Sunday, January 26, 2025

संविधान, कानून और जनता

 

                                 

                                                                                             

2018 में प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी प्रेस से रोहित डे की किताब ‘ए पीपुल’स कनस्टीच्यूशन: द एवरीडे लाइफ़ आफ़ ला इन द इंडियन रिपब्लिक’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत 1950 के अंतिम महीने में जलालाबाद के सब्जी विक्रेता मुहम्मद यासिन से होती है जो नगरपालिका की ओर से सब्जी बेचने का केवल एक लाइसेंस जारी करने की खबर से परेशान थे । जिसे लाइसेंस दिया गया उसकी इजारेदारी सब्जी के समूचे धंधे पर होनेवाली थी । उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगायी कि उनका धंधा जारी रखने की अनुमति दी जाए । उनके वकील का तर्क था कि नगरपालिका की कार्यवाही उसके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण तो है ही, उनके मुवक्किल यासिन के आजीविका के अधिकार का भी उल्लंघन है । भारत के इतिहास की आजादी, विभाजन, चुनाव और देशी रियासतों के विलय जैसी बड़ी कहानियों में यासिन की यह कहानी बहुत छोटी है । फिर भी उसकी कहानी जाननी जरूरी है क्योंकि अधिकारसंपन्न नागरिक के बतौर देश की सर्वोच्च अदालत जाने वालों में वह पहला भारतीय था । उसकी समस्या और उसका समाधान इस नवस्वाधीन देश के संविधान की परीक्षा था । यासिन का यह साहस भारतीय संविधान की बुनियादी विशेषताओं को उजागर करता है । पहली बात कि इसका रिश्ता दैनन्दिन से है । दूसरी बात कि इसका लगाव अल्पसंख्यकों या निम्नवर्गीय समूह के साधारण देशवासियों से है । तीसरी बात कि बाजार के रिश्तों को नियंत्रित करने के राज्य की कोशिश से अधिकांश टकराव हुए ।

15 अगस्त 1947 की आधी रात के गजर के साथ भारत आजाद हुआ । तीन साल बाद प्रांतीय सदनों द्वारा नामित संविधान सभा ने नया संविधान अपनाया जिसमें भारत को संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया । उस समय के लिहाज से यह उल्लेखनीय उपलब्धि थी । चार साल में संविधान सभा ने संविधान लिखा । कांग्रेस पार्टी के दबदबे के बावजूद इस सभा में लिंग, धर्म, जाति और जनजाति की विविधता के साथ तमाम राजनीतिक विचारों को जगह देने की कोशिश की गयी । उस समय जो भी देश स्वाधीन हुए उनके संदर्भ में यह उल्लेखनीय था कि भारतीयों ने अपना संविधान लिखा । केन्या, मलयेशिया, घाना और श्री लंका जैसे देशों के लिए यह काम ब्रिटिश अधिकारियों ने ही अंजाम दिया । इजरायल और पाकिस्तान में संविधान सभाओं का गठन हुआ था लेकिन भारत की तरह उनके देशों में किसी दस्तावेज पर सहमति नहीं बन सकी ।

उस दौर के स्वाधीन हुए देशों में भारत का संविधान सबसे अधिक समय तक कायम रहा और सार्वजनिक जीवन को अब भी निर्देशित करता है । उसकी इस दीर्घजीविता पर विद्वानों ने कम ही ध्यान दिया है । संविधान निर्माण और उसकी संरचना के बारे में तो बहुत कुछ मिल जाता है लेकिन इसे समझने की कोशिश कम हुई है कि समाज ने किन प्रक्रियाओं के जरिये इसे अपनाया । किसी संविधान से देश की राजनीति में आये बुनियादी बदलावों के निशान मिलते हैं । इसके बावजूद इसका पता नहीं चलता कि भारतवासियों ने इसे कैसे समझा और नयी व्यवस्था को कैसे महसूस किया । 1920 के बाद से ही सभी भारतीय भाषाओं के अखबारों में संविधान संबंधी बहसें प्रमुखता से छपने लगी थीं । 1946 में जब संविधान लिखने की प्रक्रिया शुरू हुई तो उसने देश भर में भारी उत्सुकता पैदा की । संविधान सभा को बच्चों, घरेलू स्त्रियों और डाकियों तक से तार, चिट्ठी और आवेदन मिले जिनमें दावे थे, मांगें थीं और बहुतेरे सुझाव भी थे । यासिन जैसे हजारों भारतीयों ने अदालतों में संविधान को याद किया ।

इनमें अधिकतर मामले बहुत ही कठिन हालात से जुड़े हुए थे । एक मुसलमान को जब पाकिस्तान भेजे जाने की बात पता चली तो उसने सर टकराकर जख्मी कर लिया ताकि इलाज के दौरान वकील को आवेदन दायर करने का मौका मिल जाये । एक बंगाली ने ट्राम भाड़ा बढ़ाने की कानूनी वैधता को चुनौती दी । एक व्यक्ति ने मांग की कि पूरे देश में मातृवंशीय व्यवस्था लागू हो और सभी सरकारी कागजों में पिता की जगह माता का नाम दर्ज किया जाये । असल में संविधान लोगों पर उतरा नहीं,रोज ब रोज के मामलात ने उसका उत्पादन और पुनरुत्पादन किया । आजाद भारत की शुरुआत से ही नागरिकों की राजनीतिक सक्रियता ने अदालतों को प्रभावित किया । इसका सबूत जनहित याचिकाओं का लम्बा इतिहास है जो जजों की पहल नहीं थीं बल्कि याचियों ने दाखिल कीं ।

