Sunday, August 3, 2014

कथा में महाकाव्य

                 
                                             
स्वयं प्रकाश द्वारा खुद ही चयनित ’10 प्रतिनिधि कहानियाँशीर्षक कहानी संग्रह किताबघर प्रकाशन द्वारा 2013 में छापा गया है । संग्रह की भूमिका स्वयं प्रकाश ने ही लिखी है । इस संग्रह को पढ़ना मानो दस महाकाव्य एक साथ देख जाना है । कोई भी कहानी इतनी अनुत्तेजक नहीं कि एक सांस में पढ़ा जा सके । पात्रों के साथ ऐसी घनिष्ठता बन जाती है कि आप उनकी व्यथा की तीक्ष्णता को महसूस करने लगते हैं । ये कहानियाँ खासकर ऐसे दौर में बेहद प्रेरणा प्रदान करती हैं जब समय के ठोस सवालों से कन्नी काटकर कथन शैली में मनोहर श्याम जोशी, भाषा में निर्मल वर्मा और कथावस्तु के मामले में उदय प्रकाश की नकल करना ही नया कहानीकार होने का मानदंड हो गया है । स्वयं प्रकाश की इन कहानियों में कला/शिल्प और कथ्य का ऐसा स्पृहणीय संतुलन है जो अपने समय को गहराई से महसूस करने और उसकी विडंबनाओं को उजागर करने की जिम्मेदारी से पैदा होता है ।
भूमिका में लेखक ने इन कहानियों के बारे में ऐसी सूचनाएं दी हैं जो सिर्फ़ सूचनाएं नहीं बल्कि यथार्थ की कथात्मक प्रस्तुति के बारे में गंभीर वक्तव्य हैं । ध्यान रखना होगा कि स्वयंप्रकाश ठेठ प्रेमचंदीय धारा के कहानीकार नहीं हैं बल्कि वे हिंदी कहानी में नई कहानी के साथ ही आए उस धारा के कहानीकारों में से हैं जिन्हें हम सुविधा के लिए मुक्तिबोध द्वारा चिन्हित निम्न मध्यवर्गीय सामाजिक आधार के साथ जोड़ सकते हैं । आम तौर पर इन कहानीकारों पर तत्कालीन शिल्प संबंधी तथाकथित प्रयोगों की छाया भी है जो एक हद तक यथार्थ के प्रस्तुतीकरण में अतिरिक्त कलात्मकता के आग्रह के चलते इन्हें सीमाबद्ध करती है लेकिन इन कहानियों को देखने के बाद पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि स्वयं प्रकाश इन सीमाओं के प्रति सबसे अधिक सजग हैं और उन्हें तोड़ने की बेचैनी भी उनमें सबसे अधिक है । इस माने में वे इस धारा के भीतर अपवाद की तरह रहे हैं लेकिन रहे हैं उसके भीतर ही । जहाँ यथार्थ के दबाव ने शिल्प की सजगता को तोड़ दिया वहाँ आप चाहें भी तो कला की बात करना अपराध जैसा लगेगा । असल में तो शिल्प की सबसे बड़ी सफलता भी यही होती है कि वह दिखाई न पड़े, पाठक को सीधे कथ्य की ऊभचूभ में ढकेल दे । आर्नल्ड हाउजर ने रूपक बनाते हुए कहा कि खिड़की की सार्थकता बाहर का दृश्य दिखाने में होती है, अपनी खूबसूरती प्रस्तुत करने में नहीं । ज्यादातर कहानियों में यथार्थ का यह दबाव मौजूद है लेकिन कुछेक कहानियों में शैली ने कथ्य के सीधे संप्रेषण में बाधा भी पहुँचाई है । 
इन कहानियों में से अनेक पहले ही मानदंड बन चुकी हैं । मसलन 84 के दंगों और हिंदी कहानी के रिश्तों के सवाल पर सिर्फ़ एक क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा?’ के भी उल्लेख से हम हिंदी कहानी के मुसीबत के मारों के साथ खड़ा रहने की बात विश्वास के साथ कर सकते हैं । विषयवस्तु और शैली का ऐसा संतुलन किसी भी कथाकार को कभी कभी ही हासिल हो पाता है । खुद स्वयंप्रकाश ने इस कहानी के बारे में भूमिका में लिखा हैयह पूरी की पूरी कहानी मैंने और मेरे परिवार ने शब्दश: भुगती है । अजमेर से झासरगूड़ा की उस मनहूस और कभी खत्म न होने वाली यात्रा हम पति पत्नी महीनों सो नहीं पाए ।