चूँकि लोकसभा चुनाव का गर्दो गुबार थम गया है इसलिए चुनाव के समय 'सेफ़ालाजी' नाम के जिस शास्त्र के पक्ष विपक्ष में शोर शराबा उठा था उस पर धीरजपूर्वक बात की जा सकती है । यह खासकर इसलिए जरूरी है क्योंकि समाजशास्त्रीय विषयों के बहुत सारे विद्वान इसे वैज्ञानिक बताते नहीं थक रहे थे । वैसे एक चुनाव ज्योतिषी के इस दावे को लालकृष्ण आडवाणी ने भाजपा के तर्क के बतौर अपना लिया है कि इन चुनावों में कोई राष्ट्रीय रुझान नहीं था बल्कि राष्ट्रीय नतीजे राज्यस्तरीय नतीजों के जमाजोड़ हैं । गालिब ने कह ही दिया है- शर्म तुमको मगर नहीं आती ।
मतगणना के एक दिन पहले सभी टी वी चैनलों ने तरह तरह के भविष्यफल बताने वालों की भविष्यवाणियाँ दिखाईं । यह उस सब कुछ पर एक क्रूर टिप्पणी थी जो एक महीने से इन्हीं चैनलों पर सेफ़ालाजी के नाम पर चल रहा था । पढ़े लिखे लोगों पर इस प्रचार अभियान का इतना गहरा असर था कि एक सज्जन ने डरते डरते एम्बेसडर ग्रैंड प्रतियोगिता के लिए 217 का आँकड़ा एन डी ए हेतु एस एम एस किया । और लोग तो 230 से नीचे उतरने को तैयार ही नहीं थे । अब इसे भाजपा के इलेक्ट्रानिक चुनाव अभियान की निरन्तरता कहा जाए या बुद्धिजीवियों के जनता से दूर होने और संचार माध्यमों पर अति निर्भरता का दुष्परिणाम ? तय करना मुश्किल है ।
जो लोग कह रहे हैं कि कोई राष्ट्रीय रुझान नहीं था उन्हें देखकर यही कहने की इच्छा होती है कि भाजपा की हार हुई है इसे नकारने के लिए और कितने बौद्धिक व्यायाम बाकी हैं । अगर कोई राष्ट्रीय रुझान नहीं था तो था क्या ? चुनावशास्त्री कहेंगे- एंटी इंकम्बेंसी फ़ैक्टर । यह फ़ैक्टर जबसे सेफ़ालाजी का चलन हुआ है तबसे राजनीतिक बातचीत में बुरी तरह से घुस गया है । लगता है मानो लोगो ने सरकारें बदलने का कोई शौक पाल लिया हो । अपवाद पर अपवाद दिखाई देते रहे लेकिन वह शास्त्री कैसा जिसकी अपने शास्त्र पर अन्धविश्वास की हद तक श्रद्धा न हो ! असल में राज्य सरकारें बदलने की यह प्रक्रिया उदारीकरण के बाद शुरू हुई लेकिन सेफ़ालाजी ने उसे एक फ़ैक्टर कानाम देकर इस विशेष ऐतिहासिक संदर्भ से काट दिया । आखिर उसके पहले के चुनावों में जब सरकारें नहीं बदलती थीं तो क्या स्टैबिलिटी फ़ैक्टर काम करता था !
इसी तरह का एक सूचक अपोजिशन यूनिटी इन्डेक्स भी बीच में चला था । इस बार उसका नाम भी नहीं सुनाई पड़ा । संभवतः यह भी भाजपा के चुनाव अभियान का ही असर था । गठबन्धन राजनीति की व्याख्या में इसका जिक्र न आना अन्यथा आश्चर्यजनक लगता है । राजनीतिक पार्टियों की एकता किन्हीं सामाजिक शक्तियों की एकता का प्रतिबिम्ब होता है । इसे मापना किसी तरह से संभव नहीं कि दो दलों की एकता उनके सामाजिक आधारों को भी एक साथ ला सकी या नहीं । यहाँ तक कि दो दलों के पिछले चुनावों के मत प्रतिशत को जोड़ देने से उनकी संयुक्त ताकत प्रमाणित नहीं हो जाती जैसा कि महाराष्ट्र के मामले में दिखाई पड़ा ।
कुल मिलाकर यह शास्त्र चुनावों में व्यक्त होने वाली सामाजिक हलचल को पकड़ तो नहीं ही पाता है उसे समझने का भ्रम पैदा करके गंभीर विचार विमर्श की गुंजाइश भी खत्म कर देता है । खुद एन डी टी वी ने चुनाव के बीच में ही चुनाव सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता बनाये रखने के किए 'पोल आफ़ द पोल्स' नामक कार्यक्रम शुरू किया । लेकिन सभी तो सच्चाई से उतना ही दूर थे । बड़ी निजी पूँजी और भाजपा शासनकाल में मौजूद उत्तेजनात्मक राजनीति के घालमेल से बना यह शास्त्र इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों के उस प्रभाव को व्यक्त करता है जो हमारे बौद्धिक आलस्य को रास आता है । इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों में यह उत्तेजना एक स्वतन्त्र इच्छा शक्ति बन चुकी है जिसकी सामग्री प्राप्त न होने से तमाम खबरिया चैनल परेशान हैं । अर्थतन्त्र के विश्लेषण में शेयर मार्केट की इतनी भयानक उपस्थिति वैसे थोड़े ही हो गयी है ।
No comments:
Post a Comment