Saturday, August 30, 2014

कार्ल मार्क्स की एक नई जीवनी

          
                                  
मार्क्स के बारे में पैदा हुई हालिया रुचि की नवीनता का एक नमूना उनकी एक नई जीवनी है । सितंबर 2011 में लिटिल ब्राउन एंड कंपनी से न्यूयार्क बोस्टन और लंदन में एक साथ प्रकाशित मेरी गैब्रियल लिखितलव एंड कैपिटल: कार्ल एंड जेनी मार्क्स एंड द बर्थ आफ़ ए रेवोल्यूशनशीर्षक जीवनी आई है और फ़्रांसिस ह्वीन लिखित मार्क्स की जीवनी की तरह ही व्यक्ति मार्क्स पर अपेक्षाकृत अधिक केंद्रित है । भूमिका में ही लेखिका बताती हैं कि उन्हें जब पता चला कि मार्क्स की सात संतानों में से जीवित बची तीन बेटियों में से दो ने आत्महत्या की थी तभी से उन्हें इस बात में रुचि पैदा हुई कि व्यक्ति मार्क्स के जीवन की गहराई से छानबीन की जाय । जीवनी थोड़ा औपन्यासिक शिल्प में लिखी हुई है ताकि इसे पढ़ने में पाठकों को बोझ महसूस होने की बजाए आनंद आए इसलिए आनंद उत्पन्न करने के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही उपादान इसमें अपनाए गए हैं । इस जीवनी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें जेनी मार्क्स का व्यक्तित्व स्वतंत्र रूप से उभरकर सामने आया है । लेखिका का कहना है कि दिमागी मामलों में मार्क्स बेहद निर्मम थे । बुद्धि और तर्क के मामले में वे किसी को छूट नहीं देते थे इसीलिए यदि वे भी जेनी के बौद्धिक व्यक्तित्व का सम्मान करते थे तो इसका अर्थ है कि वे निश्चय ही मार्क्स के बौद्धिक प्रयासों में बराबर की भागीदार रही होंगी । यहां तक कि लेखिका द्वारा जुटाए गए सबूतों से जाहिर होता है कि जेनी कम्युनिस्ट आंदोलन के व्यावहारिक कामों में भी साझेदारी निभाती थीं । दूसरी विशेषता यह है कि लेखिका ने व्यक्ति मार्क्स के उद्घाटन के नाम पर शुरू तो थोड़ा मसालेदार तरीके से किया है लेकिन क्रमश: गहराई के साथ उस दुनिया के वर्णन में उतरती गई हैं जो बहुत कुछ मार्क्स के विचारों की पृष्ठभूमि का निर्माण करती है । इसमें मार्क्स के चुभते हुए कथनों को उनके संदर्भ के साथ प्रस्तुत किया गया है । उदाहरण के लिए मुक्त व्यापार के सवाल पर मौजूद भ्रम के बीच उनका कहना कि मुक्त व्यापार का सीधा मतलबमजदूर को कुचलने की पूंजी की आजादी है 
इसी जीवनी में पहले इंटरनेशनल के एक दस्तावेज का जिक्र है जो आश्चर्यजनक रूप से पुराना होने के बावजूद वर्तमान परिस्थिति को दर्शाता है : ‘भाइयो ! हम एक महान, एक अद्भुत उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करते हैं । हम अब तक दुनिया में घोषित सबसे महान क्रांति की घोषणा करते हैं, ऐसी क्रांति जिसकी गहनता और परिणामों की समृद्धि की दुनिया के इतिहास में कोई मिसाल नहीं । हम नहीं जानते कि इस क्रांति के परिणामों में हमें हिस्सा लेने की किस हद तक इजाजत मिलेगी । लेकिन हम यह जानते हैं कि यह क्रांति अपनी पूरी ताकत के साथ निकट आती जा रही है ; हम यह देख रहे हैं कि हर जगह, फ़्रांस में और जर्मनी में, इंग्लैंड में और अमेरिका में सर्वहारा के क्रुद्ध जनगण पूंजी के शासन की जंजीरों से, बुर्जुआजी की बेड़ियों से आजादी के लिए आंदोलनरत हैं और इसकी मांग कर रहे हैं, उनकी आवाज में अक्सर अब भी भ्रम है लेकिन वह अभूतपूर्व रूप से दमदार और साफ होती जा रही है । हम देख रहे हैं कि बुर्जुआ वर्ग अब तक की सबसे अधिक समृद्धि की ओर है, कि मध्य वर्ग अधिकाधिक बरबाद हो रहा है और कि इस तरह खुद ऐतिहासिक विकास ही जनगण की तकलीफ और धनी लोगों की स्वेच्छाचारिता के जरिए एक महान क्रांति की ओर बढ़ रहा है जो एक दिन फूट पड़ेगी ।कहीं कहीं तो सचमुच यह दस्तावेज राजनीतिक घटनाक्रम को ऐतिहासिक नाटक की तरह प्रस्तुत करता है । 1848 की क्रांति के समय का समूचा यूरोप कल्पना की आंखों के सामने प्रत्यक्ष हो जाता है और राजाओं, कुलीनों तथा राजनेताओं के साथ ही साधारण शहरी मजदूर और विद्रोही चिंतक परदे के पीछे से निकलकर अचानक प्रमुख भूमिकाएं निभाने लगते हैं ।
इन्हीं साधारण लोगों में ये विद्रोही अर्थात मार्क्स दंपति और उनके सदा के साथी एंगेल्स भी शामिल थे । किताब शुरू तो चटखारे लेने के टोन में हुई थी लेकिन धीरे धीरे उस समय की परिस्थितियों से विद्रोहियों के 1848 के सपनीले युद्धों के वर्णन के बाद एक ऐसे अध्याय पर आती है जो क्रांतिकारी पत्रकारिता के इतिहास में बेमिसाल लगता है । न्यू राइनिशे जाइटुंग का संपादन मार्क्स के जीवन का चमकता हुआ पन्ना है जिसमें वे बिना डरे तमाम कानूनी-गैर कानूनी लड़ाइयां तो लड़ते ही रहते हैं, जनता की नब्ज पर उनका हाथ रहता है और खासकर अंतिम अंक का लाल स्याही में प्रकाशन समर्पण के समय की गरिमा का उदाहरण बन जाता है । मजबूरी में ही सही मार्क्स जीवन भर रहे तो पत्रकार ही और इस पेशे के लिए अनुकरणीय साहस बनाए रखा । दुखद है कि शायद ही किसी पत्रकारिता के संस्थान में मार्क्स के इस पहलू पर ध्यान दिया जाता हो ।
