Thursday, December 9, 2010

चार कवियों के संग्रह

एक चिट्ठी
प्रिय प्रणय
आपने मुझे चार काव्य संग्रह दिये सिर्फ़ दस्तावेजी कारणों से उनका नामोल्लेख कर रहा हूँ 1- देवी प्रसाद मिश्र : प्रार्थना के शिल्प में नहीं ; 2- बद्रीनारायण : सच सुने कई दिन हुए ; 3- पंकज चतुर्वेदी : एक संपूर्णता के लिये ; 4- संजय कुंदन : कागज के प्रदेश में
यह देखकर मैं चौंक गया कि ये सभी काव्य संग्रह कवियों ने अपने माता पिता को समर्पित किये हैं । तथ्यतः देवी प्रसाद मिश्र ने ‘ माँ और पिताजी को’, बद्रीनारायण ने ‘ माई और बाबूजी के लिये’, पंकज चतुर्वेदी ने ‘ मम्मी और पिताजी के लिये जिन्होंने तमाम दुख सहकर भी मुझे पढ़ने लिखने लायक बनाया’, संजय कुंदन ने ‘ माँ और पापा के लिये’ । आप कह सकते हैं कि ऊपरी समानता अनिवार्यतः भीतरी समानता नहीं होती । यह भी कहा जा सकता है कि जो नहीं है उसकी आकांक्षा की बजाय जो है उसकी छानबीन करनी चाहिए । फ़िर भी एसे एक तथ्य की तरह नोट किया जाना चाहिए कि हमारे समय के इन चार कवियों ने अपने पहले काव्य संग्रहों के समर्पण के लिये माता पिता को चुना । मतलब इन काव्य संग्रहों के प्रकाशन अर्थात तीस बत्तीस की उम्र तक उनके वैचारिक संदर्भ विंदु अन्य ऐसे लोग अथवा आंदोलन बने ही नहीं जिन्हें वे पुस्तक समर्पित करने की सोचते ।
माता पिता को पुस्तकों का समर्पण यह भी बताता है कि माता पिता के जरिये जो परंपरा इन्हें प्राप्त हुई बस उतना सा हिस्सा ही इनके बोध का अंग बन सका । पूरी परंपरा तो अन्यान्य स्रोतों से ही प्राप्त होगी न ! इसीलिये तमाम पौराणिक प्रतीकों की उपस्थिति है लेकिन उनके प्रति आलोचनात्मक रुख बहुत कम है । देवी प्रसाद मिश्र की कविता ‘ प्रार्थना के शिल्प में नहीं’ में जरूर इन प्रतीकों के प्रति तिरस्कार का भाव मिलता है लेकिन संग्रह की अन्य कविताओं को पढ़ते हुए इनके बारे में उनका दृष्टिकोण तुम्हीं से मुहब्बत तुम्हीं से लड़ाई वाला लगता है ।
सिर्फ़ परंपरा के साथ यह रिश्ता इन कवियों का नहीं है । मध्यवर्गीय दुखों का मजाक उड़ाती हुई बद्रीनारायण की कविता के बावजूद दुखों का चित्रित कुल संसार मध्यवर्गीय ही है । एक खास तरह की रोमैंटिकता शहर की अमानवीयता के विरोध, कोमल भावनाओं के बल पर उससे लड़ लेने का विश्वास और गवँई प्रतीकों के सचेतन इस्तेमाल में छाई हुई है । पंकज भी अपनी कुल तार्किकता के बावजूद उस रोमैंटिकता से बाहर नहीं निकल पाते । दुखद है किंतु सच यही है कि इन कवियों को पढ़ते हुए संसार की व्यापकता और विविधता का पता ही नहीं चलता । कुल मिलाकर केदारनाथ सिंह के संवेदनात्मक संसार का विस्तार ही इन कवियों में दिखाई पड़ता है ।
अब इसे समीक्षा या लेख तो नहीं कह सकता कि भेजूँ । क्षमा करेंगे ।

