हालांकि वामपंथ में केवल कम्युनिस्ट
पार्टी ही नहीं होती और भारत की आजादी के समय कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा अन्य वामपंथी
भी थे लेकिन अनेक ऐतिहासिक कारणों के चलते हमारे देश में वामपंथ का जिक्र आते ही उसका आशय कम्युनिस्ट पार्टी होता है । न सिर्फ़ इतना बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था के तहत संसदीय चुनाव प्रणाली के साथ कम्युनिस्ट आंदोलन और पार्टी का ऐसा उतार चढ़ाव भरा रिश्ता भी शायद ही किसी अन्य देश में इतना लंबा और इतना मजबूत होगा जितना भारत में है । इन्हीं सब वजहों के चलते स्वाधीन भारत में संसदीय चुनावों में वाम दलों यानी कम्युनिस्ट पार्टियों की भूमिका विचारणीय हो जाती है । इस भूमिका
की जांच परख के लिए यह बात भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन
की शुरुआत स्वाधीनता से पहले ही हो गई थी और कम्युनिस्टों की संसदीय उपस्थिति उनके
आंदोलन से पूरी तरह अलग नहीं होती । सिर्फ़ सीटों की संख्या के आधार पर इसका कोई भी
विवेचन अधूरा रहेगा । संसदीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को देश ने स्वतंत्रता के बाद लागू हुए संविधान के जरिए अपनाया लेकिन आज़ादी के आंदोलन के दौरान ही उस संविधान के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी । अंग्रेजी शासन के दौरान चुनाव 1920 से ही शुरू हो चुके थे लेकिन सीमित मताधिकार के आधार पर । थोड़ा व्यापक मताधिकार के साथ और चुने हुए लोगों को कुछ अधिकार प्रदान करने वाला पहला चुनाव 1935 में हुआ था । प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ में इसी चुनाव का जिक्र है । आज संसद की सर्वोच्चता का गला फाड़कर उद्घोष करने वाला राजनीतिक वर्ग शायद इस तथ्य से अनभिज्ञ होगा कि प्रेमचंद ने उस उपन्यास में भ्रष्टाचार को चुनाव की मुख्य विशेषता के रूप में चित्रित किया है । उसे तो यह तथ्य भी असुविधाजनक ही लगेगा कि इसी संसद भवन में भगत सिंह ने यह कहते हुए बम फेंका था कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है । इस पृष्ठभूमि का उल्लेख इसलिए जरूरी है ताकि संसद और संसदीय चुनावों के इतिहास के बारे में थोड़ी स्पष्टता रहे । चूंकि संसदीय चुनाव भारत के गुलाम रहते ही शुरू हो चुके थे इसलिए थोड़ा भी वस्तुगत विश्लेषण यही बताएगा कि चुनावों और संसद का वर्तमान स्वरूप औपनिवेशिक प्रभुओं की विरासत है जो कुल मिलाकर अब तक सामाजिक हलचलों का समावेशी प्रतिबिंबन कर रहा है । आम तौर पर कम्युनिस्ट आंदोलन में संसद और चुनाव को लेकर एक तरह की हिचक रही है । इसका कारण यह था कि पूंजीवादी व्यवस्था में उसके राजनीतिक शासन के इस तरीके के बारे में यही माना जाता रहा है कि इसमें समाज के प्रभुतासंपन्न तबके ही सफल हो सकते हैं । इसीलिए कम्युनिस्टों की पहली पसंद हमेशा ही सीधी लड़ाई रही
है । मार्क्स के समय तक कम्युनिस्ट आंदोलन
कुल मिलाकर पूंजीवाद के विरोध और क्रांतिकारी मजदूर आंदोलन के रूप में ही जाना जाता
रहा लेकिन उनकी मृत्यु के बाद क्रांतिकारी दौर के उतार को समझते हुए एंगेल्स ने यूरोपीय
कम्युनिस्टों को चुनावों में भाग लेने की सलाह दी । इसका मकसद एक तो विचारों के प्रचार
का अवसर और उसकी संभावना था तो इसके जरिए आंदोलन की लोकप्रियता की परीक्षा भी होने
लगी थी । रूस में भी लेनिन ने क्रांतिकारी दौर में ड्यूमा यानी संसद के चुनावों का
बहिष्कार और आंदोलन के उतार के दिनों में चुनाव अभियान का प्रचार के लिए इस्तेमाल का
