मैनेजर पांडे ने देव नारायण द्विवेदी की ‘देश की बात’ शीर्षक जो किताब संपादित करके स्वराज प्रकाशन से छपाई है उसे इसके अलावे किसी अन्य तरीके से समझना संभव नहीं है । लंबे अध्यापकीय जीवन से अवकाश लेने के बाद प्रोफ़ेसर
पांडे निरंतर भारतीय भाषाओं में उपलब्ध उपनिवेशवाद विरोधी साहित्य को संपादित और प्रकाशित कर-करा रहे हैं ।
उसी क्रम में देव नारायण द्विवेदी की यह किताब उन्होंने संपादित की है । यह किताब पहली
बार 1923 में छपी थी और उस लिहाज से
यह साल उसके प्रकाशन का 90वां
साल है । इसी नाम से देउस्कर की किताब को बांगला भाषी समाज ने जो प्रतिष्ठा दी है वैसी
प्रतिष्ठा इस किताब को हिंदी समाज देगा या नहीं कहना मुश्किल है लेकिन किताब इसकी हकदार
है ।
खास बात यह है कि आज अर्थशास्त्र को जिस तरह केवल
अंग्रेजी भाषा में ही पढ़ा और पढ़ाया जा रह है वैसी हालत हमेशा से नहीं थी यह तथ्य इस
किताब को देखने के बाद स्पष्ट हो जाता है । हिंदी में अर्थशास्त्रीय लेखन की एक परंपरा
रही है और उसकी एक व्यवस्थित शब्दावली भी रही है जिसके क्रम में रखकर इस किताब को देखना
उचित होगा । राधा मोहन गोकुलजी की किताब ‘देश
का धन’ का शीर्षक ही मानो एडम स्मिथ
की ‘वेल्थ आफ़ नेशंस’
का हिंदी अनुवाद है । महावीर प्रसाद द्विवेदी की
‘संपत्तिशास्त्र’
तो भारत के परिप्रेक्ष्य में अर्थशास्त्र के अनुशासन
की परीक्षा है । इसके बाद यह किताब अर्थशास्त्र की पारंपरिक धारणा से आगे जाकर जितने
विषयों को समेटती है उसे राजनीतिक अर्थशास्त्र ही कहा जा सकता है । पुस्तक को ऊपर से देखने पर भ्रम हो सकता है जैसे यह देउस्कर की किताब ‘देसेर कथा’ का अनुवाद हो लेकिन चूंकि पांडे जी उस किताब के भी संपादक रहे हैं इसीलिए उन्हें यह बात सही ढंग से पता थी कि ऐसा नहीं है । बल्कि एक हद तक यह किताब देउस्कर की किताब से उन्नत भी है ।
किताब को पढ़ते हुए कई बार लगता है जैसे हम अज़ादी
से पहले के भारत के बारे में नहीं बल्कि वर्तमान शासन के बारे में सुन रहे हैं । उदाहरण
के लिए लेखक ने डाक खर्च में बिना बताए इजाफ़े की बात की है और इसे मनुष्य की बेहद जरूरी
आवश्यकता से मुनाफ़ा बटोरने की औपनिवेशिक शासन की नीति का सूचक माना है लेकिन कौन यकीन
करेगा कि आज भी सरकार इसी राह पर चल रही है । शायद उसने मान लिया है कि स्पीड पोस्ट
का न्यूनतम शुल्क 25 रुपए
से 40 करना ऐसी चीज नहीं जिसके बारे
में लोगों की राय का कोई माने मतलब है । इसी तरह दमनकारी कानूनों की बात है । आज यकीन
करना मुश्किल है कि कभी इस देश में धारा 144 और
124 को दमनकारी माना जाता था । यहाँ तक कि जिस
‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’
और ‘पब्लिक
सेफ़्टी बिल’ जैसे कानूनों के विरुद्ध भगत
सिंह ने लोक सभा में बम फेंका था उनसे भी कई गुना दमनकारी कानून आतंकवाद और नक्सलवाद
के खात्मे के नाम पर बनाए गए और धड़ल्ले से उन्हें लागू किया जा रहा है । इस अर्थ में