सार्वजनिक और निजी जीवन में संविधान की प्रमुखता के बावजूद इसके इतिहास का पर्याप्त अध्ययन नहीं हुआ है । इसकी एक वजह है कि भारतीय संविधान की भूमिका की सरल व्याख्या नहीं हो सकती । असल में संविधान का आधार मनमाने नियमों की जगह कानून के शासन की इच्छा है लेकिन भारत में दोनों की मौजूदगी साथ साथ रही है । एक ओर तो भारत में जीवित और जाग्रत संवैधानिक संस्कृति नजर आती है । भारत के सुप्रीम कोर्ट को अक्सर दुनिया की सबसे शक्तिशाली संवैधानिक अदालत कहा जाता है जिसे न्यायिक समीक्षा के व्यापक अधिकार मिले हुए हैं । उसे संविधान की व्याख्या का अंतिम अधिकार है और इसकी सीमाओं के अतिक्रमण को भी रोकना उसका दायित्व है । वकीलों की मजबूत ताकत, राज्य के समर्थन और जनता की प्रचंड सहानुभूति की बदौलत इसने सार्वजनिक जीवन में सर्वव्यापी भूमिका निभायी है और भारत की राजनीति का शायद ही कोई ऐसा महत्वपूर्ण मुद्दा होगा जिस पर सुप्रीम कोर्ट के किसी न किसी फैसले का जाने या अनजाने असर न पड़ा हो । सरकार को अदालत अक्सर सवाल के घेरे में ले लेती है और तमाम ऐसे सरकारी फैसलों को पलट देती है जिनमें संविधान की सीमाओं का उल्लंघन किया गया हो । अस्मिता, हित, अधिकार और देश के नागरिकों को क्षति संबंधी धारणाओं पर संवैधानिक भाषा का गहरा असर है और तमाम क्रांतिकारी सामाजिक राजनीतिक आंदोलन भी कानून और संविधान के साथ संवाद बनाने का प्रयास करते हैं । दलितों और आदिवासियों समेत तमाम हाशिये के समूहों ने देश के संविधान को सार्वजनिक संसाधन में बदल दिया है और गांवों के बाहर संविधान की प्रस्तावना की पत्थरगड़ी के जरिये समता के एक वायदे में मूर्त कर दिया है ।

लेकिन इसके साथ ही दूसरी ओर सरकार और नागरिक कानून के अनुपालन पर कोई ध्यान नहीं देते । अठारहवीं सदी से ही न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार, शाहखर्ची और देरी का घुन लगा हुआ है । न्याय का सारा कामकाज ऐसी भाषा में होता है जो लोगों को समझ नहीं आती । आजादी के बाद से निजी विवादों को अदालत में घसीट लाने की प्रवृत्ति में गिरावट आयी है । इस तरह हमारे देश में कानून और अव्यवस्था का सहकार चल रहा है । यह सहकार 1990 दशक के बाद बहुतेरे देशों में नजर आया । असल में दुनिया भर में अदालतें ऐसी संस्था के बतौर उभरी थीं जो अतीत के साथ संबंध विच्छेद का द्योतक थीं । संविधान के प्रति निष्ठा का रिश्ता केवल आजादी के साथ शासन के बदलाव से ही नहीं है । 1990 दशक में नवउदारवाद के साथ ही मानवाधिकार के सवाल पर अंतर्राष्ट्रीय संजाल भी उभरे । नवउदारवाद और वैश्वीकरण के चलते शासकीय बिखराव आया और राज्य का प्राधिकार भी एकाधिक टुकड़ों में बंट गया । इसके कारण कानून की ताकत बढ़ी ।

संविधान का दैनन्दिन जीवन में प्रवेश और राजनीति के कानूनीकरण का इतिहास भारत में न केवल अफ़्रीका और पूर्वी यूरोप के देशों से बल्कि कनाडा और न्यू ज़ीलैंड जैसे पुराने लोकतांत्रिक देशों से भी पुराना रहा है । संविधान को अंगीकृत करने के कुछ दिन बाद ही हजारों नागरिकों ने संविधान का सहारा लेकर शासन की कार्यवाहियों को अदालती चुनौती देना शुरू कर दिया । इस तरह नागरिकों ने राजनीति को अदालतों में घसीटा । अंग्रेजी राज में राज्य के साथ नागरिकों के टकराव को सड़क के आंदोलनों से लेकर बंद कमरे की समझौता वार्ताओं तक सुलझाया जाता था । आजादी के बाद ये टकराव अदालतों के दरवाजों तक आने लगे ।

किताब में बताया गया है कि भारतीय संविधान ऐसा दस्तावेज है जिसके मूल राजनीतिक कुलीनों की सहमति से बने लेकिन आजादी के पहले ही दशक में वह सामान्य देशवासियों के अनुभव का अंग बन गया । निर्माण और लागू करने की प्रक्रिया में यह राजनीति में प्रमुख स्थान बनाने में कामयाब रहा । तमाम संविधान सही और गलत, कानूनी और गैर कानूनी या वैध और अवैध की दुनिया में रहते हैं तथा उनकी व्याख्या का दबाव बाहर से आता है । किताब में संविधान का अध्ययन करने के लिए जजो और अधिकारियों के साथ ही सामान्य लोगों की ऐसी कार्यवाहियों का भी जायजा लिया गया है जिन्होंने इसकी व्याख्या का भारी दबाव बनाया । इस नयी पद्धति का प्रयोग करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के अभिलेखागार को छानकर समझने की कोशिश की गयी है कि भारत के दैनन्दिन जीवन को किस तरह संविधान ने गढ़ा और आकार दिया है ।

जब संविधान सभा ने भारत को सम्प्रभु, लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया तो बदलाव क्या आया? इस सवाल के उत्तर में दो अलग अलग कहानियां सुनने को मिल सकती हैं । एक कहानी वह है जिसे वकील और नेता अक्सर सुनाते हैं । इसके मुताबिक एकबारगी देश ने अपने अतीत से पूरी तरह छुटकारा पा लिया । वर्ग, जाति, नस्ल, धर्म या लिंग आधारित किसी भी भेदभाव के बिना सारी जनता की सम्प्रभु इच्छा की अभिव्यक्ति के बतौर एक नयी व्यवस्था अंगीकृत की गयी । संविधान की सफलता का रहस्य उसके लागू होने के समय में निहित है । माना जाता है कि देश ऐसे लोकप्रिय राष्ट्रीय आंदोलन से पैदा हुआ था जिसके नेता कानून के शासन से प्रतिबद्धता की दूरदृष्टि से युक्त थे । स्वतंत्र देश की पैदाइश के साथ संविधान भी लागू हुआ । इतिहास और राजनीति के विचारकों ने पिछले दशक में संविधान की रक्षा करने की कोशिश की है और इसे नैतिक दृष्टि से संपन्न दस्तावेज के बतौर परिभाषित किया है । संविधान के पाठ और संविधान सभा की बहसों को कुछ बुनियादी अंतर्विरोधों को सामायोजित करने की कोशिश के रूप में देखा गया है । असल में संविधान और लोकतांत्रिक आकांक्षा, व्यक्तियों और समुदाय के अधिकारों या धार्मिक स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षा के बीच तनाव रहता है । इस तनाव को हल करने की कोशिश के बतौर देश के संविधान को समझने का प्रयास हाल के दिनों में तेज हुआ है ।