लंदन के आरंभिक दिनों का वर्णन तो इतना दिल दहलाने वाला है कि इसे पढ़कर आश्चर्य होता है कि मार्क्स पागल क्यों नहीं हो गए । इस जीवनी के राजनीतिक होने के बारे में सिर्फ़ एक उदाहरण काफी होगा । 1850 तक मार्क्स को लगने लगा कि क्रांतिकारी ज्वार उतर चुका है । ऐसे में उनके कुछ साथी उतावले हो रहे थे । इस प्रसंग में लेखिका ने बताया है कि मार्क्स के मुताबिक क्रांति के लिए दो पूर्वावश्यकताएं होती हैं । क्रांति केवल कुछ खास ऐतिहासिक प्रक्रियाओं का नतीजा होती है और इच्छा से बलपूर्वक अपरिपक्व हालात में नहीं संपन्न की जा सकती । एक तो यह कि जनता की वर्गीय चेतना बढ़ी हुई होनी चाहिए और टेड यूनियनों के जरिए तथा अभिव्यक्ति, संगठन और प्रेस की आजादी के उपभोग के जरिए सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रियाओं में उनकी भागीदारी भी बढ़ी हुई होनी चाहिए । दूसरी यह कि सर्वहारा द्वारा वर्गविहीन समाज अर्थात साम्यवादी समाज के निर्माण के पहले निम्न-पूंजीवादी शासन का दौर आता है । लेखिका का कहना है कि विचारों में तो वे क्रांतिकारी थे लेकिन व्यावहारिक राजनीति में परिस्थिति के परिपक्व होने से पहले कोई साहसिक कदम उठाने का विरोध करते थे । मार्क्स के लंदन वाले घर में गरीबी और अभाव जनित मौतों के क्रम मेंकर्नल मुशकी मौत इतना धक्का पहुंचाने वाली घटना थी कि इसके कारण मार्क्स के बाल एक दोस्त के मुताबिक रात भर में सफेद हो गए । उनको मुश की मौत नुकसान नहीं, चोरी महसूस हुई थी । किसी की सहानुभूति उन्हें मंजूर न थी । घर अचानक खाली हो गया था । मार्क्स इस निजी क्षति से पूरी तरह टूटा हुआ महसूस करने लगे ।
घर बदल दिया गया ताकि मुश की यादें पीछा न करें । नए घर में एक साल के भीतर एक और संतान हुई लेकिन एक घंटे के भीतर ही उसने दम तोड़ दिया । अब तक चार संतानों की मौत हो चुकी थी । 1857 के आते आते आधुनिक किस्म के पहले संकट के लक्षण दिखाई देने लगे । आश्चर्यजनक रूप से उसका वर्णन वर्तमान संकट से मिलता जुलता है । वह भी अमेरिका से ही शुरू हुआ लेकिन अर्थव्यवस्था की घनिष्ठता के चलते यूरोप भी इसके लपेटे में आ गया । सदा की तरह बाहरी दुनिया की हलचलों ने आखिरकार परिवार का ध्यान निजी कष्टों से हटाया ।
किताब में न केवल मार्क्स की पत्नी जेनी का स्वतंत्र व्यक्तित्व उभरकर आया है, बल्कि इसी नाम की उनकी सबसे बड़ी बिटिया भी इंटरनेशनल के कामों में मार्क्स की सहायक के बतौर सामने आती है । उसकी सक्रियता का यह आलम था कि आयरलैंड के साथ ब्रिटेन द्वारा किए जा रहे अन्याय के विरोध में लिखी उसकी रपटों के चलते इंग्लैंड की संसद में प्रधानमंत्री को कुछ हद तक अपने कदम वापस खींचने पड़े थे । एक प्रसंग हमारे देश के हालात से भी थोड़ा मेल खाता है । जब इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया की पुत्री की शादी जर्मनी के बादशाह के पुत्र से तय हुई तो जर्मनों के स्वभाव की जानकारी के लिए उसने एक ब्रिटिश सांसद से मार्क्स से मिलकर इसका पता लगाने की प्रार्थना की । सांसद से मार्क्स ने जर्मनी में क्रांति की निकट संभावना व्यक्त की । जब सांसद ने जानना चाहा कि जर्मन सेना आखिर क्यों अपने ही शासकों के विरुद्ध खड़ी होगी तो जवाब में मार्क्स ने सेना में आत्महत्या की बढ़ती दर का हवाला दिया और कहा कि सैनिकों द्वारा अपने को मारने से आगे बढ़कर शासन करने वाले को खत्म करने में ज्यादा देर नहीं लगेगी ।
जेनी को अंतिम दिनों में कैंसर हो गया और इसी बीमारी से जूझते हुए आखिरकार 67 साल की उम्र में उनका निधन हुआ । मौत के दो दिन पहले उन्होंने तमाम तकलीफ और गरीबी के बीच किए गए लेकिन अब तक गुमनाम रचना कैपिटल की अंग्रेजी में प्रकाशित प्रशंसा सुनी जिसमें लेखक ने कहा था कि अर्थशास्त्र के लिए इस किताब का वैसा ही क्रांतिकारी महत्व है जो खगोलशास्त्र में कोपर्निकस की खोज का या भौतिकी में गुरुत्वाकर्षण अथवा यांत्रिकी का है । जेनी की मृत्यु के बाद मार्क्स के लिए जीना असंभव सा हो गया था । उसी में बड़ी बेटी की भी मृत्यु का समाचार सुनना पड़ा । इसके बाद उनके लिए जीवन भार हो गया । तीन महीने के भीतर ही मार्च में 64 साल की उम्र में मार्क्स भी नहीं रहे । उनकी मृत्यु जेनी के मरने के पंद्रह महीने के भीतर ही हो गई । एंगेल्स को दो साल में मार्क्स के परिवार के तीन सदस्यों के शोक संदेश लिखने पड़े । उनकी मृत्यु के बाद एंगेल्स और बची हुई दोनों बेटियों की कोशिशों ने उनके विचारों की कौंध बुझने नहीं दी ।
