यह निबंध हिंदुस्तानी आंग्ल लेखन की लोकप्रियता को समझने
का प्रयास है । इसका पूरा जायजा ले पाना असंभव है । इसीलिए मेरी कोशिश सिर्फ़ अमिताभ
घोष के लेखन की कुछ विशेषताओं को रेखांकित करने की होगी । गाहे बगाहे अन्य लेखकों के
संदर्भ भी आयेंगे । साथ ही हिंदी लेखकों का भी जिक्र आ सकता है । इसे व्यवस्थित लेखन
की बजाय टिप्पणी जैसा ही समझने का आग्रह है जो सिर्फ़ कुछ सवाल उठाने के लिए लिखा जा
रहा है । वैसे भी यह एक जारी प्रक्रिया है और अभी इसमें बहुत कुछ नया आएगा इसलिए इस
पर विचार भी जारी ही रहना तय है । इस लेख में मेरा मकसद समूचे हिंदुस्तानी आंग्ल लेखन
का सर्वेक्षण नहीं बल्कि उसकी धमक के कारणों को रेखांकित करना है ।
भारत के अंग्रेजी लेखन की लोकप्रियता को किस नजरिए से
समझा जाए? हिंदी के प्रेमियों में इसे सिरे से
खारिज कर देने का चलन है । मुझे सीधे इसे खारिज कर देने की अपेक्षा इसके गुण दोष की
परीक्षा करना अधिक बेहतर लगता है । ऐसा भी लगता है कि किसी अंतराल में इस लेखन ने अपनी
जगह बनाई है । संकेत के लिए सिर्फ़ इतना कि अंग्रेजी के लेखकों की व्यापक सामाजिक मुद्दों
पर सक्रियता और हस्तक्षेप स्पृहणीय है । नर्मदा सरोवर परियोजना पर अरुंधती की सक्रियता
जग जाहिर है । पोकरण परमाणु बम परीक्षण के समय अरुंधती राय और अमिताभ घोष जैसे लेखकों
ने ही हस्तक्षेप किया था और बेहतरीन ढंग से सत्ता के तर्कों का जवाब दिया था । हिंदी
के प्रतिष्ठित लेखक तो लगभग सर्व सहमति से इस वियाग्रा राष्ट्र्वाद के साथ थे और देश
की प्रतिष्ठा का उत्थान इसमें देख रहे थे । काश्मीर की समस्या भी भारतीय राष्ट्रवाद
का एक दूसरा प्रतीक है जिस पर हिंदी का लेखक आम तौर पर शासक वर्गीय तर्कजाल का शिकार
बन जाता है । इस मामले तकरीबन दुस्साहसिक तरीके से अरुंधती और पंकज मिश्र ने हस्तक्षेप
किया । इन सब बातों को उठाना इसलिए भी जरूरी है ताकि उजागर किया जा सके कि साहित्यकार
की सामाजिक भूमिका का संबंध भी उसके साहित्य की प्रासंगिकता से होता है ।
हिंदी में सिर्फ़ वीरेंद्र यादव ने अंग्रेजी साहित्य
की अपनी पृष्ठभूमि के चलते इस धारा पर एक लंबा लेख लिखा लेकिन वे भी सामुदायिक जीवन
के साहित्यिक चित्रण के प्रति अपने अनुराग के कारण महज रोहिंतान मिस्त्री के ही लेखन
की सकारात्मकता को रेखांकित करने तक महदूद रहे । अंग्रेजी साहित्य के कुछेक अध्येताओं
में भारतीय समाज के तथाकथित प्रामाणिक चित्रण के नाते विक्रम सेठ के प्रति अनुराग देखा
जाता है खासकर उनके उपन्यास ‘कोई अच्छा
सा लड़का’ को लेकर लेकिन कहा जाना जरूरी है कि
यह उपन्यास पारंपरिक भारतीय समाज की कोई आलोचना तो नहीं ही प्रस्तुत करता कहीं न कहीं
टी वी धारावाहिकों के शिल्प को अपनाकर सामंती सामाजिक मूल्यों का पक्ष भी लेता है ।
इसी तरह मिस्त्री के उपन्यास पश्चिमी जगत के लिए भारतीय समाज के अल्पसंख्यक पारसी समुदाय
के चित्रण के चाहे जितना महत्वपूर्ण हों लेकिन हिंदी पाठक के लिए कोई नई बात नहीं प्रस्तुत
करते । इनके मुकाबले निश्चय ही असुविधाजनक सवाल उठाने वाले अंग्रेजी लेखकों का लेखन
अधिक महत्वपूर्ण है । उदाहरण के बतौर हम एक दिन की जेल और निरंतर गिरफ़्तारी की आशंका
के बीच भी नर्मदा और कश्मीर के सवाल पर अरुंधती राय के हस्तक्षेप को याद कर सकते हैं
। इसी तरह यह तथ्य भी कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है कि अमिताभ घोष को बुकर पुरस्कार न
मिलने का एक कारण ‘सी आफ़ पापीज’
में
उनका उपनिवेशवाद विरोधी रुख था खासकर यह देखते हुए कि इस समय हिंदी के कुछ लोभी लेखक
उद्योगपतियों से लेकर राजनेताओं तक किसी के भी हाथ पुरस्कार लेने को लालायित रहते हैं
और जेल जाने या प्रतिबंधित होने का खतरा आजाद भारत में कोई क्यों उठाए
!