तरीका सुझाया था । जीत हासिल होने की हालत में चरम क्रांतिकारी विपक्ष की भूमिका निभाने
की सलाह उन्होंने बोल्शेविक प्रतिनिधियों को दी थी । भारत की आजादी से पहले होने वाले
चुनावों में तो कम्युनिस्टों के भाग लेने की संभावना नहीं थी लेकिन स्वाधीनता के बाद
यह सवाल काफी महत्वपूर्ण हो गया । याद दिलाने की जरूरत न होगी कि आजादी के ऐन पहले 1946 में दो बेहद महत्वपूर्ण और विस्फोटक
आंदोलन कम्युनिस्टों के नेतृत्व में चले थे- तेलंगाना का किसान
संग्राम और बम्बई का नौसैनिक विद्रोह । इसलिए शुरू में कम्युनिस्ट पार्टी को आजादी
‘झूठी’ लगती रही लेकिन 51 के पहले चुनाव के आते आते कम्युनिस्ट पार्टी नए बने राजनीतिक इंतजाम के साथ
समायोजन के लिए मानसिक रूप से तैयार हो चुकी थी । खास बात यह है कि उस समय की कम्युनिस्ट
पार्टी इन दोनों अतियों के बीच झूलती रही थी । ये अतियां एक ओर शहरी विद्रोह की तैयारी
तो दूसरी ओर संसद के जरिए ही सब कुछ हासिल करने की भोली आशा थीं ।
ग्रामीण क्षेत्रों में आजादी
से पहले कम्युनिस्टों ने आम तौर पर जमींदारों के विरुद्ध लड़ाई चलाई थी । जमींदारी के
खिलाफ़ इस लड़ाई में उन्हें खेतिहर किसान समुदाय का समर्थन मिला था । सो पहले लोकसभा
चुनाव में इसी लड़ाई की विरासत की बदौलत कम्युनिस्ट पार्टी मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर
उभरी । शायद इस सफलता की काट के लिए ही 52 में कांग्रेसी सरकार
जमींदारी उन्मूलन कानून लेकर आई थी । जमींदारी उन्मूलन का लाभ सबसे अधिक उन्हीं खेतिहर
जातियों को मिला जो कम्युनिस्ट पार्टी का आधार थीं । स्वाभाविक रूप से इन जातियों के
पास जो समृद्धि आई उसके चलते ये सामाजिक जीवन में तो प्रभावी हुईं ही राजनीति की मुख्य
धारा में भी अपनी उपस्थिति चाहने लगीं । उत्तर भारत में उनकी यह चाहत लोहियाई समाजवाद
और उससे जुड़ी टुकड़ों टुकड़ों में बंटकर चुनावी दंगल में उतरने वाली विभिन्न पार्टियों
के भीतर अभिव्यक्त हुई । आर्थिक सामाजिक जीवन में इनके उभार ने इनकी राजनीतिक पसंद
में बदलाव लाना शुरू कर दिया था । दक्षिण भारत में द्रविड़ आंदोलन के उभार ने इसी प्रक्रिया
को गति दी थी । इस प्रतियोगिता के मद्दे नजर कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने दो रास्ते
थे- या तो वह अपने आपको इन नव धनिक जातियों की वर्ग स्थिति के
अनुरूप बदलता या फिर और भी उत्पीड़ित ग्रामीण समुदाय की समस्याओं को अपनी लड़ाई का प्रमुख
मुद्दा बनाता । दुर्भाग्य से संसदीय वामपंथ ने पहला रास्ता अपनाना चाहा । प्रसिद्ध
है कि आंध्र प्रदेश में दो प्रमुख मध्यवर्ती जातियों- कम्मा और
रेड्डी- में ही कम्युनिस्टों का आधार सीमित रहने के चलते उनके
लिए प्रचलित ‘कामरेड’ शब्द का अर्थ सामान्य
बोलचाल में व्यंग्यपूर्वक ये दो जातियां ही समझा जाता था ।
मध्यवर्ती जातियों के साथ इस
राजनीतिक प्रतियोगिता के समक्ष कम्युनिस्टों के संभ्रम ने वाम आंदोलन को सबसे गहरा
धक्का पहुंचाया । हमने पहले ही स्पष्ट किया है कि कम्युनिस्ट आंदोलन केवल संसद में
अपनी उपस्थिति से नहीं समझा जा सकता, बल्कि उसकी संसदीय शक्ति
भी बहुत कुछ उसकी गैर-संसदीय ताकत का प्रतिबिंब होती है । लेकिन
संसद में वामपंथ की भूमिका में उतार चढ़ाव की बात करते हुए एक और तथ्य पर ध्यान देना
चाहिए । चूंकि संसद, राजनीति में वामपंथी हस्तक्षेप का स्वाभाविक
मंच नहीं होता, इसलिए उसकी प्रभावी उपस्थिति से आम तौर पर पूंजीवादी
शासन को असहजता महसूस होती है । लोकतंत्र का मुखौटा बनाए रखने के लिए उसकी सांकेतिक
