्ग प्रशस्त किया । गुजरात के नरसी मेहता से लेकर असम में शंकरदेव
तक ने धर्म से ऊपर उठकर मानव समानता पर आधारित जातीय भावना पैदा करने में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई । लगभग सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं की जड़ें इसी आंदोलन के दौरान
रचे साहित्य में हैं । सांप्रदायिक ताकतें इस आधार पर बनी जनता की एकता को धार्मिक
विभाजन के सहारे तोड़कर जातिगत ऊंच नीच की व्यवस्था को कायम करना चाहती हैं । यह समय
न केवल जातीयताओं और भाषाओं के गठन के लिहाज से बल्कि स्थापत्य, संगीत, गायन और चित्रकला के लिहाज से भी रचनात्मक विस्फोट
का समय था । तुलसीदास, ताजमहल, तानसेन,
तबला, सितार, खयाल गायकी,
मुगल चित्रकारी आदि इसी समय की उपलब्धियां हैं । इनमें भी तुलसीदास ने राम की बहुत पुरानी लोककथा को न केवल
जनसामान्य की भाषा में प्रस्तुत करके लोकप्रिय बनाया बल्कि उस कथा में राम के
देवत्व के मुकाबले उनका मनुष्यत्व प्रतिष्ठित किया और प्रजावत्सल शासक का आदर्श
रचने की चेष्टा की । उनकी कथा में अयोध्या के राज्य के मुकाबले जंगल जंगल घूमने
वाले और केवट से लेकर शबरी तक से प्रेम करने वाले राम की छवि अधिक आकर्षक तरीके से
उकेरी गई है । विषमता विरोधी रामराज्य का यूटोपिया उनके समय के समाज की आलोचना का
प्रमाण प्रतीत होता है ।
इसी समय ने भारत में सिक्ख धर्म को जन्म दिया । इस धर्म में
गुरु के रूप में जिस गुरु ग्रंथ साहिब का संकलन किया गया उसमें लगभग समूचे उत्तर भारत
के संतों की वाणियों का संग्रह करके व्यापक एकता स्थापित करने की कोशिश की गई । गुरू
नानक देव ने ‘कौन भला को मंदा’ कहकर ऊंच नीच से परे व्यापक
एकता का संदेश दिया । दुखी के लिए लड़ने को व्यक्ति का कर्तव्य बताकर उन्होंने धर्म
का नया आयाम उद्घाटित करने की चेष्टा की । सांप्रदायिक सौहार्द की स्थापना के लिहाज
से गुरु रामदास ने अमृतसर की स्थापना एक मुस्लिम धर्मावलंबी के हाथों करवाई । गुरु
गोविंद सिंह ने अपने पंज पियारों को पांच भिन्न जगहों और जातियों से चुनकर बुनियादी
मानव समानता का संदेश दिया । इसी तरह का प्रयास हमें चैतन्य महाप्रभु के प्रसंग में
दिखाई पड़ता है जिनके प्रमुख शिष्यों में मुसलमान भी थे । समूचे भक्ति आंदोलन की यह
विशेषता है कि समाज के लगभग सभी वंचित समुदायों का स्वर साहित्य में सुनाई पड़ा ।
स्त्रियों में आंडाल और अक्क महादेवी से लेकर मीराबाई तक तथा वंचित समुदाय से आने वाले
ढेर सारे संत दिखाई देते हैं जिनमें रैदास का नाम सबसे महत्वपूर्ण है ।
भक्ति आंदोलन के साथ ही उसका अन्यतम तत्व सूफी दर्शन और साहित्य
जुड़ा हुआ है । इसका प्रसार भी पंजाब से लेकर असम तक रहा । जिस तरह भक्ति, हिंदू धर्म
के भीतर समानता और प्रेम का संदेश लेकर उठी उसी तरह इस्लाम के भीतर सूफी संतों की उस
विराट परम्परा का जन्म हुआ जिसकी मौजूदगी इस्लाम के जन्म के पहले थी । इस्लाम के जन्म
के बाद उससे कभी टकराते और कभी संवाद करते हुए सूफी संतों की इस धारा ने प्रेम का व्यापक
