Tuesday, April 7, 2015

वर्तमान समय में मार्क्सवाद की चर्चा

                  
                                               
( प्रस्तुत लेख एक किताब की रूपरेखा है । किताब इस मकसद से लिखी जानी है कि भारत में मार्क्सवाद के खात्मे के तमाम शोरोगुल के बावजूद दुनिया भर में इसकी प्रसिद्धि को साबित किया जा सके । दूसरा मकसद हिंदी पाठकों को उस सामग्री का परिचय देना है जो लगातार सामने आ रही है । इसमें एक प्रकार उस सामग्री का है जो नई परिस्थितियों को समझने और उसका मुकाबला करने के लिहाज से तैयार की गई है । इसमें भूमंडलीकरण को समझने और नव-उदारवादी चिंतन का पर्दाफ़ाश शामिल है । दूसरा प्रकार अस्मिता के सवालों से संवाद के लिए तैयार सामग्री का है । इसमें स्त्री आंदोलन और अफ़्रीकी-अमेरिकी समुदाय मुख्य हैं । तीसरे तरह की सामग्री विभिन्न अनुशासनों के लिहाज से मार्क्स की प्रासंगिकता को रेखांकित करने के लिए लिखी हुई है । इसमें अर्थशास्त्र के साथ समाजशास्त्र, मानव शास्त्र और साहित्य से जुड़ी है । इक्कीसवीं सदी के अंतर्विरोधों, आंदोलनों और मानवीय समाज बनाने की दिशा में होने वाले प्रयोगों से यह समस्त काम अनुप्राणित है । शैली के बतौर इनमें काफी विविधता है । कार्टून से लेकर वेब प्रकाशन तक प्रकाशन के सारे रूप आजमाए गए हैं । पुरानी किताबों के पुन:प्रकाशन से लेकर एक से दूसरी भाषा में अनुवाद तक सब कुछ हो रहा है । यह पूरा परिदृश्य बेहद रोमांचक है । इसे निजी अध्ययन के लिए बनाई हुई सूची भी माना जा सकता है । सूची बनाने में कालानुक्रम का ध्यान रखा गया है लेकिन उसका कड़ाई से अनुपालन संभव नहीं था । वर्तमान का अर्थ सदी का बदलाव समझा गया है । उपलब्ध सामग्री इससे बहुत अधिक है लेकिन उस तमाम सामग्री की छानबीन के लिए किसी व्यक्ति की जगह किसी विशाल संस्थान की जरूरत होगी । - लेखक)
नये दौर में मार्क्सवाद के अध्ययन के सिलसिले में जो नयी बातें हुई हैं उनमें एंडी और राब लुकास ने अप्रैल 2005 में एक पहल की है जिसमें ‘मार्क्स: मिथ्स एंड लीजेंड्स’ नाम से लेखमाला शुरू हुई है । उनका कहना है कि मार्क्स के लेखन को पिछले डेढ़ सौ सालों में जितने मिथकों का शिकार होना पड़ा है उतना किसी भी अन्य विचारक के साथ नहीं हुआ है इसलिए उनके आलोचनात्मक अध्ययन के लिए इनकी सफाई जरूरी है । वैसे तो इसमें ज्यादा मुश्किल नहीं है क्योंकि उनका समस्त लेखन उपलब्ध है लेकिन इसकी इच्छा बहुतेरे लोगों को नहीं होती । असल में इन मिथकों के निर्माण का कारण उनकी अपार सफलता है । उनका नाम बीसवीं सदी को न केवल बदलने बल्कि परिभाषित करने वाले युगांतरकारी आंदोलन का पर्याय बन गया । कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को उनके प्रति निष्ठा सिद्ध करनी पड़ती जबकि उनके विरोधी सभी तरह की नफरत भरी चीजों के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराते । उनके लेखन की व्याख्या अनिवार्य रूप से राजनीतिक होती, निस्संग अध्ययन संभव नहीं रह गया । कहने का मतलब यह नहीं कि आंदोलनों ने उनकी तथाकथित शुद्धता को दूषित कर दिया, न ही किसी ‘सही’ मार्क्स को उनकी विरासत का दावा करने वाले बीसवीं सदी के संघर्षों के बरक्स खड़ा कर दिया जाय । विकृतियों की सफाई के नाम पर किसी एकाश्मी मार्क्स को इतिहास की धूल धक्कड़ से बचाकर ‘मार्क्सवाद’ से पूरी तरह से अलगाना ठीक नहीं होगा । फिर भी उनके लेखन और इतिहास पर ध्यान देने से ढेर सारी चीजों पर भ्रम दूर हो सकते हैं । मार्क्स के बारे में जिन मिथकों का निर्माण हुआ है वे दो तरह के हैं । एक तो वे जिनका प्रचार समाजवाद के विरोधियों ने दुर्भावनापूर्वक किया । दूसरे वे जिनका निर्माण उनके अनुयायियों ने किया । इनका निर्माण अनेक ऐतिहासिक कारकों के चलते हुआ और इसकी जिम्मेदारी तय करना जटिल काम है । कुछ मिथ इन दोनों में साझा भी हैं । इससे जुड़ा हुआ खंड उन मिथकों का है जो मार्क्स को ‘राजकीय समाजवाद’ का निर्माता ठहराते हैं । विरोधियों द्वारा प्रचारित मिथकों का बड़ा हिस्सा उनके चरित्र हनन के मकसद से जुड़ा हुआ है इसलिए इनका दूसरा खंड मार्क्स के ‘चरित्र’ से जुड़े मिथकों का है । इसके तहत उन्हें महत्वोन्मादी, मरखाहा, यहूदी-विरोधी और नस्लवादी, घमंडी, स्त्रीलोभी, उबाऊ लेखक और दूसरों के लिखे की नकल मारनेवाला साबित किया गया । उनके बारे में बने मिथकों के खंडन के लिए ध्यान से तथ्यों को देखना होगा । असल में मार्क्स के विचारों का निर्माण जिन संदर्भों में हुआ उनसे पूरी तरह भिन्न संदर्भों में उनका अभिग्रहण हुआ । मिथक निर्माण की एक बड़ी वजह शायद यह भी है । असल में मार्क्स के सोचने का तरीका उनके समय के भी प्रचलित बौद्धिक तरीकों से काफी अलग था । उनके मूल पाठकों में से अधिकतर लोग उस आलोचनात्मक चिंतन धारा से अपरिचित थे जिसमें युवा हेगेलपंथियों का बौद्धिक विकास हुआ था । इसलिए जो कुछ उन्होंने लिखा उसे तत्क्षण ही उन्नीसवीं सदी में प्रचलित समाजवाद के संदर्भ में समझा गया और उसके हेगेलपंथी पहलुओं की उपेक्षा हुई । इसके कारण मार्क्स को उन्नीसवीं सदी के समाजवाद और प्रत्यक्षवाद से जोड़कर देखने की गलतफहमियों का जन्म हुआ । इसी से आर्थिक निर्धारणवादी व्याख्याओं का भी जन्म हुआ । इन मिथकों को चिन्हित करने के बाद इस परियोजना के संचालकों ने उम्मीद जताई है कि भविष्य में अन्य विषयों पर भी साफ-सफाई होगी ।
इस परियोजना के तहत जिन मिथों की सफाई में जिन लोगों के लेख संकलित हैं वे हैं- 1) राजकीय समाजवाद के साथ मार्क्स को जोड़ने के मिथ, जिसके सिलसिले में परेश चट्टोपाध्याय और हाल ड्रेपर के लेख हैं । 2) मार्क्स के चरित्र के बारे में मिथ, जिनके सिलसिले में फ़्रांसिस ह्वीन, टेरेल कारवेर, हाल ड्रेपर और हम्फ्री मैकक्वीन के लेख हैं । 3) उन्नीसवीं सदी के समाजवाद और प्रत्यक्षवाद के साथ मार्क्स को जोड़नेवाले मिथों के सिलसिले में जान हैलोवे और सीरिल स्मिथ के लेख हैं । 4) द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के मिथों के सिलसिले में ज़ेड ए जोर्डन और मैक्समिलियन रूबेल के लेख हैं । 5) मार्क्सवाद के अन्य मिथों के सिलसिले में हैरी क्लीवर, पीटर स्टिलमैन, सीरिल स्मिथ और क्रिस्टोफर जे आर्थर के लेख हैं । 6) सबसे अंत में हालिया मिथों के सिलसिले में क्रिस्टोफर जे आर्थर, जोसेफ मैककार्नी और लारेंस विल्डे के लेख प्रस्तुत किए गए हैं । हालांकि कुछ लेख निश्चित ही भ्रम दूर करते हैं लेकिन इन लेखों पर सोवियत परंपरा के मुकाबले पश्चिमी दुनिया के विद्वानों के बीच प्रचलित बहसों की छाया है । 
परियोजना के तहत उपलब्ध लेखों में से एक मैक्समिलियन रूबेल द्वारा ‘द लीजेंड आफ़ मार्क्स, आर “एंगेल्स द फ़ाउंडर”’ शीर्षक से लिखित है । इन्होंने मार्क्स की एक जीवनी भी ‘मार्क्स विदाउट मिथ्स’ नाम से लिखी है । उक्त लेख में रूबेल ने मार्क्स के विचारों के प्रसंग में एंगेल्स की भूमिका की जांच-पड़ताल की है । उन्होंने मार्क्स के अधूरे काम को संपादित करने में एंगेल्स की क्षमता पर सवाल उठाया है । असल में उनका एतराज ‘मार्क्सवाद’ की प्रस्तुति पर है । साथ में उन्होंने इस मान्यता को भी परखने की कोशिश की है जिसके मुताबिक मार्क्स के मुकाबले एंगेल्स द्वंद्ववादी पद्धति में कम कुशल थे । लेखक मार्क्सवाद की कोटि को ही बनावटी मानते हैं । उनके अनुसार कार्ल कोर्श ने ‘टेन थीसिस आन मार्क्सिज्म टुडे’ में इसी भ्रम में बार बार ‘मार्क्स-एंगेल्स की शिक्षा’, ‘मार्क्स के सिद्धांत’,’मार्क्सवादी सिद्धांत’, ‘मार्क्सवाद’ आदि का व्यवहार किया है । पांचवीं थीसिस में तो उन्होंने संस्थापकों में एंगेल्स का नाम भी नहीं लिया । लेखक का प्रस्ताव है कि ‘मार्क्सवाद’ पद को छोड़ देना ही उचित होगा । आश्चर्यजनक नहीं कि इन्होंने हीमार्क्सोलोजीपदबंध का आविष्कार किया जिसेमार्क्सवादकी जगह इस्तेमाल किया जाता है । इसी तरह के नजरिए से आजकल मार्क्स के लेखन-चिंतन पर सोच-विचार हो भी रहा है ।
जान रीस की किताबद अलजेब्रा आफ़ रेवोल्यूशन: द डायलेक्टिक एंड द क्लासिकल मार्क्सिस्ट ट्रेडीशनका प्रकाशन पहली बार रटलेज से 1998 में हुआ था लेकिन दोबारा फ़्रांसिस एंड टेलर ई लाइब्रेरी ने 2005 में उसका इलेक्ट्रानिक संस्करण जारी किया है ।
1999 में यूनिवर्सिटी प्रेस आफ़ मिसीसीपी से सी एल आर जेम्स के लेखों का एक संग्रहमार्क्सिज्म फ़ार आवर टाइम्सशीर्षक किताब का प्रकाशन हुआ जो मार्टिन ग्लेबरमैन द्वारा संपादित है । इसका उपशीर्षकसी एल आर जेम्स आन रेवोल्यूशनरी आर्गेनाइजेशनहै । संपादक ने इसकी भूमिका भी लिखी है । खास बात यह है कि इससे पता चलता है कि जहां भी मार्क्सवाद पहुंचा वहां उसकी जगह हवा में नहीं बनी । जेम्स अमेरिका के काले अफ़्रीकी लोगों के नेता थे और मार्क्सवाद को इस आबादी के सवालों से जोड़ते हुए उन्हें सैद्धांतिक स्तर पर भी सृजनात्मक रुख अपनाना पड़ा था । संपादक ग्लेबरमैन लगातार जेम्स के साथ सैद्धांतिक-सांगठनिक कोशिशों के दरम्यान रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी भूमिका में इसका प्रामाणिक विवरण दिया है । दूसरी बात कि उत्पीड़ित समुदायों के तथाकथितअवर्गीयसवालों को सैद्धांतिक-व्यावहारिक आंदोलन के लिए उठाना मार्क्सवादियों के लिए कोई नयी परिघटना नहीं है । 
1999 में ही कनाडा के अथाबास्का खुले विश्वविद्यालय में उद्योग संबंधों के अध्यापक रिचर्ड मार्सडेन की रटलेज से प्रकाशित किताब ‘द नेचर आफ़ कैपिटल’ का उपशीर्षक ‘मार्क्स आफ़्टर फुको’ है । किताब का महत्व यह है कि वह उत्तरआधुनिकता के एक प्रमुख सिद्धांतकार के आगमन के बाद मार्क्स को देखने में आए नजरिए के बदलाव का विश्लेषण करती है ।