भारत के संविधान द्वारा लाये गये बदलावों के रूप में बालिग मताधिकार और सामाजिक क्रांति का संस्थानीकरण का जिक्र बहुधा किया जाता है । इसके महत्व को समझने के लिए तत्कालीन समाज को ध्यान में रखना होगा । कहने की जरूरत नहीं कि भारतीय समाज ऊंच नीच पर आधारित था । पश्चिमी परिपक्व लोकतांत्रिक देशों में भी कुछ ही समय पहले मताधिकार को स्त्रियों, अश्वेतों और कामगारों तक विस्तारित किया गया था । अंग्रेजी राज में विभिन्न औपनिवेशिक सुधारों के जरिये भी मताधिकार को सामुदायिक पहचानों और संपत्ति के आधार पर सीमित ही रखा गया था । इस इतिहास से पूरी तरह अलग होकर एकबारगी सभी बालिगों को मताधिकार दे दिया गया । मान्यता यह थी कि राज्य जैसी दानवाकार मशीन को मनुष्य की इच्छा के अधीन ले आने के सपने में ही लोकतंत्र की सच्ची आत्मा बसती है । इसके जरिये ही राजनीतिक रूप से समान अधिकार प्राप्त नागरिक एक साथ मिलकर अपने इतिहास का निर्माण करना शुरू करते हैं ।

संविधान में समाजार्थिक वंचना को केंद्रीय महत्व देना भी खास बात थी । उसकी उद्देशिका में सभी नागरिकों को समाजार्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने की बात शामिल है । संपत्ति के अधिकार को सीमित करके इसने भूमि सुधार का रास्ता खोला, छुआछूत और मानव तस्करी का उन्मूलन किया, स्त्रियों और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान की अनुमति दी तथा धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अधिकार प्रदान किया । राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत शासन के बुनियादी कायदे बनाये गये । इनमें संसाधनों का समान बंटवारा, बच्चों के लिए मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा, पुरुष और स्त्री को समान काम का समान वेतन, काम के बेहतर हालात और जीने लायक पगार, शराबबंदी, बाल श्रम का निषेध तथा पोषण में सुधार और सबके स्वास्थ्य की गारंटी जैसे प्रावधानों का भी उल्लेख हुआ । सरकारी नीति में बुनियादी अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धांतों के बीच वरीयता में इस अंतर के बावजूद अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा कि भविष्य में विधायिका और कार्यपालिका इन सिद्धांतों के प्रति महज जुबानी निष्ठा जताने की जगह इन्हें अपनी तमाम कार्यवाहियों का आधार बनाएगी । इनमें आर्थिक से लेकर नैतिक सवालों तक संविधान की आकांक्षा व्यक्त हुई थी । आजादी को इसने समाजार्थिक विषमता के खात्मे से जोड़ा । उदारपंथी संविधान के जरिये समाजार्थिक बदलाव एक नया प्रयोग था । इसके जरिये इस मान्यता को चुनौती दी गयी कि सामाजिक विषमता और आर्थिक बदहाली को दूर करने के प्रयास लोकतांत्रिक शासन के तहत नहीं किये जा सकते ।

संविधान के पाठ के इन क्रांतिकारी पहलुओं के बावजूद उनके प्रभाव के सिलसिले में बौद्धिकों ने थोड़ा संयम बरता है । उनका कहना है कि देश का संविधान कुलीन परियोजना था । संविधान के जरिये लोकतंत्र की स्थापना न तो किसी जन दबाव से हुई, न ही इसे किसी राज्य से छीनकर हासिल किया गया । उनकी राय में भारत की जनता को लोकतंत्र उपहार के रूप में उसके राजनीतिक कुलीनों ने ही सौंप दिया । लोकतंत्र और समता जैसे मजबूत आदर्शों की जगह मुट्ठी भर अंग्रेजी भाषी बौद्धिकों के घेरे से बाहर नहीं बनी । किसी भी शक्तिशाली समूह ने इसके लिए गोलबंदी नहीं की थी । इसके विपरीत मान्यता वाले लोग कहते हैं कि देश के संविधान में स्वाधीनता आंदोलन के करिश्माई और समर्पित पुरोधाओं ने आंदोलन के सकारात्मक मूल्यों को पिरो दिया । जब पहली पीढ़ी के वे नेता नहीं रहे तो उन मूल्यों को कायम रखने की जिम्मेदारी सर्वोच्च अदालत और जजों की सक्रियता पर आ गयी ।

संविधान के बारे में आधिकारिक धारणा के विपरीत बहुतेरे लोग उसे मृगछलना समझते हैं । असल में इसने उत्तेजना के साथ निराशा भी पैदा किया । इस सिलसिले में लेखक ने मंटो की कहानी नया कानून को याद किया है । उसमें मंगू नामक एक तांगा चलाने वाला लाहौर में 1935 के इंडिया ऐक्ट संबंधी उत्तेजना का बयान करता है । इससे स्वशासन का विस्तार हुआ था । इस नये कानून के पारित होने से मंगू को उम्मीद है कि अंग्रेज बिल में छिप जाएंगे । जिस दिन बिल पारित होता है उसी दिन किराया अधिक मांगने का आरोप लगाकर एक अंग्रेज उस पर हमला कर देता है । मंगू भी उस पर घूंसे बरसाते हुए अपना राज होने की खबर देता है । उसे धक्का लगता है जब दो पुलिस अफ़सर उसे घसीटकर थाने ले जाते हैं । तमाम समय वह नये कानून की दुहाई देता रहता है लेकिन कोई उसकी नहीं सुनता और उसे हिरासत में बंद कर दिया जाता है । इस कहानी का जिक्र अक्सर आजादी और संविधान के प्रसंग में सपने और हकीकत के बीच के अंतराल को बताने के लिए किया जाता है । इसे जमीनी संघर्ष से उपजे सपने और शासकीय यथार्थ के टकराव का मुहावरा भी समझा गया है । इसके जिक्र की एक वजह यह भी थी कि संविधान में दो तिहाई हिस्सा 1935 के इंडिया ऐक्ट से लिया गया था ।

