सोवियत संघ का जब पतन हुआ
तो ऐसी आंधी चली मानो वामपंथ अब हमेशा के लिए खत्म हो गया और इसका वैचारिक समारोह
भी मनाया जाने लगा । उस समय भारत में तथाकथित उदारीकरण की नीतियों के पक्ष में
बौद्धिक जनमत बनाया जा रहा था इसलिए इस शोरोगुल में शासकों ने भी खुशी मनाई । लेकिन यह
खुशी ज्यादा दिन
नहीं चली क्योंकि सोवियत
संघ के पतन
से किसी बेहतर
दुनिया के निर्माण की
खिड़की नहीं खुली
बल्कि बड़े पैमाने
पर दुनिया के
अनेक इलाकों में
हिंसा और मारकाट
का माहौल बन
गया । धीरे
धीरे लोगों ने
देखा कि जिस
पश्चिमी संसदीय लोकतंत्र को
अब तक की
सर्वोत्तम शासन पद्धति
कहकर फ़ुकुयामा ने
इतिहास के अंत
की घोषणा की
थी वह बड़ी
पूंजी के शासन
का दूसरा नाम
निकली । फिर
पूंजीवाद के केंद्र
में पूंजीवाद के
संकट की खबरें
आने लगीं तो
वामपंथ में दिलचस्पी फिर
से बढ़ने लगी
। बहरहाल वामपंथ
के भविष्य पर
विचार करने के
लिए कुछ मुद्दों पर
बात साफ होना
जरूरी है ।
सबसे पहली बात कि
दुनिया के पैमाने
पर वामपंथ का
गहरा नाता मार्क्सवाद से
रहा है और
भविष्य में यह
नाता और मजबूत
ही होना है, कमजोर नहीं और
मार्क्सवाद के साथ
गहरा रिश्ता पूंजीवाद का
है । यानी पूंजीवाद के उत्थान के वक्त
मार्क्सवाद का असर कमजोर होता है और जब पूंजीवाद संकट में होता है तो आम तौर पर मजदूर
आंदोलन और राजनीतिक दुनिया में मार्क्सवाद से प्रभावित होकर वामपंथी राजनीतिक ताकतें
आगे बढ़ती हैं । आज पूंजी का विश्वव्यापी संकट कोई छिपी बात नहीं रह गया है और खुद अमेरिका
में इसे सबसे ज्यादा महसूस किया जा रहा है । पूंजी के इस संकट से ही उसकी हालिया आक्रामकता
पैदा हुई है और दुनिया भर में
पूँजी की आक्रामकता के
विरोध में चलने
वाले
हालिया आंदोलनों में मार्क्सवाद की
निर्णायक मौजूदगी से
यही बात साबित
हो रही है
। इन आंदोलनों में
मार्क्सवाद की मौजूदगी से
नए तरह की
वामपंथी राजनीति का
उदय पश्चिमी देशों
में भी देखा
जा रहा है
। इस अर्थ
में कहें तो
वामपंथ का भविष्य
उज्जवल है लेकिन
उसे बहुत सारे
सबक लेने होंगे
और नए जमाने
की मांग के
अनुरूप अपने को
ढालना होगा । चूंकि मार्क्सवाद एक अंतर्राष्ट्रीय विचारधारा
है इसलिए दुनिया के पैमाने पर होने वाले बदलावों को ध्यान में तो रखना होगा लेकिन बात को भारत
के अनुभव से
शुरू करना दुरुस्त होगा
।
भारत में आज़ादी के
बाद संसदीय लोकतंत्र की
लंबी मौजूदगी के
चलते वाम आंदोलन या वामपंथी राजनीति की एक प्रमुख
धारा संसदीय वामपंथ
की रही है
। दामोदर धर्मानंद कोसंबी
की भाषा में
इसे आधिकारिक (आफ़िसियल) वामपंथ भी कह
सकते हैं । यह धारा संसदीय
राजनीति में गहरे
धँसे होने के
कारण कभी शासक
विचारधारा से अपना
बुनियादी अलगाव बना
नहीं पाई । संसद कोई ऐसी
चीज नहीं जहां
मार्क्सवादियों को जाना
ही नहीं चाहिए
लेकिन चूंकि सारतः
यह पूंजीवादी व्यवस्था का
हित पोषक है
इसलिए कभी बिना
हिचक मार्क्सवादियों ने इस
रास्ते पर कदम
नहीं बढ़ाए । हमेशा ही संसदीय
संघर्ष में उनकी
भागीदारी सशर्त रही
है । संसद
में जाने के
कुछेक तरक जो