राबर्ट एल हीलब्रोनेर की किताब ‘द वर्ल्डली फिलासफर्स’ पहली बार तो 1953 में प्रकाशित हुई थी लेकिन उसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि 1999 में टचस्टोन बुक के बतौर उसका नया सातवां संस्करण प्रकाशित हुआ जिसमें सदी के मोड़ पर उसकी प्रासंगिकता को समझने की कोशिश लेखक ने की है । किताब का उपशीर्षक ‘द लाइव्स, टाइम्स, एंड आइडियाज आफ़ द ग्रेट इकोनामिक थिंकर्स’ है । साफ है कि किताब मशहूर अर्थशास्त्रियों का परिचय कराती है । इसमें एडम स्मिथ से शुरू करके माल्थस और डेविड रिकार्डो से होते हुए काल्पनिक समाजवादियों तथा मार्क्स, विक्टोरियाई दुनिया और अर्थशास्त्र, थोर्स्टीन वेब्लेन, कीन्स, शूमपीटर और अर्थशास्त्र के भविष्य पर विचार करने के अलावा आगे की पढ़ाई के लिए सूची भी दी गई है । हीलब्रोनेर ने जब यह किताब लिखी थी तो वे ग्रेजुएट के छात्र थे । प्रकाशक से किताब की बात पक्की हो जाने के बाद इस इरादे की सूचना जब उन्होंने अपने अध्यापक को दी तो वे इसे असंभव मानने लगे । तब ग्रेजुएट छात्र के आत्मविश्वास और अज्ञान से भरकर लेखक ने इसे लिखने का बीड़ा उठाया । जब आरंभिक तीन अध्याय उन्होंने अध्यापक को दिखाए तो उन्होंने इसे पूरा करने के लिए प्रोत्साहित किया । लिखे जाने के बाद शीर्षक के बारे में सोचने पर लगा कि अर्थशास्त्र का जिक्र आने से ही पाठकों की रुचि समाप्त हो जाएगी । हार्पर के संपादक ने यह आकर्षक नाम दिया । बिक्री शुरू होने के बाद प्रकाशक ने महान अर्थशास्त्री जैसा कोई नाम रखने की सलाह दी ।
1999 में ही यूनिवर्सिटी आफ़ इलिनोइस प्रेस से एंड्र्यू गैंबल, डेविड मार्श और टोनी टैंट के संपादन मेंमार्सिज्म एंड सोशल साइंसका प्रकाशन हुआ । यह किताब सामाजिक विज्ञानों के लिए मार्क्सवाद की निरंतरता के अनेक पहलुओं को उजागर करती है ।
बोरिस कागरलित्सकी ने एक पुस्तक शृंखला की शुरुआत की- ‘रीकास्टिंग मार्क्सिज्मजिसके तहत पहली किताब न्यू रियलिज्म, न्यू बार्बरिज्मका प्रकाशन प्लूटो प्रेस से 1999 में हुआ । किताब का उपशीर्षक सोशलिस्ट थियरी इन द एरा आफ़ ग्लोबलाइजेशनहै । इसी पुस्तक शृंखला की दूसरी किताब प्लूटो प्रेस से ही 2000 में द ट्विलाइट आफ़ ग्लोबलाइजेशनशीर्षक से छपी । इसका उपशीर्षक प्रापर्टी, स्टेट एंड कैपिटलिज्मथा । शृंखला की तीसरी और आखिरी किताब द रिटर्न आफ़ रैडिकलिज्मका प्रकाशन भी 2000 में ही उसी प्रकाशन से हुआ । इसका उपशीर्षक रीशेपिंग द लेफ़्ट इंस्टीच्यूशंसहै । तीनों किताबें चूंकि एक ही कड़ी में लिखी गईं इसलिए इनमें तार्किक संगति अंतर्निहित है ।
2000 में ही पालग्रेव मैकमिलन से रोनाल्डो मुन्क लिखित ‘मार्क्स@2000’ का उपशीर्षक ‘लेट मार्क्सिस्ट पर्सपेक्टिव्स’ प्रकाशित हुई है और यह न केवल अपने शीर्षक के नाते ध्यानाकर्षक है, बल्कि प्रकृति, विकास, मजदूर वर्ग, स्त्री प्रश्न, संस्कृति, राष्ट्रवाद और उत्तरआधुनिकता जैसे नये समय के सवालों के संदर्भ में मार्क्सवाद को देखने का गंभीर प्रयास भी करती है ।
मूल रूप से फ़्रांसिसी में 2000 में याक बिदेत द्वारा लिखित तथा डेविड फ़र्नबाख द्वारा अंग्रेजी में अनूदित होने के बाद 2007 में ब्रिल प्रकाशन द्वाराएक्सप्लोरिंग मार्क्सकैपिटलशीर्षक से अलेक्स कलिनिकोस की भूमिका के साथ छपी किताब भीपूंजीपर लिखित हाल की किताबों में महत्वपूर्ण है । भूमिका लेखक ने ही इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है कि फ़्रांसिसी भाषा की इस किताब के अंग्रेजी अनुवाद का प्रकाशन आंग्ल भाषी दुनिया में मार्क्स की इस किताब में पैदा हुई हालिया रुचि में अपनी तरह से मौलिक योगदान करेगी । इस किताब का परिचय देते हुए कलिनिकोस लिखते हैं कि 1983 में बिदेत ने 800 पृष्ठों का जो शोध ग्रंथ लिखा था उसमें इसकी जड़ें हैं । उनका यह शोध इसके पहले के ढेर सारे शोधों की निरंतरता में लिखा गया था । मार्क्स के लेखन में रुचि के उस दौर की शुरुआत 60 के दशक से हुई थी । तब लुई अल्थूसर और रोमान रास्दोल्स्की की किताबें ‘पूंजी’ के बारे में लिखी गई थीं । साठ के दशक के उस जागरण ने मार्क्स के आर्थिक लेखन के दार्शनिक और राजनीतिक महत्व के संधान को प्रेरित किया था । जब वह दौर खत्म होने को था तब बिदेत की यह किताब सामने आई । फ़्रांस में अल्थूसर ने जिस अध्ययन की शुरुआत की थी उसे आगे ले जाने का काम नहीं हुआ । जब बिदेत का यह काम सामने आया तो हवा मार्क्सवाद के पक्ष में नहीं थी । उत्तर संरचनावाद के उभार का जमाना था । भगदड़ के उस समय में बिदेत ने समर्पण करने से इनकार कर दिया । किताब के प्रकाशन के तुरंत बाद उन्होंने एक साथी के साथ सैद्धांतिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो जल्दी ही फ़्रांस में मार्क्सवाद और उत्तर मार्क्सवाद का प्रमुख सैद्धांतिक मंच बन गई । इसकी पाठक संख्या भी संतोषजनक थी । 2005 में बिदेत ने इसके संपादन से छुट्टी ली ।
सन 2000 में ही टोनी क्लिफ़ ने ‘मार्क्सिज्म ऐट द मिलेनियम’ शीर्षक किताब लिखी जिसे बुकमार्क्स नामक प्रकाशक ने उसी साल प्रकाशित किया है । क्लिफ़ त्रोत्स्की के विचारों को मानने वाले थे । किताब छोटे-छोटे 15 अध्यायों में विभक्त है । असल में ये अध्याय उनके जीवन के अंतिम वर्ष जर्मनी और तुर्की के समाजवादी संगठन के लिए लिखे लेख हैं । क्लिफ़ का जन्म रूसी बोल्शेविक क्रांति के साल फिलीस्तीन में हुआ था । शुरू में अपने देश में क्रांतिकारी दल गठित करने की कोशिशों के बाद द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत ब्रिटेन चले आए । ब्रिटेन में उनके विचारों में बदलाव आया और उन्होंने जिस दल का गठन किया वही आगे चलकर वर्कर्स सोशलिस्ट पार्टी बना । उन्होंने तीन खंडों में लेनिन की और चार खंडों में त्रोत्स्की की जीवनी लिखी । पहला ही लेख मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पर विचार है । 
 इसी साल माइकेल पेरेलमान लिखित ‘द इनवेंशन आफ़ कैपिटलिज्म’ का प्रकाशन ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस से हुआ । इसका उपशीर्षक ‘क्लासिकल पोलिटिकल इकोनामी एंड द सीक्रेट हिस्ट्री आफ़ प्रिमिटिव एक्यूमुलेशन’ है । किताब मार्क्सवादी और उत्तरआधुनिकतावादी खासकर फ़ुको की मान्यताओं के रचनात्मक मेल से लिखी गई है और इसीलिए बेहद मजेदार है और पुराने तथ्यों पर भी नई रोशनी फेंकती है । उदाहरण के लिए इंग्लैंड में खेती से अलग हुए श्रमिक कारखानों में काम करें, इसके लिए भिक्षावृत्ति को कानूनन अपराध घोषित किया गया । मजदूर से रोज काम लेने का पूंजीपतियों का नशा ही छुट्टियों की अधिकता संबंधी प्रचार का प्रमुख कारण है ।
प्रसिद्ध समाजशास्त्री टाम बाटमोर के संपादन में ए डिक्शनरी आफ़ मार्क्सिस्ट थाटका प्रकाशन तो 1983 में पहली बार हुआ था लेकिन उसके दूसरे संस्करण का 2001 में ही दो बार मुद्रण हुआ । कोश होने के नाते यह भी मोटी है लगभग 650 पृष्ठों की । इसका प्रकाशन ब्लैकवेल पब्लिशर्स ने किया है ।
रटलेज से 2001 में अर्जेंटिना निवासी स्पेनी विद्वान एनरिक़ डसेल की किताब का अंग्रेजी अनुवादटुवार्ड्स ऐन अननोन मार्क्स: ए कमेंटरी आन द मैनुस्क्रिप्ट्स 1861-63’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ । डसेल ने मार्क्स की मूल पांडुलिपियों की छानबीन करने के बाद बताया कि मार्क्स ने कैपिटल का सिर्फ़ग्रुंड्रिसनामक मसौदा ही नहीं बनाया था, बल्कि इस किताब के चार मसौदे मिलते हैं । मासाचुसेट्स के अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर फ़्रेड मोसेली ने संपादक की भूमिका लिखी है और उसमें बताया है कि 1977 में दो खंडों में रोस्दोल्स्की लिखितद मेकिंग आफ़ मार्क्सकैपिटलसे डसेल की किताब बेहतर हैं क्योंकि रोस्दोल्स्की की गति हेगेल के दर्शन में डसेल जितनी नहीं थी । 61-63 वाले मसौदे में तीनों खंडों को ग्रुंड्रिस से अच्छी तरह व्यवस्थित किया गया है । डसेल ने अप्रकाशित पांडुलिपियों को देखने के लिए बर्लिन और एमस्टर्डम की यात्रा भी की थी ।
उन्होंने इतने व्यवस्थित तरीके से इन पांडुलिपियों का विश्लेषण किया है कि यह मार्क्स की ‘पूंजी’ का सर्वोत्तम पाठ सहायक बन जाती है । पहली पांडुलिपि ‘पूंजी’ के पहले खंड का दूसरा मसौदा है । इसकी शुरुआत मुद्रा के पूंजी में रूपांतरण से होती है । रूपांतरण की इस प्रक्रिया में जीवित श्रम की निर्णायक भूमिका का रेखांकन करते हुए वे इसे अतिरिक्त मूल्य समेत समस्त मूल्य के सृजन का ‘रचनात्मक स्रोत’ कहते हैं । जीवित श्रम के बिना पूंजी साकार ही नहीं हो सकती । अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन के लिए पूंजी जीवित श्रम को अंतर्भुक्त करती है । जीवित श्रम पूंजी का सामना करने के पहले से दरिद्रावस्था में यानी काम करने के हालात से महरूम मौजूद होता है । लेकिन यही दरिद्र श्रमिक मूल्य और अतिरिक्त मूल्य का रचनात्मक स्रोत होता है । जब इसे पूंजी में शामिल कर लिया जाता है तो यह पूंजी के लिए अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन करता है । डसेल के मुताबिक मार्क्स का यह जोर हेगेल की शेलिंग द्वारा की गई आलोचना से प्रेरित है ।   
2001 में ही प्लूटो प्रेस से जापानी मार्क्सवादी विद्वान ताकाहिसा ओइसी की किताबद अननोन मार्क्स : रिकंसट्रक्टिंग ए यूनिफ़ाइड पर्सपेक्टिवप्रकाशित हुई जिसकी भूमिकाद कैंब्रिज कंपैनियन टु मार्क्सके लेखक टेरेल कारवेर ने लिखी है । भूमिका लेखक ने बताया है कि इस किताब में उस मार्क्स को अज्ञात कहा गया है जो सोवियत संघ के प्रचार तंत्र द्वारा पोषित मार्क्स से भिन्न दिखाई पड़ते हैं । मेगा के प्रकाशन की योजना के कारण मार्क्स बहुत हद तक पारंपरिक छवि से आजाद हो चुके हैं इसलिए उनके अध्ययन में अब तक अनजाने पहलू उभरकर सामने आ रहे हैं । इसके अलावा ओइसी मार्क्सवादी विद्वत्ता की समृद्ध जापानी परंपरा से भी अपने अध्ययन में नयापन लाते हैं । इस परंपरा में गंभीर पाठालोचन पर बल दिया जाता है । उदाहरण के लिए ओइसी लिखित इस किताब में मार्क्स के समूचे चिंतन मेंदर्शन की दरिद्रतामहत्वपूर्ण काम के रूप में दिखाई पड़ती है । ओइसी ने मार्क्स के लेखन के कालानुसार अध्ययन की जगह विषयवार अध्ययन की पद्धति अपनाई है । इसके चलतेआर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियांभीपूंजीकी पूर्वपीठिका नजर आने लगती है ।