उदार माहौल उपलब्ध कराया । जिसे भारतीय इतिहास का मध्य काल कहा जाता है उसकी सृजनात्मक
उपलब्धियों में इन सूफी विचारकों और कवियों का अमूल्य योगदान रहा । पंजाब के बुल्ले
और वारिस शाह और बनारस के कबीर से लेकर असम के अजान फकीर तक हमारे देश के बड़े भूभाग
के बाशिंदों के मानसिक भूगोल में यह सामासिक संस्कृति समाई हुई है । इसे नष्ट करने
के इरादे से भाजपा लगातार झूठ का सहारा लेकर हमारे इतिहास बोध को विकृत करना चाहती
है ।
इसी व्यापक पृष्ठभूमि ने 1857 के भारतीय स्वाधीनता आंदोलन
को इतना विशाल स्वरूप प्रदान किया । ज्ञातव्य है कि इस संग्राम में वर्दीधारी किसानों
के नेतृत्व में ग्रामीण किसान समुदाय ने धार्मिक भेदभाव और संकीर्णता से ऊपर उठकर चर्बी
लगे कारतूसों से अंग्रेजी राज से इतना जबर्दस्त लोहा लिया कि एकबारगी औपनिवेशिक शासन
उखड़ ही गया । आश्चर्य नहीं कि इस विद्रोह ने मार्क्स का भी ध्यान आकर्षित किया था
। विद्रोही सिपाहियों ने, जिनमें अधिकांश हिंदू थे, देश की आजादी के प्रतीक के बतौर बहादुर शाह जफ़र को अपना बादशाह घोषित किया
क्योंकि उनकी चेतना में सभी देशवासी हिंदुस्तानी थे । इसकी अभिव्यक्ति विद्रोह के नेता
अजीमुल्ला खान के प्रसिद्ध गीत के जरिए भी हुई थी । झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का तोपची
एक मुसलमान था । हैदर अली और टीपू सुल्तान ने इसी परम्परा को आगे बढ़ाया था और इसीलिए
टीपू के विरोध की भाजपाई कोशिश उसके स्वाधीनता संग्राम की समूची धारा से गद्दारी का
ज्वलंत प्रमाण है । यह भी ध्यान देने की बात है कि जिस तरह आज भाजपा स्वाधीनता आंदोलन
की भावना के विपरीत साम्राज्यवाद के साथ सहयोग का रुख अपनाए हुए है उसी तरह
1857 के संग्राम के दौरान ज्यादातर रजवाड़ों ने अंग्रेजी शासन का साथ
दिया था ।
उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के जागरण ने हमारे देश को इस सामासिक
विरासत के साथ वैज्ञानिकता और आधुनिकता की राह पर बढ़ाने में मदद की । इस जागरण का
वितान भी बहुत व्यापक था । धर्म सुधार और समाज सुधार से लेकर राजनीतिक आंदोलन तक
का समूचा आलोड़न सचमुच हमारे देश को नए युग में लेकर आया । इसी क्रम में पेरियार के
अनीश्वरवाद से लेकर विवेकानन्द के वेदांत तक तमाम मनीषियों के विचारों ने इस देश का
बौद्धिक इंद्रधनुषी वातावरण तैयार किया । इसी समय हमने ऐसे राजनीतिक नेताओं को भी
देखा जिनकी दृष्टि अतीत के निर्मम विश्लेषण से लेकर भविष्य की सम्भावना तक को
खंगाल रही थी । इनमें से सभी नेताओं का समूचे देश के साथ अपने क्षेत्र और समुदाय
पर भी गहरा प्रभाव था । महादेव गोविंद रानाडे, राजा राम मोहन राय और रवींग्रनाथ
ठाकुर जैसे लोगों ने सामाजिक सुधार के साथ स्वाधीनता की आकांक्षा को जोड़ा । स्वयं महात्मा
गांधी ने देश की एकता को स्वाधीनता की लड़ाई की उपज माना और तमाम सीमाओं के बावजूद
हिंदू-मुस्लिम एकता को बनाए रखा । ज्योतिबा फुले और आंबेडकर ने स्वाधीनता को दलित