इसे संविधान सभा के चरित्र से भी संकेतित किया जाता है । इस सभा के सदस्यों का सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर निर्वाचन नहीं हुआ था । शायद इसी वजह से सार्वभौमिक बालिग मताधिकार और नागरिक अधिकारों के प्रावधान के बावजूद भारतीय गणतंत्र की गहरी जड़ें औपनिवेशिक कानूनों और केंद्र का नियंत्रण कायम रखने वाली संस्थाओं में बनी रहीं । इसकी छाप आपातकाल संबंधी प्रावधान में मौजूद थी जिसके तहत केंद्र सरकार कभी भी बुनियादी अधिकारों को स्थगित कर सकती थी, अदालतों की हदबंदी कर सकती थी, संसदीय चुनाव टाल सकती थी और निर्वाचित विधान सभाओं को भंग कर सकती थी । संविधानों की परम्परा व्यक्ति को राज्य से सुरक्षा प्रदान करने की रही थी लेकिन इसके विपरीत भारत का संविधान राज्य को समाज तथा अर्थतंत्र बदलने की ताकत भी देता है । इस तरह संविधान भारत की संप्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखने, राज्य की रक्षा, विदेशों से बेहतर रिश्तों, कानून व्यवस्था, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा अभद्रता और नैतिकता के नाम पर बुनियादी अधिकारों को कभी भी निरस्त कर सकता था । संविधान सभा के एकमात्र कम्युनिस्ट सदस्य ने टिप्पणी की कि मौलिक अधिकारों को किसी सिपाही के नजरिये से लिखा गया है । अंग्रेजी शासन की पुलिस, सेना, अदालत और नौकरशाही को लगभग जस का तस रहने दिया गया था ।

आलोचकों ने यह भी कहा कि इसमें संशोधन की प्रक्रिया आसान होने से इस दस्तावेज में बहुत स्थिरता नहीं है । संसद में दो तिहाई के बहुमत से इसे संशोधित किया जा सकता था । कहा गया कि अगर शासन के हितों के मुताबिक इसे आसानी से बदल दिया जा सकता है तो फिर यह शासन की कार्यवाही पर रोक कैसे लगाएगा । जिस अवधि तक (चौदह साल) का अध्ययन किताब में किया गया है तब तक सत्रह बार संशोधन किये जा चुके थे । इनमें से आधे संशोधन सर्वोच्च अदालत की ताकत पर रोक लगाने के मकसद से किये गये ।

इसकी यह आलोचना कभी जनता में जगह नहीं बना सकी कि यह भारतीय दस्तावेज नहीं है । संविधान के लेखक भी जानते थे कि इसमें निहित मूल्य नागरिकों के वास्तविक अनुभव से नहीं पैदा हुए । इसलिए भी अंबेडकर ने अपने व्याख्यान में कहा कि राजनीतिक जीवन में समता को तो मान्यता दी गयी है लेकिन समाजार्थिक संरचनाओं के कारण इसे अन्य क्षेत्रों में विस्तरित नहीं किया जा सका ।

आलोचना या प्रशस्ति की जगह इस किताब में माना गया है कि भारतीय गणतंत्र में दैनन्दिन जीवन को संविधान ने बहुत गहराई से बदल दिया है । बदलाव की इस प्रक्रिया का संचालन कुलीन नेताओं और जजों के मुकाबले देश के एकदम हाशिये के नागरिकों ने किया है । अंग्रेजी में कुलीनों की सहमति से तैयार इस दस्तावेज ने लोगों की कल्पना से जीवन ग्रहण किया और उन्होंने ही इसके अस्तित्व को सार्थक बनाया, इसकी शरण ली और इसके साथ बहस मुबाहिसा किया । संविधान लागू होने के साल भर ही हैदराबाद के मुख्यमंत्री ने दिल्ली सरकार को पत्र लिखकर बताया कि तमाम तरह के लोग संविधान के मौलिक अधिकारों का हवाला देकर हाइ कोर्ट में मुकदमे दायर कर रहे हैं । एक पाकिस्तानी स्त्री ने पुलिस द्वारा देश छोड़ने के आदेश पर स्थगन हेतु वाद दायर किया । दो अध्यापकों को जब स्थानीय भाषा की परीक्षा पास करने को कहा गया तो वे भी इसे चुनौती देने अदालत जा पहुंचे । ऐसी हालत केवल हैदराबाद की ही नहीं थी । जीवन के सभी क्षेत्रों के नागरिक संवैधानिक अधिकारों के आधार पर अदालत में वाद दायर करने लगे थे और इस पर देश के नेताओं तथा नौकरशाहों को हैरत होती थी । हैदराबाद की विशेषता यह थी कि इसे हाल में ही भारत में शामिल किया गया था और अभी वहां सैनिक शासन जैसा ही था ।

तमाम आशंकाओं के बावजूद देश के सार्वजनिक जीवन पर संविधान का दबदबा नजर आने लगा । जनता की इसी संवैधानिक चेतना की जांच पड़ताल इस किताब का उद्देश्य है । इसमें संविधान को लेकर एक तरह का द्वंद्व दिखाई देता है । एक ओर तो वह शासन की इच्छा की राजनीति है तो दूसरी ओर शासन से जनता की अपेक्षा का उभार भी बन जाता है । इनके बीच की कशमकश ने ही देश के हालिया इतिहास को आकार दिया है । इस क्रम में नजर आया कि औपनिवेशिक अतीत से पूरी तरह अलग होते हुए भी संविधान के कुछ प्रावधानों को जानबूझकर नजरअंदाज किया गया है । संविधान में प्रावधान है कि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से राहत पाने के लिए भारत का कोई भी नागरिक सीधे सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है । प्रांतीय हाइ कोर्टों को तो और भी व्यापक अधिकार प्रदान किये गये हैं । वे मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में सरकार के विरोध में रिट जारी करके राहत प्रदान कर सकते हैं । मौलिक अधिकारों के बारे में तो बहुत विचार हुआ है लेकिन उनके उल्लंघन के मामले में राहत के इन प्रावधानों पर कम ध्यान दिया गया है । इन प्रावधानों के सहारे नागरिक किसी भी कानून या प्रशासनिक कार्यवाही को अदालत में चुनौती दे सकता है ।                                                                                                                          

ये प्रावधान जिस समय लागू हुए उस समय आजादी के बाद भारतीय राज्य अपना विस्तार शुरू ही कर रहा था और समाजार्थिक बदलावों की कोशिश में दैनन्दिन में हस्तक्षेप भी बस शुरू ही हुआ था । इसके कारण अदालतों में मुकदमों की बाढ़ आ गयी । इस हालत के लिए राज्य और अदालतें तैयार नहीं थे । गुलाम भारत में लगभग सभी मुकदमे संपत्ति संबंधी विवाद के दीवानी अदालत में जाते थे । आजादी के बाद इनमें घटोत्तरी आयी लेकिन राज्य पर मुकदमे तेजी से बढ़े । संविधान निर्माताओं ने जब राहत का प्रावधान किया था तो उनको इसका अंदाजा नहीं था । जब राज्य ने नागरिकों के व्यवहार को ढालना चाहा तो अनेक लोगों की आजीविका और जीवन पद्धति में  व्यवधान आया । लोकतांत्रिक मतादेश राज्य के पक्ष में था और विकास का उसका नारा सर्वमान्य था इसलिए आम जनता के बीच राज्य को चुनौती देना सम्भव नहीं था । ऐसी स्थिति में नगरपालिका के कर्मचारी से लेकर महाराजा तक सभी असंतुष्ट अदालत की शरण में गये ।

