1857: एक महागाथा (स्वराज प्रकाशन से प्रकाश्य पुस्तक के लिए)
1857 भारतीय इतिहास की ऐसी गुत्थी है जो औपनिवेशिक इतिहास दृष्टि से मुक्ति की मांग करती है । आम तौर पर विजयी ही पराजित का भी इतिहास लिखता है । इस दुर्घटना का शिकार भारत का यह पहला स्वतंत्रता संग्राम सबसे अधिक हुआ है । दस्तावेजों और अभिलेखों पर उस समय के अंग्रेज शासकों के नजरिए की छाप है । सही तस्वीर की तलाश में खोजी विद्वान मौखिक स्रोतों को छान रहे हैं । ऐसी ही हालत में इस गाथा पर नजर पड़ी । बिना किसी संदेह के कह सकता हूँ कि यह उस महान संग्राम की शोक गाथा है । उस संग्राम में मिली पराजय के बाद ही
1859 में वे औपनिवेशिक कानून बने जिनमें राज्य को हथियार रखने का एकाधिकार मिला । जब छापे पड़ने लगे तो लोगों ने
भविष्य की किसी लड़ाई में दुश्मन से लड़ने के लिए पारंपरिक असलहे दीवारों में छिपा दिए और जब भी दोबारा हिंदुस्तान को किसी दूरस्थ प्रभु मुल्क की खातिर
दूहने की कोशिश होगी तो वे हथियार बाहर निकल आएंगे ।
उसी तरह उस टक्कर की यादें भी ज्यादा भरोसे के काबिल लोगों की सामूहिक स्मृति में बसी रहीं ।
इसी स्मृति की एक गूंज इस महागाथा में है । शेष हिंदुस्तान की तरह
ही इस गाथा में भी कमान स्त्रियों के हाथ में है और विद्रोही सिपाही हैं जो पराजय में
भी वीरोचित गरिमा बनाए हुए हैं ।
No comments:
Post a Comment