Saturday, February 1, 2014

भाषाई अनुपनिवेशन की जरूरत


              
                                          
स्वाधीनता आंदोलन से उपजे मूल्यों में जैसे जैसे ह्रास आता जा रहा है वैसे वैसे भाषा के क्षेत्र में औपनिवेशिक छायाओं के खात्मे का सवाल ही परदे के पीछे धकेला जा रहा है विडंबना यह है कि आजादी के बाद भी औपनिवेशिक चिंतन की ओर देश को धकेल कर ले जाने का काम उसी कांग्रेस पार्टी और सरकार के हाथों संपन्न हो रहा है जिसका दावा है कि उसने स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व किया था असल में इस विश्वासघात की जड़ें कांग्रेस पार्टी द्वारा स्वाधीनता आंदोलन में ही निभाई गई भूमिका में निहित हैं हम जानते हैं कि जब भी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध निर्णायक फैसला लेने का समय आता था उस समय कांग्रेसी नेतृत्व इस आशंका से डर जाया करता था कि कहीं इससे स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय क्रांतिकारी और कम्युनिस्ट धाराओं को राजनीतिक पहलकदमी का लाभ मिल जाए इसी आशंका के चलते शुरुआती दौर के आवेदनवादी नेताओं ने तो इस प्रश्न को कभी विचार करने लायक नहीं ही समझा, बाद में भी उनका रुख ढीला ही रहा इसी के चलते संविधान सभा में इस सवाल के उठने पर वे सभी हथकंडे अपनाए गए जो आज भी सहानुभूति स्वरूप अपनाए जाते हैं हिंदी के नाम पर राजभाषा का झुनझुना मूल सवाल को दरी के नीचे दबाने के लिए ही थमाया गया, जिसे बड़े प्रेम से हिंदी वाले प्रत्येक 14 सितंबर को बजाते दिखाई पड़ जाते हैं यह कहावत व्यर्थ ही नहीं प्रचलित है कि पूत के पांव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं! स्वाधीनता के तुरंत बाद सड़क पर बाएं चलने से लेकर लखनउ में रेजीडेंसी को बनाए रखने तक कांग्रेसी निजाम ने गुलामी के हरेक दाग को तमगे की तरह ढोया है अब तो इन नेताओं को ऐसा करने में शर्म भी नहीं आती वर्तमान प्रधानमंत्री द्वारा इंग्लैंड जाकर माफी मांगने और शुक्रिया जताने का शर्मनाक प्रकरण कौन भूल सकता है!    
स्वाधीनता के बाद कुछ दिनों के लिए कम से कम यह नारा लोहिया के नेतृत्व में चलने वाली समाजवादी धारा के नेताओं की चिंताओं में सुनाई पड़ता था । उन्होंने भाषा के सवाल को शासन से जोड़कर ठीक ही देखा और कहा कि जैसे प्राचीन काल में संस्कृत भाषा शासकों को जनता से अलग रहने में मदद करती थी उसी तरह आधुनिक काल में अंग्रेजी भाषा ऐसा आभामंडल तैयार करती है जिससे सामान्य जन इसके बोलने वालों से भय खाते हैं । सिर्फ़ इतना ही नहीं, राजकाज और न्यायालय में भाषा के मामले में अंग्रेजियत तो समाई ही हुई है, उसका समूचा ढांचा उपनिवेशवाद का गढ़ा हुआ है । प्रेमचंद के उपन्यास गबन में जो रमानाथ गबन करता और बेशर्मी के साथ क्रांतिकारियों के विरुद्ध झूठी गवाही देता है उसकी खूबी यही थी कि उसने पिता के काम करने के अनौपचारिक तरीकों की जगह कार्यालय का औपनिवेशिक ढांचा स्थापित किया । कार्यालय के दरवाजे पर चिक का परदा लटकाकर