यह
तथ्य अत्यंत लोमहर्षक है कि जिस मार्क्स की एकाधिक संतानें दूध के अभाव में गुजर गईं उनका ग्रंथालय इतना समृद्ध था । प्रदीप बख्शी ने नेचर, सोसाइटी एंड थाट के 2002 में प्रकाशित खंड
15 संख्या 1
में ‘कैटलाग आफ़ द पार्शियली रीकंस्ट्रक्टेड पर्सनल लाइब्रेरीज आफ़ मार्क्स एंड एंगेल्स’ शीर्षक लेख में बताया है कि
उन दोनों के संयुक्त ग्रंथालय में 3200 जिल्दों में 2100 किताबें थीं । अब तक इनमें से 1450 किताबें खोज ली गई हैं । अनेकानेक विषयों की ये किताबें दस भाषाओं में हैं । सबसे अधिक सोलह किताबें राबर्ट ओवेन की हैं । इसके बाद पंद्रह ब्रूनो बावेर की हैं । इसके बाद दो रूसी विद्वानों
की चौदह-चौदह किताबें हैं- कानून के जानकार मैक्सिम मैक्सिमोविच
कोवालेव्स्किज तथा विदेशों में रूस के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रतिनिधि प्योत्र लावरोवोच
लावरोव । इसके बाद मार्क्स-एंगेल्स के विरोधी क्रांतिकारी मिखाइल
अलेक्सांद्रोविच बाकुनिन की बारह किताबें हैं । इसके ठीक बाद पियरे जोसेफ प्रूधों की
ग्यारह किताबें हैं जिनसे मार्क्स का संबंध 1847 में पावर्टी
आफ़ फिलासफी के लेखन के साथ समाप्त हो गया था । कुछ और भी महत्वपूर्ण लोगों,
जिनमें कृषि वैज्ञानिक से लेकर अनुवादक तक शामिल हैं, की किताबों के अलावा मार्क्स के बौद्धिक आचार्य हेगेल की किताबें भी उनके ग्रंथालय
में मिली हैं । मार्क्स के बारे में सुविदित है कि लंदन में वे ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी
का सर्वाधिक इस्तेमाल करते थे । इसी के चलते डार्विन या मैकाले की किताबें उनके निजी
ग्रंथालय में नहीं हैं ।
बख्शी
जी का कहना है कि इस ग्रंथालय की कहानी भी कम रोचक नहीं है और उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के यूरोपीय
राजनीतिक इतिहास से जुड़ी हुई है । मार्क्स और एंगेल्स की पारिवारिक पुस्तकों के जखीरे में उपहार में मिली किताबों से इजाफ़ा होता रहा था । मई 1849 में पुलिस उत्पीड़न/छापे की आशंकावश लगभग पांच सौ किताबें मार्क्स ने कोलोन के अपने एक दोस्त को सौंप दीं । दोस्त के भाई वाइन के व्यापारी थे, वाइन के लिए
बने तहखानों में ये किताबें जमा कर दी गईं । 1860 में यह संग्रह लंदन भेजा गया लेकिन रास्ते में किसी ने इसे गायब कर दिया । लंदन में मार्क्स के देहांत के बाद उनका और एंगेल्स का ग्रंथालय जोड़ दिया गया । एंगेल्स के देहावसान के बाद सत्ताइस बक्सों में भरकर इन किताबों को बर्लिन में जर्मनी की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के कार्यालय भेज दिया गया और उन्हें पार्टी के ग्रंथागार में शरीक कर लिया गया । इसकी देखभाल करने वाले इसके महत्व के बारे में अनजान थे । जिल्दसाजों ने किताबों की जिल्द बांधते हुए हाशिए काट दिए जिनके चलते इन पर लिखा/नोट किया हमेशा के लिए गायब हो गया । नाजियों के सत्तासीन होने पर इन किताबों को छिपा दिया गया । बर्लिन स्थित गुप्त प्रशियाई
राजकीय संग्रहालय की किताबें फेंक दी गईं । विश्वविद्यालयों ने भी यही राह अपनाई ।
विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद लाल सेना के ‘ट्राफी कमीशन’ ने भी इस
मामले में कोई समझदारी नहीं दिखाई । मार्क्स की किताबों के लिए 1950 दशक से लेकर 1999 तक संचालित खोज का नतीजा ऊपर बताई गई
संख्या में किताबों की प्राप्ति है ।
बख्शी जी का कहना है कि मार्क्स-एंगेल्स
के ग्रंथालय में मौजूद किताबों की सूची पर नजर डालने से उनके शोध की विषयगत और राष्ट्रगत
व्यापकता का पता चलता है । उदाहरण के बतौर वे लेनिन द्वारा सूत्रबद्ध तीन स्रोतों और
तीन अंगों का हवाला देते हैं । माना जाता है कि कांट से लेकर हेगेल तक के क्लासिकी
जर्मन दर्शन, ओवेन, फ़ूरिए और सेंट साइमन
के काल्पनिक समाजवाद तथा स्मिथ, रिकार्डो और मिल के ब्रिटिश राजनीतिक
अर्थशास्त्र से मार्क्सवाद का जन्म हुआ । यह भी कहा जाता है कि जर्मन दर्शन
के भाववादी द्वंद्ववाद को इन्होंने पैर के बल खड़ा किया, काल्पनिक समाजवाद को वैज्ञानिक
आधार दिया और राजनीतिक अर्थशास्त्र की बुर्जुआ धारणा की सीमाओं को पार किया । बख्शी
जी कहते हैं कि मार्क्स-एंगेल्स के अध्ययन की विराटता इस एकांगी समझ पर लगातार सवाल
उठाती आई है । इसके अलावा मार्क्स-एंगेल्स जर्मनी, फ़्रांस, बेल्जियम और इंग्लैंड में
रहे । इसके चलते उनके दृष्टिकोण में अंतर्राष्ट्रीयता आई । अनेक विषयों के अध्ययन के
अतिरिक्त उन्होंने अनेक देशों के राजनीतिक-आर्थिक इतिहास की गहन जानकारी हासिल की थी
। मार्क्स के वर्तमान अध्येताओं और समाजवाद के योद्धाओं के लिए उनके विश्वकोषीय रुचि
की जानकारी जरूरी है ।
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