Monday, December 6, 2010

रोजगार के नये क्षेत्र


हिंजड़ों के लिये जिंदगी कभी आसान नहीं रही । पारंपरिक समाज से बहिष्कृत यह समुदाय अपनी जीविका के लिये जबरन पैसा वसूलने की कला सीख गया । अब उसकी यही कला नये दौर में उसकी आजीविका का नया स्रोत खोल रही है । दरअसल निजी बैंक उदार होकर कर्ज बाँटने के बाद अनुदार होकर उसकी वसूली कर रहे हैं । वसूली के लिये हिंजड़ों को कमीशन पर ठेका दे रहे हैं । खबर यह है कि कुछ सरकारी बैंक भी इस साधन को आजमाने में कोई बुराई नहीं देखते । आशंका यह है कि जिस उदारता से रिलायंस ने अपना पोस्ट पेड कनेक्शन बाँटा और जिस उदारता से लोगों ने इसका उपयोग किया उसके चलते बिलों की वसूली तकरीबन असभव हो गयी । अदालत की शरण में कंपनी गयी तो मुकदमे लड़ने में उसकी हालत खराब हो जायेगी । इसलिये वह भी बिल वसूली के इस तरीके को आजमाने के बारे में सोच रही है । खबर यह भी है कि कई लोग लिंग परिवर्तन कराकर यह नया रोजगार पाना चाह रहे हैं ।

प्रश्नोत्तरी


यू जी सी ने अपने माडल एक्ट के अंत में एक बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तरी लगाई थी जिसका उत्तर उच्च शिक्षा से जुड़ा हरेक आदमी दे सकता था ताकि उसके आधार पर अंततः एक्ट बनाया जा सकता । इसमें सभी प्रश्नों के उत्तर के लिये दो ही विकल्प दिये गये थे-हाँ/नहीं ।किसी एक पर सही का निशान लगाना था । इस पर एक कहानी याद आई । कभी कचहरी में एक गवाह से वकील साहब जिरह कर रहे थे । वकील साहब ने कहा-जो सवाल पूछूँ उसका सिर्फ़ हाँ या नहीं में जवाब दो । गवाह बोला-वकील साहब हर सवाल का जवाब हाँ या नहीं में देना मुश्किल है । वकील-कोई मुश्किल नहीं । गवाह-आप क्या हरेक सवाल का जवाब हाँ या नहीं में दे सकते हैं । वकील-बिल्कुल । गवाह-फिर बताइए आपने अपनी बीबी को पीटना छोड़ दिया ? वकील साहब हाँ बोलें तो मतलब पहले पीटते थे । नहीं बोलें तो मतलब अब भी पीटते हैं ।

