दक्षिण एशिया की भूराजनीति में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है । औपनिवेशिक शासन से हमारा देश मुक्त हुआ तो विभाजित होकर । विभाजन और उसके परवर्ती सुदृढ़ीकरण की कोशिशों की बेवकूफी को समझने के लिए एक ही उदाहरण काफी होगा । यदि बांगलादेश के किसी नागरिक की उम्र सत्तर साल हो तो उसकी नागरिकता पर तीन देशों का दावा होगा या वह व्यक्ति तीन देशों की नागरिकता का हकदार होगा । जन्मना वह भारत का नागरिक कहलाएगा । तीन वर्ष की उम्र में वह पाकिस्तान का नागरिक हुआ । छब्बीस साल का होने पर उसे बांगलादेश की नागरिकता मिली होगी । अगर कहीं वह हाल में हुई अदला बदली का शिकार हुआ तो संभव है फिर से सत्तर साल की उम्र में भारतीय कहलाने लगे । विभाजन की इस त्रासदी से क्षत-विक्षत हमारी राजनीतिक विरासत को एक हद तक अविभाजित भारत के साहित्य ने नामंजूर किया है और विभाजन से अपने आपको प्रभावित नहीं होने दिया है । इसके लिए हम ऐसे साहित्यकारों के बारे में बात करना उचित समझते हैं जिनकी रचनाएं और जीवन सीमाओं के आरपार फले फूले । फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पश्चिमी इलाके में विभाजन के बावजूद आपसदारी की मिसाल पेश करते हैं । उनके लेखन में इस विभाजन को स्वीकार कर लेने के विरुद्ध कराह की अभिव्यक्ति हुई है । भारत विभाजन से अलग हुए पाकिस्तान की विडंबना इस तथ्य में प्रकट होती है कि किसी भी प्रांत की भाषा न होने के बावजूद उर्दू वहां की राजभाषा है । पंजाबी, सिंधी, बलूची और पश्तो इसके चलते अपने ही देश में अपने को पराया महसूस करती हैं । फ़ैज़ के लेखन में 47 के विभाजन का प्रतिवाद तो है ही, बांगलादेश पर होने वाले अत्याचार का प्रतिकार भी मौजूद है । पश्चिमी इलाके के विभाजन की बहुत चर्चा हुई है लेकिन पूरबी इलाके के विभाजन के बारे में आम तौर पर बात नहीं की जाती । पूरबी इलाके का विभाजन अधिक त्रासद था क्योंकि दोनों ही ओर भाषा एक थी । इस पूरबी इलाके में काज़ी नजरुल इस्लाम का जीवन हमें इस विडंबना को समझने में हमारी मदद करता है । बंग बंधु के कत्ल के बाद नई सत्ता को बांगलादेश में रवींद्रनाथ के टक्कर के कवि की जरूरत महसूस हुई तो मुसलमान होने के चलते नजरुल को इसके लायक पाया गया । उन्हें भारत से गुपचुप बांगलादेश ले जाया गया और मौत के बाद परिवार के लोगों को सूचना दिए बिना दफ़ना दिया गया । ये दोनों लेखक विभाजन की विडंबना को समझने के लिए सबसे कीमती संदर्भ हैं ।
No comments:
Post a Comment