Thursday, February 17, 2011

बाबा


वैसे तो आप मेरे बाबा के बारे में जानते होंगे । नहीं जानते ? कैसे नहीं जानते आप उनको जिनका अपने बारे में कहना था कि उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के तकरीबन आठ जिले उन्हें 'राजा साहब' के बतौर जानते थे ? उनकी मृत्यु के बरसों बाद तक अगल बगल के गाँव के लोग मुझे राजा साहब का नाती कहकर ही पुकारते थे । आदमी की पूछ धन से नहीं व्यवहार से होती है- इस आदर्श वाक्य की जब भी परीक्षा लेनी होती है, बाबा उस संकट में मेरे सामने मददगार के रूप में तैयार मिलते हैं ।

बाबा राजा साहब कैसे बने इसकी भी एक मजेदार कहानी है । असल में जब बाबा गुजरे तब तक मैं सिर्फ़ बातें सुन समझ लेता था, उनका महत्व नहीं जान पाता था । इसलिए उनके बारे में जो जाना वह कुछ तो उनकी जुबानी सुना था, कुछ औरों की कहानी थी । बाबा अलमस्त आदमी थे । उनके जैसा अलमस्त और कुछ मामलों का पाबन्द मैंने आज तक किसी को नहीं देखा । गाँजा रोज और केवल दो बार पीते थे । धोती कुर्ता, मुरेठा, छड़ी और जूते के बगैर कभी दरवाजे से बाहर निकले हों याद नहीं आता । चालीस नशे गिनवाते थे वह- खाना, पीना, नहाना आदि आदि । तो गाँजा पीने की लत बचपन में ही लग गयी थी । गाँजे के साथ भी एक कहानी जुड़ी हुई है । जब प्राईमरी में थे तभी से गाँजे की बिठई सुलगाने के लिए किताबों के पन्नों का इस्तेमाल करने लगे थे । कहते थे इसी अपमान के कारण सरस्वती उनसे नाराज हो गयीं । उन्होंने भी कहा लड़के होंगे, बच्चे होंगे, घर होगा, खेती होगी, एक तुम ही न होगी तो क्या होगा ! और फिर सरस्वती को लात मार दिया ।

उनका यह प्रिय काम था । देवताओं को हमेशा, और कभी कभी खुद को देवता समझने वाले लोगों को नीचा देखना दिखाना । बुढ़ौती में जब लोग मरने की बातें किया करते हैं, बाबा कहते थे, रात को देवता लोग आये थे, कह रहे थे चलिये बहुत दिन यहाँ हो गया । मैंने कहा भागो यहाँ से; अरे वहाँ जाऊँगा तो किसी पेड़ तले एकान्त में कम्बल ओढ़े बैठे रहना पड़ेगा । खाने की जून होगी तो कोई अप्सरा बुलाने चली आयेगी । खाकर फिर वही एकांत । यहाँ तो लोग हैं, लड़के हैं मैं अभी नहीं जाऊँगा ।

बहरहाल, गाँजा पीने वाले अकेले नहीं पीते, उनकी संगत बन जाती है । सो गाँव के नौजवानों की टोली थी । बताते थे प्लेग मेंग्यारह भाई मर गये, अकेले बचे थे, इसीलिए संभवतः आदमी का महत्व जानते थे । तो अकेले होने से दुलरुआ थे, खाने का संकट नहीं । माँ से कहते भूख लगी है, माँ कहतीं, कँहतरी में घी रखा है, गये और पहथ भर निकालकर खा लिया । दिन भर घर से बाहर और बाहर फिर दमदार जवानों का खेल बरगत्ता । ऐसे ही एक दिन टोली ढलती दोपहर कहीं सड़क किनारे बैठी थी । दूर से एक आदमी धोती, कुर्ता, जूता, माला, तिलक और छाते के साथ आता दिखा । शर्त लग गयी कि जो उसकी जाति बता दे वो हम लोगों में राजा । किसी ने कहा ब्राह्मण, किसी ने कहा ठाकुर, किसी ने कुछ, बाबा ने कहा लुहार । नजदीक आने पर आदमी से पूछा गया- कहो भाई, कौन से बिरादर हो ? उसने कहा- बाबू, लोहार और बाबा राजा चुन लिये गये । एक लाठी हाथ पर और एक कन्धे पर रखकर सिंहासन बना और उस पर सवार बाबा धूम धाम से गाँव आये ।

