हिंदी
में साहित्य के अतिरिक्त ज्ञान का सृजन अरसे से बंद नहीं है तो मम से कम उसकी चर्चा तो जरूर बंद है । कुल मिलाकर हिंदी की दुनिया में साहित्य का ऐसा आत्ममुग्ध वातावरण शायद ही पहले कभी रहा हो । प्रमाण यह है कि भारतेंदु से लेकर छायावाद-प्रगतिवाद के समय
तक हिंदी के प्रबुद्ध पाठक को अन्य भारतीय भाषाओं में लिखे साहित्य का पता तो होता ही था, दुनिया भर में
चल रही साहित्यिक हलचल से भी वह अनजान नहीं रहता था । हिंदी में जानकारी का यह स्तर गिरा है और एक खास तरह की पारस्परिक प्रशंसा का छिछला माहौल तारी हुआ है । आश्चर्य की बात है कि जिस समय हिंदी में श्रेष्ठ लेखन हो रहा था तब हिंदी के पाठक दुनिया में रचित अधिकांश महत्वपूर्ण लेखन से परिचित होते थे । हिंदी साहित्य की वर्तमान केंद्रित आत्ममुग्धता का स्तर यह है कि लोगों के भुला दिए जाने के भय से विवादप्रियता का जन्म हो रहा है । ऐसे में विजय शर्मा की किताब ताजा हवा की तरह है । 2014 में
वाणी प्रकाशन से ‘अफ़्रो-अमेरिकन साहित्य
: स्त्री स्वर’ शीर्षक से लगभग 350 पृष्ठों की यह किताब अनेक कारणों से पठनीय और विचारणीय है ।
पुस्तक
के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि लेखक अमेरिकी समाज में अफ़्रीकी मूल के बाशिंदों के सिलसिले में जारी भाषिक बहसों से परिचित हैं । इन्हें शुरू में नीग्रो कहा जाता था जो एक तरह का अपमानजनक संबोधन था । उनके द्वारा आपत्ति जताने के बाद इन्हें ब्लैक कहा जाने लगा जो साहित्य के प्रसंग में अब भी प्रयुक्त होती है । लेकिन सरकारी भाषा में इन्हें अफ़्रो-अमेरिकन ही कहा
जाने लगा है । सही बात है कि अभिधान में बदलाव असली हालात में बदलाव नहीं लाते फिर भी इसे लेकर होने वाली लड़ाई यही साबित करती है कि नाम में भी कुछ रखा है । इसे व्यक्त करते हुए
उन्होंने लिखा है ‘अफ़्रो-अमेरिकन लोगों के लिए पहले कई शब्दों
का प्रयोग किया जाता था । काफी समय तक उन्हें काले, हब्शी,
नीग्रो, दास, गुलाम,
ढोर की संज्ञा दी जाती रही । इनमें से अधिकांश शब्द हीनता बोध कराने
वाले शब्द थे । उन्हें मनुष्य से कम दर्जे का साबित करने वाले शब्द थे । बाद में भी
कभी अश्वेत, कभी नीग्रो, कभी अफ़्रो-अमेरिकन कहा जाता रहा । इन सब शब्दों में सदा थोड़ा भ्रम, थोड़ा कन्फ्यूजन बना रहा । आज अमेरिका की अश्वेत प्रजाति के लिए अफ़्रीकन-अमेरिकन अथवा अफ़्रो-अमेरिकन शब्द का प्रयोग प्रचलन में
है । यह सम्मानजनक संज्ञा है ।’ इस लेखन में भी यदि स्त्री के लेखन पर विचार होगा तो स्वाभाविक तौर पर कला की जगह उन सामाजिक हालात पर सोचा जाएगा जिन्होंने इस लेखन को जन्म दिया । इस पर भी ध्यान दिया ही जाएगा कि लेखन की भूमिका अपने आपमें एक तरह की मुक्ति की भावना की प्रतिष्ठा है । इस तथ्य को सोजर्नर ट्रूथ
के प्रसंग में रेखांकित करते हुए उन्होंने दर्ज किया है ‘इस स्त्री
को अपने लोगों, अन्य स्त्रियों की आलोचना का शिकार होना पड़ा ।
अन्य स्त्रियों की आलोचना का क्योंकि बहुत कम स्त्रियां अपना स्वतंत्र नजरिया रखती
हैं, अधिकांश पुरुष के नजरिए को ही आत्मसात किए हुए जीती हैं
।’ इस वक्तव्य से स्त्री लेखन के समर्थकों को आपत्ति हो सकती
है लेकिन उनका उद्देश्य इन लेखकों की विद्रोही भूमिका को उजागर करना है । इस साहित्य