यह किताब इतिहास के लिए तो प्रासंगिक है ही वर्तमान के और भी अधिक उपयोगी है ।
साफ है कि जिस देश में स्वतंत्र रूप से आर्थिक
विकास हुआ हो वहां के आर्थिक चिंतन के मुकाबले उस देश में विकसित अर्थशास्त्र अलग होगा
जहां के अर्थतंत्र पर गुलामी की छाया है । किताब को पढ़ते हुए लगातार यह महसूस होता
रहता है कि आप गुलामी के अर्थतंत्र की गुत्थियों को देख समझ रहे हैं । आज के अर्थशास्त्र
पर जैसे नव-उपनिवेशीकरण का असर है वैसे
में इस बात की कल्पना करना मुश्किल है कि कभी इस देश में स्वाधीनता आंदोलन के असर में
ऐसे अर्थशास्त्र को विकसित करने की कोशिश हुई थी जिसके जरिए जनता को स्वाधीनता और स्वदेशी
का पाठ पढ़ाया जा सके । पुस्तक को पढ़ते हुए भारत के स्वाधीनता आंदोलन के गौरवशाली दिनों
(1905 का स्वदेशी आंदोलन,
1920 का असहयोग आंदोलन)
के वैचारिक ताप का अहसास होता रहता है और यह अहसास भी
कि कुल मिलाकर हम उस फांस से अब भी पूरी तरह आज़ाद नहीं हो सके हैं जिसे उपनिवेशवाद
ने तैयार किया था । किताब का हरेक अध्याय भारत के आर्थिक शोषण के रहस्य को बेनकाब करता
है । और इस शोषण के बयान के लिए सिर्फ़ अर्थतंत्र नहीं बल्कि फ़ौज,
प्रशासन, खेती,
सट्टा बाज़ार,
व्यापार, कानून
व्यवस्था आदि सबकी छानबीन की गई है क्योंकि ये सभी एक साथ जुड़े हुए हैं । तब नमक का
टैक्स थोड़ा बढ़ाने पर देश उबल पड़ा था आज वही नमक कुछ सरकारी-कुछ
निजी भागीदारी से 20 रुपए
किलो बिक रहा है और देसी नमक को बदनाम कर उसे पूरी तरह से अनुपलब्ध बनाया जा चुका है
।
किताब की शुरुआत एक हद तक अतीत के महिमा मंडन से
होती है जिसमें लेखक भारत की भौतिक संपदा को आंकने के लिए इस तथ्य का सहारा लेता है
कि आखिर इस देश में समृद्धि थी तभी तो उसकी लूट के लिए बारंबार आक्रमण हुए । लेकिन
फिर जल्दी ही लेखक अपने विषय पर आ जाता है और पुरानी लूटों तथा अंग्रेजी शोषण के बीच
फ़र्क करता हुआ बताता है कि ‘भारत
की इतनी संपत्ति लुट जाने पर भी इसकी दशा जरा भी शोचनीय नहीं हुई थी । कारण यह कि उस
समय भारत का धन तो लूटा गया था, पर
आजकल की भाँति उसके उद्योग धंधे का सर्वनाश नहीं किया गया था ।’
प्रमाण के लिए लेखक अकबर के समय की मूल्य तालिका के
सहारे बताता है कि ‘उस
समय एक आदमी को एक महीने के लिए भोजन का सामान खरीदने में साढ़े दस आने काफी थे ।---पर
इस अंग्रेजी शासन की कूटनीति से ही अब वे बातें स्वप्नवत हो गईं और आज एक रुपए का छ:
सेर गेहूँ तथा ढाई रुपया सेर घी बिकने लगा ।’
अंग्रेजों के आगमन के समय भारत की हालत बताने के लिए
लेखक लार्ड क्लाइव और हावेल के लेख उद्धृत करता है । इसके बाद भारत के नाश का कारण
लेखक ने ‘भारत की आपस की कलह और विदेशी
शासन के दुष्परिणामों की अनभिज्ञता’ बताया
है । विलियम डिगवी के सहारे लेखक ‘भारत
की दरिद्रता के दो प्रधान कारण’ चिन्हित
करता है- पहला,
भारत के उद्योग धंधों का नाश और दूसरा,
भारत का धन खींच ले जाना । इन्हीं दोनों परिघटनाओं की
व्याख्या आगे के अध्यायों में की गई है ।
