27 फ़रवरी 2006 का दिन सिलचर के इतिहास में अंकित हो गया । इसी दिन सिलचर निवासी देवजीत साहा ‘इंडिया की वायस’ बनने के बाद अपने शहर वापस लौटा था । देवजीत ने यह खिताब जी टी वी की संगीत प्रतियोगिता ‘सा रे गा मा पा’ में अर्जित किया था । सिलचर में जन्म लेने के बाद देवजीत ने पढ़ लिखकर पी डब्ल्यू डी में इंजीनियर के पद पर नार्थ कछार हिल्स के मुख्यालय हाफ़लांग में नौकरी की । उसकी प्रेमिका कोई काम खोजने बंबई गई थी । वहाँ उसे कोई काम मिल भी गया था । देवजीत का गला अच्छा था । हिंदी फ़िल्मों के खासकर किशोर कुमार के गाए गाने वह बहुत अच्छी तरह गा लेता था । प्रेमिका ने उसे किस्मत आजमाने के लिए बंबई बुलाया । सरकारी नौकरी छोड़कर वह भी भाग्य आजमाने बंबई पहुँच गया । वहाँ जी टी वी के इस प्रतियोगितामूलक कार्यक्रम में शामिल हुआ । पहले कुछ दिनों तक कुछ खास पता नहीं चला । धीरे धीरे उसके सिलचर निवासी होने का पता चला । उसके बाद से उसके नाम का बुखार चढ़ना शुरू हुआ ।
इस परिघटना के तार कई जगहों से जुड़े हुए हैं । एक तो है निजी चैनलों की मनोरंजनपरक माया जो सरकारी दूरदर्शन का एकाधिकार तोड़ने के नाम पर आए । भूमंडलीय गाँव के सरपंच स्टार टी वी के मालिक रूपर्ट मरडोक के बाद इस क्षेत्र में प्रवासी भारतीय (लंदन निवासी) मालिक की जी टी वी आई । पश्चिमी जगत में वास्तविक उद्योगों की समाप्ति के बाद जो नए तरह के उद्योग फल फूल रहे हैं उनमें मनोरंजन उद्योग सबसे अधिक प्रसरणशील उद्योग साबित हुआ है । तीसरी दुनिया के देश इसी प्रक्रिया में पश्चिम के ऊबे हुए संपन्नों के लिए मुफ़ीद मनोरंजन की नकल करने लगे । इस तरह फ़िल्म पेड़ पर उगा टी वी मनोरंजन का आर्किड लहलहाने लगा । सा रे गा मा पा असल में मौलिक गायकों की खोज अथवा उनके बीच प्रतियोगिता का कार्यक्रम नहीं था बल्कि हिंदी फ़िल्मी गानों के बेहतर दोहराव की प्रतियोगिता था । निजी टी वी चैनलों के कार्यक्रमों के लिए वित्तीय मददगार भी चाहिए होते हैं सो इस प्रतियोगिता के लिए मददगार बनी स्वचालित वाहन बनाने वाली एक कंपनी जिसके भारतीय पक्ष को नए युग में विदेशी सहकारिता मिली थी ।
इस तरह इस कार्यक्रम का नाम हुआ ‘हीरो होंडा सा रे गा मा पा’ । यह असल में इस खेल में दूसरे खिलाड़ी का प्रवेश था ।
साइकिल के बाज़ार में नाम कमाने के बाद मानव श्रम की जगह भूगर्भीय ईंधन की लूट के लिए
स्वचालित वाहनों की ओर ध्यान केंद्रित करते हुए हीरो कंपनी ने जापान की होंडा कंपनी
के साथ संश्रय कायम किया । यह वही समय था जब पानी की जगह शीतल पेय की जरूरत पैदा कि
गई और तमाम भारतीय कंपनियों ने अपने दलाल मूल की पुष्टि करते हुए विदेशी कंपनियों के
साथ गँठजोड़ बनाए । बहरहाल पाठकों को गुड़गाँव स्थित होंडा कंपनी में मजदूरों के साथ
हुआ बरताव याद होगा । यह तब हुआ जब बहुत समय तक तटस्थता का ढोंग करने के बाद राज्य
तंत्र ने निजी पूँजी की तरफ़दारी का नया अध्याय शुरू किया । हरियाणा सरकार और पुलिस
ने होंडा कंपनी में ट्रेड यूनियन बनाने की माँग करने वाले मजदूरों को घेरकर बुरी तरह
पीटा । कुछ इस कदर कि मोंकादो की बनाना कंपनी के मजदूरों के साथ हुए बरताव की याद ताज़ा
हो आई । भारत के अर्थतंत्र और राजनीति में आए इस बदलाव की झलक भोपाल गैस त्रासदी से
मिल चुकी थी लेकिन चेहरा नंगा होना बाकी था । बड़ी बात तो यह कि मजदूरों के साथ हुए
