Friday, January 22, 2016

बेचैन जिंदगी के दस्तावेज

                      
गोरख पांडे का जन्म 1945 में देवरिया जिले के गाँव पंडित का मुंडेरवा में हुआ था । इस लिहाज से अगर वे आज जीवित रहते तो उनकी उम्र सत्तर पार होती । बाइस का होते होते नक्सलबाड़ी की घटना सुनाई पड़ी । पंडितों के घर और गांव के कारण पाखंड रोज के अनुभव का अंग था । स्वभाव विद्रोही पाया था । नक्सलबाड़ी के साथ हो लिए । कविता में उन्होंने मेहनतकश जनता के पक्ष में स्वर उठाया । वे हिंदी में सघन वैचारिक कविता लिखने के लिए हमेशा याद किए जाएंगे । उनकी कविता में विचार तत्व की प्रमुखता के साथ ही जुड़ा हुआ है उनका वैचारिक लेखन । यह लेखन उन्होंने बैठे ठाले नहीं किया था । नौजवानों की एक पूरी पीढ़ी के साथ मिलकर उन्होंने एक वैचारिक संघर्ष चलाया और अपनी बौद्धिक बेचैनी को मकसद की खोज का सही रास्ता दिखाया । हिंदी इलाके के सामंती परिवेश की श्रम विरोधी मूल्य व्यवस्था को उलट देने और पैसे का राज मिटाकर आजादी का सुख हासिल करने की दीर्घकालीन लड़ाई में वैचारिक योग देने के लिए उन्होंने कविता के साथ गद्य में भी जुझारू तेवर अख्तियार किया ।  गोरख और महेश्वर के बीच तुलना करते हुए अवधेश प्रधान कहते थे कि महेश्वर अगर बिजली का नंगा तार थे जिसे कहीं भी छूने से झटका लगता था तो गोरख ढके हुए तार थे जिसकी ताकत का पता बल्ब की रोशनी से चलता था । गोरख की वैचारिकता की गहराई को यह उपमा अच्छी तरह व्याख्यायित करती है ।
गोरख पांडे की इस वैचारिक यात्रा को उनके लेखन से तो समझा ही जा सकता है लेकिन उसका एक बड़ा स्रोत उनके साथियों के संस्मरण भी हैं । इनमें से अधिकतर संस्मरण उनकी आत्महत्या के बाद लिखे गए । इनमें से कई उस समय के हिंदी अखबारों में छपे । इन संस्मरणों के अतिरिक्त एक संस्मरण नेपाल की एमाले (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) पार्टी के नेतृत्व में गठित मदन भंडारी सरकार में शिक्षा मंत्री रहे और नेपाली के प्रख्यात साहित्यकार मोदनाथ प्रश्रित का था । मूल रूप से नेपाली में ‘अब छैनन मेरा प्रिय साथी गोरख पांडे !’ शीर्षक से प्रकाशित इस संस्मरण का बाद में हिंदी अनुवाद हुआ । मोदनाथ जी संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में गोरख पांडे के सहपाठी रहे थे । गोरख जी इस विश्वविद्यालय के छात्र संघ के प्रथम अध्यक्ष रहे थे । इसी तरह भाकपा माले के वर्तमान महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने भी उन पर लिखा । इनके अलावा गोरख के पुराने मित्र और सहकर्मी महेश्वर ने पटना से निकलने वाली पत्रिका समकालीन जनमतमें दो संपादकीय लिखे । हिंदी के वरिष्ठ कवि शमशेर बहादुर सिंह ने तोजन संस्कृतिके गोरख विशेषांक पर टिप्पणी के बहाने लेखनुमा ही लिख डाला था । मुक्तिबोध के काव्य संग्रहचाँद का मुँह टेढ़ा हैकी भूमिका की तरह ही यह आलेख संक्षेप में गोरख की समूची तस्वीर पेश कर देता है ।   