उद्योग धंधे का सर्वनाश शीर्षक अध्याय में लेखक
सबसे पहले इस आम धारणा का जिक्र करता है कि
‘विलायत में भाप की शक्ति से चलने वाली कलों के प्रचार
से ही भारत की कारीगरी नष्ट हुई है, क्योंकि
भाप की कलों से बने हुए माल के सामने भारतीयों के हाथ की कारीगरी फीकी पड़ गई,
इसीलिए भारतीय कारीगरों ने हाथ से माल बनाना बंद कर
दिया ।’ लेकिन लेखक इसे भारतीय उद्योग
की बरबादी का सही कारण नहीं मानता । उसके मुताबिक
‘भारतीय कारीगरी के नष्ट होने का कारण अंग्रेजों का अत्याचार
और अत्यधिक स्वार्थपरता है ।---यदि
ये लोग भारत के साथ अमानुषिक बरताव न करते तो भारत की कारीगरी के सामने विलायत की कलों
का जन्म भी न हुआ होता ।’ आगे
इसी बात को एक अंग्रेज इतिहासकार विल्सन की
‘मिल्स हिस्ट्री आफ़ ब्रिटिश इंडिया’
के एक उद्धरण से लेखक पुष्ट करता है जिसके मुताबिक
‘यदि भारत स्वतंत्र होता तो वह इसका बदला चुकाता और ब्रिटिश
माल के रोकने के लिए वह भी कर लगाता तथा इस तरह अपने उद्योग धंधों को नाश होने से बचा
लेता । भारत को आत्मरक्षा का अवसर बिलकुल ही नहीं दिया गया ।’
इसके बाद लेखक ने विस्तार से आंकड़ों की मदद से बताया
है कि कैसे भारत के वस्त्र उद्योग को तबाह करने के लिए न सिर्फ़ आयात पर शुल्क बढ़ा दिया
गया बल्कि इंग्लैंड में इन वस्त्रों को पहनने पर दंड लगा दिया गया और इस तरह हालत यह
हो गई कि ‘अमेरिका,
डेनमार्क, स्पेन,
पुर्तगाल, मोरीशस
तथा एशिया के अन्यान्य भागों के साथ भारतीय कारीगरों का जो पूर्व संबंध था वह मिटने
लगा ।’ ऐसा होने के बाद ही विलायती
कपड़ों की खपत देश में साल दर साल बढने लगी ।
मजेदार अध्याय इसके बाद
‘आंतष्करणिक क्षति’
का है जिसका मतलब नैतिक पतन है । आप अचरज कर सकते हैं
कि आखिर इसका अर्थशास्त्र से क्या रिश्ता है । लेखक मानो सफाई देते हुए लिखता है
‘अंत:करण
का आर्थिक स्थिति से बड़ा ही घनिष्ठ संबंध है । जब आर्थिक स्थिति ठीक रहती है तब मनुष्य
का अंत:करण उच्च रहता है,
उसे अपनी मान मर्यादा और प्रतिष्ठा का ख्याल रहता है
।---हमारे देश की जो कुछ आंतष्करणिक
या मानसिक क्षति हुई है उसका मूल कारण यही गरीबी है ।’
इसके उदाहरण के बतौर लेखक नशों के व्यापार का जिक्र
करता है । अफीम के सिलसिले में अंग्रेजों की कारस्तानी का खुलासा इस तरह किया गया है
‘अफीम की खेती करने की ओर देश के किसानों का कभी अनुराग
नहीं था, वरन वे इससे घृणा ही प्रकट
करते थे । पर सरकार उनको रुपए कर्ज़ देकर तथा और भी बहुत तरह से लालच दिखाकर पहले उन्हें
अफीम की खेती करने में प्रवृत्त करती थी ।’
असल में आज की ही तरह पहले भी मादक द्रव्यों के साथ
राजस्व में इजाफ़े का लोभ जुड़ा हुआ था जो हमें विरासत में प्राप्त हुआ है और जिसके चलते
कोई भी सरकार बिना प्रचंड जन-दबाव
के नशीली वस्तुओं की बिक्री रोकना नहीं चाहती ।
इसके बाद
‘किसानों का पतन’
शीर्षक अध्याय आता है जिसमें न सिर्फ़ खेती किसानी बल्कि
