दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की हवा में राजनीति
थी लेकिन हिंदी के अध्यापकों की तर्ज पर विद्यार्थी भी इसमें कम ही सक्रिय रहते थे
। नामवर सिंह की कक्षा चल रही थी और बाहर छात्र संघ के आवाहन पर नारे लगाता जुलूस
गुजरा तो उन्होंने धूमिल की कविता सुनाई कि यह विरोध काँख भी ढँकी रहे, मुट्ठी भी
तनी रहे वाला है । उस समय हिंदी के विद्यार्थी मतदान करते थे, चुनाव
में खड़ा नहीं होते थे । अध्यापक भी स्वाभिमानी विद्यार्थी पसंद नहीं करते थे ।
जिन्हें अध्यापकों की निकटता की कामना होती वे सक्रिय राजनीति से दूर रहते थे । पूरे
विश्वविद्यालय में केवल हिंदी के विद्यार्थी अध्यापकों का पांव छूते थे । यह भी एक
सचाई है कि समूचे हिंदी जगत में जिस संस्कृति का बोलबाला था उसका प्रतिपक्ष रचने में
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के हिंदी के अध्यापक कामयाब नहीं हुए थे । स्वाभाविक
था कि ऐसी स्थिति में विद्रोही किस्म के विद्यार्थियों का दम घुटता था । लीलवान भी
ऐसे विद्यार्थियों में से थे इसलिए कक्षाओं में उनकी मौजूदगी थोड़ी कम ही रहती थी ।
जुलाई में प्रवेश के कुछ ही महीने बाद जब अक्टूबर में चुनाव
की घोषणा हुई तो हिंदी के विद्यार्थी जयप्रकाश लीलवान का नाम संयुक्त सचिव पद के
प्रत्याशी के बतौर देखकर खुशी हुई । वे इन्साफ नामक एक नए संगठन की ओर से चुनाव लड़
रहे थे । इस संगठन के बारे में जानने से उनकी आगामी भूमिका को समझने में आसानी होगी
। वह साल पारंपरिक वाम छात्र संगठन एस एफ़ आई से लोकप्रिय विक्षोभ का साल था । ऊपरी
तौर पर इसकी वजह चीन में तियेन-आन-मेन की घटना नजर आती
थी लेकिन इसके मूल में माकपा की पिछलग्गूपन की राजनीति थी । बहरहाल उसका एक प्रतिपक्ष
फ़्री थिंकरों और कुछ अराजक नक्सल गुटों के अवसरवादी संश्रय के रूप में सामने आया ।
इसके मुकाबले इन्साफ ज्यादा वाम समर्थक समूह था । इस संगठन से चुनाव लड़ने का फैसला
लीलवान ने सचेत रूप से किया था । उनके इस फैसले की प्रतिध्वनि बाद के जीवन में
लिखित साहित्य से मिलती है ।
चुनाव में जीत तो उपर्युक्त अवसरवादी संश्रय की हुई लेकिन उसके
बाद एकाधिक सवाल सामने आए जिसमें विभिन्न समूहों के पक्ष की कड़ी परीक्षा हुई । अध्यापन
के लिए होने वाले साक्षात्कार हेतु यू जी सी की नेट परीक्षा अनिवार्य कर दी गई । इस
पर रुख तय करने के लिए विद्यार्थियों की आम सभा हुई । विभिन्न संगठनों के लिए यह संकट
की घड़ी थी । प्रतिभाशाली विद्यार्थी समूह इसके पक्ष में थे लेकिन उस परीक्षा का स्वरूप
ग्रामीण पृष्ठभूमि के और वंचित विद्यार्थियों के लिए बहिष्कारक था । साथ ही विविधता से भरे
समाज में परीक्षा का एक ही तरीका स्वाभाविक तौर पर कुछ भूभागों के प्रत्याशियों के
लिए लाभकर होता । उस परीक्षा का स्वरूप विषय की जानकारी के मुकाबले सूचना संग्रह की
प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाला था । तब तक विश्वविद्यालय प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल
होने पर खुशी मनाने लगा था । फिर भी पुराना आदर्शवाद कहीं न कहीं बचा हुआ था जो नौकरशाही