गोरख के लेखन का अधिकांश तो उपलब्ध हो गया है लेकिन कुछ चीजें अब भी नहीं मिल सकी हैं । संक्रमणनामक एक पत्रिका आज के दलित चिंतक और डिक्की के नेता चंद्रभान के संपादन में निकलती थी । इसके पहले अंक का संपादकीय गोरख ने लिखा था जिसका शीर्षक शायद नया लेखन : संदर्भ और दिशाथा, उनका ही एक और लेख पत्रिका में था जिसकी विषयवस्तु आत्महत्या थी । गोरख के मित्र अवधेश प्रधान ने उनके लेखों के संग्रह के लिए सूची बनाई तो तीन जगह इस लेख के तीन शीर्षक दर्ज किए । एक जगह इसका शीर्षक है आत्महत्या के बारे में। दूसरी जगह इसी लेख का शीर्षक उन्होंने हत्या और आत्महत्या के बीचबताया है । तीसरी जगह आत्महत्या : सामाजिक हिंसा का द्वंद्वउल्लिखित है । गोरख की दूसरी या तीसरी बरसी पर इनमें से कोई एक बनारस केस्वतंत्र भारतनामक अखबार में फिर से छपा था । अवधेश प्रधान की ही सूचना के मुताबिक डेविड सेलबोर्न की किताब ऐन आई टु इंडियाके बारे में भी उन्होंने मेनस्ट्रीम में 1983 से 1988 के बीच या तो समीक्षा या लेख लिखे थे । अवधेश प्रधान ने लिखा है दिल्ली रहते हुए मेनस्ट्रीम में डेविड सेलबोर्न के लेख के जवाब में गोरख पांडे ने कई लेख लिखे 83 से 88 के बीच। गोरख के अभिन्न मित्र राम जी राय बताते हैं कि कभी गोरख ने धर्मवीर भारती के एक लेख के विरुद्ध लेख लिखा था । धर्मवीर भारती ने अपने एक लेख में जनवादी लेखन के बीज शब्द गिनाकर उसका मजाक उड़ाया था । गोरख ने व्यंग्य में लिखा था कि जनवादी लेखन का एक और बीज शब्द हैदलालजिसको गिनाना भारती अनायास नहीं भूले । संगठन (जन संस्कृति मंच) के महासचिव होने के नाते उन्होंने ढेर सारे पत्र लिखे होंगे । उनका भी संग्रह नहीं हो सका है । आम तौर पर साथियों को लिखे उनके पत्रों में पहला वाक्य आशा है स्वस्थ-सानंद होंगेकी जगह आशा है स्वस्थ और सक्रिय होंगेहोता था । शायद सक्रियता को ही वे आनंद मानते थे । क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलन के जीवंत सवालों पर दोस्तों की बहसें होती रही होंगी । इनका माध्यम आपसी बातचीत के अलावे पत्र भी रहे होंगे ।
गोरख के लिखे गद्य की खोज एक लंबी यात्रा रही है । ढेर सारी सामग्री प्रकाशित थी । हाथ से लिखे कागजों से भी कुछ व्यवस्थित लेख मिले । एकाध टंकित लेख थे । अंग्रेजी और हिंदी में यह सब कुछ गोरख जी के कमरे से मिला था जिसे अवधेश प्रधान बहुत दिनों तक रखे रहे । फिर उन्होंने मुझे सौंप दिया । उनका शोध प्रबंध उनके साथ जे एन यू में रहे तिलक ने दिया । सिलचर में मेरे पास यह सब पड़ा रहा । एक बार अवधेश त्रिपाठी और मृत्युंजय अपना अपना लैपटाप लिए सिलचर आए और बीसेक दिन विश्वविद्यालय में मेरे साथ रहे । उन दिनों मेरा कमरा सही मायनों में फ़ोर्ट विलियम कालेज बन गया था । अंग्रेजी में उपलब्ध सामग्री का हिंदी अनुवाद और हाथ से लिखे कागजों को सही क्रम देकर उनमें छिपे लेख निकाल लेने में हममें से किसने क्या किया इसे याद करना असंभव है । संतोष बस इसका था कि थोड़ा बहुत कर्ज उतर रहा है । दिल्ली आने पर बासवपुन्नैया के जवाब में लिखे लेख की तलाश थी जो प्रभात कुमार चौधरी ने पूरी की ।
एक दिन आश्चर्य की तरह इतिहासकार सलिल मिश्र ने गोरख की डायरी की जानकारी दी । उन्होंने बताया कि गोरख जी का सब कुछ उनकी जेब में रहता था । कुछ भी कमरे पर रखकर नहीं आते थे । जिसने भी जो भी मांगा जेब से निकालकर दे दिया । ऐसे में और भी सामग्री कहीं से भी प्रकट हो सकती है । इसी प्रत्याशा में यह संग्रह प्रकाशित हो रहा है । जो वैचारिक और रचनात्मक संघर्ष हमारे पुरखों ने किया उससे हमारा पथ आलोकित रहेगा ।      


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