बीमारियों की बढ़ती पर भी विचार किया गया है । एक बात पाठक का ध्यान खींचती है कि भारत
की स्थिति के वर्णन में उद्योग धंधों से बात शुरू करने का मतलब कहीं न कहीं इसे पूरी
तरह से खेतिहर देश मानने का प्रतिवाद भी है । इसमें एक बहुत ही क्रांतिकारी मान्यता
से लेखक ने अपनी बात शुरू की है । उनका कहना है कि
‘राजकोष में जो धन जमा होता है,
उस पर राजा का अधिकार बहुत ही कम होता है-
यह प्रजा-साधारण
की संपत्ति (पब्लिक वेल्थ)
कहलाता है ।’
यह धन कर के जरिए आता है जिसके बारे में मजेदार तुलना
मुगल शासन से करते हुए वे लिखते हैं ‘मुगलों
के समय में भी कर इतना ही था, पर
वे जितना कर बिठाते थे, उतना
कभी वसूल नहीं करते थे । किंतु अंग्रेज जो कर बिठाते हैं वह कौड़ी कौड़ी वसूल कर लेते
हैं ।’ इसके बाद लेखक ने साल दर साल
कर की बढ़ोत्तरी का ब्यौरा दिया है । उनका क्रोध इस बात पर भी है कि
‘कंपनी के राज्य में भारत के किसानों से कितना रुपया
चूसा गया था, उसका हिसाब जल्दी कहीं नहीं
मिलता ।’ इस शोषण का गहरा रिश्ता अकाल
से बताते हुए लेखक
लिखता है ‘शासन
के कुप्रबंध से भारत का संबंध अकाल से दिन पर दिन घनिष्ठ हुआ जाता है ।’
इसका रिश्ता स्वास्थ्य से भी है यह स्पष्ट करते हुए
द्विवेदी जी कहते हैं ‘जो
समाज इस प्रकार दरिद्र है, उस
समाज में रोग का बढ़ना भी अनिवार्य है ।’ आर्थिक
हालत का कितनी चीजों से संबंध होता है इसकी विश्वसनीय तस्वीर पेश करते हुए वे रेखांकित
करते हैं ‘पहले यूरोप में भी बार बार
प्लेग होता था और उससे हजारों आदमी मरते थे । पर भारत का धन शोषण करके जब से यूरोप
ने अपनी दरिद्रता दूर की, तब
से वहां प्लेग नहीं होता । इधर भारत में दरिद्रता के साथ महामारी का प्रकोप बढ़ने लगा
।’ न सिर्फ़ प्लेग बल्कि इंफ़्लुएंजा,
हैजा, चेचक,
ज्वर- देश
तमाम बीमारियों का घर हो गया था और लोग लाखों की तादाद में मरने लगे । इसी प्रसंग में
लेखक ने भारत और अन्य देशों के लोगों की औसत आयु की तुलना भी की है । पशुओं की संख्या
में घटोत्तरी को भी लेखक ने भारत के लिए चिंताजनक माना है । खेती में लगे किसानों की
हालत खराब होने से ही बड़े पैमाने पर वे कर्ज़दार होते गए थे और सूदखोरी भी व्याधि के
समान हो गई थी । पहले अनावृष्टि होने पर जो तालाब होते थे उनसे किसान सिंचाई करते थे
लेकिन अंग्रेजी राज ने तालाब और नहरों के मुकाबले रेल को प्राथमिकता दी । रेल के प्रति
‘हिंद स्वराज’
जैसी आलोचना करते हुए लेखक कहता है
‘एक फायदा रेल से जरूर हुआ है कि,
सात हजार गोरों को बड़ी बड़ी नौकरियाँ मिली हैं तथा इंग्लैंड
में लोहे के कारखाने वालों की खूब उन्नति हुई है ।---रेल
बनाने के लिए अधिक ॠण विलायत में लिया गया है इसलिए उसका सूद भी वहीं जाता है ।’
सचमुच अंग्रेजी राज में ही विकास का वह जन विरोधी माडल
खड़ा किया जिस पर आज की सरकार तेजी से चल रही है । नतीजा फिर वही अकाल,
भुखमरी और बीमारियों की प्रचुरता से वापसी है । रेल
और नहरों का तुलनात्मक महत्व का विश्लेषण करते हुए लेखक ने एक ऐसी प्रस्थापना दी है