समुदाय तक विस्तारित करने का क्रांतिकारी एजेंडा पेश किया । इसी माहौल का एक रूप हमें
उन आदिवासी आंदोलनों में भी दिखाई देता है जिनमें समुदाय के भीतर के सुधार और औपनिवेशिक
सत्ता का प्रतिरोध आपस में जुड़े हुए थे । यही विरासत उन समूहों के वर्तमान हिंदूकरण
के अभियान के बरक्स उन्हें सुसंगत साम्राज्यवाद विरोधी और सच्चे लोकतांत्रिक भारत के
निर्माण के संघर्ष में उनकी ठोस भागीदारी सुनिश्चित कराने की जमीन मुहैया कराती है
। यही समय देश में ऐसे स्त्री चिंतकों का भी है जिन्होंने परिवार के लोकतंत्रीकरण से
लेकर स्त्री समुदाय की वृहत्तर सामाजिक भूमिका की दावेदारी की । 1857 की
जुझारू स्त्री योद्धाओं की परंपरा में सावित्री बाई फुले, पंडिता
रमाबाई और महादेवी वर्मा ने आधुनिक स्त्री जागरण के विविध वैचारिक तथा व्यावहारिक आयाम
पेश किए । इस जागरण का ही एक आयाम हमें आजाद हिंद फौज में गठित लक्ष्मीबाई ब्रिगेड
में भी नजर आता है जब पहली बार स्त्रियों को लड़ाकू दस्ते में शरीक किया गया । इस समय
ने मुस्लिम समुदाय में अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ के साथ प्रचंड राष्ट्रवाद की भावना से
लबरेज मौलाना अबुल कलाम आजाद से लेकर मजदूरों-किसानों का भारत
बनाने का सपना देखने वाले मक़दूम मोइनुद्दीन तक के उभार को देखा । इसी दौर के
जुझारू नेता तिलक को मिली कालेपानी की सजा के विरोध में बम्बई में आयोजित मजदूरों
की हड़ताल ने लेनिन का ध्यान खींचा था ।
इस आलोड़न के साथ ही जनता द्वारा औपनिवेशिक शासन के प्रतिरोध
की धारा भी प्रवाहमान रही । राजनीतिक प्रतिरोध की धारा के साथ कभी अंत:क्रिया करते
हुए तो कभी उससे स्वतंत्र होकर देश में किसानों, मजदूरों और आदिवासियों के तीखे
आंदोलन और संघर्ष हमेशा चलते रहे और इसके कारण अंग्रेज शासक कभी चैन से नहीं बैठ
सके । झारखंड, बंगाल, पंजाब, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे क्षेत्रों में
लगातार विद्रोह की आंच सुलगती रही । इन आंदोलनों ने स्वाधीनता आंदोलन की राजनीतिक
धारा को बहुतेरा किसानों, मजदूरों और आदिवासियों के सवाल उठाने के लिए बाध्य किया और
हमारे देश के राजनीतिक भविष्य को एक खास
स्वरूप दिया । इन्हीं आंदोलनों के चलते हमारे स्वाधीनता आंदोलन में कुछ हद तक वाम
और लोकतांत्रिक अंतर्य पैदा हो सका । ये आंदोलन दमन की अति के कारण बहुतेरा हिंसक
रूप भी ले लेते थे । हमारे देश की उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष चेतना के शुरू में
जहां देशभक्ति से सराबोर हथियारबंद संघर्ष की धारा का प्राधान्य था वहीं उसके भीतर
परिपक्वता बढ़ने के बाद समाजवाद की ओर झुकाव स्पष्ट होने लगता है । इस प्रक्रिया
में बीच की कड़ी के बतौर गदर पार्टी और करतार सिंह सराभा तथा सोहन सिंह भाकना जैसे
उसके नेताओं को भूलना असंभव है जिन्होंने 1857 की धार्मिक समावेशी परंपरा को उग्र
उपनिवेशवाद विरोध के साथ जोड़ने की कोशिश की । इसी माहौल ने हमें स्वामी सहजानंद सरस्वती