---आम तौर पर एक अच्छी कहानी लिखने के बाद कहानीकार सोचता है, मैं ऐसी ही असरदार कहानियाँ और लिख पाऊँ, लेकिन इस कहानी की जिसने भी तारीफ़ की, मैंने यही कहा कि दुआ करो, ऐसी कहानी मुझे जिंदगी में फिर कभी न लिखनी पड़े ।इस प्रसंग में दो बातें उल्लेखनीय हैं । एक तो यह कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगों जैसा तांडव रचने वाले भी मानव समुदाय के ही सदस्य थे । भारत के इतिहास में वह घटना ऐसा अध्याय है जिसकी कालिख आज तक कांग्रेस पार्टी नहीं धो सकी है । स्वाधीनता के समय होने वाले दंगों के बारे में आज़ाद भारत में पैदा हुई पीढ़ी ने सिर्फ़ सुना था । सामूहिक उन्माद के पागलपन का परिचय उस पीढ़ी को पहली बार 84 के दंगों से ही हुआ था । इतने बड़े पैमाने पर देश भर में अकारण एक समुदाय का कत्लेआम बहुतेरे लोगों ने देखा होगा, लेकिन उसे दर्ज़ करने की बेचैनी लेखक ने ही दिखाई । अर्थात कथाकार एक तो वैचारिक रूप से कांग्रेस पार्टी रचित उस उन्माद के विरोध में तो था ही लेकिन दूसरी बात यह कि देखने वालों में तो अनेक अन्य लोग भी रहे होंगे जिनसे कथाकार की संवेदनशीलता अधिक तीक्ष्ण थी । हालांकि स्वयं प्रकाश ने दुआ की है कि ऐसी कहानी फिर कभी न लिखना पड़े लेकिन 84 के बाद सांप्रदायिक विद्वेष का ऐसा उन्माद निरंतर बना रहा कि बारंबार ऐसी परिस्थितियों से लाखों लोगों को गुजरना पड़ा । धीरे धीरे उन्माद का वह पागलपन भरा स्तर सामान्यता लगने लगा था । पिछले बीस बरस पूरे हिंदुस्तान ने असामान्यता के इसी वातावरण में गुजारे हैं और अब तो लगता है जैसे इन हत्यारी शक्तियों ने यह सफलता अर्जित कर ली है कि देशभक्ति, आतंकवाद, माओवाद, विकास आदि के नाम पर नरमेध को जायज ठहराने को सीधे पागलपन न माना जाए ।
हिंदू सांप्रदायिकता के सर्वव्यापी होते जाने की यही तकलीफ सांप्रदायिक विभाजन के गहराते जाने की त्रासद प्रक्रिया से जुड़ी उनकी कहानीपार्टीशनमें व्यक्त हुई है । इस कहानी में भावुक उद्गार की जगह एक समझदारी है क्योंकि यह परिघटना सिख विरोधी दंगों की तरह आकस्मिक नहीं है । हालांकि सिख विरोधी दंगे भी पूरी तरह आकस्मिक नहीं थे अन्यथा न तो दंगाई इतने ताकतवर लोग होते और न ही उन्हें सज़ा देने में इतनी देरी लगती । असल में तो उसी गोलबंदी ने वह माहौल बनाया था जिसकी उपज हिंदू सांप्रदायिक उन्माद था । भारत विभाजन किसी एक क्षण तक सीमित घटना नहीं था बल्कि आज तक वह तर्क दो धार्मिक समुदायों को एक दूसरे के खिलाफ़ राजनीतिक लाभ के लिए लड़ाने की प्रक्रिया में जारी है, यह तथ्य पार्टीशनजैसी मार्मिक कहानी से अधिक किसी भी वैचारिक निबंध से साबित नहीं हो सकता । यह एक सच्चाई है कि जिस समस्या के समाधान के नाम पर भारत-पाकिस्तान का बँटवारा मंजूर किया गया उस समस्या के समाधान की तो बात ही जाने दीजिए समस्या का स्रोत बन गया और हमारी आँखों के सामने रोज ब रोज गहराता जा रहा है । भारत के जिस लोकतंत्र पर यह जिम्मेदारी थी कि वह इस फ़ासीवादी कैंसर की बढ़त को रोकेगा, दुखद रूप से वही लोकतंत्र इन शक्तियों की बढ़त के लिए जगह और सुविधा मुहैया करा रहा है । संविधान की कसम खाने वाले विभिन्न प्रदेशों के प्रशासनिक प्रमुख खुल्लम खुल्ला संविधान की धज्जियाँ उड़ाते रहे और बौद्धिक समुदाय उसकी धर्मनिरपेक्षता को मजबूत ढाल समझता रहा । इसी बेबसी और क्रूरता को उजागर करती हुई यह कहानी सहज तरीके से बड़े सवाल उठाती है ।   
