जेम्स पेत्रास ने एक लेख लिखा है ‘पाजिटिव थाट्स आन डार्क
टाइम्स’ । इसमें उन्होंने इस दौर में जो आशा के सकारात्मक चिन्ह दिखाई दे रहे हैं
उनके बारे में बताने की कोशिश की है । उनका कहना है कि सचमुच पिछले पंद्रह सालों
से यूरोप, अमेरिका और इजरायल युद्ध का खूनी खेल खेल रहे हैं, पूरी दुनिया में
विषमता बढ़ी है, आर्थिक संकट का अंत दिखाई नहीं पड़ रहा है तथा एशिया, उत्तरी
अफ़्रीका, यूरोप और कनाडा में दक्षिणपंथी तानाशाहियों का उभार हुआ है । फिर भी कुछ
सकारात्मक बदलाव भी आए हैं जो प्रतिक्रियावाद के वर्तमान उभार को बुनियादी तौर पर उलट
देने में सक्षम हैं । माना कि एशिया बहुत बुरे दौर से गुजर रहा है लेकिन चीन में मजदूर
वर्ग के संघर्षों की धमक अनजानी नहीं है जिनके चलते उनके वेतन और मजदूरी में औसतन 10% सालाना
बढ़ोत्तरी हुई । दस सालों में इसका असर वेतन के दोगुना होने में प्रकट हुआ । इसके लिए
मजदूरों ने हड़ताल, प्रदर्शन और जुझारू तरीके अपनाए । वेतन की
बढ़ोत्तरी के चलते अनेक विदेशी कंपनियों ने अपना काम तटीय क्षेत्रों से हटाकर देहाती
इलाकों में स्थानांतरित किया जिससे देहातों में सर्वहारा की तादाद बढ़ी और वर्ग संघर्ष
के क्षेत्र का विस्तार हुआ । अनेक कंपनियों ने सस्ती मजदूरी के चक्कर में कंबोडिया,
वियतनाम और बांग्लादेश की राह पकड़ी । नतीजा कि इन देशों में भी जुझारू
मजदूर वर्ग संघर्ष फैल गया । ऐसी भी खबरें हैं कि चीन में मजदूरी में इजाफ़े और अमेरिका
में कमी के चलते अनेक अमेरिकी कंपनियों ने उत्पादन का काम अमेरिका में ही कराने का
फैसला किया है । चीन से बाहर की ओर पूंजी निवेश में बढ़ोत्तरी आई है । यह पूंजी जहां
भी जा रही है वहां मजदूर वर्ग के संघर्षों में भी बढ़ोत्तरी देखी जा रही है । इस तरह
चीन के भीतर की मजदूरों की लड़ाई से विश्वव्यापी बदलाव आ रहे हैं । एशिया में ही अफ़गानिस्तान
की लड़ाई का अंत सूझ नहीं रहा है । इसका असर अमेरिका के भीतर तो पड़ ही रहा है दुनिया
भर में अमेरिकी साम्राज्य निर्माण पर इसका नकारात्मक प्रभाव जनता के लिए शुभ संकेत
है । अफ़गान युद्ध के विरोध ने ऐसा वातावरण बना दिया है कि किसी दूसरे युद्ध अभियान
के लिए अमेरिकी प्रशासन हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है । लिबिया में ओबामा शहरों की बमबारी
ही कर सके, देश पर कब्जा करने के लिए सेना नहीं भेज सके । सीरिया
में प्रत्यक्ष दखल नहीं किया जा सका । इजरायल लाबी की ओर से ईरान पर हमला करने के जबर्दस्त
दबाव के बावजूद ऐसा नहीं हो सका, आर्थिक प्रतिबंधों तक ही रुक
जाना पड़ा ।
इन धक्कों के कारण अमेरिका एशिया और लैटिन अमेरिका के
पुराने प्रभाव क्षेत्रों में आर्थिक,राजनीतिक और कूटनीतिक असर खोता जा रहा है ।
दोनों इलाकों के बाजार में अमेरिकी हिस्सेदारी घटी है । अमेरिका को छोड़कर
क्षेत्रीय संगठनों और मंचों का गठन लैटिन अमेरिका में हो रहा है । मध्य-पूर्व में
फंसे होने के कारण अमेरिका अन्य जगहों पर कुछ कर नहीं पा रहा है । मध्य-पूर्व में
अमेरिका के सहयोगी जनता में आधार खोते जा रहे हैं । इजरायल की सहायता बोझ होती जा
रही है । अमेरिका के भीतर यहूदी नौजवानों में पुरानी सत्ता संरचनाओं के प्रति आकर्षण
खत्म होता जा रहा है । खाड़ी के पुराने दोस्त देश भी जन आंदोलनों के मुहाने पर हैं
। वहां मौजूद अमेरिकी अड्डे किसी भी आगामी जन विक्षोभ के शिकार हो सकते हैं । इसके