जैसा विशेष किसान नेता दिया जो संन्यासी होने के साथ ही गीता का जबर्दस्त भाष्यकार
और वामपंथी आंदोलन का अगुआ भी था । गोदावरी पारुलेकर और अरुणा आसफ़ अली मानो इसी व्यापक
वाम उभार की क्रमश: ग्रामीण और शहरी स्त्री प्रतिध्वनि थीं । स्वाधीनता आंदोलन के
साथ वाम चेतना के इसी सहमेल ने हमारे देश में समाजवादी आंदोलन और चिंतन की
एक विशेष धारा को जन्म दिया जिसके अग्रणी नेताओं में नरेंद्रदेव और लोहिया सबसे महत्वपूर्ण
थे । देश की आजादी की लड़ाई के भीतर किसानों के सवाल को प्रमुखता प्रदान करने के उद्देश्य
से इस धारा का जन्म हुआ था । इस काम को दो धरातलों पर उठाने की कोशिश इसके नेताओं ने
की । एक तो खेतिहर समुदाय की लोकप्रिय आकांक्षा के रूप में जमींदारी के विनाश की आवाज
उठाई गई । दूसरी ओर इन समुदायों में पिछड़ी जातियों की बहुलता के चलते समाज सुधार का
ब्राह्मणवाद विरोधी तेवर भी इस आंदोलन की खास पहचान बनकर सामने आया । देश की आजादी
के लिए चले दीर्घकालीन संघर्ष की स्वाभाविक विरासत वामपंथी धारा को हासिल हुई ।
इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश करने के तमाम प्रतिक्रियावादी प्रयास देश की आजादी के इस
आंदोलन में कम्युनिस्टों के योगदान को मिटा नहीं सकते ।
इन्हीं आंदोलनों और लेनिन के नेतृत्व में गठित तीसरे
इंटरनेशनल की उपनिवेशवाद विरोधी नीतियों के चलते हमारे देश के स्वाधीनता आंदोलन
में सहज ही वाम झुकाव पैदा हुआ । इस वाम झुकाव के भीतर भी जवाहर लाल नेहरू और
सुभाष चंद्र बोस से लेकर भगत सिंह तक व्यापक और बहुआयामी वैचारिक रुझान नजर आते
हैं । विशेष रूप से भगत सिंह के तीव्र वैचारिक विकास में हमें मार्क्सवाद को देश
की परिस्थितियों के साथ रचनात्मक रूप से जोड़कर स्वाधीनता आंदोलन को समाजवाद की
दिशा में मोड़ने का गंभीर प्रयास दिखाई देता है । सांप्रदायिकता और सामाजिक
रूपांतरण के सवालों को भी उन्होंने अपने लेखन में जिस तरीके से उठाया और प्रस्तुत
किया वह हमारे लिए बहुत ही मूल्यवान विरासत है ।
इसी झुकाव और दबाव के चलते राजनीतिक स्वाधीनता के बाद
निर्मित संस्थाओं और ढांचों में कुछ हद तक प्रगतिशील, वैज्ञानिक और जन पक्षधर तत्व
मौजूद रहे । बेहद सीमित मताधिकार के साथ निर्वाचित होते हुए भी संविधान सभा को
हमारे देश को धर्म निरपेक्ष देश के रूप में परिभाषित करना पड़ा । संविधान सभा की
मसौदा समिति के अध्यक्ष के बतौर आंबेडकर ने भरसक लोकतांत्रिक मूल्यों को संविधान
में जगह देने की कोशिश की और समता, स्वतंत्रता तथा भाईचारे के नारे को कानूनी जामा
पहनाने का सच्चा प्रयास किया । फिर भी उन्हें समाज के अलोकतांत्रिक स्वरूप और
संविधान में निहित लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच के टकराव का अंदेशा था जिसका स्पष्ट
उल्लेख उन्होंने देश को संविधान समर्पित करते हुए अपने भाषण में किया । उन्होंने हिंदू
राष्ट्र के गठन की संभावना में देश का विनाश देखा और इसके खतरे के बारे में
देशवासियों को आगाह किया ।
हमारे देश की दीर्घ परंपरा और स्वाधीनता आंदोलन के आलोड़न का