अदालतों की लोकप्रियता की एक वजह राहत संबंधी ये प्रावधान तो थे ही, मुकदमों के जल्दी निपटारे ने भी उनके प्रति भरोसा पैदा किया । दीवानी दावे के मुकाबले राहत की याचिका का शुल्क बहुत कम था । 1950 में सुप्रीम कोर्ट ने 600 से अधिक याचिकाओं पर सुनवाई की । 1962 तक इन सुनवाइयों की संख्या 3833 हो चुकी थी । इसी अवधि में अमेरिका में सुनवाई की संख्या 960 मात्र रही थी । अमेरिका की आजादी के पचास साल बाद तक वहां की सुप्रीम कोर्ट ने कुल 40 ही मुकदमे सुने थे । भारत की अदालतों में दायर मुकदमों के निपटारे का अनुपात पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों की अदालतों से अधिक रहा है । भारत में दायर मूकदमों में विविधता भी अधिक रही है । इनसे पता चलता है कि रोजमर्रा के जीवन में राज्य किस हद तक दखल देता था और किस हद के बाद नागरिक इस दखलंदाजी के प्रतिवादस्वरूप अदालत की शरण में चले जाते थे । इन मुकदमों में वाद विवाद की मार्फत लोकतंत्र की धारणात्मक शब्दावली ने प्रत्यक्ष रूप ग्रहण किया । राज्य और नागरिक के इस मुखामुखम से संवैधानिक अंत:क्रिया का जन्म हुआ । यह संवैधानिक अदालत और उसकी बहसें नागरिकता का अभिलेखागार बन गयीं ।       

 

Saturday, January 18, 2025

भारत का स्वाधीनता संग्राम और अमेरिका

 

                     

                                                                 

2014 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से सीमा सोही की किताब ‘इकोज आफ़ म्युटिनी: रेस, सर्विलान्स, ऐंड इंडियन एन्टीकोलोनियलिज्म इन नार्थ अमेरिका’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत 1908 में ही न्यू यार्क में रहने वाले भारतीय पत्रकार संत निहाल सिंह द्वारा अमेरिका के रंगभेद के बुरे प्रभावों को समझने के लिए दक्षिणी प्रांतों की यात्रा और दर्जनों अश्वेतों के साक्षात्कार से होती है । लौटकर पत्रकार ने कलकत्ता के माडर्न रिव्यू में लेख लिखा जिसमें भारत के ब्रिटिश उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष और अश्वेतों के नस्ली न्याय तथा समता की लड़ाई की तुलना की गयी थी । उनका कहना था कि आरम्भ के अश्वेत दास तो थे लेकिन अब बीसवीं सदी में भी उनकी संतानों को गोरों की रंग चेतना जन्य सीमाओं और विषमताओं को बर्दाश्त करना पड़ता है । उन्होंने 1858 की विक्टोरिया की घोषणा और लिंकन की दास प्रथा की समाप्ति की घोषणा की समानता का भी उल्लेख किया था । उनके अनुसार दुनिया भर में नस्लभेद के शिकार लोगों ने समता की मांग के लिए अक्सर दोनों घोषणाओं का उपयोग किया लेकिन अश्वेत मुक्ति या भारत की आजादी हेतु नस्ली भेदभाव और दबदबे के वैश्विक आयामों पर सोचना जरूरी था ।

उनका कहना था कि दोनों मामलों में समान अधिकार सरकारी दस्तावेजों तक सीमित है और तमाम घोषणाओं के बावजूद दासता और हीनता का दुख अश्वेतों को झेलना पड़ता है । औपनिवेशिक भारत और अमेरिका के दक्षिणी प्रांत भौगोलिक रूप से बहुत दूर होने के बावजूद नस्लभेदी अपराध के चलते आपस में जुड़े हुए हैं । इनसे नस्ली भेदभाव, औपनिवेशिक पराधीनता और आर्थिक शोषण की विश्व व्यवस्था बनती है । इसके कारण भारतीय,चीनी, जापानी और अफ़्रीकी सभी बराबरी के लिए लड़ रहे हैं । अमेरिका के नस्ली अल्पसंख्यकों के संघर्ष को समझने के लिए साम्राज्यवाद की व्यापक व्यवस्था को समझना उनको जरूरी लगा जिसके इर्द गिर्द नस्ली ऊंच नीच की व्यवस्था ढली है । दासता के कानूनी खात्मे के बाद नया नस्लभेद विकसित हो रहा था जिसके तहत गोरों का आधिपत्य कायम करने के लिए एशियाइयों का बहिष्करण बेहद जरूरी माना जा रहा था । उनके लेख का मंतव्य था कि अमेरिकी लोकतंत्र और समता, स्वतंत्रता तथा न्याय संबंधी उसका वादा छलावा ही बना रहेगा अगर लोगों को उनकी चमड़ी के रंग के अनुसार गोरे और काले में बांटा जाता रहेगा । उनके समय के उपनिवेशवाद के विरोधी यह भी समझते थे कि नस्लभेद किसी एक देश की समस्या नहीं, इसका वैश्विक आयाम है । निहाल सिंह की तरह ही अमेरिका में जिन भारतीयों ने उपनिवेशवाद के विरोध में बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में व्यापक, नवाचारी और बहुस्तरीय लड़ाई लड़ी वे दुनिया के रंगभेदी विभाजन और पाश्चात्य साम्राज्यवाद और पूंजीवादी विस्तार के बीच का अन्योन्याश्रय समझते थे ।

निहाल सिंह के लेख के प्रकाशन के लगभग छह साल बाद 1914 में अमेरिकी संसद में भारत के उपनिवेशवाद विरोध के खतरों पर बात शुरू हुई । इसका बहाना हिंदू मजदूरों की आमद को सीमित करने के लिए तगड़े प्रतिबंध वाले प्रस्तावित दो कानूनों पर बहस बना । ऊपर से सवाल तो मजदूरों के बीच की आर्थिक होड़ को बनाया गया लेकिन जल्दी ही बहस के दौरान भारतीयों के उपनिवेश विरोध का यह मुद्दा भी उभर आया । समिति के अध्यक्ष ने कहा कि अमेरिका में शरण मांगने वाले अधिकांश भरतीय अराजकतावादी हैं जो सरकार को उखाड़ फेंकने की शिक्षा देते हैं । भारतीयों को भगाने की वकालत करने वाले कैलिफ़ोर्निया के सांसद का कहना था कि भारतीय शरणार्थी अमेरिका को आधार बनाकर क्रांतिकारी राजनीतिक आंदोलन का संचालन करते हैं जिसका असर भारत के साथ अमेरिका पर भी पड़ता है । इन आरोपों के आधार पर अनेक सांसदों ने खतरनाक हिंदू आंदोलनकारियों को देश में न आने देने का समर्थन किया ।