बाद में हमने बाबा से पूछा कि आपने जाना कैसे । बोले कि भ्रम में तो पहले मैं भी पड़ा, खासकर तिलक और माला देखकर । फिर मेरी नजर उसके छाते पर गयी । बाजार से खरीदे हुए छाते की कपड़े के नीचे की कड़ियाँ सीधी होती हैं और उसकी थीं गोलाकार । लिहाजा मैंने अनुमान लगाया कि इसने अपने हाथ से कड़ियों को गोल किया है और तब यह है लोहार ।

राजा साहब से सरस्वती तो रूठ गयीं, लेकिन सीखा बाबा ने बहुत कुछ और उसे अपने स्वभाव का अंग बना लिया । जब कभी हम लोग बहुत खेलते थे तो कहते थे किताब के कीड़े बन जाओ । उनसे सुना एक दोहा अब भी मेरे लिए रीतिवादी कविता की लोकप्रियता का उदाहरण है-

सोहारी पितु भवन में, खाँड़ तुम्हारे हाथ ।

तरकारी दुख देत है, आचारों के साथ ॥

इस दोहे में शब्द भोजन के व्यंजनों से हैं लेकिन श्लेष से वे इसका दूसरा अर्थ खोलते । अतिथियों से अर्थ पूछते कोई उत्तर न मिलने पर मुस्कराते हुए बताते- यह दोहा सीताजी ने रावण से अशोक वाटिका में कहा था जब रावण उन्हें डरा रहा था । फिर एक और कथा । दरअसल मायके में एक बार जनक जी खेत से भूखे लौटे । सीता ने खाना परोसा । चटनी न थी । जनक ने पूछा । सीता ने तुरत सिल पर धनिया रखा । जल्दी जल्दी लोढ़ा चलाने लगीं । लोढ़ा उंगली पर चढ़ गया । सीता ने क्रोध में उसकी ओर देखा । नजर के कोप से लोढ़ा टूटकर दो टुकड़े हो गया । खाने के बाद जनक ने कहा- बेटी, एक चीज माँगना चाहता हूँ । सीता को समझ न आया । कहा- बेटी के पास देने के लिए क्या होता है ? जनक ने कहा- है, वादा करो इन्कार नहीं करोगी । सीता ने हामी भर दी । जनक ने सीता से क्रोध माँगा । उसी का प्रसंग देकर सीता ने कहा- सोहारी अर्थात वह तो मैं पितु भवन में हार आई । तुम हाथ में खाँड़ अर्थात तलवार लेकर तड़का रहे हो तो तुम्हारा तड़काना दुख दे रहा है क्योंकि मैं कुछ आचारों से बँधी हुई हूँ । अब इतनी दूर से कौन अर्थ ले आये ! इसी तरह अतिथियों की आँखों में आश्चर्य भर देने के लिए उन्होंने बड़े भाई की अंग्रेजी की किताब से 'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार' वाला पूरा गीत याद कर लिया था । दरवाजे पर अगर कोई मेहमान आ गया तो उसका साथ देने के लिये घर के किसी आदमी को फ़िक्र नहीं करनी पड़ती थी ।

बूढ़ा हो या जवान बाबा सबके साथ घुल मिल जाते । उनके पास जो भी कपड़ा था यानी धोती, कुर्ता, मुरेठा और छाता- कभी उनको सामान्य स्थितियों में पहनते- रखते नहीं देखा । हम लोग कहते बाबा ऐसा क्यों ? बाबा कहते- कहीं रन्डी हर समय अपना पेशवाज पहने रहती है ।

मेहमान दरवाजे पर आया और बाबा वहीं हुए तब तो ठीक । अगर घर में हुए तो किसी लड़के को भेजकर दरवाजे से अपना धोती, कुर्ता, जूता, मुरेठा और छाता मँगवाते । पूरी तरह चाक चौबन्द होकर मेहमानों के सामने आते । मेहमान कैसा भी हो बाबा शुरू । 'देख रहे हैं यह छाता, जरा हाथ में लेकर देखिये, जापान की कम्पनी का बना है । और यह जूता देखिये, जयपुर से बनकर आया है । कम्पनी एक ही जोड़ी बनाकर बन्द हो गयी । किसी दूसरे के लिए नहीं बनाया । इसीलिए आजतक इससे ऊपर की कोई चीज किसी के पास मिली ही नहीं । लोग मेरा क्या मुकाबला करेंगे, आखिर मैं ठहरा राजा । आठ जिले हैं जिनका मैं राजा हूँ- गाजीपुर, बलिया, जौनपुर, आजमगढ़, बनारस, पूर्णिया, फारबिसगंज और कलकत्ता ।' गाँव के आसपास के लोग बताते हैं- राजा साहब के कुर्ते पर कभी चलते रास्ते मक्खी नहीं बैठी ।