इसी साल लारेंस एंड विशार्ट से डेविड रेंटन द्वारा संकलित और संपादित किताबमार्क्स आन ग्लोबलाइजेशनका प्रकाशन मार्क्स के लेखन में नयी दुनिया के संकेतों को देखने और इसी लिहाज से उसकी प्रासंगिकता को रेखांकित करने की कोशिश का नमूना है ।
2001 में ही बुकमार्क्स पब्लिकेशन से एम्मा बर्चम और जान चार्लटन द्वारा संपादित किताबऐंटी कैपिटलिज्म: ए गाइड टु द मूवमेंटका प्रकाशन हुआ ।
2002 में वर्ड्सवर्थ फिलासफर्स सिरीज के तहत ‘आन मार्क्स’ शीर्षक किताब ब्लूम्सबर्ग यूनिवर्सिटी आफ़ पेंसिल्वानिया के वेंडी लाइनी ली नामक विद्वान ने लिखी । सौ पृष्ठों की इस किताब में मार्क्स के बुनियादी सिद्धांतों के विवेचन के अतिरिक्त पर्यावरण के संदर्भ में उनके विचारों पर भी एक अध्याय लिखा गया है ।
2002 में ही जापानी विद्वान कानाइची कुरोदा कीस्टडीज आन मार्क्सिज्म इन पोस्टवार जापानका प्रकाशन टोकियो स्थित अकाने बुक्स ने किया है । शीर्षक से ही प्रकट है कि यह किताब यूरोप से बाहर के एक देश में मार्क्सवाद के गंभीर अध्ययन से पाठक को परिचित कराने के उद्देश्य से लिखी गई है ।
इसी वर्ष रटलेज प्रकाशन ने पीटर हैमिल्टन के संपादन मेंकी सोशियोलाजिस्टसनामक एक पुस्तक शृंखला के अंतर्गत मान्चेस्टर विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के अध्यापक रहे पीटर वोर्सली लिखितमार्क्स एंड मार्क्सिज्मकिताब छापी है । 1982 में पहली बार छपी इस किताब का संशोधित संस्करण 2002 में छापा गया है । लेखक ने शुरू में ही कहा कि मार्क्स खुद को ‘समाजशास्त्री’ नहीं मानते, हो सकता है अनिच्छा के साथ ‘राजनीतिक अर्थशास्त्री’ या शायद ‘ऐतिहासिक भौतिकवादी’ मान लेते । उनकी कुछ बातों के आधार पर बाद के मार्क्सवादियों ने समाजशास्त्र को ‘बुर्जुआ विचारधारा’ ही माना जिसका मकसद बुद्धिजीवियों और जनता के सामने समाज की ऐसी धारणा प्रस्तुत करना है जिसे सर्वहारा की राजनीतिक कार्यवाही से रूपांतरित करना संभव नहीं हो । फिर भी अगर हम समाजशास्त्र को ऐसा सामाजिक विज्ञान मानें जिसका प्रमुख लक्ष्य समाजों, संगठनों और समूहों के बारे में हमारी समझदारी को विस्तारित करना है और इसी जानकारी के सहारे उस सामाजिक व्यवस्था के सबसे खराब प्रभावों से छुटकारा दिलाना भी है तो इस विषय पर मार्क्स के विचारों का प्रभाव महत्वपूर्ण नजर आएगा । समाजशास्त्र के निर्माण और विकास में मार्क्सी विचारों की भूमिका को समझे बिना समाजशास्त्र के इतिहास को ग्रहण करना असंभव होगा । जिन लोगों के चलते समाजशास्त्र सामाजिक दर्शनों के अमूर्त संग्रह की जगह पर गंभीर सामाजिक विज्ञान बना उनमें मैक्स वेबर और इमाल दुर्खीम के साथ कार्ल मार्क्स भी शामिल हैं ।     
इसी साल टाम राकमोर लिखित मार्क्स आफ़्टर मार्क्सिज्म: द फिलासफी आफ़ कार्ल मार्क्सका प्रकाशन ब्लैकवेल पब्लिशर्स ने किया । लेखक ने भूमिका में ही स्पष्ट कर दिया है कि इस किताब का मकसद राजनीतिक मार्क्सवाद (यानी राजनीतिक सत्ता से जुड़ा या उसके लिए निरूपित मार्क्सवाद) के खात्मे के बाद आम पाठक को मार्क्स के दार्शनिक सिद्धांतों से परिचित कराना है । अब तक जिस तरह मार्क्स के विचारों को ग्रहण किया जा रहा था, परिस्थिति में बदलाव आने के चलते उसी तरह उनको ग्रहण नहीं किया जा सकता । तीस साल पहले जब डेविड मैकलेनन ने मार्क्स के बारे में एक बेहतरीन किताब लिखी तो उसका औचित्य उन्होंने यह कहकर दिया कि मार्क्स-एंगेल्स के पत्राचार तथा ढेर सारा अप्रकाशित लेखन सामने आने से नए काम की जरूरत थी । उसी तरह राजनीतिक मार्क्सवाद के खात्मे से शायद पहली बार ऐसे काम की संभावना पैदा हुई है जो मार्क्स के लेखन के न केवल आरंभ को बल्कि उसकी परिपक्वता को भी जर्मन दार्शनिक परंपरा में अवस्थित करे । लेखक का कहना है कि आम पाठक के लिए लिखित होने के कारण यह किताब निर्विवाद या सरल नहीं है । मार्क्स के बारे में निर्विवाद लेखन संभव ही नहीं है । 
2002 में वर्सो से डैनियल बेनसेड लिखित किताब ‘मार्क्स फ़ार आवर टाइम्स’ का उपशीर्षक ‘एडवेंचर्स एंड मिसएडवेंचर्स आफ़ ए क्रिटिक’ है । यह किताब मूल रूप से फ़्रांसिसी में 1995 में प्रकाशित हुई थी और इसका अंग्रेजी अनुवाद ग्रेगोरी इलियट ने किया है । बेनसेड फ़्रांस के साठ दशक के क्रांतिकारी आंदोलन के नेताओं में से एक थे, इसलिए सिद्ध है कि यह किताब एक कार्यकर्ता की अंतर्दृष्टि से आलोकित होने के चलते शेष लेखन से अलग है ।
2002 में ही अल्फ़्रेडो साद-फ़िल्हो लिखित ‘द वैल्यू आफ़ मार्क्स’ का प्रकाशन रटलेज से हुआ । किताब का उपशीर्षक ‘पोलिटिकल इकोनामी फ़ार कान्टेम्पोरेरी कैपिटलिज्म’ है । स्पष्ट है कि समकालीन पूंजीवाद के विश्लेषण के लिए इसमें मार्क्स के सिद्धांतों का आधार ग्रहण किया गया है ।
2002 में ही प्लूटो प्रेस से मार्क काउलिंग और जेम्स मार्टिन के संपादन में ‘मार्क्स’ एटीन्थ ब्रूमेर: (पोस्ट) माडर्न इंटरप्रेटेशंस’ का प्रकाशन हुआ । इसमें मार्क्स की इस किताब के मूल पाठ के टेरेल कारवेर के अंग्रेजी अनुवाद के साथ उस किताब का विमर्श के रूप में, इतिहास के रूप में, राज्य की स्वायत्तता की समझ के रूप में तथा आज और उस समय के वर्गों और वर्ग संघर्षों के प्रतिपादक के रूप में विश्लेषण करते हुए बारह लेख संकलित किए गए हैं ।
2002 में टेंपल यूनिवर्सिटी प्रेस से जान रेन्स के संपादन में ‘मार्क्स आन रिलीजन’ का प्रकाशन हुआ । संपादक ने मार्क्स के लेखन के इस सबसे विवादित सवाल पर उचित यही समझा कि उनके लेखन को ही विकासक्रम से प्रस्तुत कर दिया जाय ।
2003 में मार्क्स के ही लेखन के आधार पर राबर्ट जे अंतोनियो ने एक किताब संपादित की मार्क्स एंड माडर्निटी। इसका प्रकाशन ब्लैकवेल पब्लिशिंग कंपनी ने किया है । इसमें आधुनिकता से जुड़े हुए मार्क्स के लेखन के अंश और उन पर संपादक सहित विभिन्न विद्वानों की टिप्पणियां हैं ।
2003 में ही लंदन विश्वविद्यालय के गोल्डस्मिथ्स कालेज में समाजशास्त्र के अध्यापक निकोलस थोबर्न ने रटलेज के लिए एक किताब लिखी डील्यूज, मार्क्स एंड पालिटिक्स
इसी साल टेलर एंड फ़्रांसिस की ई लाइब्रेरी ने मूलत: 1993 में रटलेज से प्रकाशितमैक्स वेबर एंड कार्ल मार्क्सका पुनर्प्रकाशन किया । लेखक कार्ल लोविथ हैं और नए संस्करण की भूमिका ब्रायन एस टर्नर ने लिखी है । टाम बाटमोर और विलियम आउटह्वाइट ने इसे संपादित करके एक विषयप्रवेश लिखा है । लोविथ ने 1928 से अध्यापन शुरू किया और मारबुर्ग में हाइडेगर के तहत काम करते रहे लेकिन 1934 में यह काम छोड़ दिया । फिर दो साल रोम में अध्यापन करने के बाद जापान में 1941 तक अध्यापन किया । 1941 में कनेक्टिकट और 1949 में न्यूयार्क चले आए । 1952 में दर्शन के प्रोफ़ेसर के बतौर हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय लौट आए । इस किताब में उनका मकसद यह बताना है कि मार्क्सवाद और समाजशास्त्र के बीच ढेर सारा झगड़ा गलतफ़हमी से पैदा हुआ है ।  
2003 में ही अल्फ़्रेडो साद-फ़िल्हो के संपादन मेंएंटी कैपिटलिज्म: ए मार्क्सिस्ट इंट्रोडक्शनका प्रकाशन प्लूटो प्रेस से हुआ ।
2003 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से रिचर्ड ड्रेक की लिखी किताब ‘एपोस्टल्स एंड एजिटेटर्स: इटली’ज मार्क्सिस्ट रेवोल्यूशनरी ट्रेडीशन’ का प्रकाशन यूरोप के इस छोटे से मुल्क की विद्रोही परंपरा से परिचय कराती है ।
2003 में प्लूटो प्रेस से प्रकाशित माइक वाइनी की किताब मार्क्सिज्म एंड मीडिया स्टडीज: की कांसेप्ट्स एंड कांटेम्पोरेरी ट्रेंड्सभी उन्हीं नई किताबों में शामिल है जो मार्क्स के लेखन और जीवन के अलग अलग पक्षों को नए दौर में उजागर करने के मकसद से लिखी गई हैं ।
2003 में स्टेट यूनिवर्सिटी आफ़ न्यूयार्क प्रेस ने जेसन रीड की किताब ‘द माइक्रो-पालिटिक्स आफ़ कैपिटल: मार्क्स एंड द प्रीहिस्ट्री आफ़ द प्रेजेंट’ प्रकाशित की है । किताब थोड़ा नए तरीके से मार्क्स के इस ग्रंथ को देखने की कोशिश करती है ।
2004 में मंथली रिव्यू प्रेस से माइकेल हाइनरिख लिखितऐन इंट्रोडक्शन टु द थ्री वाल्यूम्स आफ़ कार्ल मार्क्सकैपिटलकिताब छपी । हाइनरिख जर्मन विद्वान हैं और मेगा के प्रमुख संपादकों में से एक हैं । लेख तो उन्होंने ढेर सारे लिखे लेकिन किताब यही पहली है । कैपिटल या मार्क्स के मूल जर्मन लेखन के भाषाशास्त्रीय विश्लेषण पर उनका अधिकार है ।
एलेन डब्ल्यू वुड ने 1981 में ‘कार्ल मार्क्स’ शीर्षक जो किताब लिखी थी उसका दूसरा संस्करण 2004 में रटलेज से प्रकाशित हुआ है । इस नए संस्करण के लिए उन्होंने नई भूमिका तो लिखी ही, एक अतिरिक्त अध्याय भी जोड़ा । जो नई भूमिका है उसमें नयी सदी के लिहाज से मार्क्स के विचारों को देखने के नए संदर्भों को स्पष्ट किया गया है । 
2004 में ही आइकन बुक्स ने यू के में और टोटेम बुक्स ने अमेरिका में रूपर्ट वुडफ़िन और आस्कर ज़राटे द्वारा निर्मित मजेदार किताब ‘इंट्रोड्यूसिंग मार्क्सिज्म’ शीर्षक किताब का प्रकाशन किया । निर्मित इसलिए कि 177 पृष्ठों की यह किताब प्रत्येक पृष्ठ पर पाठ के अतिरिक्त रेखांकनों और चित्रों से भरी हुई है । शायद ऐसा लिखित पाठ को मजेदार बनाने के लिए किया गया है ।
क्लेयरेंडन प्रेस आक्सफ़ोर्ड से 2004 में इरा काट्जनेल्सन लिखित ‘मार्क्सिज्म एंड द सिटी’ का पुन:प्रकाशन हुआ । पहली बार इसका प्रकाशन 1992 में हुआ था ।
2004 में ही आटोनोमीडिया से प्रकाशित सिल्विया फ़ेडेरिकी की किताब ‘कैलिबान एंड द विच’ में इस बात की पड़ताल की गई है कि सामंतवाद से पूंजीवाद में संक्रमण के दौर में औरतों के विरुद्ध चुड़ैल कहकर युद्ध क्यों छेड़ा गया । इसका तीसरा पुनर्मुद्रण 2009 में हुआ है । किताब में इस धारणा का विरोध किया गया है कि स्त्रियों का शोषण कोई सामंती अवशेष है, बल्कि लेखिका का दावा है कि स्त्रियों के शोषण ने पूंजी संचय की प्रक्रिया में केंद्रीय भूमिका निभाई है ।