मोबाइल क्रांति


पहले ट्रांजिस्टर बिजली से चलता था तो एक जगह स्थिर रहता था । फिर बैट्री लग जाने से सचल होकर वह रेडियो बना । इसी तरह फ़ोन भी बैट्री लग जाने से मोबाइल हो गया है । मनुष्य की बुनियादी जरूरतों को पहले रोटी कपड़ा और मकान के रूप में परिभाषित किया जाता था । जबसे आदमी के लामकान होने की गति बढ़ी तबसे इसे रोटी कपड़ा और मोबाइल कर दिया गया । उदारीकरण से बेघर हुए आदमी की पहचान उसका मोबाइल नंबर है ।
मोबाइल की एक कंपनी का नाम आइडिया है । उसका नारा है- ऐन आइडिया कैन चेंज योर लाइफ़ । सही वैसे इसके उलटा है- योर चेंज्ड लाइफ़ नीड्स आइडिया । दूरसंचार के क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र ने कैसे निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया इसका सर्वोत्तम उदाहरण मोबाइल उद्योग है । सबसे सस्ती सेवा होने के बावजूद बी एस एन एल कनेक्शन देने विलंब करता है ताकि अन्य मोबाइल कंपनियों को आराम से फ़ैलने का मौका मिले । निजी उद्योग ने जिस तरह बेफ़िक्र होकर मनुष्य की निजी जिंदगी में दखल देना शुरू किया है उसका भी सर्वोत्तम उदाहरण यही क्षेत्र है ।
हुआ कुछ यूँ कि 2004 के लोकसभा चुनाव के वक्त एक दिन प्राइवेट नंबर से अटल जी ने बोलना शुरू किया ।तब लगता था कि भाजपा के लिये नियम कानून का कोई मतलब नहीं है इसलिये इस कंपनी ने भाजपा को मेरा नंबर क्यों दे दिया इस पर गुस्सा दिखाने की हिम्मत नहीं हुई । लेकिन फ़िर तो कंपनी को इंटरनेट साइट पर ई मेल पहचान बेचने वालों की तरह नंबर बेचने की आदत लग गई । कभी हच से फ़ोन आ रहा है तो कभी एयरटेल से । आश्चर्य न करियेगा अगर आपका नंबर अपने आप फ़्रेंड्शिप क्लब में चला जाए । अब सवाल यह उठा कि निजी जिंदगी में इस दखल के खिलाफ़ किसके यहाँ शिकायत दर्ज कराई जाए ।
कंपनी के मालिक तक पहुँचना असंभव है । वह तो सातवें आसमान पर बैठे खुदा की तरह अगम्य है । मेरी शिकायत सुनने के लिये हजार पंद्रह सौ रुपये महीने की तनख्वाह पर एक खूबसूरत आवाज बिठा दी गयी है । वह भी कंपनी के मालिक की तरह गारंटी लेती हुई बोली- हमारी कंपनी ऐसा काम कर ही नहीं सकती ।
सो यह था आइडिया जिसने हमारी जिंदगी को बदलकर रख दिया है । अब उसमें निजता बनाये रखना मेरे लिये असंभव हो गया है । कोई शिकायत होने पर सुनवाई होने की सुविधा भी छिन गई और फ़ोन पर कितना खर्च होगा इसके संबंध में किसी निर्णय में मेरा कोई दखल नहीं रहा ।