बात सलमान रश्दी से शुरू करना बेजा नहीं होगा क्योंकि
उनके उपन्यास ‘आधी रात की संतानें’
के
जरिए यह लेखन चर्चा में आया । अंग्रेजी लेखकों में वे सबसे अधिक बदनाम हैं और इंग्लैंड
में रहने के कारण सबसे अधिक अरक्षणीय भी । इस उपन्यास का शीर्षक ही भारतीय उपमहाद्वीप
की कथा का आभास देता है । यह बात ध्यान देने लायक है क्योंकि हिंदी उपन्यासों को पढ़ने
से अंदाजा नहीं लगता कि भारत, पाकिस्तान
और बांग्लादेश कभी एक ही देश थे । सभी अंग्रेजी लेखकों की तरह सलमान रश्दी भी असुविधाजनक
सवालात उठाते हैं । इसके लिए वे रूपक का ऐसा शिल्प खड़ा करते हैं कि उनकी मर्माहत कर
देने वाली आलोचना भी निरस्त्र कर देती है । वे इसी शिल्प से तथाकथित बड़ी बड़ी बातों
को उपहास में बदलकर उनकी जमीन खिसका देते हैं । उपन्यास का आरंभ ही एक सशक्त रूपक के
जरिए आजादी के बाद भी औपनिवेशिक मानसिकता के जारी रहने की सच्चाई को बखूबी पेश करता
है । किसी अंग्रेज का मकान है जिसके अलग अलग हिस्सों को हिंदुस्तानी लोग किराए पर लेते
हैं । मकान मालिक की शर्त है कि पंद्रह अगस्त से पहले वे इस मकान में कोई भी तरमीम
नहीं करा सकते । शुरू में लोगों को अनेक किस्म की दिक्कतें महसूस होती हैं और वे योजना
भी बनाते हैं कि अंग्रेजों के जाने के बाद वे कौन सी फेरबदल करेंगे लेकिन वस्तुत:
जब
इसका मौका आता है तो वे इसी को अपने रहने लायक मानने लगते हैं । यहाँ तक कि बच्चे के
सात पिताओं की कल्पना के जरिए वे आजाद भारत के गुण सूत्र खोजने की कोशिश करते हैं ।
आजादी के वक्त होने वाले दंगों से भी पहले निर्मित हो रहे वैमनस्य का महौल रावण के
उनके रूपक में जीवंत हो उठा है । पाकिस्तान में लगातार होने वाले फ़ौजी तख्तापलट की
तुच्छता को मिर्चदानियों के जरिए विद्रोह का नक्शा बनाकर उसे लागू करने की उपकथा में
देखा जा सकता है । बेनजीर के लिए ‘लोहे की चड्ढी
वाली हसीना’ जैसे विशेषण का इस्तेमाल तिलमिला तो
देता है लेकिन कहने के लिए कुछ रहने नहीं देता । अपने कहानी संग्रह
‘हारून
एंड द सी आफ़ स्टोरीज’ में उन्होंने कश्मीर की समस्या
के उलझे हुए तारों को समझने की कोशिश की है ।
जिस दूसरे उपन्यास से इस प्रवृत्ति को ठोस हिंदुस्तानी
आधार मिल गया वह था अरुंधती राय का ‘मामूली चीजों
का देवता’ । इस आत्मकथात्मक उपन्यास में भारत
की पहली विपक्षी सरकार के समय का केरल विषय है । आम तौर पर इसकी आलोचनात्मक धार को
इसी तथ्य से समझें कि माकपा के पूर्व महासचिव नंबूदिरीपाद के नेतृत्व में चलने वाली
उस सरकार के बारे में एक आदर्श जैसी धारणा है और माना जाता है कि माकपा का अगर कोई
पतन हुआ भी तो वह ज्योति बसु के नेतृत्व वाली पश्चिम बंगाल की सरकार से शुरू हुआ ।
लेकिन यह उपन्यास सत्ता में आने के साथ ही बुर्जुआ शासन के सभी दुर्गुणों का माकपा
में प्रवेश रेखांकित करता है । पार्टी पर केरल के सामंती जातिवाद के असर को इसमें देखा
जा सकता है कि आंतरिक मामला हल करने के लिए दलित जाति के कार्यकर्ता की पुलिस द्वारा