इसी साल ज़ेड बुक्स से डेविड रेंटन की किताब ‘डिसिडेंट मार्क्सिज्म’ प्रकाशित हुई । किताब का उपशीर्षक ‘पास्ट वायसेज फ़ार प्रेजेंट टाइम्स’ है । इसमें मार्क्सवादियों की उस धारा पर मुख्य रूप से विचार किया गया है जो सोवियत रूस में रहते हुए भी एक विक्षुब्ध परंपरा का निर्माण करते हैं (मायाकोव्स्की, कोलंताई और लुनाचार्स्की) या धारा से हटकर चिंतन करनेवाले मार्क्सवादियों की पांत में आते हैं ।
2004 में ही लुपुस बुक्स से एक किताबए वर्ल्ड टु विन: ए रफ़ गाइड टु ए फ़्यूचर विदाउट ग्लोबल कैपिटलिज्मप्रकाशित हुई जिसे पाल फ़ेल्डमैन और कोरिना लोट्ज ने गैरी गोल्ड और फिल शार्प के साथ मिलकर लिखा है ।
2004 में रेड लेटर प्रेस से रिचर्ड फ़्रेजर और टाम बूट लिखित किताब ‘रेवोल्यूशनरी इंटीग्रेशन: ए मार्क्सिस्ट एनालिसिस आफ़ अफ़्रीकन अमेरिकन लिबरेशन’ का प्रकाशन हुआ है । शीर्षक से ही स्पष्ट है कि अमेरिका के एक विशेष समूह के सवालों के साथ मार्क्सवाद के संवाद पर इसमें विचार किया गया है । इस पहलू पर जोर इसलिए भी दिया जा रहा है क्योंकि मार्क्सवाद के बारे में उसके विरोधियों ने यह प्रवाद फैलाया है कि वह अस्मिता विशेष की पूरी तरह से उपेक्षा करता है ।
2004 में रटलेज से मार्क डेवेनी की किताब ‘एथिक्स एंड पालिटिक्स इन कांटेम्पोरेरी थियरी: बिट्वीन क्रिटिकल थियरी एंड पोस्ट-मार्क्सिज्म’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत मार्क्सवाद के अंत पर सवाल उठाने से होती है । उसके बाद के दार्शनिकों के चिंतन पर मार्क्स के प्रभाव के प्रदर्शन के जरिए वे इसका उत्तर नकार में देते हैं ।
2005 में डब्ल्यू डब्ल्यू नार्टन एंड कंपनी ने पीटर ओसबोर्न लिखितहाउ टु रीड मार्क्सशीर्षक पुस्तक का प्रकाशन किया है ।   
2005 में ही स्टीवेन बेस्ट लिखित द पालिटिक्स आफ़ हिस्टारिकल विजनका प्रकाशन द गिल्फ़ोर्ड प्रेस से हुआ । इसका उपशीर्षक मार्क्स, फूको, हैबरमासहै । साफ है कि किताब में इन तीनों लेखकों के इतिहास संबंधी मान्यताओं का विश्लेषण-विवेचन किया गया है ।
हाल ड्रेपर पहले से ही एक पुस्तक-शृंखला शुरू की थी कार्ल मार्क्सथियरी आफ़ रेवोल्यूशन । उनकी मृत्यु के बाद इसके पांचवें खंड के रूप में वार एंड रेवोल्यूशनका प्रकाशन 2005 में मंथली रिव्यू प्रेस ने और फिर उसके साथ समझौता करके दक्षिण एशिया के लिए आकार बुक्स ने 2011 में किया जिसके लेखक के रूप में हाल ड्रेपर के साथ ही ई हेबेरकर्न का नाम है ।
माइकेल लोवी की किताबथियरी आफ़ रेवोल्यूशन इन द यंग मार्क्सका प्रकाशन हिस्टारिकल मैटीरियलिज्म बुक सिरीज योजना के तहत 2005 में हेमार्केट बुक्स से हुआ । भूमिका में लेखक ने सूचित किया है कि यह किताब सबसे पहले 1970 में फ़्रांस में छपी थी । फिर इसका अनुवाद इतालवी, जापानी और स्पेनी भाषाओं में छपा ।
2005 में ही यूनिवर्सिटी आफ़ मिसौरी प्रेस से प्रकाशित पाल एडवर्ड गाटफ़्रीड लिखित पुस्तक ‘द स्ट्रेंज डेथ आफ़ मार्क्सिज्म: द यूरोपियन लेफ़्ट इन द न्यू मिलेनियम’ अपने शीर्षक से चौंकाती है ।
इसी साल पालग्रेव मैकमिलन से पाल वेदरली द्वारा लिखी किताब ‘मार्क्सिज्म एंड द स्टेट: ऐन एनालीटिकल अप्रोच’ का प्रकाशन हुआ । लेखक लीड्स मेट्रोपोलिटन यूनिवर्सिटी में राजनीति के अध्यापक हैं ।
2005 में ही फ़्रेड मोसेली के संपादन में पालग्रेव मैकमिलन से ‘मार्क्स’ थियरी आफ़ मनी: माडर्न अप्राइजल्स’ का प्रकाशन हुआ ।
यू के ओपेन यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर टोनी बेनेट की किताब ‘फ़ार्मलिज्म एंड मार्क्सिज्म’ का प्रकाशन वैसे तो बहुत पहले 1979 में ही मेथुएन से प्रकाशित हुई थी । उसके बाद वहीं से तीन बार पुन:प्रकाशित होने के बाद रटलेज से 2003 में छपी तथा टेलर एंड फ़्रांसिस लाइब्रेरी से 2005 में इसका एलेक्ट्रानिक संस्करण प्रकाशित हुआ । अपने विषय पर यह अपनी तरह की अकेली किताब है ।
हिस्टारिकल मैटीरियलिज्म नामक पत्रिका ने पुस्तकों की एक शृंखला का प्रकाशन शुरू किया है । 2006 में ब्रिल प्रकाशन ने इसके तहत पाल बुर्केट लिखितमार्क्सिज्म एंड इकोलाजिकल इकोनामिक्सशीर्षक किताब छापी है । किताब का उपशीर्षक हैटुवर्ड ए रेड एंड ग्रीन पालिटिकल इकोनामी
इसी साल पालग्रेव मैकमिलन से प्रसिद्ध अर्थशास्त्री रिकार्डों बेलोफ़ायर और निकोला टेलर के संयुक्त संपादन में द कंस्टीच्यूशन आफ़ कैपिटलका प्रकाशन हुआ । इसमें मार्क्स लिखित पूंजीके पहले खंड पर विभिन्न कोणों से लिखे दस विद्वानों के लेखों को शामिल किया गया है । स्पष्ट है कि संपादकों के अर्थशास्त्री होने के कारण संकलित लेखों में अर्थशास्त्रीय पहलू अधिक उभरा है ।
2006 में ब्रिल प्रकाशन की ओर से टोनी स्मिथ लिखित किताब ‘ग्लोबलाइजेशन : ए सिस्टेमेटिक मार्क्सियन एकाउंट’ का प्रकाशन हिस्टारिकल मैटीरियलिज्म बुक सिरीज के तहत हुआ है । किताब के शीर्षक से साफ है कि आज की दुनिया की मुख्य परिघटना के विवेचन के लिए मार्क्सीय पद्धति का प्रयोग इसमें किया गया है ।
2006 में ही स्टीफेन ए रेजनिक और रिचर्ड डी वोल्फ़ के संपादन में रटलेज से ‘न्यू डिपार्चर्स इन मार्क्सियन थियरी’ शीर्षक किताब भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें निर्धारणवाद से मुक्त मार्क्सवाद के नए रूपों को तलाश करने की कोशिश की गई है ।
इसी साल रटलेज से प्रकाशित पाल ल ब्लांक लिखित किताबमार्क्स, लेनिन एंड द रेवोल्यूशनरी एक्सपीरिएंसका महत्व यह है कि लेखक घोषित रूप से अराजकतावादी हैं । किताब का उपशीर्षकस्टडीज आफ़ कम्यूनिज्म एंड रैडिकलिज्म इन द एज आफ़ ग्लोबलाइजेशनहै । शुरू में भूमिका जैसी चीज डेनिस ब्रूटस ने लिखी है और किताब की पृष्ठभूमि के रूप में यह बताने की कोशिश की है कि वर्तमान भूमंडलीकरण किस तरह पहले के उपनिवेशीकरण से अलग है । जो लोग इसे पहले जैसा ही कहते हैं वे इसको कम करके आंकते हैं । इस हमले की भिन्नता इसके स्तर, इसके ताने-बाने और इसके घोषित उद्देश्य में निहित है । विश्व व्यापार संगठन के प्रथम निदेशक रेनाटो रुजिएरो ने कहा कि उनका मकसद दुनिया का नया संविधान लिखना है । समूची दुनिया को जीतने और नियंत्रित करने का यह नया नजरिया है । ब्रेटन वुड्स संस्थाओं का जन्म तो दूसरे महायुद्ध के बाद हो गया था लेकिन लंबे समय से उनकी मौजूदगी के बावजूद शक्ति संघर्ष के चलते उन्हें दुनिया पर कब्जा जमाने के अपने लक्ष्य को आगे बढ़ाने में दिक्कत आ रही थी । अब एकमात्र महाशक्ति की उपस्थिति से उन्हें यह मौका मिल गया है । वही महाशक्ति सारी दुनिया का एजेंडा तय कर रही है । पुराने साम्राज्यवाद और पुराने उपनिवेशवाद से यह हालत अलग है । इस एजेंडे के तहत दुनिया भर के जंगल खत्म हो जाने हैं । इसके तहत इस हद तक गैस उत्सर्जन को वैधता मिलेगी जिससे कैंसर से लोग मरने लगेंगे । इसमें मुनाफ़े के आगे मानव जीवन का कोई मोल न होगा । इसी प्रक्रिया में सत्ता और संपत्ति का तयशुदा व्यवस्थित संकेंद्रण मुट्ठी भर लोगों के हाथ में हो रहा है और शेष जनता भिखारियों और आभासी मनुष्यों में बदल रहे हैं क्योंकि रोबोट, स्वचालन, जेल में कैदी अब सस्ते में कारखानों के बाहर उत्पादन कर रहे हैं ।           
2006 में स्टेट यूनिवर्सिटी आफ़ न्यूयार्क प्रेस से ब्रैडले जे मैकडोनाल्ड की किताब ‘परफ़ार्मिंग मार्क्स: कांटेम्पोरेरी नेगोशिएशंस आफ़ ए लिविंग ट्रेडीशन’ का प्रकाशन हुआ ।
2007 में ही लेक्सिंगटन बुक्स से एंड्र्यू क्लिमान की ढाई सौ पृष्ठों की ‘रीक्लेमिंग मार्क्स’ कैपिटल : ए रिफ़्यूटेशन आफ़ द मिथ आफ़ इनकांसिस्टेंसी’ शीर्षक किताब प्रकाशित हुई है । भूमिका में लेखक ने घोषित किया है कि उनकी किताब का मकसद मार्क्स लिखित ‘पूंजी’ में विसंगति संबंधी सौ सालों से चले आ रहे मिथक के समक्ष इसकी तर्क की सुसंगति को वापस स्थापित करना है । कारण कि इस मिथ के रहते राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना के मूल मार्क्सवादी तर्क को विकसित करना संभव नहीं लगता । इसी मिथक के चलते मूल्य, मुनाफ़ा और आर्थिक संकट के बारे में मार्क्स के सिद्धांतों को दबाना और सुधारना सही ठहराया जाता है । एक राजनीतिक-आर्थिक-दार्शनिक अखंडता को टुकड़े टुकड़े करके देखने में इस मिथ से सहायता मिलती है ।
2007 में ब्रिल प्रकाशन से मार्सेल फान डेर लिंडेन की ‘वेस्टर्न मार्क्सिज्म एंड द सोवियत यूनियन’ शीर्षक किताब प्रकाशित हुई है । इसका उपशीर्षक ‘ए सर्वे आफ़ क्रिटिकल थियरीज एंड डीबेट्स सिंस 1917’ है । उपशीर्षक से स्पष्ट है कि इसमें मार्क्सवाद के व्यवहार के सिलसिले में उठे लगभग सभी विवादों का जायजा लिया गया है ।
2007 में ही द स्केयरक्रो प्रेस से डेविड वाकर और डैनियल ग्रे की ‘हिस्टारिकल डिक्शनरी आफ़ मार्क्सिज्म’ का प्रकाशन हुआ है । डेविड वाकर न्यूकैसल विश्वविद्यालय में राजनीति के अध्यापक हैं और 15 सालों से राजनीतिक सिद्धांत का अध्यापन कर रहे हैं ।  
2007 में ही उपर्युक्त पुस्तक की तरह की ही किताब का प्रकाशन रटलेज से हुआ है । शीर्षक हैट्वेंटीएथ सेंचुरी मार्क्सिज्म: ए ग्लोबल इंट्रोडक्शन। इसके संपादक डेविड वाकर के साथ डेरिल ग्लेसर भी हैं । किताब तीन भागों में विभाजित है । पहला भाग मर्क्स की मृत्यु के बाद रूस और यूरोप में प्रसारित मार्क्सवाद के विवेचन पर केंद्रित है । इसमें विचारकों के बारे में अधिक बात की गई है । दूसरे भाग में यूरोप, सोवियत संघ, अफ़्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में मार्क्सवाद के उतार चढ़ाव का जायजा लिया गया है । तीसरा भाग मार्क्सवाद के वर्तमान विवादों पर केंद्रित है । इसमें सिद्धांत और व्यवहार के बीच संबंध, जनवादी प्रक्रिया और स्वतंत्रता, पूंजीवाद की आर्थिक आलोचना के बतौर मार्क्सवाद तथा मार्क्सवादी पद्धति की जांच परख की गई है ।
एटीन बलिबार की किताब द फिलासफी आफ़ मार्क्सका प्रकाशन पहली बार तो 1995 में वर्सो से हुआ था लेकिन 2007 में वहीं से दोबारा इसका प्रकाशन हुआ है । मूलत: फ़्रांसिसी में लिखित इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद क्रिस टर्नर ने किया है । किताब का पहला अध्याय हीमार्क्सवादी दर्शन या मार्क्स का दर्शन?’ जैसे प्रश्न को समर्पित है । लेखक ने इस विरोधाभासी वक्तव्य को अपनी किताब का मुख्य कथ्य माना है कि मर्क्सवादी दर्शन जैसी किसी चीज का अस्तित्व न है, न हो सकता है जबकि मार्क्स का दर्शन नयी सदी में सर्वाधिक प्रासंगिक दर्शन रहेगा ।