आधुनिक भारत के इन दो रिसते नासूरों से जुड़ी इन शाहकार कहानियों के बाद जो कहानी किसी भी पाठक के दिमाग में अटकी रहने की काबिलियत से लैस है वहअगले जनमहै । स्वयं प्रकाश के कहानी लिखने की एक और विशेषता पूर्वोल्लिखित और इस कहानी से प्रकट होती है । विशेषता का प्रयोग इसी अर्थ में कि शेष से अलग । आम तौर पर भीषण तनाव का निबाह करने में हिंदी के आज के सिद्ध कथाकारों की कलम काँपने लगती है । इसके विपरीत स्वयं प्रकाश अपनी सादगी भरी भाषा के सहारे बिना किसी हिचक के उसे कदम दर कदम ऊपर उठाते चले जाते हैं । यह कहानी हिंदी कहानी के विषय वैविध्य में एक नया विषय जोड़ती है । पहले ही जान लेना ठीक होगा कि यह संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया के बारे में है । स्वाभाविक रूप से यह क्षेत्र पुरुषों के लिए वर्जित जैसा रहा है इसीलिए पुरुषों के लिए यह प्रक्रिया रहस्य का तो स्त्रियों के लिए लज्जा का क्षेत्र है । हिंदी कहानी में ऐसी कोई कहानी याद नहीं आती जो इस विषय को उठाती हो । संजीव ने अलबत्ता अपने हाल के उपन्यासरह गईं दिशाएँ इसी पारमें अवश्य इस प्रक्रिया तो नहीं किंतु गर्भ धारण की रहस्यमयता पर से परदा उठाने की कोशिश की है । भूमिका में लेखक ने हल्की शिकायत भी दर्ज़ की हैकहते हैं, महिलाएँ बहुत प्रबुद्ध, मुक्त और खुले दिमाग की हो गई हैं । अपनी अपेक्षा के बिलकुल विपरीत सुधा अरोड़ा को छोड़कर एक भी महिला की प्रतिक्रिया मुझे इस कहानी पर नहीं मिली- आज तक नहीं मिली ।इसके पीछे यह कारण भी हो सकता है कि स्त्रियाँ इस विषय को पुरुष समुदाय की बेवजह उत्सुकता मानती हों । यद्यपि जर्मेन ग्रिएर ने भी मासिक रक्त स्राव के बारे में स्त्री समुदाय को ज्यादा संकोच छोड़ने की सलाह दी है और कहा है कि स्त्री की दिमागी मुक्ति में अपने शरीर-संरचना और उसकी क्रियाओं के प्रति लज्जा छोड़ना भी शामिल होना चाहिए । अगर कोई पाठक इस कहानी में स्त्री होने की त्रासदी का प्रतिकार देखता है तो यह कहानी का अतिपाठ नहीं होगा क्योंकि जो स्त्री जन्म देने की इस प्राणघातक यातना से गुजरी जब उसने सुना कि पैदा हुई संतान को भी भविष्य में इसी नियति को स्वीकार करना होगा तो इस स्थिति के बारे में उसके क्षोभ की अभिव्यक्ति को कहानी में खोजना और पाना दूर की कौड़ी नहीं है । यह तो उस कहानी का स्वाभाविक तर्क है ।  
विषय की विविधता की दृष्टि से जिक्र लायक एक और कहानीसंहारकर्ताहै । भूमिका में इस कहानी के बारे में उन्होंने लिखा हैएक तरह से यह मेरी ही कहानी है । जब मैं डाक-तार विभाग में था, यूनियन का सक्रिय कार्यकर्ता था और दो साल राजस्थान प्रदेश का संगठन सचिव भी रहा था ।इस कहानी को पढ़कर ही इसके बाद की बात को महसूस किया जा सकता हैयह देखकर तब भी दु:ख होता था और अब और ज्यादा होता है कि हमारा ट्रेड यूनियन आंदोलन, जो देश की राजनीति की दशा बदल सकता था, अंतत: अर्थवाद में फँसकर समाप्त हो गया ।