हत्या की साजिश में पार्टी के नेता भी शामिल रहते हैं । इस उपन्यास में अंग्रेजी का
सृजनात्मक इस्तेमाल भी बखूबी किया गया है और शैली के बतौर भी नया प्रयोग यह है कि प्रत्येक
अध्याय में पूरी कथा कही जाती है लेकिन हरेक बार घटनाओं को देखने का कोण बदल जाने से
यह दोहराव नहीं लगता । अरुंधती का सामाजिक सरोकारों से जुड़ा लेखन उनके लिए इतना महत्वपूर्ण
है कि बुकर मिल जाने के बावजूद उन्होंने दोबारा उपन्यास लेखन की ओर मुड़कर नहीं देखा
है ।
अब हम अपने मुख्य लेखक अमिताभ घोष की चर्चा कर सकते
हैं जिनका लेखन कलात्मक दृष्टि से तो श्रेष्ठ है ही सामाजिक मुद्दों को उठाने के लिए
कथात्मक और गैर कथात्मक दोनों तरह के लेखन का सहारा लेता है । इन्होंने अपने उपन्यासों
में यथार्थ चित्रण के लिए परिश्रम और शोध का रास्ता चुना है और आम तौर पर इनके उपन्यास
अपने शोध के लिए भी जाने जाते हैं । ‘हंग्री टाइड’
और
‘सी
आफ़ पापीज’ को पढ़ते हुए तो प्रेमचंद की याद आती
है । ऐसा नहीं कि वे महज यथार्थवादी किस्म के उपन्यास लिखते हैं बल्कि
‘शैडो
लाइंस’ नामक उनका उपन्यास अपनी कला के नाते
भी महत्वपूर्ण है और वे उसमें भी हजरत बल में मुहम्मद साहब का बाल चोरी चले जाने से
बंगाल में दंगा होने की घटना का जिक्र करके हिंसा में राष्ट्र की एकता बताते हैं और
इस तरह राष्ट्रवाद की आलोचना प्रस्तुत करते हैं । हंग्री टाइड का महत्व बंगाल की स्मृति
से मिटा दी गई एक घटना को प्रधानतापूर्वक उठाने के कारण है । ज्योति बसु की सरकार के
समय सुंदरबन के एक द्वीप मरिचझाँपी में बांग्लादेश से भागकर आए लोगों का बड़े पैमाने
पर संहार हुआ था । वे लोग वहाँ उस निर्जन द्वीप पर आबाद होना चाहते थे लेकिन सरकारी
तौर इसकी इजाजत नहीं थी । सरकार ने हमला करके चारों तरफ़ से समुद्र से घिरे उस द्वीप
पर कत्लेआम किया था लेकिन बाद के बंगाल में उस घटना का जिक्र भी नहीं होता था । इस
स्मृतिभ्रंश को उजागर करने के लिए लेखक ने अपने पुराने रिश्तेदार की खोई हुई डायरी
को माध्यम बनाया है । यह उपन्यास प्रकृति और मनुष्य के जटिल रिश्तों को एक ऐसे परिवेश
में समझती है जहाँ प्रकृति अपने आदिम रूप में है । समुद्र के साथ मानव जीवन की जटिलता
को समझने के लिए भी इस उपन्यास को पढ़ना चाहिए । डाल्फ़िनों पर शोध करने वाली एक लड़की
की मौजूदगी के कारण डाल्फ़िन का इतना जिक्र है कि इसी से पता चला कि गंगा में भी डाल्फ़िन
होते हैं जिन्हें बचपन में हम सोंस कहते थे । बंगाल के जीवन खासकर पूर्वी बंगाल की
संस्कृति की सामासिकता, जिसमें आप हिंदू और मुस्लिम
तत्वों को अलगा नहीं सकते, का प्रचुर
वर्णन इस उपन्यास में है ।
उनका ही ‘सी आफ़ पापीज’
उपनिवेशिक
काल में अफ़ीम के अर्थतंत्र पर केंद्रित है । औपनिवेशिक शासन से जुड़े हुए असुविधाजनक
प्रसंगों को उठाने के कारण इंग्लैंड में इसकी भरपूर निंदा भी हुई है लेकिन अमिताभ घोष
ने बहादुरी के साथ इसे झेला और अपनी बात से पीछे नहीं हटे तथा आलोचनाओं का माकूल जवाब
दिया । इस उपन्यास में भोजपुरी गीतों के लिए ग्रियर्सन की पुस्तक में उद्धृत गीतों