चपरासी बिठाया जिससे उसका रसूख बढ़ा और कमाई में भी इजाफा हुआ । सरकारी दफ़्तरों में औपनिवेशिक तामझाम के साथ अंग्रेजी नामक शासक भाषा ने भी भारतीयों को दबाकर रखने में ब्रिटिश शासन की सहायता की । न्यायालयों में इसका वर्चस्व ही यह साबित करने के लिए काफी है कि इनमें सामान्य जन के साथ न्याय के अलावे सब कुछ हो सकता है । आम लोगों ने इसका बदला बहुत ही सृजनात्मक तरीके से अदालत कोआओ- दो- लड़ो- तबाह हो जाओकहकर लिया । शायद ही कोई इस संस्था से न्याय की आशा करता हो । अलबत्ता देहात में लोग अपने पड़ोसी को परेशान करने के लिए ही ज्यादातर इसका सहारा लेते दिखाई पड़ते हैं । लेकिन लोहिया का भाषाई अनुपनिवेशन हिंदी भक्ति की ओर झुका हुआ था । स्वाधीनता आंदोलन के दौरान एक खामोश सहमति हिंदी के नाम पर थी लेकिन आजादी के बाद पनपे राजनीतिक अवसरवाद ने इस सहमति के वातावरण को तो नष्ट किया ही, विभिन्न भारतीय भाषाओं में आपसी होड़ और विद्वेष का खतरनाक खेल शुरू कर दिया । ऐसे माहौल में लोहिया का हिंदी प्रेम इस सवाल को और भी जटिल बना बैठा । इसीलिए आश्चर्य नहीं कि जबसे लोहिया की समाजवादी धारा के अलग अलग अवतारों को विभिन्न राज्य सरकारों में कमोबेश स्थायी शासन का चस्का लगा तबसे उन्हें भी लगने लगा कि तथाकथित विकास की राह इस औपनिवेशिक विरासत को ढोने में ही है
हम सभी जानते हैं कि जिस विकास के मंत्र का जाप चुनावी सफलता के लिए सभी पार्टियां एक सुर से करती हैं उसके मूल में बड़ी बड़ी परियोजनाओं के लिए माहौल बनाना और इनके जरिए चुनाव का खर्च निकालने का मकसद होता है । इसी विकास के नाम पर आम जनता को उनके निवास स्थानों से विस्थापित किया जाता है और अपील की जाती है कि वे सुविधा की छोटी सी कीमत चुकाने में फालतू आनाकानी न करें । यह भी कहा जाता है कि आज की दुनिया में यह विकास दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कृपा से ही हासिल हो सकता है । स्वाभाविक है कि इन कंपनियों के मालिकान और अफ़सरों के साथ बातचीत किसी हिंदुस्तानी जुबान में तो की नहीं जा सकती । ऐसा वैचारिक वातावरण बना दिया गया है कि हम जापान और जर्मनी आदि की हैसियत और इतिहास के बारे में याद भी नहीं करना चाहते और मान लेते हैं कि दुनिया का अर्थ अंग्रेजी भाषी अमेरिका और हमारे पुराने मालिकान ब्रिटिश ही हैं । यह भी याद दिलाने पर हमारे शासक चिढ़ जाते हैं कि इन देशों में हाल फिलहाल तक बैंकों ने भारी घोटाले किए थे और कंपनियों का रहस्यमय तरीके से डूबना तो आम बात है । अभी तो हमारे शासक रूपर्ट मरडोक और बिल गेट्स से मिलने में ही धन्य हुए जा रहे हैं । उन्हें उम्मीद है कि इन धन्नासेठों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खैराती कार्यक्रमों से शायद हम गरीबों को भी कुछ राहत मिल जाए! ऐसे में किसी भी किस्म के अनुपनिवेशन की कोशिश की आशा व्यर्थ है ।  