के पीछे की आंदोलनात्मक शक्ति को चिन्हित करते हुए उन्होंने कहा कि ‘न्यूयार्क सिटी में हारलम नामक स्थान में बहुतायत में अश्वेत रहते आए हैं ।
यहां बीसवीं सदी के दूसरे और तीसरे दशक में एक अफ़्रो-अमेरिकन
सांस्कृतिक आंदोलन चला ।---इस आंदोलन के कारण पहली बार अफ़्रो-अमेरिकन साहित्य की ओर लोगों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित हुआ ।’
अस्मितामूलक इन संघर्षशील विमर्शों की यही खूबी है कि इनके आधारभूत साहित्य
के बारे में बात करते हुए उस सामाजिक समुदाय के हालात को भी लगातार ध्यान में रखना
पड़ता है । बिना इस संदर्भ के इनकी रणनीतिक और राजनीतिक दखलंदाजी के योगदान का मूल्यांकन
असंभव होता है ।
अफ़्रो-अमेरिकन साहित्य की विविधता का एक पक्ष यह भी
है कि इसमें गोरों और कालों के संसर्ग से उत्पन्न मुलातो भी शामिल किए जाते हैं । विजय
शर्मा ने भी ऐसी एक लेखिका को किताब में शरीक किया है । पहले लेखिका का परिचय
‘उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में एक अफ़्रो-अमेरिकन
(मुलातो) लेखिका हुई जिसने दास जीवन की कठिनाइयों
को सरल बनाने का अपने लेखन में उपाय बताया । हैरियट जैकब्स ने “इंसिडेंट्स इन द लाइफ़ आफ़ ए स्लेव गर्ल” में अपने लिए
लिंडा ब्रेंट नाम अपनाया और चित्रित किया कि कैसे एक युवा गुलाम लड़की अपने मालिक के
द्वारा किये जाने वाले बलात्कार के खतरे से बचने का उपाय करती है ।’ उनके लेखन का विश्लेषण स्त्री लेखन की विशेषताओं को रेखांकित करने का भी अवसर
बन जाता है । ‘लेखन लेखन होने के बावजूद एक पुरुष और एक महिला
के लेखन में कुछ मूलभूत अन्तर होता है ।’ इसके उदाहरण के रूप
में ‘उस समय के समाज में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार औरत के जो गुण बताए गए थे
उनसे जैकब्स इनकार करती हैं ।---लिंडा अपने यौन अनुभवों के द्वारा यह दिखाती हैं
कि वह आदर्श स्त्री की परिभाषा पर खरी नहीं उतरती हैं ।’
अफ़्रो-अमेरिकन लेखिकाओं द्वारा आत्मकथा लिखने के कारणों की
व्याख्या करते हुए उसके तीन कारण बताए गए हैं । ‘पहला कारण इस प्रथा के एजेंट
गुलामों पर जो अत्याचार करते थे, कोड़े मारकर खाल उधेड़ना, बलात्कार जैसे शारीरिक
अत्याचार जो यह स्थिति पैदा करती थी, उसे दिखाना ।’ लेकिन इससे भी बड़ा अत्याचार था
दासों के ‘परिवार को नष्ट करना, बच्चों को तितर-बितर कर देना, यौन शोषण, अपभाषा का
निरंतर प्रयोग, अपमान, घृणा आदि ।’ दूसरा कि ‘अमेरिका के उत्तर में एक धारणा
प्रचलित थी और जिसे अमेरिका के दक्षिणी श्वेतों ने जानबूझकर फैलाया हुआ था । यह
धारणा थी कि अश्वेत दास अपनी स्थिति से बहुत खुश और संतुष्ट, बहुत सुरक्षित हैं ।’
इस धारणा के खंडन के लिए बड़े पैमाने पर इन स्त्रियों ने अपने कथन को विश्वसनीय
बनाने के लिए इस विधा का सहारा लिया । तीसरा कारण कि ‘दास लोगों, खासकर दास अश्वेत
स्त्री को स्वतंत्र और श्वेत स्त्री के मापदंड पर नहीं जांचा जा सकता है, नहीं
जांचा जाना चाहिए ।’ स्पष्ट है कि उद्देश्य पूर्ण होने के कारण ही यह लेखन मुख्य
धारा के लेखन से भिन्न था ।
किताब एक हद तक हाल में सामने आई विशेष किस्म की विधा में रची
गई है । किसी उपयुक्त नाम के अभाव में इसे विविधा कहा जा रहा है जिसमें विषय-वस्तु की