इसके साथ ही प्रशांत तटीय इलाकों के सांसदों और अधिकारियों ने कहा कि ये हिंदू आंदोलनकारी अमेरिका और कनाडा की सीमा का बेजा लाभ उठाते हैं इसलिए सीमा पुलिस की निगरानी और कड़े प्रतिबंध की जरूरत है । इन सुनवाइयों से पता चलता है कि भारत के आप्रवासियों को बाहर रोकने में क्रांति विरोध की विचारधारा ने निर्णायक भूमिका निभायी । सांसदों ने भारतीयों को बाहर रखने का समर्थन करते हुए राजनीतिक क्रांतिकारिता को हद में बांधे रखने की जरूरत पर जोर दिया । दरअसल एशियाई विरोध के साथ ही  क्रांति विरोध का भी विमर्श पैदा हुआ । इसी विमर्श के कारण बीसवीं सदी के आरम्भिक दशकों में आप्रवास संबंधी ढेर सारे प्रतिबंध लगे और राजनीतिक रूप से दमनकारी राज्य भी मजबूत हुआ ।

दसियों साल से संसद की कोशिश आप्रवास नीति के मामले में केंद्र के अधिकार विस्तारित करने की थी लेकिन बीसवीं सदी के पहले दशक में इसके साथ ही राजनीतिक क्रांतिकारिता का दमन भी जुड़ गया । इसका नतीजा आप्रवास के अधिकाधिक कठोर होते कानूनों के रूप में सामने आया । इस बहस में भारतीय लोगों का प्रवेश जब हुआ तब तक उनके प्रवेश को रोकना अंदरूनी जरूरत बन गयी थी । असल में वे ऐसे क्रांतिकारी खतरे के प्रतिनिधि हो चले जो अमेरिकी धरती पर विध्वंसक राजनीतिक आंदोलन चला रहा था । वह विश्वव्यापी उपनिवेशवाद विरोधी विद्रोह का अंग था । इस नाते वह दो ताकतों के बीच वैश्विक टकराव की भयप्रद सम्भावना का भी प्रतिनिधि था जिसमें एक ओर उपनिवेशों पर शासन गोरे लोगों का बोझ समझने वाले लोग थे तो दूसरी ओर उपनिवेशित दुनिया के अश्वेतों की उठती हुई मुक्ति की लहर थी ।

1914 की सुनवाई से भारतीयों के विरुद्ध आप्रवास के कठोर कानून तो पारित नहीं हुए लेकिन तीन साल बाद संसद ने एक व्यापक आप्रवास कानून पारित किया । इसके जरिये विध्वंसक राजनीतिक विचारों और संगठनों से जुड़े आप्रवासियों को उनके मूल देश वापस भेजने का प्रावधान किया गया । उसने लगभग समूचे एशिया को ऐसा प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित किया जहां के कामगारों के अमेरिका में प्रवेश पर रोक थी । इस प्रावधान के आधार पर अमेरिका में भारतीयों को बहिष्कृत किया गया । 1917 के आप्रवास कानून में निहित क्रांति विरोध और एशियाई विरोध आपस में बहुत गहरे जुड़े हुए थे । उस समय क्रांति विरोध का व्यापक वातावरण था जिसके प्रभाव में यह कानून बना था । उस समय तक कनाडा और अमेरिका में ढेर सारे क्रांतिकारी पहुंच चुके थे । उनमें गदर पार्टी के बौद्धिक भी थे जिन्होंने अमेरिका में सबसे बड़ा उपनिवेशवाद विरोधी संगठन बनाया और हथियारबंद विद्रोह के जरिए ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने का आवाहन भी किया । इन लोगों ने आत्म निर्णय हेतु भारतीय संग्राम को दुनिया भर में नस्लभेद और उपनिवेशवाद से पीड़ित जनता द्वारा संचालित नस्ली समानता और राजनीतिक स्वाधीनता के संघर्ष के साथ जोड़ दिया ।

अमेरिकी शासन को लग गया कि भारत के उपनिवेशवाद विरोधी कार्यकर्ता प्रथम विश्वयुद्ध के मुहाने पर अंग्रेजी राज को उलट देने के बहुत करीब हैं और इससे दुनिया भर के उपनिवेशित और नस्ली अल्पसंख्यक जनगण को नस्लभेदी और साम्राज्यी विश्व व्यवस्था के  विरोध में लड़ने का हौसला भी बढ़ेगा । इसके बाद अमेरिकी तंत्र ने अंग्रेजी राज के साथ सहयोग करते हुए उनके साथ जानकारी साझा की, देश वापसी और मुकदमों में तेजी लायी तथा भारतीयों की कड़ी जासूसी शुरू की । इसका नतीजा उलटा निकला । इन कदमों के चलते भारतीयों में उपनिवेशवाद का विरोध और तीखा हुआ । अमेरिका और अंग्रेजी राज के दमन ने भारतीयों में क्रांतिकारी चेतना का विस्तार किया । दमन और क्रांतिकारिता के बीच इस द्वंद्वात्मक रिश्ते की वजह से अमेरिकी भारतीयों में भारत की आजादी का मतलब भारत के राष्ट्रवादियों के मुकाबले अधिक क्रांतिकारी बना । इससे अमेरिकी शासन ने भारत के आप्रवासियों को पूरी तरह बहिष्कृत कर दिया । 

प्रथम विश्वयुद्ध के मुहाने पर और उसके दौरान अमेरिका से लेकर भारत तक उपनिवेशवाद विरोधी प्रतिरोध की वजह से एशियाई विरोध और क्रांति विरोध के अभियान चले । उपनिवेश विरोध के अमेरिकी सरकारी दमन से अमेरिकी राज्य की पहुंच सारी दुनिया में हुई और एशियाई विरोधी नस्लवाद तथा क्रांति विरोध ने मिलकर अमेरिका में राष्ट्रीय सुरक्षा का विमर्श मजबूत किया । इससे फिर न केवल उपनिवेश विरोधी गोलबंदी तथा आप्रवासी बहिष्करण की प्रक्रिया में तेजी आयी बल्कि अंग्रेजी राज के साथ ऐसा साम्राज्यवादी मोर्चा बना जिसके कारण प्रथम विश्वयुद्ध की उथल पुथल से अंग्रेजी राज अप्रभावित तो रहा ही अमेरिका को भी अपना वैश्विक प्रभाव विस्तारित करने में मदद मिली । इसके कारण ही बीसवीं सदी में अमेरिका को सारी दुनिया में अपना दबदबा बनाने का मौका मिला । ब्रिटेन और अमेरिका के आपस में जुड़े इतिहास के बारे में तो बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन इस पहलू पर कम ध्यान दिया गया है कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन के दमन में उनकी साम्राज्यवाद समर्थक साझेदारी ने अमेरिका और ब्रिटेन की राजकीय ताकत को बढ़ाने में मदद की और क्रांति विरोध की लहर को दुनिया भर में परवान चढ़ाया ।

