Friday, January 22, 2016

बेचैन जिंदगी के दस्तावेज

                      
गोरख पांडे का जन्म 1945 में देवरिया जिले के गाँव पंडित का मुंडेरवा में हुआ था । इस लिहाज से अगर वे आज जीवित रहते तो उनकी उम्र सत्तर पार होती । बाइस का होते होते नक्सलबाड़ी की घटना सुनाई पड़ी । पंडितों के घर और गांव के कारण पाखंड रोज के अनुभव का अंग था । स्वभाव विद्रोही पाया था । नक्सलबाड़ी के साथ हो लिए । कविता में उन्होंने मेहनतकश जनता के पक्ष में स्वर उठाया । वे हिंदी में सघन वैचारिक कविता लिखने के लिए हमेशा याद किए जाएंगे । उनकी कविता में विचार तत्व की प्रमुखता के साथ ही जुड़ा हुआ है उनका वैचारिक लेखन । यह लेखन उन्होंने बैठे ठाले नहीं किया था । नौजवानों की एक पूरी पीढ़ी के साथ मिलकर उन्होंने एक वैचारिक संघर्ष चलाया और अपनी बौद्धिक बेचैनी को मकसद की खोज का सही रास्ता दिखाया । हिंदी इलाके के सामंती परिवेश की श्रम विरोधी मूल्य व्यवस्था को उलट देने और पैसे का राज मिटाकर आजादी का सुख हासिल करने की दीर्घकालीन लड़ाई में वैचारिक योग देने के लिए उन्होंने कविता के साथ गद्य में भी जुझारू तेवर अख्तियार किया ।  गोरख और महेश्वर के बीच तुलना करते हुए अवधेश प्रधान कहते थे कि महेश्वर अगर बिजली का नंगा तार थे जिसे कहीं भी छूने से झटका लगता था तो गोरख ढके हुए तार थे जिसकी ताकत का पता बल्ब की रोशनी से चलता था । गोरख की वैचारिकता की गहराई को यह उपमा अच्छी तरह व्याख्यायित करती है ।
गोरख पांडे की इस वैचारिक यात्रा को उनके लेखन से तो समझा ही जा सकता है लेकिन उसका एक बड़ा स्रोत उनके साथियों के संस्मरण भी हैं । इनमें से अधिकतर संस्मरण उनकी आत्महत्या के बाद लिखे गए । इनमें से कई उस समय के हिंदी अखबारों में छपे । इन संस्मरणों के अतिरिक्त एक संस्मरण नेपाल की एमाले (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) पार्टी के नेतृत्व में गठित मदन भंडारी सरकार में शिक्षा मंत्री रहे और नेपाली के प्रख्यात साहित्यकार मोदनाथ प्रश्रित का था । मूल रूप से नेपाली में ‘अब छैनन मेरा प्रिय साथी गोरख पांडे !’ शीर्षक से प्रकाशित इस संस्मरण का बाद में हिंदी अनुवाद हुआ । मोदनाथ जी संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में गोरख पांडे के सहपाठी रहे थे । गोरख जी इस विश्वविद्यालय के छात्र संघ के प्रथम अध्यक्ष रहे थे । इसी तरह भाकपा माले के वर्तमान महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने भी उन पर लिखा । इनके अलावा गोरख के पुराने मित्र और सहकर्मी महेश्वर ने पटना से निकलने वाली पत्रिका समकालीन जनमतमें दो संपादकीय लिखे । हिंदी के वरिष्ठ कवि शमशेर बहादुर सिंह ने तोजन संस्कृतिके गोरख विशेषांक पर टिप्पणी के बहाने लेखनुमा ही लिख डाला था । मुक्तिबोध के काव्य संग्रहचाँद का मुँह टेढ़ा हैकी भूमिका की तरह ही यह आलेख संक्षेप में गोरख की समूची तस्वीर पेश कर देता है ।   