उनके उपन्यासबीच में विनयकी समीक्षा लिखने के क्रम में वाम आंदोलन की विडंबनाओं पर उनकी पकड़ का कायल हुआ था इस कहानी से मेरी धारणा और भी पुष्ट हुई है । ज्यादातर कथाकार इस जीवन को जानते ही नहीं, बल्कि अनेकश: तो लगता है जैसे जीवन को भी जानते हैं या नहीं, तो उसकी विडंबनाओं के बारे में क्या लिखेंगे । खुदअर्थवादशब्द से, संभव है बहुतेरे कहानी रचने वालों क्या, आलोचकों तक का परिचय न हो । कहानी मजदूर आंदोलन के एक जुझारू हथियार ट्रेड यूनियन के नेताओं की कार्यशैली और सोच में आए उस भटकाव पर सवाल उठाती है जिसका प्रतिफलन ट्रेड यूनियन नेतृत्व के दलाल जैसा बन जाने और संगठन में नौकरशाही पनपने में होता है । असल में वामपंथी विचारकों के लिए ट्रेड यूनियन संगठन हमेशा से आकर्षक और परेशानी की वजह रहा है । ट्रेड यूनियनें मजदूरों के स्वाभाविक संगठन के रूप में सामने आई थीं । रूस की बोल्शेविक क्रांति का नेतृत्व करने वाले लेनिन ने ही इस तथ्य को सबसे अधिक पहचाना था और ट्रेड यूनियनों को मजदूर वर्ग की प्राथमिक पाठशाला कहा था । इस कथन में ही यह बात शामिल थी कि प्राथमिक पाठशाला के बाद उच्च शिक्षा कुछ और है । ट्रेड यानी पेशे के आधार पर एकता तो बनती है लेकिन वह एकता पेशे के बाहर जो कुछ हो रहा है उसके प्रति उदासीन भी बनाती है । इसीलिए लेनिन ने हीअर्थवादनामक बीमारी को पहचाना था जो मजदूर आंदोलन के भीतर व्यापक सवालों के प्रति उदासीनता या कभी कभी दूरी बरतने की सचेत या अचेत कोशिश के रूप में प्रकट होती है और इसकी काट आंदोलन के राजनीतीकरण में देखी थी । कहानी निश्चय ही आधा समझ तक हमें ले जाती है और शेष आधे की खोज की चाहत पैदा करती है ।
परिस्थितियों के निर्माण का अनिवार्य तत्व उनके विकास के तनाव को निभाने की क्षमता है । इस मानक पर सफल कहानी के बतौर ऊपर हमने ‘अगले जनम’ का जिक्र किया । उसी तरह इस निबाह का चमत्कार ‘सूरज कब निकलेगा’ कहानी में दिखाई देता है जिसे लेखक ने भूमिका में हिंदी कहानी की दुनिया में उसे स्थापित करने वाली पहली कहानी बताया है । प्रकृति के रौद्र रूप के समक्ष मनुष्य की असहायता तो अनेक कथाकारों के यहाँ मिल जाती है लेकिन उससे लड़ते हुए मनुष्य की जीजीविषा का यह उत्सव निश्चय ही बेजोड़ है । एकाधिक कहानियों में संकट से जूझते पात्रों का ईश्वर के साथ रिश्तों का बनना बिगड़ना भी इन कहानियों को घटना वर्णन से ऊपर उठा देता है । मानव और मानवेतर प्राणी जगत की एकता की अनुभूति बहुत कम कहानीकारों के यहाँ मिलती है । दुनिया में भी यह विषय कम ही लेखकों ने चुना है । इस मामले में स्वयं प्रकाश की कहानीनैनसी का धूड़ापढ़ते हुए तोलस्तोय की कहानीइनसान और जानवर’, प्रेमचंद कीदो बैलों की कथाऔर शमशेर की कविताबैलयाद आते रहे ।