इस जीवनी की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि मार्क्स की मृत्यु के साथ ही यह समाप्त नहीं होती, बल्कि नौ अध्यायों का पूरा एक खंडआफ़्टर मार्क्सके नाम से है । मार्क्स के देहांत के बाद एंगेल्स और सबसे छोटी बेटी एलिनोर पर यह जिम्मेदारी आ गई कि मार्क्स का लिखा सब कुछ ठीक ढंग से प्रकाशित हो जाए । सामग्री में पांडुलिपियों के अलावे नोट, चिट्ठियों के साथ अखबार और किताबों के हाशियों पर दर्ज टीकाएं थी । कैपिटल के दूसरे भाग के भी तमाम रूप थे । एंगेल्स ने मार्क्स की अनुपस्थिति में दुनिया भर से सलाह मशविरे के लिए आने वाली चिट्ठियों को संभालने के अलावा मार्क्स की इस निधि के उद्धार का संकल्प लिया । जीवन भर जिस एंगेल्स ने आंदोलनों से नाता रखा था उसे अब मार्क्स के लेखन और संपादन-प्रकाशन से जूझना पड़ रहा था क्योंकि आंदोलन के लिए सबसे जरूरी काम फिलहाल उन्हें यही महसूस हो रहा था । 1885 के शुरू में आखिरकार कैपिटल का दूसरा भाग प्रकाशक के पास भेजा गया । डेढ़ साल के इस काम से एंगेल्स थक तो गए थे लेकिन तीसरे भाग को भी अंतिम रूप देने में जुट गए क्योंकि कोई और शायद न तो मार्क्स की लिखावट पढ़ पाता और न मार्क्स के लिखे का अर्थ समझ पाता । इन दो पांडुलिपियों के अतिरिक्त गणना के ढेर सारे कागज थे । इनके अलावे एक हजार पन्ने चौथे भाग के थे लेकिन एंगेल्स ने तय किया कि सारा लिखा व्यवस्थित कर लेने के बाद इसमें हाथ लगाएंगे क्योंकि उन पन्नों में बिखराव बहुत था ।     
बहरहाल मार्क्स की मृत्यु के एक साल के भीतर ही इंग्लैंड और फ़्रांस में मजदूर वर्ग में समाजवादी विचारों और साहित्य का तेजी से प्रसार हुआ । नतीजा कि जहां मार्क्स की मृत्यु के समय उनकी कब्र पर एक दर्जन लोग रहे होंगे वहीं पहली बरसी पर 6 हजार की भीड़ जुटी । हाइगेट कब्रगाह में लोगों को घुसने से रोकने के लिए पुलिस के पांच सौ सिपाही थे । फूल रखने के लिए औरतों को भी नहीं घुसने दिया गया । लोगों ने बगल के पार्क में सभा करके श्रद्धांजलि दी । इनमें फ़्रांसिसी और जर्मन लोगों से ज्यादा अंग्रेज थे जो इंग्लैंड में मार्क्स की लोकप्रियता में इजाफ़े का प्रमाण था ।
1885 में जर्मनी में चुनाव हुए जिसमें समाजवादी प्रत्याशी भी चुनाव लड़े । समाजवाद विरोधी कानूनों के चलते इन प्रत्याशियों को राहत संगठनों के लबादे में चंदा वसूलना पड़ता, प्रचार सामग्री छिपाकर वितरित करनी पड़ती और प्रत्याशी भी नकली संगठनों की ओर से घोषित किए गए थे । इसके बावजूद पार्टी के चौबीस प्रत्याशी विजयी हुए । इससे पार्टी को विभिन्न कमेटियों में भागीदारी करने और कानून बनाने का मौका मिला । यह जीत सर्वहारा आंदोलन के लिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि पहली बार जर्मनी की आबादी में किसानों के मुकाबले मजदूर बहुमत में आए थे और उद्योगों पर मुट्ठी भर पूंजीपतियों का कब्जा था । क्रांति न होने की स्थिति में सर्वहारा के लिए यही रास्ता सबसे मुफ़ीद था । इंग्लैंड में भी पहले से दोगुना संख्या में मताधिकार प्राप्त मतदाताओं के साथ चुनाव हुए । समाजवादियों ने तीन प्रत्यशी खड़े किए और तीनों हार गए लेकिन नेता पर आरोप लगा कि लिबरल पार्टी से पैसा लेकर उसने ऐसी जगहों से समाजवादी प्रत्याशी खड़े किए जहां कंजर्वेटिव पार्टी के समर्थक अधिक थे । पार्टी की बदनामी हुई लेकिन असली तमाशा उस साल की अभूतपूर्व ठंड में गरीब बस्तियों में गर्मी का कोई बंदोबस्त न करने के विरोध में प्रदर्शन के दौरान हुआ । इस प्रदर्शन के समय जान बूझकर पुलिस की तैनाती कम की गई थी ताकि हिंसा होने से मजदूरों के दमन का बहाना मिल सके । हिंसा हुई और भीड़ ने आलीशान घरों को तोड़कर लूटपाट की । हिंसा का सबसे अधिक खतरा फ़्रांस में था । वहां चुनाव में वामपंथ विजयी हुआ था लेकिन संसद के भीतर उनमें कुर्सी की छीना झपटी ऐसी थी कि वे जनता की समस्याओं से आंखें मूंदे अपने शगल में लगे रहे । इसी समय एमिली जोला का कोयला खदान मजदूरों पर लिखे मशहूर उपन्यासजर्मिनालका प्रकाशन हुआ जिसमें मजदूरों ने एक खदान के मैनेजर को जान से मार डाला था । एक ऐसी घटना हुई भी जिसका प्रभाव यह पड़ा कि संसद के अतिवादी समूह खामोश हो गए । एंगेल्स ने इसेकाल्पनिक समजवादकी मौत कहा । इसके कारण मजदूरों की समस्याओं पर तेजी से सरकारों और पूंजीपतियों का ध्यान गया जो शांतिपूर्ण हड़ातालों से आकर्षित नहीं हो रहा था । कुल तीन मजदूर सांसदों के शोर के चलते सरकार ने खान मजदूरों के हालात में सुधार की बात की । इसे एंगेल्स ने मजदूर अधिकारों की मान्यता का पहला प्रमाण माना । उधर अमेरिका में 1886 में आठ शहरों में काम के घंटे आठ करने के लिए प्रदर्शन हुए । यह तो शुरुआत थी । इन्हीं प्रदर्शनों के क्रम में 1 मई को आगे चलकर मजदूर दिवस की मान्यता मिली । ऐसी स्थिति में मार्क्सी समाजवाद भी अनजाना नहीं रह गया ।       
कैपिटल के दूसरे भाग में पूंजीवाद के केंद्र से आगे के विस्तार का विश्लेषण किया गया था । इसमें जहां बाजार नहीं था वहां बाजार के निर्माण की प्रक्रिया का बयान है जो उपभोक्ता के न चाहने पर भी उसके सिर पर थोप देने वाली वस्तुओं का परिचालन करता है । जीवनीकार ने इसके लिए गृह निर्माण उद्योग का हवाला दिया है जो संयोगवश इस समय की स्थिति से बहुत मिलता जुलता है । इसमें बिल्डर जो घर बनाते हैं उसके लिए धन संभावित खरीदारों की ओर से नहीं प्रदान किया जाता, बल्कि सट्टा पर घर रख लिया जाता है जिसे अगला सट्टेबाज और भी ऊँची कीमत अदा करके रख लेता है । निर्माण के लिए बिल्डर कर्ज पर धन लेता है इस आश्वासन के साथ कि घर की बिक्री पर लौटा देगा । नतीजा कि घर अधबने हाल में आर्थिक हालत में सुधार की आशा में पड़े रहते हैं या कभी कभी नीलामी में लागत के आधे दामों पर बिकते हैं । इस तरह पूंजीवादी अतिउत्पादन एक और उद्योग को मंदी तेजी की अस्थिरता के हवाले कर देता है । मार्क्स ने कृषि में इस प्रक्रिया के प्रवेश को ऐसे पशुओं की प्रजाति के प्रचलन में देखा जो हलाल होने के लिए जल्दी तैयार किए जाते हैं । इसके कारण किसान खेती से ज्यादा फ़ायदा इसमें देखकर अनाज की खेती से किनारा करने लगते हैं । इसके चलते कहीं अधिकाई तो कहीं अभाव पैदा होता है और अनाज का भाव बेहद बढ़ जाता है ।