विविधता नहीं होती बल्कि एक ही विषय पर अनेक तरह के लेख संकलित किए गए रहते हैं । शोध
प्रबंधों की अरुचिकर एकरसता की जगह यह विविधता आकर्षक है । इसका प्रमाण यह है कि किताब
के अलग अलग अध्यायों की पृष्ठ संख्या भिन्न भिन्न है और आश्चर्य की बात कि उनकी संख्या
का उनके महत्व से कोई खास लेना देना नहीं है । उदाहरण के लिए हाल ही में दिवंगत माया
एंजेलो को महत्वपूर्ण आत्मकथा लेखिका मानकर लगभग चालीस चालीस पृष्ठ दिए गए हैं । इनके
साथ ही टोनी मारीसन के उपन्यासों और एलिस वाकर के समूचे लेखकीय कर्म को समेटते हुए
उन्हें भी इतनी ही जगह दी गई है । इसके अलावा पहले अध्याय ‘अफ़्रो-अमेरिकी स्त्री रचनाकार : एक विहंगम परिदृश्य’
को भी इतने ही पृष्ठों में समेटा गया है । ऊपर गिनाई गई इन सभी लेखिकाओं
को उनकी रचनात्मकता के भिन्न भिन्न आयामों के हिसाब से किताब के केंद्र में रखा गया
है । सबसे अधिक जगह लिंडा ब्रेंट को उचित ही दी गई है क्योंकि इस लेखिका का लेखन सामने
आना ही परम साहस का उदाहरण है । इन बड़े लेखों के अतिरिक्त सोजर्नर ट्रूथ को
5 पृष्ठ, क्लोटेल शीर्षक उपन्यास को 15
पृष्ठ, इसके अलावा लगभग 30 पृष्ठों में एक ही जगह 11 फुटकर लेखिकाओं के बारे में,
अफ़्रो-अमेरिकन स्त्री लेखन से फ़िल्मों के संबंध
पर 15 पृष्ठ तथा सबसे मार्मिक प्रसंग अंतिम 4 पृष्ठों में । यह संगठन इस बात की पुष्टि करता है कि किताब किसी किस्म के औपचारिक
बंधन से आजाद होकर विषय में डूबकर लिखी गई है ।
किताब का सबसे छोटा अंतिम अध्याय ‘अंडरग्राउंड
रेलरोड : बिना रेल, बिना रोड कर दिया कमाल’
सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । गुलामी से मुक्ति का यह ऐसा मिथकीय आख्यान
है जिसे थोड़ी ज्यादा जगह मिलनी चाहिए थी । यह एक मिथकीय रास्ता था जिससे होकर गुलामों
को दक्षिण से उत्तर लाया जाता था । कानून था कि भागे हुए गुलामों को देखते ही गोली
मार दी जाए इसलिए यह रास्ता अंडरग्राउंड था । इसमें दासता के विरोधी गोरे भी शामिल
थे लेकिन मुख्य रूप से अफ़्रीकी लोग ही, खासकर स्त्रियों ने,
यह रास्ता बनाया था । इस रास्ते पर चलते हुए ज्यादातर लोग मारे गए,
बहुत कम बच सके । रात के अंधेरे में एक मंजिल से दूसरी मंजिल तक अनजान
लोग खामोशी से भागे हुए दासों को ले जाते । दिन में ऐसी जगहों पर छिपाया जाता जिसकी
याद भी बाद में न रह जाती । जो लोग भी लोकप्रिय किस्म के भूमिगत आंदोलनों के भोक्ता
रहे होंगे वे इस अनुभूति की आंच को समझ सकते हैं । अकेले इस अध्याय ने पूरी किताब को
साहित्य के व्यापक सरोकारों और पहलुओं तक ऊँचा उठाने में मदद की है ।
यह
किताब साहित्य के भीतर की नैतिकता को भी उजागर करती है जो नैतिकता के पाखंड
का भंडाफोड़ करता है । समाज में आम तौर जिस किस्म के नैतिक मानदंडों का प्राधान्य रहता है उस पर साहित्य सवाल तो उठाता ही है, कई बार
ऊपर से अनैतिक लगने वाले कामों के भीतर की गहन नैतिकता से हमें परिचित कराता है और इस तरह हमारे नजरिए को विस्तारित करके विपथगामियों को सहानुभूतिपूर्वक देखने की दृष्टि देता है । प्रसिद्ध कवि गुरदयाल सिंह ने अपनी आत्मकथा ‘चोला टांकियावाला’ में एक वाकये