लोककथाओं की शैली में उन्होंनेबलिशीर्षक कहानी लिखी है जिसका कथ्य लगभगसंहारकर्तासे मिलती जुलती है ।संहारकर्तामें नायक ट्रेड यूनियन के नेतृत्व में जैसे जैसे ऊपर उठता जाता है बिना किसी प्रतिरोध के वैसे ही वैसे मजदूरों से अलग होकर उन पुराने नेताओं जैसा होता जाता है जिनकी बेलगाम आलोचना किया करता था । इसके मुकाबलेबलिमें आदिवासी जीवन में आए हुए बाहरी लोगों के पास घरेलू नौकरानी का काम करने वाली एक लड़की पहले तो उनके जीवन मूल्यों की आलोचना करती है लेकिन उनके पास रहते हुए उन्हीं के रहन सहन में ढल जाती है और जब उनसे अलग होकर अपने समुदाय में वापस आना चाहती है तो अपने भीतर आए बदलावों के चलते रह नहीं पाती और अंतत: आत्महत्या कर लेती है । लेकिन इसी शिल्प में लिखी कहानीगौरा का गुस्सामें कथ्य पर शिल्प हावी होने के चलते कहानी की मारकता मंद पड़ जाती है । आम तौर पर स्वयं प्रकाश की कहानियों का कथा समय दीर्घ होता है और कुछ कुछ मुक्तक तथा महाकाव्य में रामचंद्र शुक्ल द्वारा किए गए अंतर का सहारा लेकर हम कह सकते हैं कि दीर्घावधि उनके वक्तव्य को पूरी तरह खुलने का अवकाश देती है मगर कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जिनकी अल्पावधि भी प्रस्तुति के लिहाजन बेहद प्रभावशाली है । उदाहरण के लिएक्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा?’ औरपार्टीशनकहानियों में कथा समय का कम होना उनकी शक्ति बन जाता है । इसी तरह कम देरी की एक और अच्छी कहानीनीलकांत का सफरहै लेकिन प्रेमचंद कीनशाकी तरह वह भी बड़ी कहानी बन सकती थी ।संधानभी संभावना के बावजूद कुल मिलाकर मध्य वर्गीय जीवन की यूँ ही सी कहानी बनकर रह जाती है ।
कमजोर कहानियों से शिकायत का कारण लेखक द्वारा अपने आपसे भूमिका में जाहिर की गई उम्मीद है जो एक हद तक पाठक की उम्मीद भी बन जाती है । अपने समय का ब्यौरा देते हुए वे कहते हैंसोवियत सत्ता के पतन के बाद वैश्वीकरण और उत्तर-आधुनिकता की जो आँधी आई, शायद ही कोई रचनाकार, चिंतक या जागरूक नागरिक उसके बारे में चिंतित न हुआ हो ।---केवल संस्कृति का क्षेत्र ऐसा है जो इसे थोड़ी टक्कर दे रहा है, लेकिन व्यापक जनसमर्थन के बगैर यह टक्कर भी कितने दिन चल पाएगी?’ वे कहते हैं किउद्योग, व्यापार, वाणिज्य तथा हर तरह की राजनीति ने इसके आगे निष्प्रतिरोध समर्पण कर रखाहै और सिर्फ़ संस्कृति में प्रतिरोध देखते हैं । सच्चाई तो यह है कि जनता ने इस हमले के सामने कहीं समर्पण नहीं किया और आरंभिक हिचक के बाद वामपंथी राजनीतिक पार्टियों को भी अपने साथ खड़ा होने को मजबूर कर दिया । अब तो एक हद तक मुख्य धारा की राजनीति का भी एजेंडा ये जन आंदोलन तय करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं । आम जनता तमाम मुश्किलों के बावजूद जूझती रही जबकि बौद्धिक समुदाय ही तथाकथित विकास के नारे के भ्रम में शासकों की देशद्रोहिता की ओर से आँखे मूँदे रहा है ।

स्वयं प्रकाश सार्वभौमिक यथार्थ के लेखक नहीं हैं, उनके लिए इस यथार्थ का निश्चित देशकाल है । इस देशकाल की मौजूदगी उनके पात्रों की ठोस रूपरेखाओं में तो है ही इन पात्रों की भौगोलिक स्थिति भी ठोस है और जमीन में धँसे होने की गहराई उन्हें आश्चर्यजनक रूप से सीमित करने की बजाय व्यापकता प्रदान करती है । भाषा से लेकर कथाभूमि तक इतने ठोस हैं कि इन पात्रों को ज्यादातर लघु शहराती वातावरण में पाया जा सकता है । वैसे तो उनके अनेक पात्र देहाती भी हैं लेकिन जिन पात्रों की मनोदशा और वातावरण पर उनका अधिकार है वे छोटे शहरों के निम्न मध्यवर्गीय नौकरीपेशा लोग हैं ।                                          

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