इधर 1889 में इंग्लैंड में एक के बाद एक हड़तालें शुरू हुईं जिनमें मार्क्स की आखिरी बेटी एलिनोर और उसके पति एवेलिंग नेतृत्वकारी भूमिका में रहे । इसके पहले ये लोग अमेरिका में समाजवाद के प्रचार के लिए भाषण देते घूमते रहे थे । सबसे पहले गैस मजदूरों की सफल हड़ताल हुई जिसके नेता आगे चलकर ब्रिटेन के सांसद भी बने । दूसरी हड़ताल गोदी मजदूरों की हुई जिसका प्रभाव लंदन शहर पर बहुत गहरा पड़ा । उनके चंदे के बावजूद हड़ताली मजदूर टूटने की कगार पर पहुँच गए लेकिन तभी आस्ट्रेलिया के गोदी मजदूरों द्वारा एकत्र की हुई तीस हजार पौंड की सहायता आ गई । जहाज कंपनियों की हालत खराब होने लगी और इस व्यापक एकजुटता से डरकर उन्होंने मजदूरों की मांगें मान लीं । यह जीत समाजवादियों की भी थी । अब वे गरीबी से निजात दिलाने का रास्ता बताने वाले माने जाने लगे । एंगेल्स को लगा काश ! मार्क्स जीत का यह दिन देखने के लिए जीवित होते । इसी साल 14 जुलाई को मार्क्स की बेटी लारा के पति लाफार्ग ने बास्तील के पतन की सौवीं जयंती पर दूसरे इंटरनेशनल के गठन के लिए पेरिस में सोशलिस्ट कांग्रेस का आयोजन किया । यह घटना ऐतिहासिक रही क्योंकि उसी समय विश्व प्रदर्शनी के मौके पर एफ़िल टावर का भी उद्घाटन हुआ । एंगेल्स तो नहीं गए लेकिन एलिनोर और एवेलिंग ब्रिटेन के प्रतिनिधिमंडल में मौजूद थे । बीस देशों से 391 प्रतिनिधि एकत्र हुए थे । 6 दिनों की कार्यवाही के बाद कांग्रेस ने आठ घंटे काम के दिन, बाल श्रम पर प्रतिबंध और महिला तथा किशोर श्रमिकों के लिए नियम-कानून के समर्थन में प्रस्ताव पारित किए । उन्होंने मजदूरों के राजनीतिक संगठन की जरूरत और नियमित सेना के खात्मे और उसकी जगह जन-मिलिशिया की स्थापना से सहमति जताई । 1 मई को 1890 से प्रति वर्ष अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम के आठ घंटे और मजदूरों के अधिकारों के लिए प्रदर्शन करने का फैसला किया गया । अब एंगेल्स ने कैपिटल के तीसरे भाग पर हाथ लगाने का इरादा बनाया । उम्र भी सत्तर हो चली थी । 1890 की फ़रवरी में जर्मनी में हुए चुनावों में समाजवादियों को पिछले चुनाव के दोगुने वोट मिले और नई संसद में उनके 35 प्रतिनिधि निर्वाचित घोषित हुए । उस साल मई दिवस के प्रदर्शनों में पेरिस में एक लाख और लंदन में तीन लाख स्त्री-पुरुष मजदूर जमा हुए ।
1891 में ब्रसेल्स में दूसरे इंटरनेशनल की कांग्रेस में मार्क्स के विचारों का अनुमोदन किया गया । यह महसूस होने लगा कि समाजवादी आंदोलन, ट्रेड यूनियनें और मजदूर हितों की बात करने वाले ढेर सारे दल अब परिपक्वता की ओर हैं, लगने लगा कि दशकों की मेहनत और संघर्ष से जो लाभ हुए हैं उन्हें किसी राजा की मर्जी या सेना के दमन से पलटा नहीं जा सकता है । ब्रसेल्स कांग्रेस ने यूनियनों पर बल दिया और मजदूरों का मुकाबला करने के लिए विश्व स्तर पर संगठित हो रही पूंजी के विरोध के लिए मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता की बात की । कांग्रेस ने मजदूर हितों के लिए चुनावों का इस्तेमाल करने की बात भी स्वीकार की । युद्ध को पूंजीवाद का उत्पाद मानने और शांति के लिए काम करने का भी विवादास्पद प्रस्ताव पारित हुआ । 1892 में आंदोलन और आगे बढ़ा । फ़्रांस में वर्कर्स पार्टी को बाईस स्थानीय सरकारों का नियंत्रण मिला और नगर पालिकाओं में 635 सीटें मिलीं । जर्मनी में भी ताकत मजबूत हो रही थी लेकिन लंदन की मई दिवस का प्रदर्शन ऐतिहासिक था । 6 लाख मजदूर जमा हुए और एंगेल्स को अंतिम युद्ध की आहट सुनाई पड़ने लगी । जुलाई में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के तीन मजदूर प्रतिनिधि संसद में पहुंचे । इस जीत से उत्साहित होकर 1893 में 120 प्रतिनिधियों ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की । चार दिन बाद पार्टी का जो घोषणापत्र निकला वह पूरी तरह मार्क्स का लिखा लग रहा था । जो अध्यक्ष बने वे बाद में लेबर पार्टी के बड़े नेता साबित हुए । इसी साल जर्मनी में 44 सामाजिक जनवादी संसद में पहुंचे और पार्टी को सत्रह लाख वोट मिले । इसके कुछ ही दिन बाद दूसरे इंटरनेशनल की तीसरी कांग्रेस जूरिख में हुई । एंगेल्स ने समापन भाषण दिया । कांग्रेस में 18 देशों से चार सौ प्रतिनिधि आए थे । केवल पचास साल पहले मार्क्स और एंगेल्स ने समाजवाद का प्रचार शुरू किया था !