इस दौरान ब्रिटेन और अमेरिकी साम्राज्य के बीच होड़ के साथ सहकार का भी रिश्ता रहा । भारतीय आप्रवासियों पर निगाह रखने के मामले में ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा साथ मिलकर काम करते थे । भारत के उपनिवेशवाद विरोधी स्वाधीनता संग्राम के अंतर्राष्ट्रीय आयाम ने अमेरिका और ब्रिटेन के संयुक्त निगरानी और दमन तंत्र को मजबूत बनाया तथा उनकी निगाह में जो विध्वंसक राजनीतिक आंदोलन थे उनको विश्वयुद्धों के बीच के समय और बाद भी कुचलने का माहौल तैयार किया ।

भारतीयों का बहिष्कार और क्रांति विरोध का अभियान वैश्विक संदर्भों से जुड़ा हुआ था । इस काम में सहयोग देने के नाते अमेरिका का इतिहास विश्व इतिहास से भी संबद्ध हो जाता है । क्रांतिकारी प्रयासों और उनके दमन का इतिहास अधिकतर राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर ही लिखा जाता है इसलिए उपनिवेश विरोध का उनका संयुक्त अभियान छिप जाता है । इसके उलट इस किताब में अमेरिका के इतिहास को उसकी राष्ट्रीय सीमा के भीतर ही न देखकर उसे साम्राज्य की निगाह से देखा गया है । इससे साफ होता है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में अमेरिकी राज्य की शक्ति के विस्तार में नस्लभेद और राजकीय दमन ने केंद्रीय भूमिका निभायी । अंग्रेजी राज के साथ उसकी एकजुटता का एक आधार उनकी आपसी नस्ली निकटता भी थी । इसके बावजूद किताब में दोनों साम्राज्यों की तुलना करने से परहेज किया गया है । इसकी जगह पर इन दोनों साम्राज्यों के सहकार को उजागर किया गया है । दोनों के बीच इस सहकार का मकसद उपनिवेशित जनता को नस्ली हिंसा का शिकार बनाना था । उन्हें अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और एशिया प्रशांत क्षेत्र में प्रभुत्व के लिए जो भी खतरनाक महसूस होता था उसे बहिष्कृत किया जाता था, उसके मूल देश को लौटा दिया जाता था या उनकी कड़ी निगरानी की जाती थी । जब भारत के स्वाधीनता संग्राम सेनानी अमेरिकी राज्य के निशाने पर आये तो दस साल पहले फिलिपीन्स की आजादी की मांग करने वाले क्रांतिकारियों के दमन की पूरी मशीनरी और विचारधारा का रुख भारतीय क्रांतिकारियों के दमन की ओर मोड़ दिया गया । इनके दमन के लिए जो अंतर्राष्ट्रीय जाल बिछाया गया उसके निर्माण के क्रम में अमेरिका और ब्रिटेन की दोनों सरकारों ने मिलकर निगरानी और सूचनाओं के आदान प्रदान की व्यवस्था बनायी थी । जो कोई भी सरकार को चुनौती देता महसूस होता उसको कुचलने के लिए आप्रवास संबंधी कठोर कानूनों को नस्लभेदी बनाया गया ।           

साम्राज्यवाद के इन दोनों केंद्रों के आपसी सहकार को उजागर करने के अतिरिक्त किताब में उपनिवेशवाद विरोध को भी थोड़ा नयी निगाह से देखा गया है । अंग्रेजी राज पर भारतीयों का हमला पश्चिमी उदार लोकतंत्र की सीमाओं की क्रांतिकारी आलोचना के साथ मिल गया । नस्ली न्याय और स्वतंत्रता का उनका दावा पूरी तरह पाखंड साबित हुआ । अमेरिका में रहने वाले भारतीय क्रांतिकारियों के बारे में 1960 और 1970 दशक के संदर्भ में कुछ अध्ययन हुए हैं लेकिन यहां के उपनिवेशवाद विरोधी कार्यकर्ताओं की गतिविधियों को भारत के स्वाधीनता संग्राम का उपांग ही समझा जाता रहा है । इस बात पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जाता कि इसने अमेरिका के भीतर लोकतंत्र विरोधी आचरण को भारी चुनौती दी । अमेरिका में रहने वाले भारतीयों के उपनिवेशवाद विरोध में भारत देश की राष्ट्रीय संप्रभुता के अतिरिक्त भी बहुत कुछ शुरू से शामिल रहा था । चूंकि उनके साथ कनाडा और अमेरिका में नस्ली भेदभाव किया जाता था इसलिए भारतीय आप्रवासी विदेश में नस्लभेद और देश में औपनिवेशिक पराधीनता को जोड़कर देखते थे । इसी वजह से नस्ली बहिष्करण और राजनीतिक दमन की मुखालफ़त को वे उपनिवेशवाद और गोरों की श्रेष्ठता के विरुद्ध व्यापक आंदोलन का अंग मानते थे । उनके लिए पराधीनता के ये दोनों रूप अभिन्न थे ।

प्रथम विश्वयुद्ध में जब अमेरिका ने मित्र राष्ट्रों का साथ दिया तो भारतीयों ने आत्म निर्णय के समर्थन हेतु वुडरो विल्सन की तारीफ की और लोकतंत्र के लिए संघर्षरत भारतीयों के बहिष्कार, गिरफ़्तारी और वापस भेजने की अमेरिकी कार्यवाही की आलोचना की । उन उपनिवेशवाद विरोधियों की नजर में अमेरिकी सरकार की ये बहिष्कारी दमनकारी हरकतें उदार राष्ट्र राज्य की अंतर्निहित सीमाओं की अभिव्यक्ति थीं । जब अमेरिका ने दुनिया को सुरक्षित बनाने और लोकतंत्र का प्रसार करने के बड़े बड़े दावों के साथ इस युद्ध में प्रवेश किया तो भारतीयों के मामले में उसकी ये हरकतें उसके दावों का मुंह चिढ़ाने लगीं । उसका दावा तो शांति स्थापना का था लेकिन व्ह ऐसे स्वाधीनता आंदोलनों का दमन करने में व्यस्त हो गया जिनकी मुक्ति का सपना अमेरिकी दबदबे वाली अंतर्राष्ट्रीय नयी व्यवस्था के मेल में नहीं महसूस होता था ।