मार्क्सवादी देते रहे
हैं उनमें सबसे
प्रभावी उनका यह
तर्क रहा है
कि संसद में
भाग लेकर वे
इसकी सीमाओं को
उजागर करेंगे ताकि
जनता में उसके
प्रति मोह खत्म
हो और वह
क्रांति के लिए
मानसिक और भौतिक
रूप से तैयार
हो सके । इस नाते मार्क्सवादियों की
स्थिति की विडंबना को
सबसे अच्छी तरह
रणधीर सिंह यह
कहकर स्पष्ट करते
हैं कि जिन
मार्क्सवादियों को संसद
को अंदर से
तोड़ना था उन्हें
सबसे अच्छे सांसद
होने के पुरस्कार मिलते
रहे हैं । याद दिलाने की
जरूरत नहीं कि
जब यह पुरस्कार स्थापित हुआ
उसके बाद भाकपा
सांसद इंद्रजीत गुप्त
को फिर माकपा
सांसद सोमनाथ चटर्जी
को मिला । यहां तक कि
श्री चटर्जी तो
लोकसभा के अध्यक्ष भी
रहे । वामपंथ
के लगभग सभी
शुभेच्छु वामपंथ के
इस संसदीय पाचन
को लेकर संदेह
जताते रहे । इसीलिए खुद वामपंथी पार्टियां भी
कभी इसे अपना
मुख्य काम नहीं
कहतीं । सिद्धांत में
वे यही घोषित
करती हैं कि
उनका संसदीय काम
संसद के बाहर
के काम यानी
जन आंदोलन के
मातहत ही रहेगा
लेकिन व्यावहारिक तौर
पर वाम की
संसदीय धारा संसद
की सीमाओं का
शिकार होती गई
।
संघर्ष के इस तरीके
पर पुनर्विचार कुछ
चीजों के चलते
अनिवार्य हो गया
है । हाब्सबाम ने
इस तथ्य की
ओर ध्यान दिलाया
था कि फ़ासीवाद पूरी
दुनिया में संसदीय
लोकतंत्र के रास्ते
ही आया है
। इसलिए मार्क्सवादियों को
यह भ्रम नहीं
पालना चाहिए कि
संसदीय लोकतंत्र की
मौजूदगी फ़ासीवाद को
रोकने का कारगर
हथियार है । असल में पूंजीवाद कभी
संसदीय लोकतंत्र को
लेकर सहज नहीं
रहा है । जब भी पूंजीवाद को
पुख्तगी हासिल हुई
है उसने तानाशाही शासन
का रास्ता अपनाया
है । हम
भी अपने देश
में मोदी मार्का
शासन का खतरा
संसदीय राह से
ही आता हुआ
महसूस कर रहे
हैं । दूसरी
बात की ओर ध्यान हंगरी
के मार्क्सवादी विद्वान इस्तवान मेज़ारोस ने
दिलाया है । उनका कहना है
कि संघर्ष के
संसदीय रास्ते का
एक औचित्य इस
विश्वास में था
कि इस व्यवस्था के
भीतर रहते हुए
भी जनता के
हक में कुछ
आर्थिक सुधार करा कर
राहत पहुंचाई जा
सकती है । लेकिन आज पूंजी
की यह क्षमता
भी खत्म हो
चुकी है इसलिए
वह बेरोजगारी और
बरबादी के अलावा
कुछ भी नहीं
दे पा रहा
है । स्वाभाविक है
कि ऐसी स्थिति
में वामपंथियों को
संसदीय संघर्ष पर
संसदेतर संघर्ष को
वरीयता देनी होगी
। इसका मतलब हुआ कि वर्गीय
संघर्षों पर जोर
बढ़ाने में ही
वामपंथ का पुनर्जीवन निहित
है ।
वर्गीय संगठनों के मामले
में पारंपरिक वामपंथ
का जोर मजदूरों के
ट्रेड यूनियन संगठन
तक सीमित रहा
है । ये
संगठन मुख्य रूप
से सार्वजनिक क्षेत्र के
संगठित श्रमिकों को ही
संगठित कर पाए
थे और कोई
व्यापक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य न होने से एक
तरह की ट्रेड
यूनियन नौकरशाही का
भी जन्म उनके भीतर हुआ था
। आजकल जारी नव-उदारवादी अर्थतांत्रिक पुनर्गठन की
सबसे बड़ी विशेषता संगठित
श्रमिकों की तादाद
में कमी और
असंगठित (ठेका/अस्थायी) श्रमिकों की
संख्या में इजाफा
है । स्वाभाविक रूप
से वामपंथ को
इस नई ताकत