Thursday, December 2, 2010

पस्त रहो मस्त रहो


सन 1920 के बाद के दंगों में घायल देश में भारत जागरण के उत्साह में डूबे लोगों पर टिप्पणी करते हुए सरदार पूर्ण सिंह ने लिखा- लोग कहते हैं भारत जाग गया है । कब जागा , मुझे तो पता ही नहीं चला । किसानों की आत्महत्याओं , बेरोजगारों की कुंठा , उद्योगों में छँटनी के बीच भारत उदय का उत्सव मनाती सरकार को देखकर यही कहने की इच्छा होती है ।
दरअसल गरीब मुल्कों में लोगों की नजर सच्चाई से हटाकर झूठे गौरवबोध की दिलासा का यह तरीका बेहद पुराना है । जनसंख्या में औरतों का अनुपात घटता जा रहा है , उन पर अत्याचार, उनकी हत्या बढ़ रही है, कोई बात नहीं । सबसे अधिक विश्व सुंदरियाँ भारत में ही पैदा हो रही हैं । दुनिया में भारतीय स्त्री सौंदर्य का डंका बज रहा है । जो लोग उत्पीड़न वगैरह की बात कर रहे हैं वे भारत उदय का अपमान कर रहे हैं ।
खिलाड़ियों को बुनियादी सुविधायें तक नहीं मिल पातीं । कौन कहता है ? क्रिकेट में छक्के पर छक्के उड़ाती भारतीय टीम को देखिए । विश्व स्तर पर भारत की खेल क्षमता का लोहा माना जा रहा है और आप धावकों, तीरंदाजों और हाकी खिलाड़ियों की बात कर रहे हैं !
क्रिकेट तो न सिर्फ़ अन्य सभी खेलों को पीछे धकेलकर खेल का बादशाह बन बैठा है बल्कि फ़िक्सिंग स्कैंडल के बाद भी पैसों का सबसे मुनाफ़ेवाला निवेश बना हुआ है । बाजार के दुलारे हमारी टीम के ग्यारह खिलाड़ियों पर देश के सम्मान को बढ़ाने और पाकिस्तान के साथ खेलते हुए युद्ध में पराजित करने का सुख प्रदान करने की भी जिम्मेदारी आ गई है ।
क्रिकेट की कमेंटरी और रिपोर्ट में जो भाषिक हिंसा शुरू हुई थी उसे अब सिद्धू वाणी ने नई ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया । फ़िल्मों की दुनिया में भी सबसे अधिक फ़िल्में बनाने का गौरव देश को हासिल है । इसलिए हिंदी फ़िल्मों की अंदरूनी कमजोरियों की आलोचना मत करिए । अभी तो बालीवुड हालीवुड से टक्कर लेने में व्यस्त है ।
यह सिलसिला परमाणु विस्फोट के साथ शुरू हुआ था । तब मरे एक मित्र ने टिप्पणी की थी कि यदि भिखारी परमाणु बम लेकर भी भीख माँगे तो उसकी बुनियादी हैसियत में फ़र्क नहीं आयेगा । तब सैन्य औद्योगिक परिक्षेत्र को बेरोजगारी का इलाज बताया गया था । अब सारी आशा आउटसोर्सिंग पर आकर टिक गई है । मानो रात रात भर जागकर अमेरिकी और अंग्रेज उपभोक्ताओं की दिक्कत का समाधान प्रस्तुत करना और बदले में बीस पचीस हजार रुपया महीना कोई स्थायी और सम्मानजनक रोजगार हो ! इसमें भी कुछ लोग यह कहकर मानसिक क्षतिपूर्ति तलाश रहे हैं कि पहले उन्होंने हमारे उद्योगों को तबाह कर हमारे देश को लूटा था । अब उनके रोजगार छीनकर हम उनसे कीमत वसूल कर रहे हैं । इसे सैद्धांतिक तौर पर अनौपनिवेशीकरण कहा जा रहा है और उत्तर औपनिवेशिकता का वाग्जाल बुना जा रहा है । कथित रूप से यह प्रक्रिया अंग्रेजी लेखन से शुरू हुई और अब अंग्रेजी बोलने से एक कदम और आगे बढ़ी है । इसीलिये भूख, गरीबी, मेहनत और रतजगे से थकी आबादी के लिए सरकार का नारा है - पस्त रहो मस्त रहो !