गोरख के लेखन का अधिकांश तो उपलब्ध हो गया है लेकिन कुछ चीजें अब भी नहीं मिल सकी हैं । संक्रमणनामक एक पत्रिका आज के दलित चिंतक और डिक्की के नेता चंद्रभान के संपादन में निकलती थी । इसके पहले अंक का संपादकीय गोरख ने लिखा था जिसका शीर्षक शायद नया लेखन : संदर्भ और दिशाथा, उनका ही एक और लेख पत्रिका में था जिसकी विषयवस्तु आत्महत्या थी । गोरख के मित्र अवधेश प्रधान ने उनके लेखों के संग्रह के लिए सूची बनाई तो तीन जगह इस लेख के तीन शीर्षक दर्ज किए । एक जगह इसका शीर्षक है आत्महत्या के बारे में। दूसरी जगह इसी लेख का शीर्षक उन्होंने हत्या और आत्महत्या के बीचबताया है । तीसरी जगह आत्महत्या : सामाजिक हिंसा का द्वंद्वउल्लिखित है । गोरख की दूसरी या तीसरी बरसी पर इनमें से कोई एक बनारस केस्वतंत्र भारतनामक अखबार में फिर से छपा था । अवधेश प्रधान की ही सूचना के मुताबिक डेविड सेलबोर्न की किताब ऐन आई टु इंडियाके बारे में भी उन्होंने मेनस्ट्रीम में 1983 से 1988 के बीच या तो समीक्षा या लेख लिखे थे । अवधेश प्रधान ने लिखा है दिल्ली रहते हुए मेनस्ट्रीम में डेविड सेलबोर्न के लेख के जवाब में गोरख पांडे ने कई लेख लिखे 83 से 88 के बीच। गोरख के अभिन्न मित्र राम जी राय बताते हैं कि कभी गोरख ने धर्मवीर भारती के एक लेख के विरुद्ध लेख लिखा था । धर्मवीर भारती ने अपने एक लेख में जनवादी लेखन के बीज शब्द गिनाकर उसका मजाक उड़ाया था । गोरख ने व्यंग्य में लिखा था कि जनवादी लेखन का एक और बीज शब्द हैदलालजिसको गिनाना भारती अनायास नहीं भूले । संगठन (जन संस्कृति मंच) के महासचिव होने के नाते उन्होंने ढेर सारे पत्र लिखे होंगे । उनका भी संग्रह नहीं हो सका है । आम तौर पर साथियों को लिखे उनके पत्रों में पहला वाक्य आशा है स्वस्थ-सानंद होंगेकी जगह आशा है स्वस्थ और सक्रिय होंगेहोता था । शायद सक्रियता को ही वे आनंद मानते थे । क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलन के जीवंत सवालों पर दोस्तों की बहसें होती रही होंगी । इनका माध्यम आपसी बातचीत के अलावे पत्र भी रहे होंगे ।
गोरख के लिखे गद्य की खोज एक लंबी यात्रा रही है । ढेर सारी सामग्री प्रकाशित थी । हाथ से लिखे कागजों से भी कुछ व्यवस्थित लेख मिले । एकाध टंकित लेख थे । अंग्रेजी और हिंदी में यह सब कुछ गोरख जी के कमरे से मिला था जिसे अवधेश प्रधान बहुत दिनों तक रखे रहे । फिर उन्होंने मुझे सौंप दिया । उनका शोध प्रबंध उनके साथ जे एन यू में रहे तिलक ने दिया । सिलचर में मेरे पास यह सब पड़ा रहा । एक बार अवधेश त्रिपाठी और मृत्युंजय अपना अपना लैपटाप लिए सिलचर आए और बीसेक दिन विश्वविद्यालय में मेरे साथ रहे । उन दिनों मेरा कमरा सही मायनों में फ़ोर्ट विलियम कालेज बन गया था । अंग्रेजी में उपलब्ध सामग्री का हिंदी अनुवाद और हाथ से लिखे कागजों को सही क्रम देकर उनमें छिपे लेख निकाल लेने में हममें से किसने क्या किया इसे याद करना असंभव है । संतोष बस इसका था कि थोड़ा बहुत कर्ज उतर रहा है । दिल्ली आने पर बासवपुन्नैया के जवाब में लिखे लेख की तलाश थी जो प्रभात कुमार चौधरी ने पूरी की ।