जिस पर आज भी विचार करने की गुंजायश है । वे कहते हैं
‘व्यापार के लिए रेल-मार्ग
की अपेक्षा जल-मार्ग
अधिक सुविधाजनक होता है ।---फिर
भी यहां की सरकार यहां का नौ-वाणिज्य
बढ़ाने के लिए कुछ भी प्रयत्न नहीं करती ।’
इस बात का महत्व तब समझ में आता है जब हम जानते हैं
कि पूर्वोत्तर भारत में यदि ब्रह्मपुत्र और बराक नदियों के जरिए नौ-परिवहन
शुरू किया जाए तो चीजों का दाम कम से कम उस इलाके में सात गुना तक कम हो जाएगा लेकिन
आज़ाद भारत की सरकार भी अंग्रेजी शासन के ही नक्शे-कदम
पर चल रही है । इसी के साथ लेखक नदियों से जुड़ी हुई अर्थव्यवस्था पर भी रोशनी डालते
हुए उनकी गहराई बढ़ाने से होने वाले लाभ की ओर और ऐसा न होने से उपजाऊ जमीन की कटान
से होने वाले नुकसान की ओर हमारा ध्यान खींचता है । इस मामले में भी पुस्तक एकदम समकालीन
ठहरती है ।
इसके बाद का अध्याय
‘आय और व्यय’
अनेक कारणों से बेहद महत्वपूर्ण है । इसमें लेखक ने
अंग्रेजी राज की गलत नीतियों के कारण भारत पर रोज रोज कर्ज में बढ़ोत्तरी की बात उठाई
है और इसके लिए जिम्मेदार नीतियों के बतौर
‘नयी दिल्ली को बसाने में’
धन की बरबादी,
तरह तरह की कमेटियों के अनाप शनाप खर्च,
होम चार्जेज आदि का उल्लेख किया है । सबसे बड़ी विडंबना
तो यह है कि ‘सिपाही विद्रोह
(या सन 1857 का
बलवा) दमन करने के लिए इंग्लैंड के
40 करोड़ रुपए खर्च हुए थे । पर यह खर्च भी भारतवासियों
के सर लादा गया ।’ इसी
क्रम में लेखक ने फ़ौज के खर्चों पर भी विचार किया है और पाया है कि ‘भारत
के आय-व्यय की व्यवस्था तब तक सुधर
ही नहीं सकती जब तक फ़ौजी खर्च न घटाया जाय ।---भारत
की आर्थिक सुव्यवस्था का नाश करने वाला यही खर्च है ।’
लग ही नहीं रहा कि लेखक आज़ादी से पहले के भारत की बात
कर रहा है ।
अगले अध्याय में लेखक राजनीतिक आंदोलन की चर्चा
करता है और आश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस का समर्थन करते हुए भी उसके आलोचकों की राय
से पाठक का परिचय कराता है । ऐसी ही एक आलोचना
‘मध्यभारत’ नामक
बंगाली पत्र में धीरेंद्रनाथ चौधरी ने लिखी थी जिसे लेखक ने विस्तार से उद्धृत किया
है । लेख के अनुसार ‘राजकार्यों
की समालोचना कर तथा राजपुरुषों को उपदेश देकर ही पदावनत जाति का राजनीतिक कर्तव्य समाप्त
नहीं हो जाता है ।’ साफ
है कि यह कांग्रेस की तत्कालीन नीति की आलोचना है लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह
है कि लेखक के मुताबिक ‘राजनीतिक
आंदोलन ही राजनीति की शिक्षा का प्रधान उपाय है ।’
यानी लेखक कांग्रेस से मांग कर रहा है कि
‘इसी शिक्षा के लिए राजनीतिक आंदोलन की आवश्यकता है ।’
भारतीयों को राजकाज सौंपने के विरुद्ध अगर उनकी अशिक्षा
का तर्क दिया जाए तो लेखक प्रतिवाद करते हुए कहता है
‘राजनीतिक अधिकार पाने के बाद ही—साधारण
शिक्षा की कल्पना उत्पन्न हुई ।’ यह
बात इंग्लैंड और अमेरिका के इतिहास का निचोड़ निकालते हुए भारत को स्वराज देने के पक्ष
