एक समय जब केंद्र सरकार ने चुनिंदा विश्व स्तरीय विश्वविद्यालय खोलने की बात की थी तो यू जी सी के तत्कालीन अध्यक्ष सुखदेव थोराट ने कहा था कि इससे उच्च शिक्षा में मौजूद जातिवाद और भी बढ़ जाएगा । ऐसा कहकर वे शिक्षा संस्थानों में मौजूद जातिवाद की चर्चा नहीं कर रहे थे बल्कि उनका इशारा शिक्षा संस्थानों के बीच मौजूद ऊँच नीच की भावना की ओर था । वे केंद्रीय विश्वविद्यालयों, प्रांतीय विश्वविद्यालयों, कालेजों आदि (उनमें भी एम ए की पढ़ाई वाले और महज बी ए की पढ़ाई वाले) में एक को ऊँचा तथा दूसरे को नीचा मानने की मानसिकता का जिक्र कर रहे थे । इस पदानुक्रम को खुद सरकारों और उनकी अध्यक्षता में चलने वाली संस्थाओं ने और भी मजबूत बनाया । इसके आधारों पर अगर सोचें तो मजेदार नतीजे निकलते हैं । उदाहरण के लिए बी ए की पढ़ाई को आम तौर पर कालेजों के हवाले कर दिया गया है जबकि शुरू में खुलने वाले विश्वविद्यालयों में ऐसा नहीं था । बी एच यू, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय या शांति निकेतन में दोनों की पढ़ाई एक ही जगह होती थी । जब बी ए कालेज में और एम ए विश्वविद्यालय में जैसा बँटवारा हुआ तो इन पुरानी संस्थाओं में भी यह बीमारी इस रूप में घुसी कि लेक्चरर बी ए और रीडर तथा प्रोफ़ेसर एम ए की कक्षाएँ पढ़ाएंगे । जबकि योग्यता के मानक दोनों (कालेज और विश्वविद्यालय) के लिए समान ही हैं । चूँकि वरिष्ठ अध्यापकों की आवाज अधिक मुखर होती है लेकिन उन्हें यह जातिवाद सुविधाजनक लगता था इसलिए उन्होंने भी इस ऊँच नीच के विरुद्ध कभी मुँह नहीं खोला । पदोन्नति के समय अध्यापन का अनुभव वही जो एम ए के अध्यापन का हो ।
हालाँकि इस बात की ओर थोड़ी चेतना और प्रयास दिखा है कि स्नातक स्तरीय अध्यापन भी विश्वविद्यालयों में शुरू किया जाय लेकिन जड़ जमाए हुए जातिवाद के चलते बदलाव की रफ़्तार धीमी है । चिंताजनक बात तो यह है कि इस ऊँच नीच के अन्य लक्षणों को दूर करने की कोशिश तो दूर पहचान भी नहीं की जाती । उदाहरण के लिए वरिष्ठता का मानदंड ही यह हो गया था कि सबसे वरिष्ठ वह है जो सबसे कम पढ़ाता है । उसके नीचे वह जो उससे अधिक पढ़ाता है और सबसे कनिष्ठ वह जो सबसे अधिक पढ़ाता है । इससे कम पढ़ाने के साथ अतिरिक्त सम्मान की भावना जुड़ गई थी । यहाँ तक कि जिन्हें सबसे अधिक वेतन मिलता था उन्हें ही सबसे अधिक अतिरिक्त लाभ भी मिलते थे । इस स्थिति में अब भी फ़र्क नहीं आया है । सभी जानते हैं कि शोध छात्रों की अधिकता सुविधा होती है क्योंकि ये अनेक जिम्मेदारियाँ बाँट लेते हैं । उनके मामले में भी जिन्हें सबसे कम पढ़ाना होता था उन्हें ही सबसे अधिक सहायक भी मिलते थे । अध्यापकों की आर्थिक कमाई का एक बड़ा जरिया पुनश्चर्या आदि में भाषण होता है । शोध प्रबंधों की जाँच और मौखिकी के लिए यात्रा तथा नियुक्ति समितियों की सदस्यता भी असर रसूख के साथ मौद्रिक आय का भी साधन होती है । इसमें भी वरिष्ठता के हिसाब से एक तरह का ऊँच नीच बरता जाता है । इन मामलों में ऊपर नीचे के बीच अंतराल कम करने की कोई भी माँग अपेक्षित समर्थन नहीं जुटा पाती क्योंकि इससे वरिष्ठों के विशेषाधिकारों पर आँच आती है । यू जी सी ने एक ऐसी पद्धति को लागू किया जिससे संगोष्ठियाँ सचमुच सिर्फ़ जुगाड़ हो गई हैं । पहले भी अकादमिक जगत के गंभीर लोग इनसे दूर रहने की कोशिश करते थे लेकिन अब तो पंजीकरण के नाम पर आलू की तरह थोक के भाव भागीदारी के प्रमाणपत्रों को बटोरने की ऐसी होड़ मची रहती है कि किसी भी गोष्ठी में सुननेवाले दिखाई ही नहीं पड़ते सिर्फ़ शोधपत्र वाचक होते हैं जिन्हें प्रमाणपत्र मिला नहीं कि निकल भागते हैं । ले देकर लेख आदि लिखे और गंभीरता से पढ़े जाने की बची हुई परंपरा के भी नाश की व्यवस्था कर दी गई है । प्वाइंट की प्रणाली ने अध्यापकों को पैसे की तरह बिंदु बटोरने और निरंतर गिनती करने वाला बना दिया है । इन सभी चीजों ने पुरानी व्यवस्था को कमजोर करने की बजाय उसे और संस्थाबद्ध ही किया है । सलाह तो दी गई है कि विश्वविद्यालयों के सभी अध्यापक किसी न किसी कालेज से भी जुड़े रहें लेकिन ये बदलाव सिर्फ़ एक जगह से नहीं आते बल्कि उनके लिए ऊँच नीच के पैमाने को बुनियादी रूप से बदलना जरूरी होगा ।