अत्याचार के विरोध में हड़ताल पर जाने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापकों का एक
दिन का वेतन काटने का निर्देश विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कांग्रेस की वामपंथ के
सहयोग से चलने वाली सरकार के संरक्षण में दे डाला । शायद उस कंपनी को भी अपनी बदनाम
छवि सुधारने का इससे बेहतर मौका मिलना मुश्किल था ।
इस संगीत प्रतियोगिता के लिए भारत भर से सुरीले युवकों का चुनाव कर उन्हें
विभिन्न फ़िल्म संगीतकारों के शिष्यत्व में बंबई में रखा गया । अलग अलग संगीतकारों के
लिए घरानों के अलग अलग नाम दिए गए । पहले घरानों के नाम जगहों पर होते थे । ये तो सभी
बंबई में ही थे सो घरानों के नाम हुए ‘यलगार’ ‘जय हो’ आदि । देवजीत का घराना था यलगार और उसके कुल गुरु
इस्माइल दरबार । बाद में जब बुखार चढ़ा तो उसका घराना एक नारे का मददगार बना-
यलगार हो, विनती की हार हो । इन गुरुओं का काम
महज अपने शिष्यों को प्रशिक्षित करना था, गुणवत्ता के मूल्यांकन
में उनकी भूमिका परोक्ष ही थी । नतीजा कि समान रूप से खराब गायकों में सर्वोत्तम का
चुनाव दर्शकों पर छोड़ दिया गया । दर्शकों के मतों की मध्यस्थता के जरिए खेल का तीसरा
महत्वपूर्ण खिलाड़ी मैदान में आया । दर्शक अपने मत मोबाइल या लैंडलाइन फ़ोन के जरिए दे
सकते थे । अकेले देवजीत और विनीत को अंतिम मुकाबले से पहले तकरीबन साढ़े 6 करोड़ मत मिले थे ।
इस तीसरे खिलाड़ी के बारे में थोड़ा विस्तार से बात करना जरूरी है । जिसको लैंडलाइन
कहा जाता है वह एक जगह तार के जरिए स्थिर होता है । उदारीकरण ने जनजीवन से स्थिरता
को गायब कर दिया है । घुमंतू कामगार आबादी की बढ़ोत्तरी से मोबाइल की लोकप्रियता का
गहरा रिश्ता है । कहते हैं पश्चिमी देशों में जो तकनीक पुरानी पड़ जाती है और उसका बाज़ार
खत्म हो जाता है उसे बाहरी बाज़ार में खपाने की जल्दी मुनाफ़े के लिए जरूरी हो जाती है
। इसी प्रक्रिया में पहले स्टेटस सिंबल बनकर पर्याप्त मुनाफ़ा कमाने के बाद उपभोक्ता
आधार के विस्तार हेतु एस्सार हचिंसन, सोनी एरिक्सन और भगवान जाने
कैसे कैसे नामों की कंपनियाँ संप्रेषण का व्यापार करने आईं । प्राथमिक और द्वितीयक
सेक्टर के मुकाबले तृतीयक यानी सेवा क्षेत्र की बढ़ोत्तरी अर्थतंत्र में होने पर यह
भी बताया गया कि मोबाइल फ़ोन करने से सकल राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है । आज तक इन
कंपनियों के सेवा मूल्य के मूल्यांकन का कोई भी सुबोध मानदंड विकसित नहीं हो सका है
। कैसा गड़बड़झाला है कि जो कंपनी तीन रुपए में एक मिनट बात कराती है वह भी मुनाफ़े में
है, जो दो रुपए में कराती है वह भी मुनाफ़े में और जो चालीस पैसे
में कराती है वह भी । यहाँ तक कि जो मुफ़्त बात कराती है उसे भी मुनाफ़ा होता है । ट्राई
नामक एक सरकारी संस्था उपभोक्ताओं के हितों का ध्यान रखती बताई जाती है पर कह सकते
हैं कि बड़े पूँजीपतियों के हितों के हिसाब से नीतियों में हेर-फेर करना उसका मुख्य काम है । हम अनाड़ी इसी में मगन रहते हैं कि आइडिया के
मुकाबले हच सस्ता है और उससे भी सस्ता एयरटेल है । रिलायंस तो पोस्टकार्ड का मर्सिया
पढ़ने के लिए ही आई थी ।
सो मताधिकार के प्रयोग की प्रक्रिया में इन मोबाइल कंपनियों ने करोडो कमाए
। जी टी वी को भी उसका कुछ हिस्सा मिला । लोगों ने आखिर वोट दिए ही क्यों ?