1894 में कैपिटल का तीसरा भाग एंगेल्स ने 74 साल की उम्र में पूरा कर लिया । इसमें एकाधिकारी पूंजी और विश्व बाजार के निर्माण की कहानी थी । इसमें सट्टा बाजार और उसके परजीवी नियंताओं का इतिवृत्त था । इसमें कर्ज प्रणाली की परीक्षा की गई थी और बताया गया था कि पगारजीवी मजदूर इस कर्जदाता का भी गुलाम होता है । सबसे आगे बढ़कर मुनाफ़े की गिरती दर के चलते पूंजीवाद के विनाश की घोषणा की गई थी । अब एंगेल्स ने मार्क्स की जीवनी लिखने का संकल्प किया । लेकिन 1895 के अगस्त माह के आरंभ में एंगेल्स का देहांत हो गया । इसके बाद के अध्यायों में मार्क्स की जीवित दोनों बेटियों और उनके परिवारों की कथा है जिसमें सबसे मार्मिक लारा और लाफ़ार्ग की है जिन्होंने आपसी सहमति से वृद्धावस्था की समस्याओं के चलते आत्मघात किया और जिनकी शवयात्रा में लगभग दो लाख लोग शामिल हुए । श्रद्धांजलि देने वालों में लेनिन भी थे ।

Sunday, August 3, 2014

कथा में महाकाव्य

                 
                                             
स्वयं प्रकाश द्वारा खुद ही चयनित ’10 प्रतिनिधि कहानियाँशीर्षक कहानी संग्रह किताबघर प्रकाशन द्वारा 2013 में छापा गया है । संग्रह की भूमिका स्वयं प्रकाश ने ही लिखी है । इस संग्रह को पढ़ना मानो दस महाकाव्य एक साथ देख जाना है । कोई भी कहानी इतनी अनुत्तेजक नहीं कि एक सांस में पढ़ा जा सके । पात्रों के साथ ऐसी घनिष्ठता बन जाती है कि आप उनकी व्यथा की तीक्ष्णता को महसूस करने लगते हैं । ये कहानियाँ खासकर ऐसे दौर में बेहद प्रेरणा प्रदान करती हैं जब समय के ठोस सवालों से कन्नी काटकर कथन शैली में मनोहर श्याम जोशी, भाषा में निर्मल वर्मा और कथावस्तु के मामले में उदय प्रकाश की नकल करना ही नया कहानीकार होने का मानदंड हो गया है । स्वयं प्रकाश की इन कहानियों में कला/शिल्प और कथ्य का ऐसा स्पृहणीय संतुलन है जो अपने समय को गहराई से महसूस करने और उसकी विडंबनाओं को उजागर करने की जिम्मेदारी से पैदा होता है ।
भूमिका में लेखक ने इन कहानियों के बारे में ऐसी सूचनाएं दी हैं जो सिर्फ़ सूचनाएं नहीं बल्कि यथार्थ की कथात्मक प्रस्तुति के बारे में गंभीर वक्तव्य हैं । ध्यान रखना होगा कि स्वयंप्रकाश ठेठ प्रेमचंदीय धारा के कहानीकार नहीं हैं बल्कि वे हिंदी कहानी में नई कहानी के साथ ही आए उस धारा के कहानीकारों में से हैं जिन्हें हम सुविधा के लिए मुक्तिबोध द्वारा चिन्हित निम्न मध्यवर्गीय सामाजिक आधार के साथ जोड़ सकते हैं । आम तौर पर इन कहानीकारों पर तत्कालीन शिल्प संबंधी तथाकथित प्रयोगों की छाया भी है जो एक हद तक यथार्थ के प्रस्तुतीकरण में अतिरिक्त कलात्मकता के आग्रह के चलते इन्हें सीमाबद्ध करती है लेकिन इन कहानियों को देखने के बाद पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि स्वयं प्रकाश इन सीमाओं के प्रति सबसे अधिक सजग हैं और उन्हें तोड़ने की बेचैनी भी उनमें सबसे अधिक है । इस माने में वे इस धारा के भीतर अपवाद की तरह रहे हैं लेकिन रहे हैं उसके भीतर ही । जहाँ यथार्थ के दबाव ने शिल्प की सजगता को तोड़ दिया वहाँ आप चाहें भी तो कला की बात करना अपराध जैसा लगेगा । असल में तो शिल्प की सबसे बड़ी सफलता भी यही होती है कि वह दिखाई न पड़े, पाठक को सीधे कथ्य की ऊभचूभ में ढकेल दे । आर्नल्ड हाउजर ने रूपक बनाते हुए कहा कि खिड़की की सार्थकता बाहर का दृश्य दिखाने में होती है, अपनी खूबसूरती प्रस्तुत करने में नहीं । ज्यादातर कहानियों में यथार्थ का यह दबाव मौजूद है लेकिन कुछेक कहानियों में शैली ने कथ्य के सीधे संप्रेषण में बाधा भी पहुँचाई है । 