2007 में ही ब्रिल प्रकाशन से रोलैंड बोअर लिखित किताबक्रिटिसिज्म आफ़ हेवेनएक नए विषय को उठाती है । इसका पता इसके उपशीर्षकआन मार्क्सिज्म एंड थियोलाजीसे चलता है ।
2007 में पालग्रेव मैकमिलन से प्रकाशित किताब फ़्राम रेवोल्यूशनरी मूवमेंट्स टु पोलिटिकल पार्टीज: केसेज फ़्राम लैटिन अमेरिका एंड अफ़्रीकाके संपादक कलावती देवनंदन, डेविड क्लोज और गैरी प्रीवोस्ट हैं । इसमें लैटिन अमेरिकी देशों में सत्तासीन वाम पार्टियों और अफ़्रीकी नेशनल कांग्रेस के रूपांतरण को समझने की कोशिश की गई है । स्वाभाविक रूप से समाजवादी निर्माण की कुछ गुत्थियों को समझने और सुलझाने में इस तरह के अध्ययनों से मदद मिलती है ।
2007 में टेंपल यूनिवर्सिटी प्रेस से एरिक एच माइलैंड्स की किताब ‘द ओरिजिन्स आफ़ कैपिटलिज्म एंड द “राइज आफ़ द वेस्ट”’ का प्रकाशन हुआ है । मार्क्सवादी नजरिए से पूंजीवाद का विश्लेषण करते हुए यह किताब पूंजीवाद के उदय की समझदारी में इजाफ़ा करती है । पश्चिम की बरतरी को इसके साथ जोड़कर साभ्यतिक बदलाव की सचाई को देखने की कोशिश इसमें प्रत्यक्ष हुई है ।
2007 में पालग्रेव मैकमिलन से बर्मिंघम विश्वविद्यालय के रास अबिनेट की किताब ‘मार्क्सिज्म आफ़्टर माडर्निटी: पालिटिक्स, टेकनोलाजी एंड सोशल ट्रांसफ़ार्मेशन’ का प्रकाशन हुआ । पूंजी के संगठन और संस्कृति के क्षेत्र के बदलावों के साथ भूमंडलीकरण और उत्तरआधुनिकता के सिलसिले में मार्क्सवाद को देखने की कोशिश इस किताब में की गई है ।
जर्मनी छोड़ने के बाद फ़्रांस, बेल्जियम होते हुए अंत में मार्क्स लंदन जाकर बस गए उनके बौद्धिक और राजनीतिक सक्रियता का ज्यादातर हिस्से का गवाह यही नगर रहा इस प्रवास की सचित्र झांकी आसा ब्रिग्स और जान कैलो ने प्रस्तुत की है इसका पुस्तकाकार प्रकाशनमार्क्स इन लंदन : ऐन इलस्ट्रेटेड गाइडशीर्षक से 2008 में लारेंस एंड विशार्ट से हुआ है 110 पृष्ठों की इस किताब के लगभग प्रत्येक पृष्ठ पर चित्र हैं । लंदन में मार्क्स राजनीतिक शरणार्थी के रूप में 1849 में आए थे । एक बार हथियारबंद विद्रोह में भाग लेने के बाद मार्क्स ने अपना जीवन दुनिया को समझने और बदलने के लिए जरूरी कामों को समर्पित कर दिया । इसके लिए उन्हें राजनीतिक अर्थशास्त्र के साथ तमाम तरह के सामाजिक और राजनीतिक विचारों का लेखन आवश्यक महसूस हुआ । लंदन उस समय यूरोप का सबसे बड़ा शहर था । सभी तरह के प्रवासी वहां थे, शहर भौतिक रूप से लगातार बदल रहा था । लगभग 35 बरस तक (1849-1883) वे राजधानी के विभिन्न इलाकों में रहे । मरने के बाद शहर के उत्तर हाइगेट सेमेटरी में वे दफनाए गए । तबसे प्रत्येक साल 14 मार्च को मार्क्स मेमोरियल पुस्तकालय की ओर से वहां श्रद्धांजलि सभा होती है चाहे धूप हो या बरसात । इन सभाओं में दुनिया भर की तमाम घटनाओं का उल्लेख होता रहा है । इस दौरान दो विश्व युद्ध भी हुए जिनमें इंग्लैंड और जर्मनी एक दूसरे से लड़ रहे थे । इसी दौरान मार्क्स के विचारों से प्रभावित तमाम देशों की सत्ताओं का भी पतन हुआ जिनके शासक इस स्मारक पर आते रहे थे । सत्ताओं के पतन को कुछ लोगों ने मार्क्स के गलत होने का सबूत माना तो कुछ लोगों का कहना है कि पूंजीवाद की कार्यप्रणाली के उनके विश्लेषण पर कभी सवाल नहीं उठाया जा सका है । पूंजीवाद और माल उत्पादन के भूमंडलीय प्रसार की उनकी भविष्यवाणी इक्कीसवीं सदी के आरंभ में प्रत्यक्ष हो रही है । लंदन के मार्क्स के बारे में उनके साथी एंगेल्स के बिना बात नहीं की जा सकती । वे सूती धागे के कारखाने के मालिक की संतान थे, 1842 में मांचेस्टर आए और वहीं रहकर पिता के कारखाने में काम करने लगे थे । भाप के उस जमाने में जो भी तत्कालीन समाज की हलचलों को समझना चाहता था वह इस जगह जरूर आता था । इंग्लैंड के मजदूर वर्ग की स्थिति के बारे में 1845 में लाइपत्सिग से प्रकाशित एंगेल्स की किताब मांचेस्टर के जीवन के उनके अनुभवों पर आधारित थी । मांचेस्टर की समृद्धि का कारण सूती वस्त्र उद्योग था, उस पर तथा मिल मालिकों और मजदूरों के टकराव पर केंद्रित यह किताब मार्क्स के आर्थिक और राजनीतिक विश्लेषण से जुड़ी हुई थी । यही जुड़ाव उन दोनों के चालीस साला सहयोग का वास्तविक स्रोत था ।
जब मार्क्स आए थे उस समय के लंदन की झलक डिकेंस के उपन्यासों में मिलती है । हालांकि खुद उनके जीवन में ही वह बहुत बदला था, उनके बाद तो बदलाव की रफ़्तार काफी तेज हो गई । उस समय 1848 की यूरोपीय क्रांतियों की असफलता के बाद जगह जगह से भागकर आए राजनीतिक शरणार्थियों से पूरा इंग्लैंड भरा हुआ था लेकिन उनका मिलन स्थल लंदन ही था । मार्क्स को लंदन के सामाजिक राजनीतिक माहौल में अपेक्षित एकांत मिल जाता था इसके बावजूद वे इस नगर के साथ सहज सार्वजनिक हैसियत भी अख्तियार कर लेते थे । अंतिम बेटी इलिनोर तो पैदा ही वहीं हुई थी इसलिए उसके लिए यह देश और समाज सहज बसावट की जगह थे । मार्क्स ने लंदन आकर पिछली जगहों की यादों से किनारा नहीं किया और इस व्यस्त नगर से अपने लिए आंकड़े और विचार जुटाए । बीच बीच में वे अन्य जगहों पर न केवल जाया करते बल्कि उनका दिमाग भी बहुत कुछ राष्ट्रीय सरहदों से आजाद ही रहा । जहां कहीं वे जाते वहां की राजनीति और समाज का विवेचन शुरू कर देते । लंदन आने के थोड़े दिनों बाद ही उन्हें लगा कि इंग्लैंड कृषि और व्यापारिक संकट के मुहाने पर है तथा बिना चाहे भी क्रांतिकारी भूगोल का हिस्सा उसे बनना होगा ।              
2008 में वर्सो से गोरान थेर्बोर्न की किताबफ़्राम मार्क्सिज्म टु पोस्ट-मार्क्सिज्मछपी । इसमें लेखक ने बीसवीं सदी को आखिरी यूरोप-केंद्रित सदी कहा है और माना है कि इक्कीसवीं सदी में हलचलों का केंद्र पश्चिम से खिसककर पूरब की ओर आ जाने की उम्मीद है । इसका एक कारण पश्चिमी देशों का अनुद्योगीकरण और चीन की आर्थिक ताकत का उभार है । एक बदलाव यह भी आया है कि साम्राज्य की रक्षक नई संस्थाओं का अंतर्राष्ट्रीय प्रसार है और उसके विरोधी संजालों का भी । लेकिन राष्ट्र-राज्य कमजोर नहीं मजबूत हुआ है । नई सदी में वाम आंदोलन को प्रभावी बनने के लिए वर्गीय आंदोलनों के साथनव सामाजिक आंदोलनोंपर भी ध्यान देना होगा । सामाजिक रूपांतरण की नई धारणाओं की जरूरत है । इसके लिए लेखक चार चीजों को दिमाग में रखने की सलाह देता है । पहला कि पूंजीवाद का सामाजिक द्वंद्व अब भी बना हुआ है । मजदूरों की हड़तालें हो रही हैं भले ही पहले जितनी प्रभावी न हों । वर्ग संघर्ष है लेकिन व्यवस्था को बदल पाने का विश्वास कमजोर पड़ा है । महिला श्रमिकों के कारण महिला आंदोलन का एक श्रमिक आयाम भी है । दूसरे उत्पीड़ित या भेदभाव से परेशान सामूहिक जातीय अस्मिता का द्वंद्व भी है । तीसरे नैतिक विमर्श है । पहले भीजायज वेतनऔरमानव प्रतिष्ठाके रूप में इसकी मौजूदगी थी । यानी मानवाधिकारों का सवाल भी है । चौथी चीज सबके लिए जीवन के आनंद की मांग है ।  
2008 में ही रटलेज से इटली के मशहूर मार्क्सवादी चिंतक मार्चेलो मुस्तो के संपादन में एरिक हाब्सबाम की विशेष भूमिका के साथ बहुत ही दिलचस्प किताबकार्ल मार्क्सग्रुंड्रिस : फ़ाउंडेशनंस आफ़ द क्रिटिक आफ़ पोलिटिकल इकोनामी 150 ईयर्स लेटरशीर्षक से प्रकाशित हुई । किताब तीन भागों में विभक्त है । पहला भाग दुनिया के विभिन्न विद्वानों द्वारा इस किताब की व्याख्या है । व्याख्या के लिए इस किताब के प्रमुख विषयों- पद्धति, मूल्य, अलगाव, अतिरिक्त मूल्य, ऐतिहासिक भौतिकवाद, पर्यावरणिक अंतर्विरोध, समाजवाद तथा ग्रुंड्रिस और पूंजी की तुलना- का विश्लेषण किया गया है । दूसरा भाग ग्रुंड्रिस के लेखन के समय के मार्क्स पर केंद्रित है यानी उसी समय के अन्य विषयों पर उनके लेखन और सोच विचार से इसकी तुलना की गई है । तीसरा भाग दुनिया के विभिन्न देशों में ग्रुंड्रिस के प्रसार और अभिग्रहण का ब्यौरा देता है । यह ब्यौरा उन भाषाओं के हिसाब से दर्ज किया गया है जिनमें समूचे ग्रुंड्रिस का अनुवाद हुआ है । इस भाग की तैयारी में संपादक को सबसे ज्यादा कठिनाई हुई क्योंकि सभी भाषाओं की सूचना जुटाना किसी के लिए भी लगभग असंभव है । जिन लोगों ने इस भाग के लिए लिखा उन्होंने अपनी भाषाओं में लिखा, फिर उसे अंग्रेजी में अनूदित किया गया । इस जटिलता के चलते ही संपादक ने किसी भी गलती के सुधार के लिए पाठकों से निवेदन किया है । 2006 से इस किताब का काम शुरू हुआ था और दो साल में 200 से अधिक विद्वानों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और पुस्तकालयाध्यक्षों की मदद से इसे पूरा किया गया ।
इसी साल याक बिदेत और युस्ताचे कूवेलाकिस के संयुक्त संपादन में मूल रूप से फ़्रांसिसी में प्रकाशित किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘क्रिटिकल कंपैनियन टु कांटेंपोरेरी मार्क्सिज्म’ शीर्षक से ब्रिल प्रकाशन से छपा । फ़्रांसिसी में यह किताब 2001 में समकालीन मार्क्सवाद के कोश के रूप में छपी थी इसीलिए इसका आकार बहुत बड़ा है । इसमें लगभग 830 पृष्ठ हैं । अंग्रेजी अनुवाद ग्रेगोरी इलियट ने किया है ।
2008 में ही वेलरेड पब्लिकेशंस, लंदन से एलन वुड्स की किताब रिफ़ार्मिज्म आर रेवोल्यूशन: मार्क्सिज्म एंड सोशलिज्म आफ़ द ट्वेंटी फ़र्स्ट सेंचुरीका प्रकाशन हुआ है जो हाइंट्स डाइटरिख को जवाब के रूप में लिखी गई है ।
2008 में सैमुएल होलैंडर की किताब ‘द इकोनामिक्स आफ़ कार्ल मार्क्स: एनालिसिस एंड अप्लिकेशन’ का प्रकाशन कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से हुआ ।
इसी साल कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से सुजान मार्क्स के संपादन मेंइंटरनेशनल ला आन द लेफ़्ट: रीएक्जामिनिंग मार्क्सिस्ट लीगेसीजका प्रकाशन हुआ । सुजान मार्क्स किंग्स कालेज, लदन में कानून की प्रोफ़ेसर हैं । किताब में अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और मानवाधिकारों आदि के प्रसंग में मार्क्स के विचारों की परीक्षा करते हुए अनेक विद्वानों के लेख संग्रहित हैं ।