इस प्रश्न का उत्तर उस समस्त रहस्य की कुंजी है जिसके जरिए ये खिलाड़ी
जनता को सदा से लूटते आए हैं ।
इसकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या भी की जा सकती है क्योंकि
न सिर्फ़ इस मामले में बल्कि अन्य तमाम मामलों में भी एस एम एस भेजकर लोग अपने मताधिकार
का प्रयोग कर रहे हैं । इसे आप वास्तविक मताधिकार के अपहरण की क्षतिपूर्ति समझ सकते
हैं । मताधिकार का प्रयोग एक राजनीतिक परिघटना है जिसके जरिए लोग अपने जीवन को संचालित
करने वाली अंधी ताकतों को काबू में रखते हैं । पर राजनीतिक क्षेत्र में मताधिकार के
प्रयोग से कोई निर्णायक परिवर्तन हो नहीं पा रहा है । कोई भी दल हो,
कोई भी सांसद अथवा विधायक सभी अधिकाधिक समान नीतियों को लागू करने वाले
समान वर्ग के सदस्य जैसे महसूस होने लगे हैं । ऐसी स्थिति में
मनपसंद गाने या मनपसंद अभिनेता के चुनाव में एस एम एस के जरिए निर्णय को प्रभावित कर
पाने का अहसास भी शायद सुखद हो चला है । उत्तर आधुनिकतावादियों के लिए यह भले ही प्रसन्नता
की बात हो पर अत्यंत दुखद और विडंबनापरक है ।
सामाजिक जीवन से राजनीतिक चिंता की अनुपस्थिति और सांस्कृतिक लड़ाइयों में उसकी
भरपाई मानव इतिहास में दुर्घटना की तरह याद की जाएगी । इन लड़ाइयों ने हास्यास्पद भगवानों
को जन्म दिया है । भारत के विभिन्न अंचलों खासकर बंगाल ने स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों
में जिस तरह के प्रतीकों को जन्म दिया था उनकी जगह सौरभ गांगुली और देवजीत साहा का
विराजमान होना शासक सत्ता द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों के साथ विश्वासघात
का जीवंत दस्तावेज है ।
इसकी एक और व्याख्या मेरे एक मित्र ने पेश की । उनका कहना था कि यह चुनावी
धाँधली का पूर्वाभ्यास है । उन्होंने देखा था कि दो सौ के करीब नौजवान सर्किट हाउस
में बैठकर प्रशासन द्वारा मुहैया कराए गए फ़ोन दोनों हाथों में लेकर मुकाबले के दिन
लगातार एस एम एस भेजे जा रहे हैं । सिलचर में अनेक सार्वजनिक फ़ोन बूथ यह सुविधा मुफ़्त
मुहैया करा रहे थे । कहते हैं उन्हें इसके लिए यहाँ के सांसद और केंद्रीय मंत्री से
धन मिला था । बगल के जिले हैलाकांदी में वहाँ के स्थानीय विधायक ने इसी कार्य हेतु
सभी सार्वजनिक फ़ोन बूथों को धन मुहैया कराया था । जहाँ वोट दर्ज हो रहे थे वहाँ ऐसी
कोई पाबंदी तो थी नहीं कि एक फ़ोन से एक ही वोट दर्ज किया जाएगा । सो एक ही व्यक्ति
हजार हजार वोट डाल रहा था । ‘एक व्यक्ति असंख्य वोट’ को इस प्रक्रिया में मान्यता मिली ।
चूँकि प्रगति का यह नया दौर पश्चिम की शर्तों पर पश्चिम जैसा बनने की धुन से
शासित है और पश्चिम के अनेक समाजों में यह प्रक्रिया अरसा पहले शुरू हो चुकी थी इसलिए
उसके संदर्भ से बात करना गैर मुनासिब न होगा ।
पश्चिम में साठ के दशक में जो सांस्कृतिक उथल पुथल हुई उसे एक हद के बाद उन
देशों के शासक वर्गों ने न सिर्फ़ काबू में कर लिया बल्कि विद्रोही मुद्रा को अपने भीतर
समाहित भी किया । हालाँकि ये सभी विद्रोही पूँजीवाद के विरोधी थे फिर भी पूँजीवाद ने
उन्हें संरक्षण दिया । चित्रकला, फ़िल्म, संगीत आदि के क्षेत्र में आप इस विडंबना को घटित हुआ देखेंगे । संस्कृति के