इन कहानियों में से अनेक पहले ही मानदंड बन चुकी हैं । मसलन 84 के दंगों और हिंदी कहानी के रिश्तों के सवाल पर सिर्फ़ एक क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा?’ के भी उल्लेख से हम हिंदी कहानी के मुसीबत के मारों के साथ खड़ा रहने की बात विश्वास के साथ कर सकते हैं । विषयवस्तु और शैली का ऐसा संतुलन किसी भी कथाकार को कभी कभी ही हासिल हो पाता है । खुद स्वयंप्रकाश ने इस कहानी के बारे में भूमिका में लिखा हैयह पूरी की पूरी कहानी मैंने और मेरे परिवार ने शब्दश: भुगती है । अजमेर से झासरगूड़ा की उस मनहूस और कभी खत्म न होने वाली यात्रा हम पति पत्नी महीनों सो नहीं पाए ।---आम तौर पर एक अच्छी कहानी लिखने के बाद कहानीकार सोचता है, मैं ऐसी ही असरदार कहानियाँ और लिख पाऊँ, लेकिन इस कहानी की जिसने भी तारीफ़ की, मैंने यही कहा कि दुआ करो, ऐसी कहानी मुझे जिंदगी में फिर कभी न लिखनी पड़े ।इस प्रसंग में दो बातें उल्लेखनीय हैं । एक तो यह कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगों जैसा तांडव रचने वाले भी मानव समुदाय के ही सदस्य थे । भारत के इतिहास में वह घटना ऐसा अध्याय है जिसकी कालिख आज तक कांग्रेस पार्टी नहीं धो सकी है । स्वाधीनता के समय होने वाले दंगों के बारे में आज़ाद भारत में पैदा हुई पीढ़ी ने सिर्फ़ सुना था । सामूहिक उन्माद के पागलपन का परिचय उस पीढ़ी को पहली बार 84 के दंगों से ही हुआ था । इतने बड़े पैमाने पर देश भर में अकारण एक समुदाय का कत्लेआम बहुतेरे लोगों ने देखा होगा, लेकिन उसे दर्ज़ करने की बेचैनी लेखक ने ही दिखाई । अर्थात कथाकार एक तो वैचारिक रूप से कांग्रेस पार्टी रचित उस उन्माद के विरोध में तो था ही लेकिन दूसरी बात यह कि देखने वालों में तो अनेक अन्य लोग भी रहे होंगे जिनसे कथाकार की संवेदनशीलता अधिक तीक्ष्ण थी । हालांकि स्वयं प्रकाश ने दुआ की है कि ऐसी कहानी फिर कभी न लिखना पड़े लेकिन 84 के बाद सांप्रदायिक विद्वेष का ऐसा उन्माद निरंतर बना रहा कि बारंबार ऐसी परिस्थितियों से लाखों लोगों को गुजरना पड़ा । धीरे धीरे उन्माद का वह पागलपन भरा स्तर सामान्यता लगने लगा था । पिछले बीस बरस पूरे हिंदुस्तान ने असामान्यता के इसी वातावरण में गुजारे हैं और अब तो लगता है जैसे इन हत्यारी शक्तियों ने यह सफलता अर्जित कर ली है कि देशभक्ति, आतंकवाद, माओवाद, विकास आदि के नाम पर नरमेध को जायज ठहराने को सीधे पागलपन न माना जाए ।
हिंदू सांप्रदायिकता के सर्वव्यापी होते जाने की यही तकलीफ सांप्रदायिक विभाजन के गहराते जाने की त्रासद प्रक्रिया से जुड़ी उनकी कहानीपार्टीशनमें व्यक्त हुई है । इस कहानी में भावुक उद्गार की जगह एक समझदारी है क्योंकि यह परिघटना सिख विरोधी दंगों की तरह आकस्मिक नहीं है । हालांकि सिख विरोधी दंगे भी पूरी तरह आकस्मिक नहीं थे अन्यथा न तो दंगाई इतने ताकतवर लोग होते और न ही उन्हें सज़ा देने में इतनी देरी लगती । असल में तो उसी गोलबंदी ने वह माहौल बनाया था जिसकी उपज हिंदू सांप्रदायिक उन्माद था । भारत विभाजन किसी एक क्षण तक सीमित घटना नहीं था बल्कि आज तक वह तर्क दो धार्मिक समुदायों को एक दूसरे के खिलाफ़ राजनीतिक लाभ के लिए लड़ाने की प्रक्रिया में जारी है, यह तथ्य पार्टीशनजैसी मार्मिक कहानी से अधिक किसी भी वैचारिक निबंध से साबित नहीं हो सकता । यह एक सच्चाई है कि जिस समस्या के समाधान के नाम पर भारत-पाकिस्तान का बँटवारा मंजूर किया गया उस समस्या के समाधान की तो बात ही जाने दीजिए समस्या का स्रोत बन गया और हमारी आँखों के सामने रोज ब रोज गहराता जा रहा है । भारत के जिस लोकतंत्र पर यह जिम्मेदारी थी कि वह इस फ़ासीवादी कैंसर की बढ़त को रोकेगा, दुखद रूप से वही लोकतंत्र इन शक्तियों की बढ़त के लिए जगह और सुविधा मुहैया करा रहा है । संविधान की कसम खाने वाले विभिन्न प्रदेशों के प्रशासनिक प्रमुख खुल्लम खुल्ला संविधान की धज्जियाँ उड़ाते रहे और बौद्धिक समुदाय उसकी धर्मनिरपेक्षता को मजबूत ढाल समझता रहा । इसी बेबसी और क्रूरता को उजागर करती हुई यह कहानी सहज तरीके से बड़े सवाल उठाती है ।   
आधुनिक भारत के इन दो रिसते नासूरों से जुड़ी इन शाहकार कहानियों के बाद जो कहानी किसी भी पाठक के दिमाग में अटकी रहने की काबिलियत से लैस है वहअगले जनमहै । स्वयं प्रकाश के कहानी लिखने की एक और विशेषता पूर्वोल्लिखित और इस कहानी से प्रकट होती है । विशेषता का प्रयोग इसी अर्थ में कि शेष से अलग । आम तौर पर भीषण तनाव का निबाह करने में हिंदी के आज के सिद्ध कथाकारों की कलम काँपने लगती है । इसके विपरीत स्वयं प्रकाश अपनी सादगी भरी भाषा के सहारे बिना किसी हिचक के उसे कदम दर कदम ऊपर उठाते चले जाते हैं । यह कहानी हिंदी कहानी के विषय वैविध्य में एक नया विषय जोड़ती है । पहले ही जान लेना ठीक होगा कि यह संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया