मनुष्य के मन की
जिज्ञासा से यदि
प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों का
जन्म हुआ है
तो कहानी के
जन्म का भी
स्रोत यही है
।
कहानी के नाम में ही कहने पर बल है, लिखने पर नहीं । इसका
जन्म तो अवश्य ऐसे सामाजिक जीवन में हुआ जिसमें लिखित के मुकाबले कथित पर अधिक भरोसा
होता था । समय बदलने पर इसका लिखित महत्वपूर्ण होता गया लेकिन नाम में मूल तत्व बचा
रह गया ।
प्रेमचंद ने उपन्यास से इसकी तुलना करते हुए उपन्यास
को जंगल तो कहानी को गुलदस्ता कहा है । इसे महाकाव्य और कविता की तुलना के सहारे भी
समझा जा सकता है । इसीलिए उपन्यास को महाकाव्य का स्थानापन्न कहा जाता है । महाकाव्य
में जीवन की संपूर्णता को प्रस्तुत करने की कोशिश की जाती है तो कविता एक भाव विशेष
को जन्म देकर ही सार्थक हो जाती है ।
कहानी अपनी भी हो सकती है, समाज की भी और मनुष्य तथा प्रकृति की भी हो सकती है । इसमें अन्य जीव जंतुओं
का भी प्रवेश होता रहा है तथा पेड़ पौधों का भी क्योंकि ये मानव समाज से अभिन्न तौर
पर जुड़े हुए हैं । लेखन के अस्तित्व में आने के बाद इसका आकार छोटा हुआ अन्यथा पुरानी
सभी कहानियां अपने काल और कथा विस्तार के लिहाज से उपन्यासों से टक्कर लेती हैं । कविता
इससे प्राचीन है लेकिन कहानी का सहारा कविता को भी लेना पड़ता था और नाटक को भी ।
श्रोता या पाठक की उत्सुकता जगाना और उसे बनाए रखना
कहानी के लिए अनिवार्य है क्योंकि उसका मनोरंजन कहानी का पहला मकसद है । एलिस इन
वंडरलैंड में कहानी का कोई उद्देश्य सतह पर तैरता हुआ नहीं दिखाई पड़ता, बल्कि पाठक
की उत्सुकता को जगाकर उसका भरपूर मनोरंजन करने के चलते वह एक हद तक कालजयी रचना बन
सकी है ।
किसी भी कहानी में अपने पात्र की दिनचर्या का बयान नहीं
किया जाता । कहानी लेखन की परंपरा में कहानी के उद्देश्य के लिहाज से संबंधित पात्र
के जीवन के चुनिंदा प्रसंगों को उठाकर एक घटना-प्रवाह निर्मित किया
जाता है । घटना प्रवाह के निर्माण के लिए एक से अधिक पात्रों की मौजूदगी अनिवार्य है
। पात्रों के निर्माण में कहानीकार के पास फ़िल्मकार या नाटककार की तरह सुविधा नहीं
होती कि वह अपने पात्रों को प्रत्यक्ष कर दे । इसके लिए उसके पास केवल शब्दों का
सहारा होता है । सबसे पहले उसे पात्रों का नामकरण करना पड़ता है । नामकरण ऊपर से
बेहद आसान चीज लगती है लेकिन होती बहुत मुश्किल है । किसी पात्र के नाम से ही उसकी
सामाजिक और ऐतिहासिक अवस्थिति , यानी देश और काल का बोध हो जाता है । कहानीकार
पात्रों के मुंह से जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल करवाता है वह पाठक या श्रोता के
मन में उस पात्र का समूचा चित्र उपस्थित कर देती है ।
कहानी ने अपनी विकास यात्रा में शैली और शिल्प के मामले
में काफी विविधता प्रदर्शित की है । इसी विविधता के चलते उसकी कुंडली बनाना, खासकर
उसे कथा साहित्य की अन्य विधाओं से अलगाना बेहद मुश्किल है । संस्कृत के कथा सरित सागर
और अलिफ़ लैला से लेकर केवल पत्र व्यवहार या डायरी की इंदराजों के सहारे भी कहानियों
का सृजन हुआ है । इन विराट कहानियों की खूबी कहानी के भीतर कहानी को गूंथ देने की
कला है जिसके चलते इनका आकार औपन्यासिक हो गया है । कहानी की दुनिया में इसी किस्म
का एक प्रयोग ‘पंचतंत्र’ है जिसमें कथा कहने वाला खुद भी कहानी का पात्र है ।
पशुओं-पक्षियों की जैसी जीवंत उपस्थिति इन कहानियों में दिखाई पड़ती है वैसी
उपस्थिति देखने में कम आती है ।
रूसी कहानी के एक प्रमुख हस्ताक्षर अन्तोन चेखव का कहना
था कि वे किसी भी विषय पर कहानी लिख सकते हैं । साथ ही उनका यह भी कहना था कि कहानी
का उद्देश्य नग्न यथार्थ का चित्रण नहीं है, उसका उद्देश्य हालात
में सुधार के लिए प्रेरणा प्रदान करना है । प्रेमचंद ने इसी चीज को आदर्शोन्मुख यथार्थवाद
कहा था ।
कहानी के स्रोत या उसके एक प्रकार के रूप में लोक
कथाओं का जिक्र भी जरूरी है । एक धारणा के अनुसार दुनिया भर की लोक कथाओं में इतनी
समानता है कि लगता है जैसे सारी दुनिया में इन कहानियों ने यात्रा की है । आधुनिक
काल में लोक कथाओं की पुनर्रचना का सबसे ज्वलंत उदाहरण राजस्थानी कहानीकार विजयदान
देथा का कथा साहित्य है ।
लोकगीतों की तरह ही लोक कथाओं में न केवल अतिशय
भाषिक सृजनात्मकता मिलती है बल्कि आधुनिक नैतिकता के बंधनों से एक हद तक इनमें
मुक्ति भी दिखाई पड़ती है । कथा सरित सागर की कहानियों के आधार पर कृष्ण बलदेव वैद
ने बदनाम बीबियों का द्वीप नाम से एक कहानी संग्रह तैयार किया था ।
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