क्षेत्र में पश्चिमी जगत में व्याप्त सांस्कृतिक अध्ययन का अनुशसन इसका साक्षात नमूना
है । सांस्कृतिक अध्ययन केंद्रों में जनता की संस्कृति के नाम पर अपसंस्कृति का गौरवान्वयन
इस नए दौर की विशेषता है । कहा जाता है कि संस्कृति के क्षेत्र में यह जनता का प्रवेश
है । इस तरह दो काम सधते हैं । एक तो उच्च संस्कृति को सदा के लिए उच्च वर्गों के नाम
सुरक्षित कर लिया जाता है और उसमें जनता के योगदान का प्रश्न दरकिनार कर दिया जाता
है । योगदान न होने से दावा भी समाप्त हो जाता है । उदारीकरण के बाद बनी दुनिया में
न सिर्फ़ आय के मामले में असमानता अश्रुतपूर्व हो गई है बल्कि बौद्धिक तामझाम के साथ
उन चीजों से भी लोगों को महरूम कर दिया गया है जिनके बारे में पहले लोगों के हक का
थोड़ा बहुत दिखावा किया जाता था । आश्चर्य तो यह कि ऐसा जनता के नाम पर ही किया जाता
है । इस तरह अलगाव की प्रक्रिया नए दौर में प्रवेश कर गई है । लोग न सिर्फ़ अपनी बनाई
हुई भौतिक चीजों से बेदखल हो रहे हैं बल्कि अपने सांस्कृतिक उत्पादों को भी विकृत रूप
में दोबारा प्राप्त करने के लिए अभिशप्त हो गए हैं ।
सा रे गा मा पा में जनता के वोट से सर्वोत्तम गायक का चुनाव एक क्षण के लिए
संगीत की दुनिया पर से विशेषज्ञों की बेदखली का भले आभास दे पर जनता के सबलीकरण का
यह रूप ‘बड़े लोगों के लिए मिनरल वाटर और आम लोगों के लिए नाला’
जैसा ही प्रयोग है । लेकिन जनता भी उस तरह से अमूर्त और सरल कोटि नहीं
है जैसा रोमांटिक आंदोलन के दिनों में लोक संस्कृति के पुजारियों ने समझा था । इस पूरे
मामले में क्षेत्रीय ध्रुवीकरण और नफ़रत का बाज़ार देवजीत बुखार के साथ ही साथ फैलता
गया । देवजीत की जीत में उत्तर पूर्व के लोगों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान के
उभार का मौका देखा । लोगों की इस आकांक्षा का दोहन करने के लिए क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियाँ
थीं । पहले देवजीत ‘सिलचर का देवजीत’ बना,
फिर ‘असम’ का, बाद में तो ‘उत्तर पूर्व की आवाज’ बन गया । अखिल असम छात्र संघ (आसू), नागा स्टूडेंट्स एसोसिएशन आदि ने उसके लिए वोट डालने की अपील की । उल्फ़ा ने
भी पहले इसके लिए अपील की पर बाद में तर्क दिया कि देवजीत हिंदी फ़िल्मों के गीत गाता
है जो भारतीय उपनिवेशवाद का प्रतीक है । इस आधार पर उल्फ़ा ने अपनी अपील वापस ले ली
। बहुत सारे लोगों ने गंभीर विश्लेषण किया है कि सिलचर वासी को आसू के समर्थन ने ब्रह्मपुत्र
घाटी और बराक घाटी के बीच की खामोश शत्रुता को मंद कर दिया । जब काकोपथार की गोलीबारी
के बाद आसू ने असम बंद का आवाहन किया तो बराक घाटी भी बंद रही । ऐसा पहले कभी नहीं
हुआ था । इसे ही नई एकता का सूचक माना गया । परंतु जब मैंने व्यक्तिगत रूप से असम विश्वविद्यालय
के अध्यापकों से काकोपथार गोलीकांड के विरोध में हस्ताक्षर लेना शुरू किया तो जिस उत्साह
से लोगों ने हस्ताक्षर किए उससे ऐसा भी लगा कि शायद देवजीत के मुकाबले घटना की गंभीरता
इसकी ज्यादा बड़ी वजह थी । कई बार बौद्धिक जन भी जनता की नब्ज गलत पढ़ लेते हैं । इसीलिए
इप्टा के एक कार्यक्रम में बांग्लादेश से लालन फ़कीर के गीत गाने आईं फ़रीदा परवीन के