के बारे में है । स्वाभाविक रूप से यह क्षेत्र पुरुषों के लिए वर्जित जैसा रहा है इसीलिए पुरुषों के लिए यह प्रक्रिया रहस्य का तो स्त्रियों के लिए लज्जा का क्षेत्र है । हिंदी कहानी में ऐसी कोई कहानी याद नहीं आती जो इस विषय को उठाती हो । संजीव ने अलबत्ता अपने हाल के उपन्यासरह गईं दिशाएँ इसी पारमें अवश्य इस प्रक्रिया तो नहीं किंतु गर्भ धारण की रहस्यमयता पर से परदा उठाने की कोशिश की है । भूमिका में लेखक ने हल्की शिकायत भी दर्ज़ की हैकहते हैं, महिलाएँ बहुत प्रबुद्ध, मुक्त और खुले दिमाग की हो गई हैं । अपनी अपेक्षा के बिलकुल विपरीत सुधा अरोड़ा को छोड़कर एक भी महिला की प्रतिक्रिया मुझे इस कहानी पर नहीं मिली- आज तक नहीं मिली ।इसके पीछे यह कारण भी हो सकता है कि स्त्रियाँ इस विषय को पुरुष समुदाय की बेवजह उत्सुकता मानती हों । यद्यपि जर्मेन ग्रिएर ने भी मासिक रक्त स्राव के बारे में स्त्री समुदाय को ज्यादा संकोच छोड़ने की सलाह दी है और कहा है कि स्त्री की दिमागी मुक्ति में अपने शरीर-संरचना और उसकी क्रियाओं के प्रति लज्जा छोड़ना भी शामिल होना चाहिए । अगर कोई पाठक इस कहानी में स्त्री होने की त्रासदी का प्रतिकार देखता है तो यह कहानी का अतिपाठ नहीं होगा क्योंकि जो स्त्री जन्म देने की इस प्राणघातक यातना से गुजरी जब उसने सुना कि पैदा हुई संतान को भी भविष्य में इसी नियति को स्वीकार करना होगा तो इस स्थिति के बारे में उसके क्षोभ की अभिव्यक्ति को कहानी में खोजना और पाना दूर की कौड़ी नहीं है । यह तो उस कहानी का स्वाभाविक तर्क है ।  
विषय की विविधता की दृष्टि से जिक्र लायक एक और कहानीसंहारकर्ताहै । भूमिका में इस कहानी के बारे में उन्होंने लिखा हैएक तरह से यह मेरी ही कहानी है । जब मैं डाक-तार विभाग में था, यूनियन का सक्रिय कार्यकर्ता था और दो साल राजस्थान प्रदेश का संगठन सचिव भी रहा था ।इस कहानी को पढ़कर ही इसके बाद की बात को महसूस किया जा सकता हैयह देखकर तब भी दु:ख होता था और अब और ज्यादा होता है कि हमारा ट्रेड यूनियन आंदोलन, जो देश की राजनीति की दशा बदल सकता था, अंतत: अर्थवाद में फँसकर समाप्त हो गया ।उनके उपन्यासबीच में विनयकी समीक्षा लिखने के क्रम में वाम आंदोलन की विडंबनाओं पर उनकी पकड़ का कायल हुआ था इस कहानी से मेरी धारणा और भी पुष्ट हुई है । ज्यादातर कथाकार इस जीवन को जानते ही नहीं, बल्कि अनेकश: तो लगता है जैसे जीवन को भी जानते हैं या नहीं, तो उसकी विडंबनाओं के बारे में क्या लिखेंगे । खुदअर्थवादशब्द से, संभव है बहुतेरे कहानी रचने वालों क्या, आलोचकों तक का परिचय न हो । कहानी मजदूर आंदोलन के एक जुझारू हथियार ट्रेड यूनियन के नेताओं की कार्यशैली और सोच में आए उस भटकाव पर सवाल उठाती है जिसका प्रतिफलन ट्रेड यूनियन नेतृत्व के दलाल जैसा बन जाने और संगठन में नौकरशाही पनपने में होता है । असल में वामपंथी विचारकों के लिए ट्रेड यूनियन संगठन हमेशा से आकर्षक और परेशानी की वजह रहा है । ट्रेड यूनियनें मजदूरों के स्वाभाविक संगठन के रूप में सामने आई थीं । रूस की बोल्शेविक क्रांति का नेतृत्व करने वाले लेनिन ने ही इस तथ्य को सबसे अधिक पहचाना था और ट्रेड यूनियनों को मजदूर वर्ग की प्राथमिक पाठशाला कहा था । इस कथन में ही यह बात शामिल थी कि प्राथमिक पाठशाला के बाद उच्च शिक्षा कुछ और है । ट्रेड यानी पेशे के आधार पर एकता तो बनती है लेकिन वह एकता पेशे के बाहर जो कुछ हो रहा है उसके प्रति उदासीन भी बनाती है । इसीलिए लेनिन ने हीअर्थवादनामक बीमारी को पहचाना था जो मजदूर आंदोलन के भीतर व्यापक सवालों के प्रति उदासीनता या कभी कभी दूरी बरतने की सचेत या अचेत कोशिश के रूप में प्रकट होती है और इसकी काट आंदोलन के राजनीतीकरण में देखी थी । कहानी निश्चय ही आधा समझ तक हमें ले जाती है और शेष आधे की खोज की चाहत पैदा करती है ।