उपस्थिति बेहतर होती है, लेकिन एक हद के बाद उसे बर्दाश्त करना
शासक समुदाय के लिए मुश्किल हो जाता है । पहले ही हमने इस बात का जिक्र किया कि पहली
संसद में मुख्य विपक्षी पार्टी के बतौर कम्युनिस्ट पार्टी की उपस्थिति ने जमींदारी
उन्मूलन के जरिए उसके सामाजिक आधार को खिसकाने के लिए कांग्रेस सरकार को प्रेरित किया
था । अनेक बार संसद में वाम सांसदों की बड़ी संख्या का कारण वाम आंदोलन की बढ़त नहीं,
बल्कि शासन के तत्कालीन इंतजाम के साथ उसका सामंजस्य भी होता है । इसी
के चलते हम यह भी देखते हैं कि किसान या मजदूर आंदोलन में उतार के बावजूद वामपंथी सांसदों
की संख्या में इजाफ़ा होता रहा । ऐसा इस कारण भी होता रहा कि 1951 से लेकर 1960 तक जो भूमिका संसदीय वामपंथ ने निभाई उसमें
उसे केरल की पहली विपक्षी सरकार को गंवाना पड़ा था इसलिए उसने सरकार बचाना अपनी मुख्य
प्राथमिकता बना लिया ।
मध्यवर्ती जातियों का आधार लेकर
जो राजनीतिक धारा सामने आई थी उसके साथ सहयोग ही संसदीय वामपंथ की शक्ति और सीमा का
सबसे बड़ा स्रोत साबित हुआ । पश्चिम बंगाल में वाम फ़्रंट सरकार का सबसे क्रांतिकारी
कदम ‘आपरेशन बर्गा’ मूल रूप से बर्गादारों
यानी बटाइदारों को राहत पहुंचाने वाला कदम था और उसने भी उन्हीं नव धनिक तबकों को बंगाल
के ग्रामीण इलाकों में पैदा किया जिनके समकक्ष बिहार और उत्तर प्रदेश में लोहियाई समाजवादी
राजनीति को आगे बढ़ा रहे थे । यही वह समानता थी जिसने माकपा को तमिलनाडु में करुणानिधि,
आंध्र में चंद्रबाबू नायडू और बिहार में लालू यादव तथा उत्तर प्रदेश
में मुलायम सिंह यादव का साथ देने के लिए हमेशा प्रेरित किया । इससे तात्कालिक तौर
पर सांसदों की संख्या में तो इजाफ़ा दिखाई देता रहा लेकिन स्वाधीनता और नैतिक ताकत घटती
गई । आखिरकार जब नव-उदारवादी निजाम को थोड़ी सी भी लगाम नागवार
गुजरने लगी तो उसने वामपंथी समर्थन को झटका दिया और स्यापा करने के लिए भी कोई नजर
नहीं आया ।
आज मजबूरी में वामपंथ ऐसी जगह
आ पहुंचा है कि उसे फ़ायदा भी क्रांतिकारी भंगिमा से ही हो सकता है लेकिन लाख टके का
सवाल यह है कि संसद ने जिस तरह वामपंथ के नख दंत उखाड़ डाले हैं उसमें क्या ऐसा करने
की हिम्मत भी उसमें बची है । संसदीय विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए भी उसे संसद के
बाहर चल रहे जन आंदोलनों के मुद्दों को अपना एजेंडा बनाना होगा । पूंजीवाद का वर्तमान
दौर कल्याणकारी कामों को करना भी क्रांतिकारी बनाए दे रहा है । हम देख रहे हैं कि लैटिन
अमेरिका के अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोधी शासक केवल जन कल्याण के कामों को करने के लिए
भी वामपंथी भंगिमा अपनाने के लिए मजबूर हो रहे हैं । वर्तमान पूंजी का हमलावर दौर इस
बात की इजाजत नहीं दे रहा कि संसदीय स्तर पर भी कोई विरोध नजर आए । विकास के कारपोरेटी
संस्करण का किसी भी हलके में विरोध नजर आते ही वर्तमान शासक चौकड़ी उसे माओवादी कहकर
गला दबाने पर आमादा है । बंगाल और केरल की सत्ता से बेदखली के बाद संसदीय वामपंथी पार्टियों
ने अपने जन संगठनों को मजबूत करने पर ध्यान दिया तो है लेकिन अतीत के बुर्जुआ सहयोगी
दलों से मोह अभी टूटा नहीं है । आगामी लोकसभा चुनावों में विभिन्न तबकों के जिंदगी
के असली सवाल जिस हद तक राजनीतिक विमर्श का केंद्र बनेंगे उसी हद तक वामपंथी पार्टियों
की भूमिका भी प्रभावी होने के आसार बनेंगे ।
Bahut hi shandar lekh..........
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