को संगठित करने
पर ध्यान देना
होगा लेकिन इसके
लिए इस प्रवृत्ति की
जांच-परख
और उसके अनुसार
नई रणनीति जरूरी
है । असंगठित कामगारों का
बड़ा हिस्सा महिला
मजदूर हैं जिन्हें संगठित
करने के लिए
महिला सवाल पर
वामपंथ को अपनी
सोच का दायरा
फैलाना होगा ।
मजदूरों
के बाद लेकिन
भारत में उससे
पहले किसानों का
संगठन आता है
। किसानों के
मामले में जैसा
कि हमने पहले
ही कहा कि वे
पारंपरिक वाम के
लिए दूसरे नंबर
की ताकत रहे
हैं इसलिए उन्हें
संगठित करने का
काम भी थोड़ा
कम ध्यान खींचता
रहा है । असल में पूंजीवादी पार्टियों की
सबसे बड़ी ताकत
दुर्भाग्य से किसान
ही बने हुए
हैं । यह
स्थिति बहुत कुछ
पारंपरिक वाम के
नजरिए के चलते
बनी है । आज़ादी के आंदोलन के समय जमींदारी विरोधी
आंदोलन के कारण
वाम
का किसान आधार मध्यम
किसानों तक ही
महदूद रहा । आज़ादी के बाद कानूनन जमींदारी के खात्मे से इन
मध्यम किसानों को जमीन की जोत हासिल हो गई और वे एक हद तक आर्थिक समृद्धि भी हासिल
कर सके । स्वाभाविक रूप से इसके बाद वाम का आधार नीचे खिसककर खेतिहर मजदूरों तक पहुंचना
चाहिए था लेकिन वामपंथी पार्टियां इस संक्रमण को अंजाम नहीं दे पाईं और उनका आधार ये
ताकतें ही बनी रहीं । आज भी आंध्र प्रदेश में मज़ाक में कामरेड का अर्थ कम्मा-रेड्डी माना जाता है । आर्थिक हैसियत में बदलाव के साथ इन समुदायों की राजनीतिक
पसंद भी बदली और वे पिछड़ी जाति के लिए आरक्षण की समर्थक और तथाकथित क्षेत्रीय पार्टियों
के पीछे लामबंद हो गईं । आज़ादी के बाद के पहले एक दो चुनावों में आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु
में वामपंथी पार्टियों की हैसियत काफी अच्छी थी लेकिन धीरे धीरे वे क्षेत्रीय दलों
से मात खाती गईं । दक्षिण भारत में घटित इसी परिघटना को अस्सी के दशक में उत्तर भारत
में दोहराया गया और यहां भी वामपंथ इन मध्यम किसानों की पार्टियों के पीछे पीछे घिसटता
रहा । हालत यहां तक पहुंची कि मुख्य धारा की वामपंथी पार्टियों ने तो खेत मजदूरों के
लिए व्यावहारिक तौर पर कभी कोई स्वतंत्र संगठन ही नहीं बनाया । सत्तर के
दशक में नक्सलबाड़ी आंदोलन
के जरिए जब
वामपंथ की क्रांतिकारी धारा
पैदा हुई तो
इसने संसदीय वामपंथ
को संशोधनवादी कहा
और अपने लिए
किसान क्रांति की
राह चुनी । इसके लिए ये लोग ग्रामीण सर्वहारा तक गए और वे
ही इस राजनीतिक धारा की मुख्य ताकत बने । ध्यान देने की बात यह है कि इस सोच तक सहजानंद
सरस्वती अपने सहज बोध के आधार पर ‘महारुद्र का महातांडव’
में पहुंच चुके थे । वामपंथ का भविष्य भारत के गांवों में पैदा होने
वाले इस नए वर्ग, जिसे आप ग्रामीण सर्वहारा या खेतिहर मजदूर कह
सकते हैं, के साथ आंदोलनात्मक एकजुटता में भी निहित है क्योंकि
एक ओर तो इससे वह तथाकथित ‘दलित अस्मिता विमर्श’ का व्यावहारिक धरातल पर जवाब दे सकता है, दूसरे खेती
में और देहाती इलाकों में पूंजी के नए हमलों के शिकार लोगों को गोलबंद कर सकता है ।
भारत का शासक वर्ग समूची तीसरी दुनिया का सबसे धूर्त