में कही गई है । समस्या यह है कि ‘प्रजा
को जिन अधिकारों को देने से राजपुरुषों का यथेच्छाघार रोका जा सकता है ऐसे अधिकार अंग्रेज
हमें सहज में कभी नहीं देंगे ।’
अगला अध्याय
‘आयात और निर्यात’
से जुड़ा हुआ है और इस अध्याय में लेखक कहता है कि स्थापित
मान्यता के आधार पर भारत की स्थिति को नहीं समझा जा सकता । स्थापित मान्यता है कि
‘जिस देश में बाहर से माल अधिक आता है उसे समृद्ध देश
कह सकते हैं अथवा जो देश बाहर माल अधिक भेजता है उसे समृद्ध देश कह सकते हैं ।’
लेकिन भारत का हाल यह है कि
‘वर्तमान अवस्था में यह संसार में सबसे अधिक माल बाहर
भेजता है और सबसे अधिक माल विदेशों से मंगाता भी है । फिर भी इसकी दरिद्रता कहावत हो
रही है ।’ इसलिए ‘वास्तव
में दो (आयात और निर्यात)
में से एक भी देश की समृद्धि के निदर्शक नहीं हैं ।’
वैकल्पिक निदर्शक सुझाते हुए लेखक कहता है कि
‘जो देश बाहर तैयार माल अधिक संख्या में भेजता है पर
कच्चा मल बाहर से अधिक मंगाता है वह हर तरह से सुसंपन्न और समृद्ध देश है । इसके प्रतिकूल
जो देश अपना कच्चा माल विदेशों में अधिक भेजता है तथा उसके बदले तैयार माल बाहर से
अधिक मंगाता है और अपनी साधारण आवश्यकता को पूरी करने के लिए भी घर में माल तैयार नहीं
कर सकता वह देश सदा हीन रहेगा ।’ इसके
बाद के अध्याय में लेखक आर्थिक शोषण के एक और महीन उपाय का जिक्र
‘एक्सचेंज’ के
रूप में करता है । यह रुपए (भारत
की मुद्रा) और पेंस-शिलिंग
(इंग्लैंड की मुद्रा)
के बीच लेन देन के लिए सरकार की ओर से दोनों की तुलनात्मक
कीमत तय करने की व्यवस्था थी । इसे औपनिवेशिक शासन इस तरह तय करता था कि फ़ायदा इंग्लैंड
के पूंजीपतियों को ही होता था ।
इस तरह लगातार आर्थिक दोहन की यांत्रिकी का रहस्योद्घाटन
करने के बाद लेखक उन कानूनी उपायों का जिक्र करता है जिनके जरिए भारत की जनता का दमन
किया जाता था । इनमें प्रेस एक्ट, देशद्रोह
की धारा 124ए आदि हैं । दुखद है कि धारा
124 अब भी बनी हुई है । इसके बाद मजदूर संगठन को रोकने के
लिए ‘ट्रेड डिस्प्यूट’
और साम्यवाद का प्रचार रोकने के लिए
‘पब्लिक सेफ़्टी’
। ये ही वे कानून थे जिनके विरोध में भगत सिंह ने संसद
भवन में बम फेंके थे । एकदम अंत में लेखक प्रस्तावित करता है कि
‘राष्ट्र की शक्ति एकता है ।’
इसलिए ‘ऊंच-नीच
का भेद दूर करके प्रत्येक भारतीय को एक सूत्र में बंध जाना चाहिए ।’
दूसरे ‘हमने
अपनी आधी शक्ति को निकम्मी बना दिया है । अत:
स्त्री-समाज
को सुधारना विशेष प्रयोजनीय है ।’
संक्षेप में हिंदी समाज को इस पुस्तक के प्रकाशन
के 90 साल पूरा होने पर प्रकाशक और
संपादक की ओर से यह मूल्य उपहार प्रदान किया गया है । आशा है इस तरह की कोशिशों से
हिंदी को ज्ञान की भाषा बनाने में मदद मिलेगी ।
आपकी समीक्षा बहुत अच्छे ढंग से किताब के सार, महत्व और प्रासंगिकता को सामने रखती है।
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