एक दिन आश्चर्य की तरह इतिहासकार सलिल मिश्र ने गोरख की डायरी की जानकारी दी । उन्होंने बताया कि गोरख जी का सब कुछ उनकी जेब में रहता था । कुछ भी कमरे पर रखकर नहीं आते थे । जिसने भी जो भी मांगा जेब से निकालकर दे दिया । ऐसे में और भी सामग्री कहीं से भी प्रकट हो सकती है । इसी प्रत्याशा में यह संग्रह प्रकाशित हो रहा है । जो वैचारिक और रचनात्मक संघर्ष हमारे पुरखों ने किया उससे हमारा पथ आलोकित रहेगा ।      


Sunday, January 3, 2016

कहानी की कहानी

                         
मनुष्य के मन की जिज्ञासा से यदि प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों का जन्म हुआ है तो कहानी के जन्म का भी स्रोत यही है । कहानी के नाम में ही कहने पर बल है, लिखने पर नहीं । इसका जन्म तो अवश्य ऐसे सामाजिक जीवन में हुआ जिसमें लिखित के मुकाबले कथित पर अधिक भरोसा होता था । समय बदलने पर इसका लिखित महत्वपूर्ण होता गया लेकिन नाम में मूल तत्व बचा रह गया ।
प्रेमचंद ने उपन्यास से इसकी तुलना करते हुए उपन्यास को जंगल तो कहानी को गुलदस्ता कहा है । इसे महाकाव्य और कविता की तुलना के सहारे भी समझा जा सकता है । इसीलिए उपन्यास को महाकाव्य का स्थानापन्न कहा जाता है । महाकाव्य में जीवन की संपूर्णता को प्रस्तुत करने की कोशिश की जाती है तो कविता एक भाव विशेष को जन्म देकर ही सार्थक हो जाती है ।
कहानी अपनी भी हो सकती है, समाज की भी और मनुष्य तथा प्रकृति की भी हो सकती है । इसमें अन्य जीव जंतुओं का भी प्रवेश होता रहा है तथा पेड़ पौधों का भी क्योंकि ये मानव समाज से अभिन्न तौर पर जुड़े हुए हैं । लेखन के अस्तित्व में आने के बाद इसका आकार छोटा हुआ अन्यथा पुरानी सभी कहानियां अपने काल और कथा विस्तार के लिहाज से उपन्यासों से टक्कर लेती हैं । कविता इससे प्राचीन है लेकिन कहानी का सहारा कविता को भी लेना पड़ता था और नाटक को भी ।
श्रोता या पाठक की उत्सुकता जगाना और उसे बनाए रखना कहानी के लिए अनिवार्य है क्योंकि उसका मनोरंजन कहानी का पहला मकसद है । एलिस इन वंडरलैंड में कहानी का कोई उद्देश्य सतह पर तैरता हुआ नहीं दिखाई पड़ता, बल्कि पाठक की उत्सुकता को जगाकर उसका भरपूर मनोरंजन करने के चलते वह एक हद तक कालजयी रचना बन सकी है ।
किसी भी कहानी में अपने पात्र की दिनचर्या का बयान नहीं किया जाता । कहानी लेखन की परंपरा में कहानी के उद्देश्य के लिहाज से संबंधित पात्र के जीवन के चुनिंदा प्रसंगों को उठाकर एक घटना-प्रवाह निर्मित किया जाता है । घटना प्रवाह के निर्माण के लिए एक से अधिक पात्रों की मौजूदगी अनिवार्य है । पात्रों के निर्माण में कहानीकार के पास फ़िल्मकार या नाटककार की तरह सुविधा नहीं होती कि वह अपने पात्रों को प्रत्यक्ष कर दे । इसके लिए उसके पास केवल शब्दों का सहारा होता है । सबसे पहले उसे पात्रों का नामकरण करना पड़ता है । नामकरण ऊपर से बेहद आसान चीज लगती है लेकिन होती बहुत मुश्किल है । किसी पात्र के नाम से ही उसकी सामाजिक और ऐतिहासिक अवस्थिति , यानी देश और काल का बोध हो जाता है । कहानीकार पात्रों के मुंह से जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल करवाता है वह पाठक या श्रोता के मन में उस पात्र का समूचा चित्र उपस्थित कर देती है ।   