2008 में ही रटलेज से पाल थामस की लिखी हुई किताब ‘मार्क्सिज्म एंड साइंटिफ़िक सोशलिज्म: फ़्राम एंगेल्स टु अल्थूसर’ का प्रकाशन हुआ ।
2008 में प्लूटो प्रेस से स्टीफेन शपीरो की किताबहाउ टु रीड मार्क्सकैपिटलका प्रकाशन हुआ । असल में यह किताब एक पुस्तक श्रृंखलाहाउ टु रीड थियरीके तहत लिखी और छपी ।
2009 में दक्षिण अफ़्रीका के जोहांसबर्ग के कोपाक नामक संस्था की ओर से प्रकाशित किताबन्यू फ़्रंटियर्स फ़ार सोशलिज्म इन द 21सेंचुरी: कनवर्सेशंस आन ए ग्लोबल जर्नीका संपादन विश्वास सतगर और लंगा ज़िता ने किया है । इसमें दुनिया भर में नयी सदी में होने वाले समाजवादी प्रयोगों की संभावना के बारे में विभिन्न विद्वानों के लेख संकलित हैं ।   
2009 में ही पालग्रेव मैकमिलन से रिकार्डो बेलोफ़ायर और राबर्टो फ़िनेची के संयुक्त संपादन में री-रीडिंग मार्क्सका प्रकाशन हुआ । इसका उपशीर्षक है न्यू पर्सपेक्टिव आफ़्टर द क्रिटिकल एडिशन। साफ है कि मेगा के दूसरे रूप के प्रकाशन के बाद खुलने वाले नए तत्वों पर यह पुस्तक केंद्रित है । इसमें संकलित विभिन्न विद्वानों के तेरह लेखों में मार्क्स के चिंतन के सभी पहलुओं पर नई सामग्री के मिलने से जो नए तत्व उद्घाटित हुए हैं उन पर रोशनी डाली गई है । 
2009 में बुकमार्क पब्लिकेशन से प्रकाशित क्रिस हर्मान लिखित ज़ोंबी कैपिटलिज्म: ग्लोबल क्राइसिस एंड द रिलेवेंस आफ़ मार्क्समें न केवल पूंजीवाद के नवीनतम रूपों का मार्क्सवादी नजरिए से विश्लेषण किया गया है बल्कि उनके द्वारा दिया गया यह विशेषण भी लोकप्रिय हो गया है । इस शब्द का संबंध जादू की ऐसी मिथकीय प्रक्रिया से है जिसमें व्यक्ति की अतीत की याद उससे छीन ली जाती है और वह वर्तमान में स्वचालित ढंग से हाथ पैर चलाने वाली लाश में बदल जाता है । हर्मान सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी के नेता हैं इसलिए उनके लेखन में एक कार्यकर्ता के आवेग का ताप भी है ।
2009 में ही ब्रिल प्रकाशन से हिस्टारिकल मैटीरियलिज्म बुक सिरीज के तहत पीटर डी थामस लिखित ‘द ग्राम्शीयन मोमेंट’ शीर्षक पुस्तक छपी है जिसका उपशीर्षक ‘फिलासफी, हेजेमनी एंड मार्क्सिज्म’ है । किताब इस नाते भी महत्वपूर्ण है कि पश्चिमी मार्क्सवादियों में से सबसे अधिक प्रासंगिक इस इतालवी चिंतक को सही परिप्रेक्ष्य प्रदान करने की कोशिश की गई है अन्यथा सोवियत संघ से नाराज मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों ने ग्राम्शी को लगभग उत्तर आधुनिक चिंतक बना दिया था ।
इसी साल और इसी योजना के तहत उक्त प्रकाशक ने ही लेबोविट्ज की किताब ‘फ़ालोइंग मार्क्स: मेथड, क्रिटिक एंड क्राइसिस’ का प्रकाशन किया ।
इसी साल बेर्ग प्रकाशन ने थामस सी पैटर्सन लिखित ‘कार्ल मार्क्स, एंथ्रोपोलोजिस्ट’ का प्रकाशन किया जिसमें लेखक ने मानव विज्ञान के क्षेत्र में मार्क्स की देन को बहुत सूझ-बूझ के साथ रेखांकित किया है ।
यही साल अलेक्स कलिनिकोस की किताब ‘इंपीरियलिज्म एंड ग्लोबल पालिटिकल इकोनामी’ के प्रकाशन का भी गवाह रहा जिसे पालिटी प्रकाशन ने छापा । किताब में मार्क्सवादी नजरिए से वर्तमान साम्राज्यवाद का विवेचन किया गया है ।
प्लूटो प्रेस से 2009 में बिल डन लिखितग्लोबल पोलिटिकल इकोनामी: ए मार्क्सिस्ट क्रिटिकका प्रकाशन हुआ ।
कंटिन्यूअम इंटरनेशनल पब्लिशिंग ग्रुप ने विभिन्न विचारकों के बारे में एक दिलचस्प पुस्तक शृंखला की शुरुआत की हैए गाइड फ़ार द परप्लेक्स्डजिसके तहत उन विचारकों के विचारों को सहज ढंग से समझाया जाता है । 2010 में जान सीड ने इस शृंखला में मार्क्स पर किताब लिखी । सात अध्यायों की 200 पृष्ठों की इस किताब में आगे के अध्ययन के लिए पुस्तकों की एक सूची भी दी गई है ।    
2010 में ही द यूनिवर्सिटी आफ़ शिकागो प्रेस से प्रकाशित केविन बी एंडरसन की किताबमार्क्स एट द मार्जिंसकी विशेषता यह है कि इसमें गैर यूरोपीय समाजों के बारे में मार्क्स के नजरिए के विश्लेषण को प्रमुखता दी गई है । 333 पृष्ठों की इस किताब का विषय प्रवेश लिखते हुए लेखक ने बताया है कि 1848 के क्रांतिकारी दौर की विफलता के बाद उनके दीर्घकालीन लंदन प्रवास में एक तो इस नगर के विश्व के औद्योगिक केंद्र होने से पूंजीवाद संबंधी उनके अध्ययन को गति मिली, दूसरी ओर इंग्लैंड दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य का अधिपति था और उसकी राजधानी में रहते हुए उन्हें पश्चिमेतर समाजों और उपनिवेशवाद का अध्ययन करने की भी प्रेरणा मिली ।    
वर्सो से 2010 में प्रकाशित द कम्युनिस्ट हाइपोथीसिसके लेखक अलेन बाज्यू हैं । इक्कीसवीं सदी में मार्क्सवाद के नवोत्थान का सूचक यह किताब भी मानी जा रही है ।
इसी साल कोस्तास दुजिनास और स्लोवक जिजैक के संयुक्त संपादन में वर्सो से ही प्रकाशित ‘द आइडिया आफ़ कम्युनिज्म’ भी एक हद तक मार्क्सवाद के बढ़ते हुए प्रभाव का प्रमाण है ।
2010 में ही अलेंक्जेंडर एविनास के संपादन में रटलेज से मार्क्सिज्म एंड वर्ल्ड पालिटिक्स: कांटेस्टिंग ग्लोबल कैपिटलिज्मशीर्षक किताब का प्रकाशन हुआ ।   
2010 में ही ज़ेड बुक्स से विलियम के कैरोल लिखित ‘द मेकिंग आफ़ ए ट्रांसनेशनल कैपिटलिस्ट क्लास: कारपोरेट पावर इन ट्वेंटी फ़र्स्ट सेंचुरी’ में नये धन्नासेठ वर्ग का समाजशास्त्रीय अध्ययन किया गया है ।
2010 में कनेक्टिकट कालेज में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर स्पेंसर जे पैक की एक किताब एडवर्ड एल्गर से प्रकाशित हुई है ‘अरिस्टोटल, एडम स्मिथ एंड कार्ल मार्क्स’ । इसका उपशीर्षक ‘आन सम फ़ंडामेंटल इशूज इन ट्वेंटी फ़र्स्ट सेंचुरी पोलिटिकल इकोनामी’ है । शीर्षक से ही साफ है कि लेखक मार्क्स को न केवल महान चिंतकों की सूची में शामिल करना चाहता है, बल्कि इक्कीसवीं सदी के राजनीतिक अर्थशास्त्र के लिहाज से भी उनके चिंतन को प्रासंगिक मानता है ।
2010 में सीरियल्स पब्लिकेशन से एरिक इंगले की किताब ‘मार्क्सिज्म, लिबरलिज्म एंड फ़ेमिनिज्म (लेफ़्टिस्ट लीगल थाट) का प्रकाशन हुआ ।
2010 में ही डोनाल्ड ससून की लगभग एक हजार पृष्ठों की किताब ‘वन हंड्रेड ईयर्स आफ़ सोशलिज्म: द वेस्ट यूरोपियन लेफ़्ट इन द ट्वेंटीएथ सेंचुरी’ के नए संस्करण का प्रकाशन आई बी तौरिस एंड कंपनी की ओर से हुआ । इससे पहले यह किताब 1996 में छपी थी । सत्ता दखल से बात शुरू करके कल्याणकारी समाजवाद के साथ जुड़े संशोधनवाद संबंधी विवरण के उपरांत ‘साठ’ की परिघटना तथा संकट के बाद वर्तमान उभार जटिलताओं के परिचय के कारण किताब भरपूर प्रतीत होती है ।     
2011 में वर्सो से फ़्रेडेरिक जेमेसन की किताब ‘रिप्रेजेंटिंग कैपिटल : ए कमेंटरी आन वाल्यूम वन’ प्रकाशित हुई । इसमें लेखक का दावा है कि पूंजीवाद के हरेक दौर में मार्क्स की इस किताब से नए नए अर्थ निकलते रहे हैं । उनके जमाने में यह आधुनिकतावादी प्रकल्प का हिस्सा थी । फिर 1844 की पांडुलिपियों के मिलने के बाद अलगाव संबंधी विश्लेषणों की मनोहारी दुनिया खुली । उसके बाद साठ के दशक में ग्रुंड्रिसे के सामने आने के बाद सुबोध पोथियों वाले मार्क्सवाद के मुकाबले ज्यादा खुले सैद्धांतिक ढांचे के सबूत मिलने शुरू हुए । उनका कहना है कि लेकिन इन सबके बीच कोई ऐसा विच्छेद नहीं है जैसा अल्थूसर देखते हैं, बल्कि अलगाव संबंधी चिंतन की निरंतरता पूंजी में भी है । वे जोर देकर कहते हैं कि मार्क्स की यह किताब राजनीति या श्रम के बारे में नहीं, बल्कि बेरोजगारी के बारे में है ।
अलेक्स कलिनिकोस की किताब ‘द रेवोल्यूशनरी आइडियाज आफ़ कार्ल मार्क्स’ का प्रकाशन वैसे तो पहली बार 1983 में हुआ था लेकिन उसका एक नया संस्करण 2011 में हेमार्केट बुक्स से छपा है । इस नए संस्करण के लिए लेखक ने अलग से विषय प्रवेश लिखा है । इसकी शुरुआत वे इस बात से करते हैं कि मार्क्स के जीवन का मकसद पूंजीवाद को समझना और उसे उखाड़ फेंकना था । उस समय औद्योगिक पूंजीवाद की स्थापना ब्रिटेन, बेल्जियम और अमेरिका के उत्तर पूर्वी समुद्री तटीय क्षेत्र तक ही हुई थी लेकिन मार्क्स ने समझ लिया कि भविष्य में यही आर्थिक प्रणाली पूरी दुनिया में फैलने वाली है । साथ ही उन्होंने इसकी बुनियादी खामी को भी समझ लिया था । इसमें पूंजी और पगारजीवी श्रमिक के बीच स्थायी शत्रुता बनी रहनेवाली थी । असल में पूंजीपति को मिलनेवाला मुनाफा नियुक्त श्रमिक के शोषण से ही पैदा होता है । जाहिर है कि टकराव पूंजीवाद के लिए कोई दुर्घटना या भूल नहीं, बल्कि उसकी आत्मा है ।
2011 में ही वर्सो से रोबिन ब्लैकबर्न लिखित पुस्तक ‘कार्ल मार्क्स एंड लिंकन: ऐन अनफ़िनिश्ड रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन हुआ । इसमें मार्क्स और अब्राहम लिंकन के अमेरिका के हालात’ खासकर दास प्रथा से संबंधित लेखों, भाषणों और आपसी पत्रव्यवहार का संकलन तो है ही, लगभग सौ पृष्ठों के विषय प्रवेश के जरिए लेखक ने दोनों के साझे सरोकारों पर विस्तार से प्रकाश डाला है ।
2011 में ब्रिल प्रकाशन से गुगलील्मो कारचेदी की लिखी किताब ‘बिहाइंड द क्राइसिस: मार्क्स’ डायलेक्टिक्स आफ़ वैल्यू एंड नालेज’ प्रकाशित हुई ।