की मदद ली गई है इसलिए उनकी किताब में अंग्रेजी वर्तनी बनाते वक्त जो गलतियाँ हैं वे
इसमें भी चली आई हैं । इस एक बात के अलावा अंग्रेजी शासन द्वारा अफ़ीम का प्रचार और
उस नकदी फ़सल के चलते गाजीपुर के बड़े हिस्से में पारंपरिक खेती के विनाश से उपजी दरिद्रता
बहुत कुछ आज के कृषि परिदृश्य की याद दिलाती है । गाजीपुर की उस अफ़ीम फ़ैक्ट्री के इतिहास
को वहाँ के लोग भी उस तरह नहीं जानते जिस तरह अमिताभ घोष ने उसके असरात के जरिए समझा
है । उपन्यास भोजपुरी समाज के विकट द्वंद्वों को बखूबी प्रस्तुत करता है । स्त्री की
व्यथा और अछूत जातियों के दर्द को गिरमिटिया के बतौर बाहर जाने की प्रेरणा माना गया
है और तब समझ में आता है कि आसाम के चाय बागानों में भोजपुरी इलाके से अधिकांश निचली
जातियों के लोग ही क्यों गए थे । इस उपन्यास की निरलंकार भाषा ही इसकी जान है । यही
विषय राहुल भट्टाचार्य ने हाल ही में प्रकाशित अपने उपन्यास
‘स्लाई
कंपनी आफ़ पीपुल हू केयर’ में उठाया
है ।
अमिताभ घोष के यात्रा वृत्त भी अनोखे हैं । डांसिंग
इन कंबोडिया से पता चलता है कि पोल पोट राजघराने से भागकर विद्रोही हुए थे और तब आपको
ऐसे अनेक विद्रोहियों की याद आने लगती है । ऐट लार्ज इन बर्मा में आंग सान सू की अपने
लोगों की व्यथा की प्रतिनिधि हो जाती हैं । कारावास में डालकर भी सेना जनता से उन्हें
अलग नहीं कर पाती । लोग मानो एक दीर्घ विलाप की तरह हर हफ़्ते उनके घर के सामने जमा
होते हैं ।
इन लेखकों ने अछूते और संवेदनशील प्रश्न अपने लेखन से
उठाए हैं । इनके आलोचकों ने इसमें भी उनकी गलत मंशा देखी है । आलोचकों को लगता है कि
गैर भारतीय पाठक के लिए लिखने के कारण ये लेखक सनसनी फैलाने के लिए ऐसा करते हैं ।
लेकिन अरुंधती राय और अमिताभ घोष ने इसे भारतीय रूप दिया है । जो भी हो लेकिन जिन मसलों
पर शासक वर्ग और एक हद तक उत्तर भारत के जनमत की आपसी सहमति दिखाई पड़ती है,
मसलन
परमाणु बम या कश्मीर अथवा राष्ट्रवाद की उन्मादी तस्वीर, उनकी
तीखी आलोचना इन लेखकों में है । इन लेखकों का गैर कथात्मक लेखन भी जोरदार है । अनुवाद
भी इन्होंने काफी किए हैं । शायद यह भी उनकी लोकप्रियता का बड़ा कारण है । हिंदी लेखक
देश का प्रतिनिधित्व करना छोड़कर शासकों के झूठ को आर पार पहचाने तो वह भी स्वीकार करेगा
कि शक्तिशाली बनाने का छलावा देकर उसे बहुत दिनों से धोखे में रखा गया है । सौभाग्य
से अधिकांश हिंदी कवि इस व्यामोह से मुक्त हैं । तब वह ईर्ष्याग्रस्त की तरह टिप्पणी
नहीं करेगा वरन इन लेखकों को भी अपने लेखन से चुनौती देकर इन्हें और भी देशी बनने की
प्रेरणा देगा । अभी यह लेखन जारी रहेगा और उसके प्रति नकार का भाव छोड़कर जितना जल्दी
उसके गुण दोष के आधार पर उसका मूल्यांकन शुरू किया जाए उतना ही अच्छा होगा । समय
का बदलाव और नए समय का दबाव इनके आपसी सहकार की अपेक्षा कर रहा है ।
बहुत अच्छा लिखा सर, धन्यवाद
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