कहानी ने अपनी विकास यात्रा में शैली और शिल्प के मामले में काफी विविधता प्रदर्शित की है । इसी विविधता के चलते उसकी कुंडली बनाना, खासकर उसे कथा साहित्य की अन्य विधाओं से अलगाना बेहद मुश्किल है । संस्कृत के कथा सरित सागर और अलिफ़ लैला से लेकर केवल पत्र व्यवहार या डायरी की इंदराजों के सहारे भी कहानियों का सृजन हुआ है । इन विराट कहानियों की खूबी कहानी के भीतर कहानी को गूंथ देने की कला है जिसके चलते इनका आकार औपन्यासिक हो गया है । कहानी की दुनिया में इसी किस्म का एक प्रयोग ‘पंचतंत्र’ है जिसमें कथा कहने वाला खुद भी कहानी का पात्र है । पशुओं-पक्षियों की जैसी जीवंत उपस्थिति इन कहानियों में दिखाई पड़ती है वैसी उपस्थिति देखने में कम आती है ।  
रूसी कहानी के एक प्रमुख हस्ताक्षर अन्तोन चेखव का कहना था कि वे किसी भी विषय पर कहानी लिख सकते हैं । साथ ही उनका यह भी कहना था कि कहानी का उद्देश्य नग्न यथार्थ का चित्रण नहीं है, उसका उद्देश्य हालात में सुधार के लिए प्रेरणा प्रदान करना है । प्रेमचंद ने इसी चीज को आदर्शोन्मुख यथार्थवाद कहा था ।  
कहानी के स्रोत या उसके एक प्रकार के रूप में लोक कथाओं का जिक्र भी जरूरी है । एक धारणा के अनुसार दुनिया भर की लोक कथाओं में इतनी समानता है कि लगता है जैसे सारी दुनिया में इन कहानियों ने यात्रा की है । आधुनिक काल में लोक कथाओं की पुनर्रचना का सबसे ज्वलंत उदाहरण राजस्थानी कहानीकार विजयदान देथा का कथा साहित्य है ।

लोकगीतों की तरह ही लोक कथाओं में न केवल अतिशय भाषिक सृजनात्मकता मिलती है बल्कि आधुनिक नैतिकता के बंधनों से एक हद तक इनमें मुक्ति भी दिखाई पड़ती है । कथा सरित सागर की कहानियों के आधार पर कृष्ण बलदेव वैद ने बदनाम बीबियों का द्वीप नाम से एक कहानी संग्रह तैयार किया था ।     

विनाशक पूंजीवाद



2007 में मेट्रोपोलिटन बुक्स से नाओमी क्लीन की किताब ‘द शाक डाक्ट्रिन: द राइज आफ़ डिसास्टर कैपिटलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । नाओमी क्लीन ने भूमिका में विस्तार से पिछले तीन दशक से जारी उस प्रक्रिया के बारे में बताया है जिसके जरिए निजीकरण को अंजाम दिया गया । बात को उन्होंने न्यू ओरलिएन्स मे आए कटरीना तूफान से शुरू किया है । तूफान के बाद रिपब्लिकन पार्टी के एक नेता ने कहा कि इस प्रांत में तूफान से आखिरकार सरकारी आवास बह गए हैं । एक अन्य भू-माफ़िया ने कहा कि प्रांत कोरे कागज की तरह हो गया है और कोरे कागज पर लिखने की अपार संभावना होती है । उस तबाही के बाद कानून निर्माता और कारपोरेट घरानों ने मिलकर संभावनाओं की योजना बनाई । इनमें शामिल थे- टैक्स में कटौती, नियमों में ढिलाई, सरकारी आवासों को गिराकर बहुमंजिला इमारतो के लिए नक्शे । तबाही में संभावना देखने वालों के गुरू मिल्टन फ़्रीडमैन थे । जब तूफान के चलते तटबंध टूटे थे उसके तीन महीने बाद वाल स्ट्रीट जर्नल में तिरानबे साल की उम्र में उन्होंने एक लेख लिखा । उसमें उन्होंने कहा कि स्कूल तबाह हो गए हैं और उसमें पढ़ने वाले बच्चे भी पूरे देश में बिखर गए हैं । शिक्षा व्यवस्था में मूलगामी सुधार का यही मौका है । उनकी राय