विदेशी पूंजी की आक्रामकता बढ़ने के साथ ही विकास की इस नई राह पर हमारे देश की सत्ताधारी और राष्ट्रीय तथा प्रांतीय सभी विपक्षी सरकारों के मुखिया और उनकी पार्टियां चल पड़ी हैं । राजनीति की पूंजीपतियों से दूरी का जमाना बीत गया है और भांति भांति के नेता उद्योगपतियों के सम्मेलनों में जाना फख्र की बात समझने लगे हैं । नव-उदारवाद की यही राजनीतिक संस्कृति है जिसे भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार सहित कांग्रेस के राजकुमार भी अच्छी तरह से अपना रहे हैं । पर्यावरण मंत्रालय से मंत्री की बिदाई उद्योगपतियों के सम्मेलन में कांग्रेस उपाध्यक्ष की शिरकत से ठीक एक दिन पहले होना इस बात का सबूत है कि शासन कौन चला रहा है । इसी राजनीतिक संस्कृति में राजनेताओं को आम लोगों से दूर रहने की सलाह दी जाती है और कहने की जरूरत नहीं कि कोई विदेशी भाषा, भले ही वह उपनिवेशवादी प्रभुओं की भाषा रही हो, इसका सबसे प्रभावी हथियार होती है । इस संस्कृति के अलंबरदारों की नजर में नेताओं की सुरक्षा को खतरा तथाकथित आतंकवादियों से कम, इस देश के अवाम से अधिक है । तभी तो सारा राजकाज ऐसी भाषा में चलाने की जिद की जाती है जिसे देश के ढाई फीसद से अधिक लोग जानते ही नहीं हैं । इसी देश में ऐसा संभव है कि ओडिसा जैसे प्रांत के मुख्यमंत्री को स्थानीय भाषा का ज्ञान न होना और औपनिवेशिक भाषा में उनका पारंगत होना बर्दाश्त किया जाता है । शासकों को अगर जनता से अलग रखने में औपनिवेशिक भाषाई विरासत मदद करती है तो राजनीति में जनता की मौजूदगी बढ़ाने के लिए भाषाई अनुपनिवेशन जरूरी काम हो जाता है ।
लेबनान में पली-बढ़ीं सुजैन टॉलहक ने अरबी भाषा को बचाने के लिए अभियान चलाया है। उन्होंने फील अमेर नाम का संगठन बनाया है, जो लेबनान के लोगों को अरबी भाषा के बारे में जागरूक करता है। उनका कहना है मातृभाषा को लेकर ढेर सारे सवाल मेरे मन को झझकोर रहे थे। मैं मानती हूं कि अरबी भाषा आज के जमाने की जरूरतों को पूरा नहीं करती। आधुनिक शोध और विज्ञान में इस भाषा का इस्तेमाल नहीं होता। विदेश यात्राओं के दौरान हम अरबी नहीं बोल सकते। अरबी बोलने पर एयरपोर्ट पर हमारे कपड़े उतरवाकर तलाशी हो सकती है। अरबी हमारी मातृभाषा है और एक्सपर्ट कहते हैं कि किसी दूसरी भाषा में महारत हासिल करने के लिए आपको अपनी मातृभाषा का अच्छा ज्ञान होना चाहिए। अगर आपको अपनी मातृभाषा का ज्ञान नहीं होता, तो आप विदेशी भाषा कैसे बोल पाएंगे?’ उन्होंने इस बात को समझा कि किसी देश को बरबाद करना हो, तो सबसे पहले उसकी भाषा को खत्म कर दो। उनका कहना है कि जर्मनी, फ्रांस, जापान और चीन के समाज इस हकीकत से अच्छी तरह वाकिफ थे, इसलिए उन्होंने अपनी मातृभाषा को कभी खत्म नहीं होने दिया। इन देशों ने अपनी मातृभाषा को बचाने के सभी संभव उपाय किए। ये देश अपनी भाषा को विकसित करने और इसकी रक्षा के लिए काफी पैसा खर्च करते हैं। यही नहीं तुर्की और मलयेशिया जैसे देश भी हैं, जिन्होंने अपनी मातृभाषा को बनाए रखने के लिए काफी मशक्कत की है। सुजैन टॉलहक की आवाज हम कब सुनेंगे?

     

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