का जिक्र किया है । एक स्त्री के आचरण की निंदा यह कहकर की जा रही थी कि जब उसकी संतान मर रही थी तो वह संभोग का आनंद उठा रही थी । गुरदयाल सिंह ने इसे एक जीवन के खात्मे के अंदेशे के समय एक और जीवन को रचने की उदग्रता के रूप में व्याख्यायित किया है । एक संस्कृत की कहावत
का सहारा लेकर कह सकते हैं कि साहित्य की गति सूक्ष्म होती है । इसी तरह इस किताब में एक लेखक
के उपन्यास में वर्णित एक घटना का जिक्र है जिसमें नायिका गुलामी से बचने के लिए भाग
जाती है । भागते हुए वह अपने बच्चों को मार डालती है । उसके इस आचरण को हत्यारा आचरण
कहा जा सकता है लेकिन उपन्यासकार के लिए इसके पीछे उसके मन में बच्चों के प्रति इतना
गहरा प्रेम था कि वह उन्हें गुलामी की तकलीफ भोगने के लिए जिंदा नहीं छोड़ना चाहती है
। पूरी किताब ही ऐसे प्रसंगों से भरी हुई है जिन्हें सामान्य मान्यताओं के तराजू में
नहीं तोला जा सकता । जो लोग अंग्रेजी में उपलब्ध यह विपुल साहित्य भाषाई दूरी या समय
की कमी के चलते नहीं पढ़ सकते उनके लिए संक्षेप में बेहद उपयोगी तरीके से मूल लेखन और
उसमें वर्णित जीवन की झांकी प्रस्तुत कर दी गई है ।
किताब में इन गुलाम स्त्रियों की आत्मकथाओं में व्यक्त कथा-व्यथा तो
है ही उस समूचे माहौल के घिनौनेपन को भी उभारा गया है जो गोरों के जीवन के लिए भी बहुत
उपकारी नहीं था । इसका वर्णन कुछ इस तरह किया गया है ‘श्वेत मां
के अश्वेत बच्चे को कई बार गला घोंटकर मार डाला जाता । अश्वेत मां के श्वेत बच्चे को
नीलामी के तख्त पर चढ़ा दिया जाता ।’ हैरियट के बहाने दर्ज किया
गया है ‘गुलामी की प्रथा श्वेत-अश्वेत दोनों
के लिए शाप थी । यह प्रथा श्वेत पुरुष को कामुक और क्रूर बनाती । लड़कियां भी संक्रमण
से बच नहीं पातीं । स्त्रियां दिन-रात बेवफाई का शिकार होतीं,
ईर्ष्या-द्वेष की अग्नि में जलती रहतीं । अश्वेत
को भी इस प्रथा ने मनुष्य नहीं रहने दिया । उनकी पहचान, उनके
अधिकार, उनकी इज्जत नहीं होती ।’ यही तो
इन आत्मकथाओं का मकसद था गुलामी प्रथा की अमानवीयता को संसार के सामने ले आना । लिंडा
का मालिक एक डाक्टर था । उससे बचने के लिए वह भागकर अपनी नानी के घर की नौ फ़ीट लंबी,
सात फ़ीट चौड़ी और तीन फ़ीट ऊंची दुछत्ती में छिप गई । स्वाभाविक रूप से
इसमें खड़ा होना या बैठना असंभव था । लेटे लेटे उसके शरीर के अंग जकड़ गए तो रात को नीचे
उतरकर थोड़ा शरीर सीधा कर लेती । इसी तरह उसने चूहों के साथ पांच साल काटे थे । इसके
बाद अपने प्रेमी के प्रयासों से वह भागकर उत्तर गई और आजाद हुई । सचमुच अपनी आजादी
के लिए इन स्त्रियों ने कितने महाकाव्यात्मक प्रयास किए । असली जीवन की भयानकता के
कुछेक ही दृश्य इस लेखन से व्यक्त हुए होंगे !
अगर धीरज और ध्यान के साथ किताब को पढ़ा जाय तो इस सवाल का भी
जवाब मिलता है कि आखिर क्यों वंचित समुदाय अपने हालात से विद्रोह को मुखरित करने के
लिए आत्मकथा का सहारा लेते हैं लेकिन इसी जगह इस रणनीति की एक समस्या भी सामने आती
है । जीवन की विडंबना को सामने लाने की कोशिश तो इनमें की जाती है लेकिन आलोचक अक्सर
उस चीख को सुनने के बदले सराहने लगते हैं । उदाहरण के लिए स्त्री लेखन में सिलाई की
उपस्थिति को उबाऊ श्रम के प्रतिकार के बदले उसका गुण समझा जाना । आशा की जानी चाहिए
कि हिंदी में लिखित होने के कारण इस किताब के बहाने अस्मिता लेखन की खूबियों और खामियों
पर बहस होगी ।