और ताकतवर शासक वर्ग है । जहां अन्य मुल्कों में तानाशाही या फ़ौजी शासन लाना पड़ा वहां
भारत का शासक वर्ग कमोबेश अब तक तमाम दबावों को झेलते हुए भी किसी न किसी तरह लोकतांत्रिक
तरीके से शासन चलाने में कामयाब रहा है । इसे आप शासक विचारधारा की सहमति बनाने की
ताकत समझ सकते हैं । इसे राष्ट्रवाद की प्रचलित समझ के विश्लेषण के जरिए सबसे बेहतर
तरीके से समझा जा सकता है । हमारे देश में राष्ट्रवाद की जो समझ है वह भाजपा और कांग्रेस
दोनों पार्टियों की साझी समझ है और उसमें पाकिस्तान का विरोध ही देशभक्त होने का सबसे
कारगर प्रमाण है । दुखद बात यह है कि पारंपरिक वामपंथ भी साम्राज्यवाद विरोध के नाम
पर इसी समझ का साथ दे बैठता है । जब अमेरिका से पाकिस्तान की नजदीकी थी तब तो यह बात
विश्वसनीय भी थी लेकिन आज जब अमेरिका खुद पाकिस्तान से दुश्मनी निभा रहा है तो इस तर्क
का कोई आधार नहीं रह गया है फिर भी माकपा और भाकपा शासक दलों के साथ मिलकर पाकिस्तान
के खिलाफ़ युद्धोन्माद पैदा करने को ही देशभक्ति मानने पर आमादा हैं । भविष्य के वामपंथ
को अंधराष्ट्रवाद के मुकाबले अंतर्राष्ट्रवादी होना होगा ताकि वह पड़ोसी देशों के साथ
टकराव के मुकाबले मेलजोल का भरोसा दिला सके ।
इसी तरह आंतरिक सुरक्षा के नाम पर भारत के शासक जनता
के तमाम आंदोलनों का दमन करने के लिए भांति भांति के दमनकारी कानून बनाते रहते हैं
। यह सिलसिला अंग्रेजी राज से जारी है और भगत सिंह ने जिस ‘पब्लिक सेफ़्टी एक्ट’ के विरुद्ध संसद में बम फेंका था
उस तरह के और उससे भी कड़े कानून आज़ाद देश की सरकार ने पोटा और आफ़्सा की शक्ल में बनाए,
लागू किए और जारी रखे हुए है । आतंकवाद और देश की रक्षा के नाम पर इन
कानूनों का समर्थन भाजपा तो करती ही है, पारंपरिक वामपंथ की पार्टियां
भी करती हैं और इस तरह संघर्षरत जनता की नजरों में वामपंथ की जुझारू छवि को धूमिल करती
हैं । भविष्य के वामपंथ को सामंती सोच और उत्पीड़न के विरुद्ध लोकतांत्रिक जीवन
पद्धति और लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करते हुए सच्चे जनवाद के पक्ष
में खड़ा होना होगा और राज्य तंत्र तथा सेना की मौजूदगी नागरिक जीवन में कमतर
करने तथा सत्ता को जनता के अधिकाधिक करीब लाने के लिए संघर्ष करना होगा ।
संस्कृति का सवाल भी एक महत्वपूर्ण सवाल है । आज हम शिक्षा, संचार
और मनोरंजन की दुनिया में पिछड़ी सामंती और साम्राज्यवादी घुसपैठ को बढ़ता हुआ महसूस
कर सकते हैं । भविष्य के वामपंथ को एकांगी नहीं बल्कि समग्र सामाजिक रूपांतरण के लिए
एक सामग्रिक कार्यसूची का निर्माण करना होगा जिसमें पृथ्वी नामक ग्रह के पूंजीवादी
मुनाफ़ाखोर दोहन पर रोक लगाई जा सके और दुनिया को मनुष्यों के रहने लायक बनाने के उद्देश्य
से प्रगतिशील, मानवीय मूल्यों का सृजन करने वाली संस्कृति को प्रोत्साहन मिले । वामपंथ
का भविष्य इन सभी कामों को पूरा करने की जिम्मेदारी लेने में निहित है ।
Achha likha Sir aapne...........
ReplyDeleteThanks
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