2012 में रटलेज से मार्चेलो मुस्तो के संपादन में ‘मार्क्स फ़ार टुडे’ का प्रकाशन भी ध्यान देने लायक बात है । किताब मूल रूप से 2010 में ‘सोशलिज्म एंड डेमोक्रेसी’ नामक पत्रिका के विशेषांक (वाल्यूम 24, इशू 3, 2010, स्पेशल इशू: मार्क्स फ़ार टुडे)के बतौर प्रकाशित हुई थी । इस किताब के दो खंड हैं । पहला खंड ‘रीरीडिंग मार्क्स इन 2010’ है जिसमें मार्क्स के लेखन के विभिन्न पहलुओं पर नई परिस्थितियों के संदर्भ में लिखे दस विद्वानों के लेख संकलित हैं । दूसरा खंड ‘मार्क्स’ ग्लोबल रिसेप्शन टुडे’ है जिसमें संकलित अन्य दस लेख दुनिया के विभिन्न मुल्कों और क्षेत्रों में मार्क्स के अभिग्रहण का विश्लेषण करते हैं । किताब का यह खंड बेहद मजेदार है । पहला अध्याय ‘मार्क्स इन हिस्पानिक अमेरिका’ स्पेनी बोलने वाली दुनिया में मार्क्स की उपस्थिति का खाका पेश करता है । लेखक लैटिन अमेरिका के हालात का ब्यौरा देते हुए बताता है कि 1980 और 1990 के दशक में नव उदारवाद का बोलबाला था । वामपंथ के लिए इतिहास का अंत हो चुका था । लेकिन बाजार समर्थक सुधार सामाजिक प्रतिरोध की आग नहीं बुझा सके । प्रतिरोध की कतार में मजदूरों के साथ स्थानीय मूल निवासी, छोटे किसान, बेरोजगार और स्त्रियां खड़ी हो गईं । बीसवीं सदी का अंत आते आते विद्रोह, विक्षोभ और सरकारों का ढहना आरंभ हो गया । नई सदी में लैटिन अमेरिका में वाम झुकाव दिखाई पड़ने लगा । लेखक ने सबसे पहले स्पेन का हाल चाल लिया है क्योंकि मार्क्सवादी साहित्य के स्पेनी अनुवाद इस क्षेत्र के वैचारिक माहौल को प्रभावित करते हैं । उनके अनुसार स्पेन में मार्क्स-एंगेल्स के लेखन का कोई सही अनुवाद उपलब्ध नहीं है । कुछ कोशिशें चली थीं लेकिन जो लोग काम में लगे हुए थे उनकी मौत के चलते काम ठप हो गया । अर्जेंटिना में 1976 के तख्ता पलट के बाद 1983 तक जो तानाशाही चली उसने मार्क्सवाद से जुड़ा कोई काम नहीं होने दिया । बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ही विद्वानों में मार्क्सवाद पर चर्चा और काम शुरू हुआ । ये सभी विद्वान वे थे जो दमन के कारण विदेश चले गए थे और लोकतंत्र की वापसी के बाद लौटकर आए । अब जर्मन से सीधे कुछ अनुवाद हुए और हो रहे हैं ।       
हिस्टारिकल मैटीरियलिज्म की उपर्युक्त पुस्तक शृंखला के तहत 2012 में पीटर हुदिस की किताबमार्क्सकांसेप्ट आफ़ द अल्टरनेटिव टु कैपिटलिज्मका प्रकाशन हुआ है ।
इसी साल हीथर ए ब्राउन लिखितमार्क्स आन जेंडर एंड फ़ेमिली: ए क्रिटिकल स्टडीबेहद चर्चित हुई है और मार्क्स के लेखन को एक नये आंदोलन के सवालों के संदर्भ में समझने की कोशिश करती है । इसका प्रकाशन हिस्टारिकल मैटीरियलिज्म बुक सिरीज के तहत ब्रिल प्रकाशन ने किया है । 
2012 में ही डेनवेर विश्वविद्यालय में दर्शन के अध्यापक थामस नेल लिखित किताब ‘रिटर्निंग टु रेवोल्यूशन: डील्यूज, गुआत्तरी एंड ज़ापातिज्मो’ का प्रकाशन एडिनबरा यूनिवर्सिटी प्रेस ने किया है ।
2012 में आटोनोमीडिया से प्रकाशित सिल्विया फ़ेडेरिकी की किताबरेवोल्यूशन ऐट प्वाइंट ज़ीरोका महत्व यह है कि इसमें स्त्रियों के घरेलू काम को वेतनयोग्य काम मानने की बात की गई है और इसीलिए लेखिका के मुताबिक रोजमर्रा के जीवन में क्रांति की संभावना तलाशना इस किताब का मकसद है ।
2012 में ही वर्सो से लियो पानिच और सैम गिनडिन लिखितद मेकिंग आफ़ ग्लोबल कैपिटलिज्मशीर्षक किताब उन किताबों की परंपरा में है जिनमें मार्क्सवादी नजरिए से अमेरिका के नेतृत्व में बनने वाले नए पूंजीवादी ढांचे का विवेचन किया गया है । शायद इसी वजह से इसका उपशीर्षकद पोलिटिकल इकोनामी आफ़ अमेरिकन एंपायररखा गया है ।
2012 में रिचर्ड डी वोल्फ़ और स्टीफेन ए रेजनिक लिखित किताब ‘कंटेंडिंग इकोनामिक थियरीज: नियो क्लासिकल, कींसियन, एंड मार्क्सियन’ का प्रकाशन एम आई टी प्रेस से हुआ है ।
2012 में ही सनी प्रेस से पाल ब्लैकलेज लिखितमार्क्सिज्म एंड एथिक्सका प्रकाशन हुआ । इसका उपशीर्षकफ़्रीडम, डिजायर एंड रेवोल्यूशनहै । साफ है कि रूढ़ नैतिकता के विरोध में मनुष्य की स्वतंत्रता और क्रांति के पक्ष में मार्क्सवाद को खड़ा करने की कोशिश इस किताब में लेखक ने की है ।
2013 में डेविड हार्वे लिखितए कंपैनियन टु मार्क्सकैपिटल : वाल्यूम टूका प्रकाशन हुआ है जो मार्क्स की पूंजी के पहले खंड पर पहले लिखी और प्रकाशित किताब की निरंतरता में उसके दूसरे खंड को समझाने के लिए लिखी गई है और पहली किताब की तरह ही वर्सो से प्रकाशित हुई है । पहली किताब जहां उनके व्याख्यानों से तैयार की गई थी वहीं इसके प्रसंग में उन्होंने व्याख्यानों से पहले विस्तृत नोट लिखे, फिर व्याख्यानों के बाद सवाल जवाब तथा टिप्पणियों की रोशनी में इन्हें सुधारा और उसके बाद प्रकाशन हुआ है । इसमें भी लेखक का इरादा मूल पुस्तक को पढ़ने की प्रेरणा देना ही रहा है । उनका कहना है कि पूंजी के दूसरे खंड को भी पहले खंड जैसी गंभीरता के साथ ही पढ़ा जाना चाहिए । मूल्य और अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन और साकार होने की एकताबद्ध प्रक्रिया के रूप में ही पूंजी को समझने पर मार्क्स ने ग्रुंड्रिस में ही जोर दिया था । उनके कहने का मतलब था कि मेहनत के जरिए पैदा हुई चीज को अगर बाजार में बेचा नहीं जाता है तो उत्पादन में साकार श्रम का कोई मूल्य नहीं होता । मार्क्स ने पूंजी के पहले खंड में मूल्य और अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन की प्रक्रियाओं और गतिकी पर अपना ध्यान केंद्रित किया था । दूसरे खंड में उन्होंने अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन की बजाय उसके साकारीकरण के दौरान की समस्याओं पर ध्यान दिया गया है । हार्वे का कहना है कि ये दोनों अलगाए नहीं जा सकते इसलिए दूसरा खंड भी उतनी ही गंभीरता से पढ़ा जाना चाहिए जितनी गंभीरता से पहले भाग को पढ़ा जाता है । बिना इसके पहले भाग को भी अच्छी तरह से नहीं समझा जा सकता है ।                           
2013 में ही मंथली रिव्यू प्रेस से समीर अमीन की किताब ‘थ्री एसेज आन मार्क्स’ वैल्यू थियरी’ भी मार्क्सवादी लेखन में आर्थिक पहलुओं पर जोर की प्रवृत्ति का द्योतक है । समीर अमीन अफ़्रीका के सेनेगल से लगातार मार्क्सवादी आर्थिकी के विकास का प्रयास करते रहते हैं । भूमिका में उन्होंने बताया है कि मार्क्स को उन्होंने पहली बार 20 साल की उम्र में पढ़ा । उसके बाद से प्रत्येक बीस साल बाद बदले हुए संदर्भ में पढ़ते रहे हैं । दूसरी बार 1950 में पढ़ा जब पूरब-पश्चिम के बीच टकराव और बांदुंग सम्मेलन की शक्ल में दक्षिण का जागरण हो रहा था । फिर 1970 में जब डकार में अफ़्रीकी आर्थिक विकास और योजना संस्थान के निदेशक बने और अफ़्रीकी तथा एशियाई देशों द्वारा अर्जित स्वाधीनता को क्रांतिकारी दिशा देने के काम में प्रशिक्षण और बहस के लिए मार्क्स के लेखन को केंद्रीय विषय तय किया । 1990 में यह जानने के लिए कि बीसवीं सदी के समाजवाद के ध्वंस के बाद किन चीजों को बचाया जाना है । 2010 में जब पूंजीवाद ने इतिहास के अंत की घोषणा कर दी तो नयी संभावनाओं को पहचानने के लिए उन्हें मार्क्स को फिर पढ़ना जरूरी लगा ।  
इसी साल ब्रिल प्रकाशन से रिकार्डो बेलोफ़ायर, गीडो स्टारोस्टा और पीटर डी थामस के संयुक्त संपादन में ‘इन मार्क्स’ लेबोरेटरी: क्रिटिकल इंटरप्रेटेशंस आफ़ ग्रुंड्रिस’ का प्रकाशन हुआ । ध्यान देने की बात है कि इस दौर में विद्वानों में 1844 की पांडुलिपियों के बाद मार्क्स की सबसे अधिक चर्चित किताब यही रही है और प्रस्तुत किताब भी इसी तथ्य को पुष्ट करती है ।
2013 में ही ज़ेड बुक्स से रोजर बरबक, मिशेल फ़ाक्स और फ़ेडरिको फ़ुएंतिस द्वारा लिखित किताब ‘लैटिन अमेरिका’ज टरबुलेंट ट्रांजीशंस: द फ़्यूचर आफ़ ट्वेंटी फ़र्स्ट सेंचुरी सोशलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । किताब लैटिन अमेरिकी देशों में समाजवादी आंदोलनों और प्रयोगों का परिचय देती है और उनकी परीक्षा भी करती है ।
2014 में ही एम सी एम पब्लिशिंग की ओर से नील लार्सेन, मैथियास निल्गेस, जोश राबिंसन और निकोलस ब्राउन के संयुक्त संपादन मेंमार्क्सिज्म एंड द क्रिटिक आफ़ वैल्यूशीर्षक किताब छपी है । मार्क्स के लेखन के इस पहलू पर नव उदारवादी समय में सबसे अधिक प्रहार किए जा रहे हैं इसलिए किताब का महत्व स्वयंसिद्ध है ।
लगे हाथों जनवरी 2014 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशितद आक्सफ़ोर्ड हैंडबुक आफ़ द हिस्ट्री आफ़ कम्युनिज्मकी भी चर्चा कर लेते हैं । 672 पृष्ठों की यह किताब एस ए स्मिथ के संपादन में प्रकाशित हुई है और बीसवीं सदी के कम्युनिस्ट आंदोलन का बेहतरीन विश्लेषण मानी जा रही है । किताब केइंट्रोडक्शनमें स्मिथ ने बताया है कि यह किताब पिछले कुछेक दिनों में रूस और अन्य पूर्वी यूरोप के देशों तथा चीन में सामने आए नए दस्तावेजों के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विभिन्न विद्वानों के 35 लेखों का संग्रह है । शुरू के चार लेख उन संस्थापकों पर केंद्रित हैं जिनके विचारों और गतिविधियों ने विभिन्न देशों में कम्युनिस्ट शासन की स्थापना में केंद्रीय भूमिका निभाई । इसमें मार्क्स-एंगेल्स के विचारों के हिसाब से साम्यवाद के विवेचन पर लिखा परेश चट्टोपाध्याय का लेख महत्वपूर्ण है । किताब का दूसरा हिस्सा उन पांच युगांतरकारी दौरों का विश्लेषण करता है जो कम्युनिस्ट आंदोलन के जीवन में निर्णायक रहे । शंकर राय द्वारा लिखी समीक्षा में 1919, 1936, 1956, 1968 और 1989 को इन मौकों के रूप में चिन्हित किया गया है । उनका कहना है कि इन मौकों की पहचान ही कम्युनिस्ट आंदोलन की रूस केंद्रित छवि को खंडित करती है और उसकी विविधता तथा व्यापकता को उजागर करती है । इनमें 1968 पर माड एन ब्राके द्वारा लिखा गया अध्याय उस समय केसांस्कृतिक क्रांतिके प्रयासों का विश्लेषण करता है । किताब के तीसरे हिस्से में दुनिया के प्रमुख इलाकों में कम्युनिस्ट पार्टियों और उनके शासन की छानबीन की गई है । बाकी किताब में कम्युनिस्ट शासन के मातहत जीवन के अलग अलग पहलुओं को जांचा परखा गया है । इसकी मुख्य विशेषता यह है कि अधिक ध्यान उन देशों पर दिया गया है जहां शासन में कम्युनिस्ट रहे, आंदोलनकारी कम्युनिस्ट पार्टियों की कारगुजारी पर कम ध्यान दिया गया है । संपादक ने लेखकों से किसी एक देश पर लिखने की बजाए एकाधिक देशों के तुलनात्मक विश्लेषण पर जोर देने को कहा था और यह भी कहा था कि विश्लेषण में सत्ता के समक्ष क्रांति से पहले के सामाजिक ढांचों के नफे नुकसान का भी जायजा लें । साथ ही अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के साथ इन देशों के रिश्तों का भी ध्यान रखने को कहा गया था । इसका अपवाद केवल चीन की क्रांति पर लिखा लेख है क्योंकि संपादक का मानना है कि मार्क्सवादी आंदोलन या समाजवादी निर्माण में चीन की भूमिका की अनदेखी की गई है जबकि समय बीतने के साथ महसूस हो रहा है कि बीसवीं सदी की क्रांतियों में सबसे महत्वपूर्ण क्रांति यही थी । सोवियत रूस पर भी विचार करते हुए पारंपरिक क्षेत्रों की बजाय स्तालिनोत्तर खासकर ब्रेजनेव युग पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया गया है ।