राजा साहब गाँव में रहकर भी कुछ कुछ रोमैंटिक तबियत के आदमी थे । घर में तनाव है, अन्न का अभाव है, लड़कियों की शादी करनी है; बाबा विशेष परेशान कभी नहीं दिखाई पड़े । मनुष्य को सचमुच वे धन समझते थे और उसके सबसे अच्छे पहलुओं से मैत्री करते थे । खुद गर्व से बताते मेरे शरीर से डेढ़ सौ लोग हैं ।

अनुभवों से बहुत कुछ सीखा था उन्होंने । चाचा एक बार पढ़ रहे थे । बीच में शब्द आया हौले हौले । बाबा ने पूछा बताओ इसका मतलब । चाचा को मालूम नहीं । स्कूल में दूसरे दिन मास्टरों से पूछा । मास्टर लोगों ने बताया- हौले हौले यानी हाली हाली माने जल्दी जल्दी । बाबा ने कहा- गलत, इसका मतलब है धीरे धीरे । बाबा से मैंने पूछा आपने कैसे जाना । उन्होंने बताया- एक बार मैं थेटर कम्पनी का नाटक देख रहा था कलकत्ते में । उसमें एक औरत अपने गुलाम को कोड़े से पीट रही थी । नौकर ने कहा बीबी जी हौले हौले मारो तो क्या कोई अपने को जल्दी जल्दी पीटने के लिए कहेगा !

पूर्णिया, फारबिसगंज उनकी कहानियों में अक्सर आते थे । असल में वहाँ मेवालाल सिंह नाम के एक बहुत धनी रईस थे । बाबा से कलकत्ते में उनकी दोस्ती हो गयी थी । इस दोस्ती में मेरे गाँव की एक कथा छुपी हुई है । गाँव के एक कायस्थ परिवार के भृगुनाथ लाल ने पता नहीं किस प्रेरणा से संगीत में हाथ आजमाया और कलकत्ते में संगीत विद्यालय खोला । इन्हीं भृगुनाथ लाल की लिखी धनुष भंग नाटिका का मंचन अब भी मेरे गाँव में होता है । बाबा उनके लिखे किसी सवैये में उनका नाम हटाकर अपने नाम से उसे गाते थे । बार बार हेमनाथ बिनती हमारी है । बाबा से मेवालाल सिंह की वहीं दोस्ती हुई थी । बाबा उनके यहाँ महीनों रह जाते थे । रात में बाबा उनके दरवाजे के सामने ही पेशाब कर लिया करते थे । किसी ने बाबू मेवालाल सिंह को इसकी खबर कर दी । भरी सभा में एक दिन बाबू साहब पूछ बैठे । बाबा को अपना सार्वजनिक अपमान बेहद खला । उन्होंने कहा- आपकी दो पैसे की छेरी घर में पेशाब करती है और मैं लाख का शरीर लेकर बन में बाघ को खिलाने जाऊँ ? मेवालाल सिंह ने उनके सामने बाद में प्रस्ताव रखा कि बाबा उनके कारिन्दा हो जायें । बाबा ने कहा आज मैं आपका मेहमान होता हूँ कल मुझे लोग आपका आदमी कहेंगे । हाँ, मेरी छः बेटियाँ हैं, उन्हीं का कल्याण कर दीजिये । नतीजतन मेरी सभी बुआएं पूर्णिया फारबिसगंज में ब्याही हैं ।

बाबा किस्मत के बहुत धनी थे, अपने अर्थों में । सोचिए कि पचीस तीस साल की उम्र में उनकी चौथी शादी हुई थी । पहली दूसरी शादी की तो उन्हें याद भी नहीं थी । तीसरी पत्नी से एक पुत्र हुआ जो बाद में राजरोग से गुजर गये और फिर चौथी शादी । बताते थे मैंने कहा भगवान से ऐसी पत्नी दो जो लाखों में एक हो और वैसी ही मिली । कहते थे जब मैं बारात में गया तो लड़कियाँ यह देखने आई थीं कि दूल्हे को दाँत बचे हैं या नहीं । आजी बराबर अपनी तीनों सौतों के चित्र चाँदी के पत्तर पर खुदवाकर गले में पहने रहतीं । लड़के लड़कियाँ कुल मिलाकर आजी से दस हुए और बाबा अपने को सबसे भाग्यशाली समझते रहे ।