उच्च शिक्षा में जातिगत भेदभाव का सबसे बड़ा आधार अध्यापन की भाषा है । इस मामले में एक ऐसा तर्क जाल बुना जाता है जिससे बाहर निकलने का कोई रास्ता ही नहीं नजर आता । स्वाभाविक रूप से यह मामला भी विशेषाधिकारों से ही जुड़ा हुआ है । अंग्रेजी में पढ़ाई करके और फिर उसी भाषा में निहित उच्चता बोध के सहारे देश विदेश में प्रसिद्धि और पैसा पाकर जो गुलाम बौद्धिक समुदाय अकादमिक जगत में हरेक निर्णायक पद पर काबिज हुआ है वह कैसे मानेगा कि किसी अन्य माध्यम से पढ़े हुए लोगों को भी इन सब में हिस्सा दिया जा सकता है । तर्क यह है कि अभी देसी भाषाओं में इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वे ज्ञान की भाषा बन सकें मानो अंग्रेजी में अनंत काल तक शिक्षा देने से यह सामर्थ्य आ जाएगी । यह ऐसी उलटबाँसी है जिसे बौद्धिक गुलामी को जारी रखने के लिए ही गढ़ा गया है । रणनीति यह प्रतीत होती है कि आयुर्वेद की तरह देसी स्रोत तो अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बिकते हैं इसलिए उनका इस्तेमाल करेंगे लेकिन देसी भाषाओं में ज्ञान को असंभव बनाए रखेंगे ।
दुख की बात यह है कि जिन विश्वविद्यालयों की स्थापना जनता के पैसे से इस जातिवाद से लड़ने के लिए की गई वे खुद ही इस भेदभाव के सबसे महीन गढ़ हो गए हैं । सत्ता संरचना को बौद्धिक समर्थन की जरूरत शायद इसीलिए पड़ती है क्योंकि बुद्धिजीवी लट्ठमार तरीके से नहीं बल्कि बात को सजा सँवार कर कहता है और गुलाम को एक हद तक यह समझाने में कामयाब हो जाता है कि गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने की कोशिश करने के बदले वह उन्हीं को अपनी मुक्ति और सबलीकरण का साधन और संकेतक मान ले ।
किसी भी देश में आज़ादी के बाद शिक्षा संस्थानों की स्थापना ही उस देश के अकादमिक अनउपनिवेशीकरण के लिए की जाती है । दुर्भाग्य से भारतीय शिक्षा संस्थानों की स्थापना आज़ादी से पहले तो इस परिप्रेक्ष्य के साथ हुई लेकिन आज़ादी के बाद से यह परिप्रेक्ष्य विलुप्त हो गया । नतीजा यह है कि तकरीबन सभी विश्वविद्यालय इसी बात पर अभिमान करते पाए जाते हैं कि उनके यहाँ कितना ज्यादा विद्यार्थी पश्चिम के बौद्धिक कुली के बतौर तैयार किए जा सके । असल में दूसरे विश्व युद्ध के बाद जो अनउपनिवेशीकरण की प्रक्रिया चली उसके साथ ही पुनःउपनिवेशीकरण की प्रक्रिया भी शुरू हो गई थी । अमेरिका ने हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराकर इसी नए संघर्ष की घोषणा की थी । बीच बीच में उसे सोवियत संघ या जापान आदि से दबदबे या तकनीक के क्षेत्र में कुछ होड़ झेलनी पड़ी थी लेकिन सोवियत संघ के पतन के बाद वह निर्बाध गति से इस लड़ाई को सफलतापूर्वक चला रहा है । जब तक सोवियत संघ था तब तक तो भारतीय शासक वर्ग को भी कुछ लाज शरम बची थी लेकिन उसके ढहते ही इतनी आसानी से और निर्लज्जता के साथ उसने अपने आप को नई गुलामी के फ़ायदे गिनाने वालों में शामिल कर लिया है कि लगता है बीच के दिन उसने स्वाभाविक साथी के बगैर बड़ी मुश्किल से काटे थे । यह नया माहौल ही शिक्षा जगत में भी अंधानुकरण के नव जाग्रत उत्साह का कारण है ।
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