थी कि पुनर्निर्माण के लिए आवंटित धन से मौजूदा सरकारी स्कूलों को खड़ा करने की जगह बेहतर होगा कि सरकार पीड़ित परिवारों को कूपन दे जिसे वे निजी शिक्षा संस्थानों में देकर बच्चों को दाखिल कराएं और इन शिक्षा संस्थानों को सरकार धन दे । उनका सुझाव था कि इस व्यवस्था को तात्कालिक की जगह स्थायी बनाने की कोशिश की जाए । दक्षिणपंथी चिंतकों ने फ़्रीडमैन के इस प्रस्ताव को लपक लिया और तूफान के गुजरते ही इसे अमल में लाने में जुट गए । बुश प्रशासन ने उनकी मदद की और सरकारी धन से चलने वाले निजी प्रबंधन के स्कूलों की स्थापना के लिए करोड़ो डालर का भुगतान किया । ये स्कूल उस व्यवस्था को उलट देने के काम आए जिसके तहत सभी बच्चों को समान स्तर की शिक्षा दी जाती थी । मिल्टन फ़्रीडमैन के हिसाब से सरकार की ओर से संचालित स्कूल व्यवस्था में समाजवाद की गंध आती थी । उनके मुताबिक सरकार का कर्तव्य बाहरी और भीतरी दुश्मनों से अमेरिकी समाज की रक्षा करना मात्र है । उसे कानून व्यवस्था बनाए रखने, निजी समझौतों को लागू कराने और प्रतियोगितामूलक बाजार को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी निभानी चाहिए । पुलिस और सेना मुहैया कराना उसका दायित्व है न कि मुफ़्त शिक्षा देना । ऐसा करके वह बाजार के काम में हस्तक्षेप करती है । एक ओर तो कछुए की चाल से तटबंधों की मरम्मत हुई और बिजली की आपूर्ति की व्यवस्था की गई लेकिन शिक्षा व्यवस्था को बाजार में बोली लगाकर बेचने में बिजली की तेजी से कदम उठाए गए । कटरीना से पहले 123 स्कूल सरकारी थे, उसके बाद कुल चार रह गए । पहले केवल सात निजी प्रबंधन वाले स्कूल थे, बाद में उनकी संख्या 31 हो गई । यह सारा बदलव महज उन्नीस महीने में हासिल किया गया । स्कूल अध्यापकों की बहुत तगड़ी यूनियन हुआ करती थी, तूफान के बाद चार हजार सात सौ अध्यापकों को बर्खास्त कर दिया गया । इनमें से कम उम्र के कुछ अध्यापकों को निजी स्कूलों ने काम पर रखा लेकिन वेतन घटा दिया । तूफान प्रभावित इलाका निजी स्कूलों की प्रयोगशाला बन गया । फ़्रीडमैन के समर्थकों ने कहा कि स्कूल प्रणाली में सुधार के समर्थक जो काम बरसों में नहीं कर पाए उसे कटरीना तूफान ने एक दिन में कर दिया । तूफान पीड़ितों की राहत के लिए आवंटित राशि को सरकारी स्कूलों के विनाश और निजी स्कूलों को अनुदान देने में खर्च किया गया । इसे ही लेखिका ने विनाशक पूंजीवाद कहा है । फ़्रीडमैन का यह आखिरी नीति संबंधी हस्तक्षेप था । लेकिन जो व्यक्ति पचास साल तक सर्वाधिक प्रभावशाली अर्थशास्त्री रहा हो उसके लिए यह बहुत छोटा कारनामा था । उनके शिष्यों में कई अमेरिकी राष्ट्रपति, ब्रिटेन के प्रधान मंत्री, रूसी धन्नासेठ, पोलैंड के वित्त मंत्री, तीसरी दुनिया के तानाशाह, चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के सचिव, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के निदेशक और अमेरिकी केंद्रीय बैंक के तीन मुखिया रहे हैं । फिर भी मरते मरते उन्होंने न्यू ओरलिएन्स के संकट का फायदा उठाकर पूंजीवाद के आदिम रूप को प्रोत्साहित करने में कोई कोताही नहीं बरती । फ़्रीडमैन