आम तौर पर शिक्षा देने का एक अर्थ सिखा देना होता है और यह काम दंडित करके किया जाता है ।
दंड देने में डंडे का इस्तेमाल होता है । इस तरह डंडा देहात में शिक्षा का अनिवार्य
माध्यम बन गया है । जब अध्यापक के हाथ में दंड देने की शक्ति हो तो उसकी प्रार्थना
करनी ही पड़ती है । शिक्षा का समूचा वातावरण इन्हीं दोनों चीजों से बना होता है । जिसके
हाथ में डंडा है उसकी प्रार्थना विद्यार्थियों के मन में शुरू से ही झुकने की आदत डाल
देती है । दुर्भाग्य से प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का आम माहौल ऐसा ही है । आश्चर्य
नहीं कि शिक्षा निर्भय नागरिक पैदा करने की बजाए नौकरशाही के लिए मुफ़ीद जी हुजूरों
को ही जन्म देती है । ऐसे निराशाजनक माहौल में जब कोई अध्यापक लीक से हटकर नवाचार शुरू
करता है तो प्रसन्नता होती है और उत्साह पैदा होता है
।
शिव नारायण सिंह की छह खंडों में प्रकाशित पुस्तक देखकर
ऐसा ही हुआ । इससे मुझे उन अध्यापकों की याद हो आई जो लीक से हटकर चले और इसीलिए स्मृति
में बसे रह गए । कक्षा सात में जब आपात्काल के दौरान नसबंदी के पर्याप्त मामले न देने
वाले अध्यापकों के स्थानांतरण के चलते हमारे विद्यालय में कुशवाहा पदनाम युक्त एक अध्यापक
आए । यहीं एक और बात की चर्चा जरूरी है । कई बार समझ में नहीं आता कि पढ़े लिखे लोग
सबसे अधिक जातिवादी क्यों होते हैं । इसकी जड़ें जरूर हमारी समाज व्यवस्था के साथ शिक्षा
व्यवस्था में भी होनी चाहिए । आम तौर पर अध्यापकों की जाति से हमें क्या लेना देना
लेकिन दुर्भाग्य से हम इस पर जरूर ध्यान देते और उसी के अनुसार तय करते कि किस अध्यापक
को कैसा आदर देना है । सो कुशवाहा सर हमारे लिए हुए पंडी जी नहीं, मास्टर साहब । उन्होंने
मेरी ही कक्षा को पढ़ाना शुरू किया । नियम से हरेक शुक्रवार की बीच की घंटी में क्लास
नहीं बल्कि कुछ शिक्षाप्रद कहानियों को सुनाना उन्होंने शुरू किया । तब यह इतना मनोरंजक
प्रतीत होता था कि हम सब शुक्रवार के आने का बेसब्री से इंतजार करते थे ।
अब सोचने से ऐसा लगता है कि हमारे आदर्शवादी भावुक मन
पर उसी समय देश की वह छाप अंकित की गई जिसके चलते पूर्वोत्तर में नौकरी लगने पर जाने
में पेट का मामला होने के बावजूद हिचक हुई । जंगी राष्ट्रवाद की नींव भी ऐसी ही कहानियों
की मार्फ़त दिमाग में मजबूती से पड़ जाती है और ‘माँ मुझको बंदूक मँगा दो, मैं सैनिक
बन जाऊँगा’ की तर्ज पर प्रत्येक बालक शिवाजी, महाराणा प्रताप की कतार में सैनिक बनकर
शामिल होने का सपना देखने लगता था । अध्यापकों में एक मुसलमान थे जिन्हें हम मौलवी
साहब कहते और जुम्मे के दिन उनके नमाज पढ़ने जाने की बंदिश समझ से परे थी क्योंकि विद्यार्थियों
में कोई मुस्लिम न था । यह भारत हमारे लिए प्रधानतः हिंदू भारत ही था जिसकी रक्षा पाकिस्तान
से करनी थी क्योंकि वह इस्लामी देश था । सांप्रदायिक सोच हमारे जेहन में घर से उतनी
नहीं आई जितनी स्कूल से ।
मुझे खुशी है कि शिव नारायण सिंह द्वारा प्रार्थना के
समय दिए गए भाषणों का यह संग्रह इन समस्याओं से कुछ हद तक मुक्त है । आशा है वे आगे
इनमें और भी सुधार करेंगे और ऐसे मानक स्थिर करेंगे जिससे स्कूल से बाहर निकलने वाले
विद्यार्थी भारतीय राष्ट्र के धर्म निरपेक्ष और आज़ाद नागरिक होंगे जिनमें जाति जनित
श्रेष्ठता का बोध नहीं होगा और जो जंगी सोच से मुक्त होंगे ।
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