मेरे नाना बताते थे- एक बार हेमनाथ यहाँ आये । तालाब में नहा रहे थे कि डोंड़हा साँप ने काट लिया । लगे चिल्लाने रोने और किसी के लिये नहीं कौशल्या देवी के लिये ।' उनके जमाने में परिवार बहुत बड़ा था । साझे में खाना साझे में खेती । आटा पीसने वाली मशीन का तब कहीं नामो निशान नहीं था । आजी को छोटे बच्चे । किसी ने कुछ कह दिया और बाबा ताव खा गये । उन्होंने कहा अब नहीं चलेगा और अगली फ़सल में बँटवारा हो गया । बँटवारा भी अजब, कोई झगड़ा नहीं हुआ । चार हिस्सेदार थे गोटी पड़ी और पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण का फ़ैसला हो गया । गरीबी नहीं थी ऐसा कुछ नहीं । घोड़ी पालते थे उन दिनों । बाद में तो शक्ति ही नहीं रही । एक बार घोड़ी की लीद उठा रहे थे । किसी ने कहा राजा साहब यह क्या कर रहे हैं । बाबा ने कहा अपना काम करने में कैसी लाज । एक बार घर में सतुआ का कलेवा कर रहे थे । हम लोगों ने कहा- बाबा ! राजा तो सतुआ नहीं खाते । बाबा ने कहा- राजा लोग भी इतने तरह की चीजें न खा पाते होंगे ।

बाबा ने बदलते जमाने को भी झेला लेकिन उसी मस्ती से । मेरे बड़े भाई एम ए करके बेरोजगार होकर घर बैठ गये थे । बहुत तनाव रहता था उन दिनों । फिर भी उनसे बतियाते रहते थे- मोतिया, तुम लोग कैसे अनाज से अनाज खाते हो । भैया की शादी में दहेज कम मिला तो इसकी शिकायत भी एक दूसरे दूसरे सज्जन ने ही भैया के ससुराल में की, बाबा कुछ नहीं बोलने गये । दूसरे भाई ने बिना दहेज प्रेम विवाह किया । इससे पहले उन्हें बहुत दहेज मिल रहा था । गाँव के और घर के सब लोग नाखुश, भयंकर तनाव कि जज साहब की लड़की से शादी करते तो कितना मिलता । हम लोग कितना भोला समझते थे बाबा को । ताश के बीबी, बादशाह और गुलाम के पत्ते हम लोगों ने इकट्ठा किये और बाबा को दिखाया कि ये रही लड़की और ये रहीं उसकी दास दासियाँ । उसका गुजारा आपके यहाँ कैसे होता । बाबा कुछ नहीं बोले, चुप रहे । बाद में राम जी राय ने उन्हें समझाया कि हर नया काम करने वाले को बदनाम होना पड़ता है लेकिन बाद में जब वही काम सब लोग करने लगते हैं तो उसकी इज्जत होती है । नहीं याद आता कि इस तर्क से बाबा की शर्मिन्दगी दूर हुई या नहीं लेकिन इतना जरूर याद आता है कि जब भाभी आईं तो परिवार में एक आदमी के इजाफ़े से वे इतना खुश हुए कि फिर कभी मैंने उन्हें इसको लेकर शर्मिन्दा नहीं देखा ।

कैसे पैदा हो गया वैसा आदमी मेरे गाँव में ? संगीत से इतना प्रेम कि बुढ़ापे में भी होली दरवाजे पर वे ही गाते । इसी चक्कर में जवानी में कलकत्ते की सैर की थी । वहीं पारसी थियेटर का नाटक देखा । उसमें से एक के बारे में बताते थे- छप्पन छुरी का नाच । छप्पन छुरी, बहत्तर पेंच की सांगीतिक धुन अब तक मेरे कानों में घुलती है । ऐसे में कोऊ घर से ना निकसे, तुमही अनूक बिदेस जवैया- उनके गानों में एक की सबसे मार्मिक ये पंक्तियाँ मुझे अब तक याद हैं । गाँव के हरिजन बताते हैं कि जब कभी वे खेत में हमें चोरी से फ़सल काटते देखते तो कहते जो कुछ हो गया है लेकर भाग जाओ, वर्ना कहीं रमयना ने देख लिया तो दुर्गत कर देगा ।

मुझे अक्सर लगता रहता है कि बाबा कहीं मेरी चेतना में गहरे बैठे हुए हैं और मैं उन्हें लगातार ढूंढ़ता भी रहता हूँ । बाबा में 'मेरा दागिस्तान' और 'गणदेवता' के कई पात्र समाये हुए हैं । ऐसे आदमी को नहीं जानते आप ? जरूर जानते होंगे ।

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