और उनके अनुयायी पिछ्ले तीन दशकों से इसी रणनीति पर अमल करते रहे हैं । वे किसी तबाही का इंतजार करते हैं और तबाही आने पर लोग पुरानी व्यवस्था में लौटें इसके पहले ही कोई न कोई सरकारी जिम्मेदारी निजी क्षेत्र को बेच देते हैं और फिर इस सुधार को स्थायी बना देते हैं । फ़्रीडमैन ने कभी लिखा था कि संकट ही असली बदलावों को जन्म देता है । जब संकट आता है तो लोग उस समय मौजूद विचारों के आधार पर कोई कदम उठाते हैं । उनके मुताबिक यही असली काम है- मौजूदा नीतियों के विकल्प विकसित करना और उन्हें तब तक जिंदा रखना जब तक राजनीतिक तौर पर असंभव काम राजनीतिक रूप से अपरिहार्य न हो जाए । जिस तरह लोग संकट से निपटने के लिए जरूरी सामान इकट्ठा रखते हैं उसी तरह फ़्रीडमैन के अनुयायी मुक्त बाजार के विचारों को संकट के समय के लिए एकत्र करके रखते हैं । उनका कहना है कि संकट आते ही तेजी से समाज के पुराने ढर्रे में लौटने से पहले बदलाव थोप देना चाहिए । प्रशासन के पास इस काम के लिए कुल छह से नौ महीने होते हैं, इस मुफ़ीद मौके के गुजर जाने पर फिर किसी ऐसे ही मौके तक के लिए इसे मुल्तवी रखना पड़ता है । फ़्रीडमैन को अपनी इस कार्यपद्धति को लागू करने का सबसे पहले सत्तर के दशक में मौका मिला था जब चिली के तानाशाह पिनोशे के वे सलाहकार रहे थे । पिनोशे के तख्तापलट से तो लोग सकते में थे ही भारी महंगाई से भी परेशान थे । फ़्रीडमैन ने इसी अवसर का लाभ उठाकर टैक्स में छूट, मुक्त व्यापार, सेवाओं के निजीकरण, सामाजिक खर्च में कमी और नियमों में ढिलाई जैसे आर्थिक बदलाव तेजी से करने की सलाह दी । उसी समय चिली में सरकारी स्कूलों की जगह सरकार के अनुदान से चलने वाले निजी स्कूल स्थापित हुए । इस रूपांतरण को दुनिया के किसी भी देश में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर अंजाम दिया गया । फ़्रीडमैन का अनुमन था कि आर्थिक बदलावों की तीव्रता, आकस्मिकता और विस्तार से जनता को इसके साथ समायोजित करने में आसानी होगी । इसके लिए उन्होंने ‘शाक थेरापी’ पदबंध का आविष्कार किया । तबसे निजीकरण के पक्ष में होने वाले सुधारों के लिए तमाम सरकारों की यह पसंदीदा नीति हो गई । यह शब्दावली कैदियों को बिजली के झटके लगाकर यंत्रणा देने के तरीके से आई थी । इसके तीस साल बाद यह तरीका इराक में आजमाया गया । युद्ध के  बाद जब अभी आग बुझी भी नहीं थी तभी बड़े पैमाने पर निजीकरण, मुक्त व्यापार, कुल 15 फ़ीसद टैक्स और सरकार के आकार में कमी जैसे आर्थिक बदलाव कर दिए गए । जब इराक के लोगों ने इनका विरोध किया तो घेरकर जेल में डाल दिए गए और वहां सचमुच के झटके दिए गए । लेखिका को इस कार्यपद्धति का अंदाजा इराक युद्ध के वक्त हुआ था । इसके बाद उन्हें 2004 में आई सुनामी के बाद श्रीलंका जाने का मौका मिला । वहां भी उन्हें यही तरीका दिखाई पड़ा । लोगों मे व्याप्त अफरा तफरी का लाभ उठाकर समूचा समुद्री किनारा विदेशी निवेशकों और अंतर्राष्ट्रीय ठेकेदारों को दे दिया गया और उन्होंने बिना वक्त गंवाए वहां विशाल होटल बना डाले । जिन लाखों मछुआरों की जिंदगी तबाह हुई थी उन्हें समुद्र के किनारे