इतने प्राण, इतने हाथ, इतनी बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद –
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे ह्रास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।
Wednesday, March 28, 2012
पूंजीवादी समाज के प्रति (मुक्तिबोध)
Sunday, March 18, 2012
अब तो माफ़ करो
क्रिकेट के भगवान ने जब शतकों का शतक पूरा किया तो कमेंटेटर की वाणी में मानो यौन उत्तेजना का चरम क्षण आ पहुँचा था । इस महाशतक के साथ ही भारत की पराजय मानो एक रूपक था । सचमुच टीम जैसी चीज की अनदेखी करके महज निजी कैरियर के लिए खेलना ही सचिन के खेल की खूबी थी । जब तक यह खिलाड़ी मैदान में खेलते हुए और टी वी के परदे पर विज्ञापनरत रहा तब तक समूचा देश इस बात की ओर ध्यान देने से मना कर दिया गया था कि इस महानायक के भीतर से कैसे खेल, युद्ध और महाराष्ट्रीय ब्राह्मण अहंकार के साथ ही साथ खेल का भ्रष्टाचारी व्यवसायीकरण घुल मिल गए थे । खेल न सिर्फ़ खेल न रहकर पवित्र गाय बन गया था बल्कि फौज, संसद तथा लोकतंत्र की तरह ही सारी आलोचनाओं से परे हो गया था ।
ऐसे व्यक्ति की आत्ममुग्धता की कल्पना भी मुश्किल है जिसने अपने घर में एक कमरा ही पदकों के लिए अलग से बनवा रखा हो और जब बन ही गया तो स्वाभाविक है कि उसमें लगाने के लिए पदक बटोरने का नशा एक स्वतंत्र खब्त का रूप ले ले । शायद इसीलिए अपने लगातार खराब खेल के बावजूद रन मशीन हटने के लिए राजी नहीं हो रहे थे ।
उम्मीद है कि शायद अब वे अवकाश ले लेंगे ताकि कुछ नौजवान खिलाड़ी उभर सकें हालाँकि सभी उम्मीदों की तरह हो सकता है यह भी पूरी न हो क्योंकि नायक तो वही होता है जो कथा को आगे ले जाए । पदकों वाला कमरा भी तो पुष्पक विमान की तरह है जिसमें सब कुछ आ जाने के बाद भी एक और की जगह बनी रहती है । भारत में क्रिकेट तानाशाही का दंश भूलने में उसी तरह मदद करता है जैसे जर्मनी में संगीत ने किया था या जैसे लातिन अमेरिका में फ़ुटबाल करता है ।
Friday, March 16, 2012
मैं तुम लोगों से दूर हूँ (मुक्तिबोध)
मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।
मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता साथ है,
अकेले में साहचर्य का हाथ है,
उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं
किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं, पुरस्कृत हैं
इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है !!
सबके सामने और अकेले में।
( मेरे रक्त-भरे महाकाव्यों के पन्ने उड़ते हैं
तुम्हारे-हमारे इस सारे झमेले में )
असफलता का धूल-कचरा ओढ़े हूँ
इसलिए कि वह चक्करदार ज़ीनों पर मिलती है
छल-छद्म धन की
किन्तु मैं सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ
जीवन की।
फिर भी मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ
विष से अप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ़ करन के लिए मेहतर चाहिए
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता
पर , रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते कि आदमी खरा हो
फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता।
रिफ्रिजरेटरों, विटैमिनों, रेडियोग्रेमों के बाहर की
गतियों की दुनिया में
मेरी वह भूखी बच्ची मुनिया है शून्यों में
पेटों की आँतों में न्यूनों की पीड़ा है
छाती के कोषों में रहितों की व्रीड़ा है
शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है ।
शेष सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम है
सत्य केवल एक जो कि
दुःखों का क्रम है
मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ
शेव्रलेट-डाज के नीचे मैं लेटा हूँ
तेलिया लिबास में पुरज़े सुधारता हूँ
तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ।
(मुक्तिबोध की इस कविता में वर्गीय विभाजन को स्पष्ट किया गया है । साथ ही उनका आत्मसंघर्ष भी खुलकर व्यक्त हुआ है ।)