प्रभाव न केवल उपर्युक्त सांस्थानिक ढांचे में प्रकट हुआ बल्कि 1946 से
लेकर 1951 तक के राजनीतिक जीवन में निरंतर उपस्थित रहा । तेलंगाना
विद्रोह और नाविक विद्रोह स्वाधीनता के आगे पीछे बुनियादी सामाजिक बदलाव पर आधारित
मूलगामी स्वाधीनता की संभावना उजागर करते हैं । आश्चर्य नहीं कि आजाद हिंद फौज के सेनानियों-
सहगल, ढिल्लों और शाहनवाज- पर चले मुकदमे के विरोध में हुई गोलबंदी ने नेहरू तक को वकालत का गाउन दुबारा
पहनने के लिए मजबूर कर दिया था । इस व्यापक गोलबंदी ने मानो अशफ़ाक़ और बिस्मिल की साझा
विरासत की याद ताजा कर दी । इसी प्रसंग में काश्मीर और मणिपुर में शेख अब्दुल्ला तथा
इराबट सिंह के नेतृत्व में संचालित बदलाव हमारे लिए भाजपाई एकात्मता के मुकाबले सच्ची
संघीयता निर्मित करने की कोशिश के लिए एक प्रारूप मुहैया कराते हैं ।
आज हम कम्युनिस्टों पर इस बात की जिम्मेदारी आ पड़ी है कि देश
के इस गौरवशाली अतीत की समस्त सकारात्मक विरासत को आयत्त करते हुए प्रचुर
प्राकृतिक संसाधनों और उपजाऊ जलवायु तथा दीर्घकालीन वैज्ञानिक पांडित्य वाले इस
विराट देश को समाजवादी संकल्प के साथ नई सदी में आगे ले चलें । इस यात्रा में हमें
समयानुकूल परिवर्तनशील सामाजिक चेतना के विकासमान इतिहास से सदैव प्रेरणा मिलती
रहेगी । इसके लिए हमें अतीत की इस समृद्ध विरासत के आधार पर उसके समस्त सकारात्मक तत्वों
को समाहित करते हुए जनता के भारत के ऐसे सपने का ताना बाना बुनना होगा जिसमें गांधी
की हिंदू-मुस्लिम एकता, भारत को एशियाई उपनिवेशवाद
विरोधी जागरण का अंग बनाने के नेहरू और लोहिया के प्रयासों, फुले-आंबेडकर और पेरियार के सामाजिक समता पर आधारित लोकतांत्रिक राजनीति को भविष्य
में मुकम्मल धर्मनिरपेक्ष संघीय समाजवादी राष्ट्र और समाज बनाने के कार्यभार के साथ
गूंथा जा सके ।
इस कार्य में हमें उन ताकतों से डटकर लोहा लेना होगा
जिन्होंने कभी देश के लिए कोई कुर्बानी नहीं दी । वे तो देश की जनता को सभी सम्भव
तरीकों से आपस में केवल बांट देना चाहते हैं ताकि मुट्ठी भर लोग इस देश को अनंत
काल तक निरंतर अबाध लूटते रह सकें । सत्तर साल पहले धर्म के नाम पर इस देश की जनता
ने जो मानसिक भौगोलिक विभाजन झेला था उसके घाव अब तक सूखे नहीं हैं । अब और विभाजन
हमें कमजोर और वेध्य बनाएगा । हमारा विश्वास है कि जिस देश की जनता ने आपस में
व्यापकतम चट्टानी एका कायम करके दुनिया के सबसे ताकतवर साम्राज्य से लोहा लिया और
उसे धूल चटा दी वह इस एकता में दरार नहीं पड़ने देगी और वर्तमान हमले का भी बहादुरी
से मुकाबला करते हुए मानव गरिमा से सम्पन्न समतामूलक लोकतांत्रिक स्वतंत्रता को
अपने लिए अर्जित करेगी और समाज तथा राजनीति में विषमता को स्थापित करने की इस ताजा
कोशिश को मटियामेट कर देगी । इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए सभी तरह के प्रयास
करने हेतु हम संकल्पबद्ध और समर्पित हैं ।
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