के अपने गांवों का पुनर्निर्माण करने से रोक दिया गया । श्रीलंका की सरकार ने कहा कि क्रूर तरीके से हमारे देश को एक मौका मिला है कि हम विश्व स्तरीय पर्यटन के विकास का लक्ष्य हासिल कर सकें । इसके बाद कैटरीना तूफान के मौके पर यह तरीका आजमाया गया । लेखिका का कहना है कि जो लोग किसी आपदा से बच निकलते हैं वे अपनी जिंदगी में हुई टूट फूट की मरम्मत चाहते हैं । जिन जगहों पर उनके आवास रहे थे उनके सात फिर से रिश्ता बनाना चाहते हैं । लेकिन विनाशक पूंजीवाद को मरम्मत में कोई रुचि नहीं होती । वे तो आपदा का बचा खुचा काम पूरा करते हैं ताकि जो कुछ सार्वजनिक मालिकाने में था या जहां विभिन्न समुदायों की जड़ें थीं उन्हें हटाकर नया कारपोरेट स्वर्ग बसाया जा सके इसके पहले कि बचे खुचे लोग फिर से इकट्ठा होकर अपने हकूक मांगने लगें । समकालिन पूंजीवाद के प्रसार के लिए भय और अव्यवस्था माकूल वातावरण तैयार करते हैं । थोड़े दिनों पहले तक ऐसा नहीं था । पूंजीवाद की मांगें थीं- निजीकरण, सरकारी नियंत्रण में कमी और सामाजिक खर्चों में भारी कटौती । ये कदम जनता में अत्यधिक अलोकप्रिय थे इसलिए कम से कम मोलतोल का नाटक किया जाता था और तथाकथित विशेषज्ञों में सर्वसम्मति बनाने की कोशिश होती थी । अब उन्हीं कदमों को लागू करने के लिए विदेशी सेना के हमले और कब्जे या किसी विनाशकारी प्राकृतिक आपदा का लाभ उठाया जा रहा है । लेखिका को शोध के दौरान अहसास हुआ कि मिल्टन फ़्रीडमैन मार्का पूंजीवाद को अपनी बढ़ोत्तरी के लिए हमेशा ही आपदा की जरूरत पड़ती रही है । तीन दशकों से इस उपाय को प्रत्येक बुनियादी उलट फेर के लिए अपनाया गया है । इस नजरिए से देखने पर विगत पैंतीस सालों में विभिन्न सरकारों के कारनामों का तर्क और औचित्य नजर आता है । कोई भी युद्ध या बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारी और दमन या कोई भीषण आपदा संबद्ध देश में निजीकरण का अभियान शुरू करने के काम आती रही है । इसके लिए हमेशा हिंसा का ही सहारा नहीं लिया गया । अस्सी के दशक में लैटिन अमेरिका और अफ़्रीका में ॠण संकट का इस्तेमाल इसके लिए किया गया । महंगाई और कर्ज के फंदे में फंसे ये देश जब विदेशों से कर्ज मांगने गए तो उसके साथशाक थेरापीकी सलाह भी मिली । एशिया में 1997-98 में आए वित्तीय संकट के चलते जब तथाकथित एशियाई शेरों पर आफत आई तो औने पौने दामों पर निजी मालिकों को सार्वजनिक संपदा लुटा दी गई । इन देशों में लोकतांत्रिक सरकारें थीं लेकिन फ़्रीडमैन ने सरकार का कामकाज आर्थिक विशेषज्ञों को सौंप देने की सिफारिश की । कुछ देशों में निजीकरण का दायित्व लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई दक्षिणपंथी सरकारों ने पूरा किया लेकिन इनके मामले में संपूर्ण बदलाव की जगह फुटकल बदलाव की नीति अपनानी पड़ी । फ़्रीडमैन के सपने को लागू करने में लोकतंत्र आंशिक तौर पर ही सफल हो सकता था, उसके सच्चे स्वरूप के लिए तानाशाही की जरूरत पड़ती है । प्रतिरोध विहीन निजीकरण के लिए ऐसा माहौल माकूल होता है जब लोकतांत्रिक आचरण कुछ समय के लिए स्थगित हो या पूरी तरह से ठप हो जाए ।