बहुतेरे लोगों को लगता है कि चीन के वर्तमान शासन के साथ मार्क्सवाद का कोई लेना देना नहीं रह गया है लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वहां मार्क्सवाद का व्यवस्थित अध्ययन तो चल ही रहा है, वहां के विद्वान चीन के हालात के मद्दे नजर शास्त्रीय मार्क्सवाद के साथ उसके तमाम नवाचारों से भी लगातार संवाद बनाए हुए हैं । विश्लेषणात्मक मार्क्सवाद के राबर्ट वेयर नामक एक कनाडा के विद्वान ने समय समय पर चीन में जाने और वहां के मार्क्सवाद संबंधी माहौल का विस्तार से जिक्र करते हुए सोशलिज्म एंड डेमोक्रेसीके वाल्यूम 27, इशू 1, 3013 में रिफ़्लेक्शंस आन चाइनीज मार्क्सिज्मशीर्षक लेख लिखा । शुरुआत ही उन्होंने चीन के बारे में प्रचलित इस मान्यता से की है कि संविधान में लिखित होने के बावजूद दुनिया में शायद ही कोई चीन को समाजवादी मुल्क मानता होगा । फिर भी उनका कहना है कि चीन में समाजवाद आज भी मजबूत ताकत है और मार्क्सवाद गवेषणा का गंभीर विषय बना हुआ है । इसकी भूमिका के महत्व और इसकी जटिलताओं पर विचार करना लेखक को जरूरी लगता है । चीन में मार्क्सवाद के महत्व की तुलना पश्चिमी दुनिया में लोकतंत्र के महत्व से करना मजेदार होगा । दोनों ही मामलों में आचरण में इनकी मौजूदगी उल्लेखनीय नहीं है लेकिन मार्क्सवाद और लोकतंत्र जनता के जीवन में सुधार की कोशिशों को वैधता तो देते ही हैं, संघर्ष हेतु मौका भी उपलब्ध कराते हैं । उनका वास्तविक असर बेहद कम है लेकिन राजनीतिक और बौद्धिक कारणों के चलते इनका विवेचन जरूरी है । इसी नजरिए से लेखक ने चीन में मौजूद समाजवाद और मार्क्सवाद के प्रकारों का परिचय देने के साथ इस बात की भी छानबीन की है कि किन मुद्दों को खारिज किया जा रहा है और किनकी अनदेखी हो रही है । उनके अनुसार चीन में मार्क्सवाद समेत किसी भी विषय का अध्यापन इस समय बेहद रोमांचक अनुभव है । इसका कारण चीन में चल रहा विकास और उससे उत्पन्न ऊर्जा तथा उसकी जटिलता और अव्यवस्था भी है । लेखक के वक्तव्य 2007 के बाद की उनकी चीन यात्राओं पर आधारित हैं । जाते तो वे काफी पहले से रहे थे लेकिन इस लेख में उनका उद्देश्य हाल के विकासों की जनकारी देना है इसलिए 2007 के बाद के अनुभवों को ही उन्होंने आधार बनाया । इसमें वे शांघाई विश्वविद्यालय द्वारा 2007 मेंकैपिटलकी 140 वीं जयंती पर आयोजित सम्मेलन का जिक्र करते हैं जहां सैकड़ों चीनी अर्थशास्त्रियों ने विचार-विमर्श में हिस्सा लिया । ग्रुंड्रिस की 150 वीं सालगिरह पर भी केंद्रीय कंपाइलेशन और अनुवाद ब्यूरो की ओर से ऐसा ही समारोह हुआ था । 2011 में बीजिंग विश्वविद्यालय में लेखक ने जी ए कोहेन के विश्लेषणात्मक मार्क्सवाद का पाठ्यक्रम पढ़ाया । पहली परीक्षा के लिएमैं क्यों समाजवादी हूं या नहीं हूंविषय पर लेख लिखने के लिए दिया । तीस में से बीस ने होने के पक्ष में और दस ने न होने के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किए । लेखक को अचरज हुआ कि उनके दो तिहाई विद्यार्थी अपने को समाजवादी मानते हैं । इस नाते अन्य चीजों के अलावे एक किताब का जिक्र जरूरी है । गोटिंगेन विश्वविद्यालय की ओर से 2014 में झांग यिबिंग की किताबबैक टु मार्क्सका प्रकाशन हुआ है । किताब का उपशीर्षकचेंजेज आफ़ फिलासाफिकल डिस्कोर्स इन द कांटेक्स्ट आफ़ इकोनामिक्सहै । अंग्रेजी अनुवाद थामस मिचेल ने किया है और इसके संपादक ओलिवर कार्फ़ हैं ।
2014 में ही प्रेजर नामक प्रकाशन से तीन खंडों में शैनन के ब्रिंकेट के संपादन में कम्यूनिज्म इन 21 सेंचुरीका जिक्र भी अनावश्यक न होगा । इसकी भूमिका टेरेल कार्वेर ने लिखी है । किताब का पहला खंड द फ़ादर आफ़ कम्यूनिज्म: रीडिस्कवरिंग मार्क्सआइडियाजहै । इसमें 10 विद्वानों के लेख संकलित हैं । दूसरा खंड ह्विदर कम्यूनिज्मशीर्षक से है और इसमें मार्क्सवाद के आधार पर सत्तासीन आंदोलनों का हालचाल लिया गया है । तीसरा खंड द फ़्यूचर आफ़ कम्यूनिज्महै जिसमें इक्कीसवीं सदी में मुक्ति की संभावनाओं को देखा-परखा गया है । 
इसी साल क्रिस राइट की किताब ‘वर्कर कोआपरेटिव्स एंड रेवोल्यूशन’ का प्रकाशन बुकलाकर डाट काम से हुआ । किताब का उपशीर्षक ‘हिस्ट्री एंड द पासिबिलीटीज इन द यूनाइटेड स्टेट्स’ है । स्वाभाविक है कि अमेरिका जैसे देश में बदलाव की संभावना खोजने का काम बेहद कठिन है इसलिए सहकारी संस्थाओं को ही मानवीय किस्म की पहल के रूप में लेखक ने देखने की गुजारिश की है ।
2014 में वर्सो से फ़्रेडेरिक लार्डन की किताब ‘विलिंग स्लेवस आफ़ कैपिटल: स्पिनोज़ा एंड मार्क्स आन डिजायर’ का प्रकाशन हुआ है । मूलत: फ़्रांसिसी में 2010 में प्रकाशित इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद गैब्रिएल ऐश ने किया है ।
नए समय में पूंजीवाद के स्वरूप में आए बदलाव और आंदोलनों की प्रत्यक्ष प्रगति में ठहराव के चलते जो लोग अधिक उत्साह से आंदोलनों की किसीआदर्शक्रांतिकारी संभावना के फलित होने की आशा किए हुए थे उन्हें तो धक्का लगा है और कुछ निराशापूर्ण वक्तव्य भी सामने आए हैं लेकिन ज्यादा बड़ा समुदाय ऐसे बौद्धिकों का है जो नई परिस्थिति के विश्लेषण और उसके अंतर्विरोधों को समझने में मुब्तिला हैं । इन्हीं में से एक उर्सुला हुव्स के लेखआईकैपिटलिज्म एंड द साबरिएट: कंट्राडिक्शंस आफ़ द डिजिटल इकोनामीमें पूंजीवाद के विकास के एक नए पहलू का विश्लेषण किया गया है । इसे समझने के लिए शीर्षक में प्रयुक्त शब्दों पर ध्यान देना होगा ।आईकैपिटलज्मका अर्थ है इंटरनेट आधारित पूंजीवाद औरसाइबरिएटका अर्थ है कंप्यूटर और इंटरनेट की दुनिया के मेहनतकश ।       
2014 में वर्सो से लुई अल्थूसर द्वारा लिखित और फ़्रांस में 1995 में प्रकाशित किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘आन द रीप्रोडक्शन आफ़ कैपिटलिज्म: आइडियोलाजी एंड आइडियोलाजिकल स्टेट अपरेटसेज’ शीर्षक से छपा है । भूमिका एटीन बलिबार ने और विषय प्रवेश याक बिदेत ने लिखा है और अंग्रेजी अनुवाद जी एम गोशगैरियां ने किया है । एटीन बलिबार ने ठीक ही ‘राज्य के वैचारिक औजार’ संबंधी अल्थूसर की मान्यता की नवीनता की ओर ध्यान दिलाया है । उनका कहना है कि फ़्रांस के 1968 के छात्र आंदोलनों के समय अल्थूसर अवसादग्रस्त थे । इलाज के बाद लौटने पर विश्लेषण के दौरान व्यवस्था के पुनरुत्पादन में उच्च शिक्षा की भूमिका को समझने के लिए इस कोटि की कारगरता महसूस हुई । पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के पुनरुत्पादन में राज्य की तरह ही शैक्षिक संस्थानों की भूमिका भी हो जाती है और राज्य इन वैचारिक औजारों का उपयोग मौजूदा उत्पादन संबंधों के हित में करता है । 
टेरेल कारवेर और डेनियल ब्लैंक ने मार्क्स की किताब जर्मन विचारधारा की पांडुलिपियों के बारे में एक किताब लिखी जिसे पालग्रेव मैकमिलन ने ए पोलिटिकल हिस्ट्री आफ़ द एडीशंस आफ़ मार्क्स एंड एंगेल्स’ “जर्मन आइडियोलाजी मैन्यूस्क्रिप्ट्स”’ शीर्षक से 0214 में प्रकाशित किया । इसे भी मार्क्स की बाद में प्रकाशित ‘1844 की पांडुलिपियांऔर ग्रुंड्रिसके बारे में पैदा हुई रुचि का ही अंग मानना चाहिए क्योंकि यह किताब भी उसी तरह अप्रकाशित प्रारंभिक लेखन का हिस्सा है ।
इस समय के मार्क्सवादी चिंतकों में सबसे अधिक प्रभावशाली इस्तवान मेजारोस न केवल लगातार सक्रिय हैं, बल्कि अभी 2015 में उनके लेखों के संकलन ‘द नेसेसिटी आफ़ सोशल कंट्रोल’ का प्रकाशन मंथली रिव्यू प्रेस से हुआ है । इसकी भूमिका जान बेलामी फ़ास्टर ने लिखी है । भूमिका में फ़ास्टर ने मेजारोस के समूचे अवदान को रेखांकित करने की कोशिश की है । फ़ास्टर का कहना है कि मेजारोस भौतिकवादी परंपरा के श्रेष्ठ दार्शनिक हैं । उन्होंने मार्क्स के अलगाव सिद्धांत, पूंजी के संरचनागत संकट, क्रांति के बाद के सोवियत शैली के समाजों के पतन और समाजवादी रूपांतरण की आवश्यक स्थितियों के सिलसिले में उनके काम अतुलनीय हैं । सामाजिक संरचना और चेतना के रूपों के द्वद्वात्मक रिश्ते की खोज और चिंतन के प्रचलित रूपों की व्यवस्थित आलोचना में उनका कोई सानी नहीं है । किताब उनके इस अनुरोध पर लिखी गई कि जो लोग मार्क्सवाद के बारे में नहीं जानते उनके लिए आसानी से ग्राह्य कोई किताब लिखें । भूमिका में मेजारोस के समूचे चिंतन और खासकर इस किताब के संदर्भ समझाने की कोशिश की गई है । मार्क्स के अलगाव सिद्धांत संबंधी मेजारोस का काम 1844 की आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियों के प्रकाशन और प्रचार का नतीजा है । 1920 दशक में इनके प्रकाशन और लगभग एक दशक बाद इनके व्यापक प्रचार के उपरांत जार्ज लुकाच ने सबसे पहले गंभीरता से इन पर विचार किया और मार्क्स के चिंतन से हेगेल की द्वंद्वात्मक पद्धति का रिश्ता दिखाया । उनके शिष्य होने के नाते मेजारोस ने हेगेल और मार्क्स के लेखन में मौजूद अर्थशास्त्र और द्वंद्ववाद के आपसी रिश्तों को महत्व दिया । अलगाव की धारणा पर काम करते हुए ही मेजारोस ने पूंजी की प्रभुता को सामाजिक चयापचय की प्रणाली के रूप में देखा ।
मेजारोस ने मार्क्स के अलगाव के सिद्धांत को जिस तरह से देखा और उसे मार्क्स द्वारा राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना के समूचे काम के साथ जोड़कर व्याख्यायित किया उसके मुताबिक व्यवस्था के रूप में पूंजी उन सभी प्रवृत्तियों को पूर्ण करके सार्वभौमिक बना देती है जो इससे पहले की वर्गीय व्यवस्थाओं में आंशिक तौर पर मौजूद थीं ।