आदमी और मशीन


'आल आउट' का दूरदर्शन पर प्रसारित विज्ञापन मेरे बच्चे को सच नहीं लगता था । उसने कभी इस मशीन को सजीव प्राणी की तरह मच्छरों को खाते नहीं देखा था । एक रात सोने से पहले उसने मुझसे पूछा- पापा जब मैं सो जाता हूँ तब यह मच्छर खाता है क्या ? अब मैं कैसे उसे बताऊँ कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद सो जाने पर नहीं,दिनदहाड़े बहुत कुछ खाते रहते हैं । दरअसल उस विज्ञापन में मच्छर केवल भनभना नहीं रहे हैं । वे बाकायदे एक गीत गा रहे हैं जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विरोधी अक्सर गाते हैं- होंगे कामयाब---- । मच्छर गीत पूरा नहीं कर पाते । पैशाचिक हँसी हँसते हुए मशीन का दैत्य आखिरी शब्द 'विश्वास' बोलता है ।
दूरदर्शन पर जब अटल बिहारी बाजपेयी अपनी कवितायें नहीं पढ़ा करते थे तो साक्षरता संबंधी कुछ सरकारी विज्ञापनों में भी उल्लिखित गीत बजाया जाता था । दरअसल यह गीत पाल राबसन के एक अंग्रेजी गीत का हिंदी अनुवाद है । पाल राबसन और कोई नहीं दादा साहब फालके सम्मान प्राप्त भूपेन हजारिका के गुरु थे । हिंदी अनुवाद भी हिंदी कविता के एक वरिष्ठ कवि गिरिजा कुमार माथुर ने ने किया था । अब तो इसे मच्छर ही गाते हैं जिन्हें एक बहुराष्ट्रीय उत्पाद लील जाता है ।
याद आया कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों की हिंसा का यह बेशर्म प्रदर्शन पहली बार नहीं हो रहा । बरसों पहले गुड़िया बनाने वाली कंपनी बार्बी ने भी अपनी नकलों को दिल्ली की दुकानोंसे खरीदकर आई टी ओ की सड़क पर हाथी से कुचलवाया था और ऐसा करते हुए फोटो खिंचवाकर विभिन्न अखबारों में छपवाया था ।
यह तो समझ में आता है कि अखबार के पन्नों पर , दूरदर्शन पर प्रसारित इस विज्ञापन में हिंसा के प्रदर्शन से सरकार को गुरेज न हो । आखिर उसके विरोधी भी तो बरसों बरस यही गीत गाते रहे हैं और उन्हें खामोश कर देने की इच्छा सरकार अरसे से मन में सँजोए रही है । अब उसका काम ‘आल आउट’ ही कर दे रहा है तो क्या बुरा है लेकिन एक विश्व प्रसिद्ध कवि के प्रसिद्ध हिंदी अनुवाद के बेशर्म उपयोग की इजाजत हम क्यों दें!
जहाँ तक मशीन के सजीव होने की बात है इसे पहली बार चार्ली चैप्लिन ने पहचाना था । जिन्होंने उनकी फ़िल्म माडर्न टाइम्स देखी होगी वे आदमी के मशीन और मशीन के सजीव हो जाने की त्रासदी को जरूर समझते होंगे ।
चेखव ने भी अपने संस्मरणों में अपने नाना के यहाँ की थ्रेशिंग मशीन का जो वर्णन किया है वह भूमिकाओं के इसी परिवर्तन के बारे में है । उन्होंने देखा था कि पसीने में डूबे हुए किसान मशीनी ढंग से गेहूँ मशीन में डाल रहे हैं जबकि वह मशीन साँस लेती, फ़ुफ़कारती, भूसे से अनाज को अलग करती सजीव प्राणी की तरह लग रही थी । मशीनी सभ्यता के इस असर को मार्क्स ने भी पहचाना था । इसीलिये उन्होंने बाजार को एक ऐसी जगह कहा जहाँ वस्तुओं में सजीव संबंध बनते हैं जबकि मनुष्यों में पैसे कौड़ी के ।

Wednesday, December 1, 2010

महात्मा गांधी एक घरेलू जानवर


कभी एक विद्यार्थी अंग्रेजी की परीक्षा देने गया ।परीक्षा में एक निबंध अनिवार्यतः लिखने के लिये कहा जाता था । वह 'काऊ' पर निबंध रटकर गया ।लेकिन परीक्षा में महात्मा गांधी पर निबंध लिखने के लिये कहा गया था । विद्यार्थी ने हिम्मत नहीं हारी । उसने काऊ की जगह महात्मा गांधी लिख दिया । उसके निबंध का पहला वाक्य निम्नवत बना-महात्मा गांधी इज ए डोमेस्टिक एनिमल । यह वाक्य मेरी स्मृति में टँककर रह गया । सचमुच महात्मा गांधी को जो चाहे दुह रहा है । मेरे पिता गाय दुहने में कुशल थे । कोई कोई गायें उछलती थीं । उनकी पिछली टाँगें बाँधकर दुहते थे । जहाँ कहीं यह गाय काबू में नहीं आती उसकी पिछली टाँगें बाँध दी जा ती हैं । अगर कभी वर्धा जाइये तो इस रूपक का अर्थ स्पष्ट हो जाएगा । सब लोग गांधी को बाँधकर दुह रहे हैं । कहीं कहीं तो इंजेक्शन लगाकर जबर्दस्ती ।