गायन से पहले मोबाइल पर देवजीत की अपील का सजीव प्रसारण हुआ ।
न सिर्फ़ क्षेत्रीय दल बल्कि कांग्रेस के सांसद और विधायक और इप्टा जैसे संगठन
भी इस आँधी में बह गए । बुखार इतना तेज था कि अंतिम मुकाबले से एक दिन पहले खबर उड़ी
कि एस एम एस जा नहीं रहे हैं । बी एस एन एल का स्थानीय दफ़्तर जला दिया गया । सिलचर
और न सिर्फ़ सिलचर बल्कि पूरे उत्तर पूर्व में शेष भारत से जो लोग आए हैं उनमें सैनिकों
और मजदूरों के अलावे मारवाड़ी व्यापारी काफी हैं । इनमें से एक नाहटा साहब सिलचर के
बड़े कपड़ा व्यवसायी हैं । खबर उड़ी कि उन्होंने देवजीत के प्रतिद्वंद्वी विनीत को दो
लाख वोट डलवाए हैं । उनकी दूकान भी लोगों के गुस्से का शिकार हुई । सोचता रहा कि कहाँ
राजस्थान के नाहटा और कहाँ लखनऊ का विनीत । पर भावना में तर्क कौन सुनता है ।
अंतिम मुकाबले के दिन हरेक हिंदी भाषी सहमा रहा । आखिरकार देवजीत जीता । जीतकर
जब वह सिलचर आया तो उसके स्वागत में सुविधा के लिए जिला प्रशासन ने स्थानीय छुट्टी
घोषित कर दी । सड़क के दोनों ओर साड़ी में सजी-धजी महिलाएँ,
पैंट शर्ट पहनकर हाथों में प्लेकार्ड लिए युवतियाँ- अनुमान के अनुसार उस दिन एक लाख लोग सड़क पर थे । इतने लोगों को सड़क पर
‘महालया’ के दिन भी नहीं देखा था । रास्ते भर पटाखे
दगते रहे । स्थानीय टेलीविजन पर देवजीत के कारवाँ का सजीव प्रसारण जारी था । सोचता
रहा कि आखिर उत्तर पूर्व के लोगों में राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता पाने की यह कैसी प्यास
है जो राजनीति और पूँजी के अमानवीय तंत्र को वैधता प्रदान करने की कीमत पर भी व्यक्त
होती है ।
वैधता पाने की होड़ में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री ने मोबाइल पर देवजीत से बात
की । असम के मुख्यमंत्री ने वोट डाला । यहाँ तक कि असम का राजभवन कहीं उत्तर भारत का
प्रतिनिधि न मान लिया जाय इसलिए असम के राज्यपाल ने भी वोट डाला । संजीव बरुआ ने अपनी
किताब ड्यूरेबल डिसआर्डर में यह सवाल उठाया है कि उत्तर पूर्व में राज्यपाल सेना के
सेवानिवृत्त अधिकारी ही क्यों होते हैं । शायद इसलिए क्योंकि नागरिक जीवन में सेना
को काफी जिम्मेदारी उठानी पड़ती है । असम में यूनिफ़ाइड कमांड का मुखिया राज्यपाल ही
होता है । जिस दौरान वे देवजीत के प्रति अपना समर्थन जाहिर कर रहे थे उससे थोड़े ही
दिनों पहले काकोपथार में सेना ने नरमेध किया था ।
देवजीत परिघटना संस्कृति के बाज़ार में असली मुनाफ़ा कमाने वाली ताकतों को पहचानने
का मौका देती है । पश्चिम में संस्कृति के इस रूप के विरुद्ध सैद्धांतिक अध्ययन किया
गया है क्योंकि वहाँ यह परिघटना पहले प्रकट हुई थी । भारत में उदारीकरण के बाद संस्कृति
पर इन मानव विरोधी ताकतों का यह पहला हमला है । समाचार चैनलों ने राजनीतिक परिघटना
के गंभीर विश्लेषण की जगह चुनाव परिणामों के ‘डाक्यूड्रामा’
का बाज़ार पहले ही बना दिया था । बची खुची कसर संस्कृति के क्षेत्र में
इस हमले ने पूरी कर दी । अब तकनीक के निरपेक्ष होने की भोली चर्चा की जगह इसकी आड़ में
हो रहे व्यवसाय और शासक वर्गों की नीतियों के लिए वैधता पाने की इस राजनीति के भंडाफोड़
का समय आ गया है ।
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