परिस्थितियों के निर्माण का अनिवार्य तत्व उनके विकास के तनाव को निभाने की क्षमता है । इस मानक पर सफल कहानी के बतौर ऊपर हमने ‘अगले जनम’ का जिक्र किया । उसी तरह इस निबाह का चमत्कार ‘सूरज कब निकलेगा’ कहानी में दिखाई देता है जिसे लेखक ने भूमिका में हिंदी कहानी की दुनिया में उसे स्थापित करने वाली पहली कहानी बताया है । प्रकृति के रौद्र रूप के समक्ष मनुष्य की असहायता तो अनेक कथाकारों के यहाँ मिल जाती है लेकिन उससे लड़ते हुए मनुष्य की जीजीविषा का यह उत्सव निश्चय ही बेजोड़ है । एकाधिक कहानियों में संकट से जूझते पात्रों का ईश्वर के साथ रिश्तों का बनना बिगड़ना भी इन कहानियों को घटना वर्णन से ऊपर उठा देता है । मानव और मानवेतर प्राणी जगत की एकता की अनुभूति बहुत कम कहानीकारों के यहाँ मिलती है । दुनिया में भी यह विषय कम ही लेखकों ने चुना है । इस मामले में स्वयं प्रकाश की कहानीनैनसी का धूड़ापढ़ते हुए तोलस्तोय की कहानीइनसान और जानवर’, प्रेमचंद कीदो बैलों की कथाऔर शमशेर की कविताबैलयाद आते रहे ।
लोककथाओं की शैली में उन्होंनेबलिशीर्षक कहानी लिखी है जिसका कथ्य लगभगसंहारकर्तासे मिलती जुलती है ।संहारकर्तामें नायक ट्रेड यूनियन के नेतृत्व में जैसे जैसे ऊपर उठता जाता है बिना किसी प्रतिरोध के वैसे ही वैसे मजदूरों से अलग होकर उन पुराने नेताओं जैसा होता जाता है जिनकी बेलगाम आलोचना किया करता था । इसके मुकाबलेबलिमें आदिवासी जीवन में आए हुए बाहरी लोगों के पास घरेलू नौकरानी का काम करने वाली एक लड़की पहले तो उनके जीवन मूल्यों की आलोचना करती है लेकिन उनके पास रहते हुए उन्हीं के रहन सहन में ढल जाती है और जब उनसे अलग होकर अपने समुदाय में वापस आना चाहती है तो अपने भीतर आए बदलावों के चलते रह नहीं पाती और अंतत: आत्महत्या कर लेती है । लेकिन इसी शिल्प में लिखी कहानीगौरा का गुस्सामें कथ्य पर शिल्प हावी होने के चलते कहानी की मारकता मंद पड़ जाती है । आम तौर पर स्वयं प्रकाश की कहानियों का कथा समय दीर्घ होता है और कुछ कुछ मुक्तक तथा महाकाव्य में रामचंद्र शुक्ल द्वारा किए गए अंतर का सहारा लेकर हम कह सकते हैं कि दीर्घावधि उनके वक्तव्य को पूरी तरह खुलने का अवकाश देती है मगर कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जिनकी अल्पावधि भी प्रस्तुति के लिहाजन बेहद प्रभावशाली है । उदाहरण के लिएक्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा?’ औरपार्टीशनकहानियों में कथा समय का कम होना उनकी शक्ति बन जाता है । इसी तरह कम देरी की एक और अच्छी कहानीनीलकांत का सफरहै लेकिन प्रेमचंद कीनशाकी तरह वह भी बड़ी कहानी बन सकती थी ।संधानभी संभावना के बावजूद कुल मिलाकर मध्य वर्गीय जीवन की यूँ ही सी कहानी बनकर रह जाती है ।
कमजोर कहानियों से शिकायत का कारण लेखक द्वारा अपने आपसे भूमिका में जाहिर की गई उम्मीद है जो एक हद तक पाठक की उम्मीद भी बन जाती है । अपने समय का ब्यौरा देते हुए वे कहते हैंसोवियत सत्ता के पतन के बाद वैश्वीकरण और उत्तर-आधुनिकता की जो आँधी आई, शायद ही कोई रचनाकार, चिंतक या जागरूक नागरिक उसके बारे में चिंतित न हुआ हो ।---केवल संस्कृति का क्षेत्र ऐसा है जो इसे थोड़ी टक्कर दे रहा है, लेकिन व्यापक जनसमर्थन के बगैर यह टक्कर भी कितने दिन चल पाएगी?’ वे कहते हैं किउद्योग, व्यापार, वाणिज्य तथा हर तरह की राजनीति ने इसके आगे निष्प्रतिरोध समर्पण कर रखाहै और सिर्फ़ संस्कृति में प्रतिरोध देखते हैं । सच्चाई तो यह है कि जनता ने इस हमले के सामने कहीं समर्पण नहीं किया और आरंभिक हिचक के बाद वामपंथी राजनीतिक पार्टियों को भी अपने साथ खड़ा होने को मजबूर कर दिया । अब तो एक हद तक मुख्य धारा की राजनीति का भी एजेंडा ये जन आंदोलन तय करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं । आम जनता तमाम मुश्किलों के बावजूद जूझती रही जबकि बौद्धिक समुदाय ही तथाकथित विकास के नारे के भ्रम में शासकों की देशद्रोहिता की ओर से आँखे मूँदे रहा है ।

स्वयं प्रकाश सार्वभौमिक यथार्थ के लेखक नहीं हैं, उनके लिए इस यथार्थ का निश्चित देशकाल है । इस देशकाल की मौजूदगी उनके पात्रों की ठोस रूपरेखाओं में तो है ही इन पात्रों की भौगोलिक स्थिति भी ठोस है और जमीन में धँसे होने की गहराई उन्हें आश्चर्यजनक रूप से सीमित करने की बजाय व्यापकता प्रदान करती है । भाषा से लेकर कथाभूमि तक इतने ठोस हैं कि इन पात्रों को ज्यादातर लघु शहराती वातावरण में पाया जा सकता है । वैसे तो उनके अनेक पात्र देहाती भी हैं लेकिन जिन पात्रों की मनोदशा और वातावरण पर उनका अधिकार है वे छोटे शहरों के निम्न मध्यवर्गीय नौकरीपेशा लोग हैं ।