अलावा ये शासक जुबानी तौर पर तो अमेरिका को समर्थन दे रहे हैं लेकिन गुपचुप सुन्नी
कट्टरपंथियों का साथ भी दे रहे हैं ।
यूरोप में भी परिस्थिति डांवाडोल ही है । नाटो के हथियार तो
रूस की सीमा तक तैनात हो गए हैं लेकिन अर्थतंत्र लंबे दिनों से मंदी और ठहराव से
गुजर रहा है । संकट के खत्म होने के आसार नजर नहीं आ रहे । सभी देश आर्थिक रूप से
लगभग कोमा में हैं । विषमता बढ़ती जा रही है और वेतन तथा सामाजिक सुरक्षा का ढांचा
बिखरता जा रहा है । वर्गीय गोलबंदी तेज हो रही है । वर्ग संघर्ष के पुनर्जीवन के
वस्तुगत हालात पूरी तरह से तैयार हैं । यूरोपियन यूनियन ने यूक्रेन तक अपना प्रभाव
क्षेत्र विस्तारित करके जहमत मोल ली है । पूर्वी यूक्रेन में मजदूरों ने पश्चिम की
कठपुतली सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया है । रूस पर प्रतिबंध लगाने की अमेरिकी
कोशिश को जर्मनी, फ़्रांस और इटली आदि देशों के पूंजीपतियों से ही विरोध का सामना
करना पड़ रहा है । खुद अमेरिका में भी व्यावसायिक संगठन इसके विरोध में विज्ञापन
छपा रहे हैं । अमेरिका में पूंजीपति वर्ग और साम्राजवादी राज्य मशीनरी के बीच खाई
नजर आने लगी है । प्रतिबंधों के विरुद्ध रूस और चीन ने आपसी राजनीतिक, आर्थिक और
सैनिक सहयोग बढ़ा दिया है । चीन में देशी अर्थतंत्र उसकी मजबूती की जड़ में तो है
ही, रूस ने भी आत्मनिर्भरता के रास्ते खोजने आरंभ कर दिए हैं । संक्षेप में
प्रतिबंधों का असर उलटा पड़ रहा है । दूसरी ओर यूरोप में नीचे से प्रतिरोध की
ताकतें खड़ी होने लगी हैं । ग्रीस में सीरिजा का उदय इसका प्रमाण है । इसके बाद
स्पेन की बारी है । नव उदारवादी नीतियों के विरुद्ध विरोध को दक्षिणपंथी ताकतें
शुरू में तो भुनाने में कामयाब होती नजर आईं लेकिन अब वाम ने पहलकदमी ले ली है ।
लैटिन अमेरिका में वाम की प्रगति में रुकावट आई है । फिर भी
अमेरिका के समर्थक चिली और पेरू अपने आर्थिक मामलों में अमेरिका से अधिक चीन पर
निर्भर हैं । होंडुरास और पराग्वे में अमेरिका तख्ता पलट करा सका लेकिन बिलिविया,
वेनेजुएला और इक्वाडोर अब भी उसकी पकड़ से बाहर ही हैं । कोलंबिया में अमेरिका के
सात अड्डे हैं लेकिन उसने वेनेजुएला के साथ व्यापारिक समझौता किया है । लैटिन
अमेरिकी देशों की निर्भरता अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी पर बहुत अधिक है जिसके
चलते उनके लिए मुश्किलें होती हैं । क्यूबा के सवाल पर भी ओबामा को अपना रुख बदलना
पड़ा है ।
दक्षिण अफ़्रीका में खदान मजदूरों की ऐतिहासिक हड़ताल ने
दुनिया भर के मजदूर आंदोलन में योगदान किया है । खुद अमेरिका में 80% लोगों ने
ओबामा के युद्ध प्रयासों के विरोध में राय व्यक्त की है । इसमें वाम तत्व को सीएटल
में समाजवादी प्रत्याशी क्षमा सावंत की जीत में देखा जा सकता है । शिकागो में
अध्यापकों का संघर्ष स्थानीय अफ़्रीकी और लैटिन अमेरिकी समुदाय के समर्थन से जारी है
। वैकल्पिक मीडिया के कार्यकर्ता भी मोर्चा संभाले हुए हैं और मीडिया पर कारपोरेट
के कब्जे का जवाब दे रहे हैं । अमेरिकी व्यवसायियों के मंचों से रूस पर लगाए गए
प्रतिबंधों के विरोध में आवाज उठ रही है ।
पेत्रास का कहना है कि सही बात है कि लड़ाई में टक्कर बराबर की
ताकतों के बीच नहीं है लेकिन लड़ने से ही जिंदगी की सार्थकता का पता चलेगा और लोग
दुश्मन को न केवल पहचानने लगे हैं, बल्कि उसकी हार भी शुरू हो गई है ।
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