की सेवा को ज्ञानार्जन से बेहतर नहीं मानता था । ऐसे में लीलवान और उनके
संगठन ने नेट परीक्षा के विरोध में आवाज उठाई और मतदान किया । आम तौर पर लीलवान
बहुत मुखर नहीं थे लेकिन समझ और पक्ष दोनों उनका स्पष्ट होता और उससे उन्हें डिगाना
कठिन होता ।
इसके कुछ ही दिनों बाद मंडल आयोग को लागू करने की घोषणा हुई
। वह ऐसा समय था जब सचमुच जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की विद्यार्थी राजनीति को बाहरी
दुनिया और समाज के जटिल यथार्थ को नजदीक से देखना पड़ा । छात्र संघ ने इसकी
बौद्धिक आलोचना विकसित करने का अकादमिक रुख अपनाना चाहा लेकिन बात इससे बहुत आगे चली
गई थी । मतदान हुआ जिसमें मंडल आयोग का विरोध करने का फैसला हुआ । तब
तक विश्वविद्यालय कुलीनता के अड्डे ही हुआ करते थे । समाज के मलाईदार सवर्ण समुदाय
की ही पहुंच उच्च शिक्षा केंद्रों तक हुआ करती थी । विद्यार्थियों में मुखर भी यही
समुदाय सबसे अधिक था । सरकार बुर्जुआ थी जिसने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए ही सही
एक बड़ा रणनीतिक दांव खेला था । सभी संगठन विभ्रम की स्थिति में थे । उस समय लीलवान
और उनके संगठन ने मंडल आयोग का समर्थन किया था । थोड़े दिनों बाद उनके संगठन के वरिष्ठ नेता सरकार के मंत्री जार्ज फ़र्नांडिस के करीब जाने लगे ।
लीलवान आखिरकार प्रतिबद्ध वामपंथी थे सो इस प्रक्रिया में सक्रिय राजनीति से दूर होते
गए ।
लीलवान की कविता और राजनीति की यही कुंजी है । पारंपरिक वाम
के विरोध में लेकिन अराजक वामपंथ या अवसरवादी समूह निर्माण के मुकाबले व्यापक वाम के
भीतर वे अपनी कविता और राजनीति में जीवन भर बने रहे । अपनी इसी वैचारिक स्थिति के चलते
वे अस्मितावादियों में मार्क्सवादी और जड़ मार्क्सवादियों में अस्मितावादी समझे जाते
रहे । बहरहाल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ते या चुनाव लड़ते हुए अस्मिता के
मुकाबले उनका मार्क्सवाद ही अधिक मुखर रहा ।
अध्ययन के खत्म होने के बाद मिली नौकरी में अपने आपको गला देना किसी भी रचनात्मक
और प्रतिभाशाली मनुष्य के लिए मुश्किल होता है । कुछ दिनों के असमंजस के बाद लीलवान
ने कविता लिखने का रास्ता अपनाया । आरक्षण पर हुए बवाल के बाद अस्मिता की राजनीति धीरे
धीरे उभर रही थी । दलित लेखकों का एक समूह हिंदी साहित्य की दुनिया में दाखिल होने
की कोशिश कर रहा था । इसके लिए सबसे बड़ी चुनौती साहित्य के बारे में अभिजात नजरिए से
टकराना था । पहले की तरह ही खामोशी के साथ लेकिन दृढ़तापूर्वक लीलवान इन लेखकों के साथ
शामिल हो गए । उनके असमय देहांत ने मेरे लिए एक खामोश समर्थक दोस्त तो छीना ही हिंदी
की साहित्यिक दुनिया में बदलाव लाने के लिए प्रतिबद्ध एक आंदोलन का प्रबल योद्धा भी
हमसे छीन लिया था ।
उनके जीवित रहते बिना बहुत बोले भी एक तरह का संवाद जारी रहता था । उसे और भी गहन
बनाया जा सकता था । इसका दोनों को लाभ मिलता लेकिन कुछ चीजों के सिलसिले में अफसोस
ही उनकी कहानी बनकर रह जाता है । लीलवान के लेखन में उनकी पक्षधरता के साथ गहरी समझ
भी प्रत्यक्ष है ।
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