बहरहाल प्रथम विश्वयुद्ध में ही वैश्विक वित्त व्यवस्था का केंद्र लंदन से खिसककर न्यू यार्क चला आया और दुनिया पर अमेरिकी प्रभुत्व की शुरुआत हुई । इसी दौरान घटित रूसी क्रांति ने लोगों को यकीन दिला दिया कि पूंजीवादी विश्व व्यवस्था खत्म की जा सकती है या बुनियादी तौर पर बदली जा सकती है । उपनिवेशित दुनिया के शेष आंदोलनकारियों की तरह ही भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों  ने भी अमेरिकी दबदबे वाली विश्व व्यवस्था की आलोचना की और उसमें अपनी दोयम हैसियत का प्रतिवाद भी किया ।

अमेरिका में रहने वाले स्वाधीनता सेनानियों को नस्लभेदी नीतियों और आप्रवास संबंधी बहसों का आपसी रिश्ता समझ आया तथा पश्चिमी साम्राज्यवाद और पूंजीवादी विकास की भूराजनीति स्पष्ट हुई और उन्होंने मुक्ति की वैकल्पिक सोच का विकास किया जिसमें देश की राष्ट्रीय स्वाधीनता ही सब कुछ नहीं था बल्कि इस नस्ली सोच का भी समाधान करना था जो प्रगति और सभ्यता को गोरेपन का समानार्थी मानती थी । उन्होंने माना कि औपनिवेशिक पराधीनता के बोझ से लम्बे समय तक दबे संसार के साथ वास्तविक न्याय और समानता के लिए उस नस्लभेदी विश्व व्यवस्था को उलटना जरूरी है जिसका निर्माण साम्राज्य विस्तार और पूंजीवादी विकास के सहारे हुआ । इस विकास की कीमत एशिया और अफ़्रीका के बड़े हिस्से को ही चुकानी पड़ी थी । अमेरिका निवासी भरतीय स्वाधीनता सेनानियों और उनके संगठनों में मतैक्य न होने के बावजूद वे इस बात पर सहमत थे कि आजाद भारत पश्चिमी श्रेष्ठता और नस्लभेदी सिद्धांतों के लिए वास्तविक चुनौती साबित होगा ।                                                                                      

भारत के अमेरिकावासी स्वाधीनता सेनानियों ने उदारवाद की नस्लभेदी बुनिया को समझ लिया था इसलिए आजादी के बाद बनने वाले आधुनिक भारत के बारे में उनके बीच बहसें थीं । वे पश्चिमी लोकतंत्र की शोषक, साम्राज्यवादी और विभेदक विशेषताओं से मुक्त करके ही पश्चिमी आधुनिकता को अपनाने के पक्ष में थे । उन्होंने पश्चिम की उदार और मानवतावादी परम्परा के सार्वभौमिक मूल्यों को अपनाया तो लेकिन अनालोचनात्मक तरीके से नहीं । उन्होंने राजनीतिक आधुनिकता की जरूरत को मानते हुए भी उसकी कमियों को रेखांकित किया । स्वतंत्रता और समानता जैसे उसके मूल्यों की तारीफ की लेकिन उसके साथ जुड़े नस्लभेद को खारिज किया । इन चिंतकों ने बोला और लिखा कि उपनिवेशित देशों की जनता को किस तरह तुच्छ, पिछड़ा और असभ्य कहकर उनको आजादी के लिए अयोग्य घोषित किया जाता रहा । उन्होंने पश्चिमी लोकतंत्र की कमियों को उजागर करते हुए अमेरिका और ब्रिटेन की हदों के बाहर मुक्ति की वैकल्पिक सम्भावनाओं की तलाश भी की ।

इन अमेरिकावासी स्वतंत्रता सेनानियों ने ऐसी राजनीतिक संरचनाओं के निर्माण की वकालत की जो पश्चिमी संस्थाओं की नकल मात्र न हों । इस तरह उन्होंने आधुनिकता की एक विद्रोही धारणा खड़ी की जो ऐतिहासिक प्रगति की नस्लभेदी धारणा के विरुद्ध थी और उसके पार जाती थी । इसने पश्चिमी दबदबे की अपरिहार्यता को चुनौती दी । उन्होंने मौजूदा विश्व व्यवस्था के ही तहत आजाद भारत की कल्पना नहीं की बल्कि तत्कालीन विश्व व्यवस्था की मुखालफ़त की । इसका उदाहरण लाजपत राय के विचार हैं जिन्होंने नस्ली भेदभाव के आधार पर आपस में संबद्ध उदारवाद और साम्राज्यवाद के मेल को पहचाना था । उदारवाद को वे पूंजीवादी साम्राज्यवाद का पाखंडी मुखौटा कहते थे । उनका मानना था कि पश्चिमी साम्राज्यवादी लोकतंत्र उपनिवेशित देशों की पराधीनता और शोषण पर अवलम्बित है इसलिए न्याय और समता की स्थापना उससे नहीं हो सकती । उदारवाद तो समाजार्थिक न्याय हेतु खतरनाक साम्राज्य और पूंजी के विस्तार का औजार ही बन चुका है । इसी वजह से पश्चिमी उदार लोकतंत्र की नकल करने की जगह उसे रूपांतरित करना होगा ।

भारतीयों के इस बहिष्करण का तर्क यह दिया गया कि इससे पहले आये चीनी और जापानी आप्रवासी मजदूरों की तरह ये कामगार भी सस्ती मजदूरी पर काम करने को तैयार रहते हैं । इसके कारण अमेरिका के स्थानीय कामगारों की पगार भी कम हो जाती है और अमेरिका की सामान्य जीवन शैली में गिरावट आती है । लेकिन भारतीय कामगार महज आर्थिक होड़ के कारण ही बदनाम नहीं किये जा रहे थे । उनको बदनाम और बहिष्करणीय बनाने का अभियान तत्कालीन नस्लभेद के साथ क्रांति विरोध से भी संचालित था ।

उस समय भारत के उपनिवेशवाद विरोधियों को हिंदू खतरे के बतौर पेश किया जा रहा था । इस नामकरण का मतलब बाहरी तत्व होता था । इस बाहरी खतरे को बाहर ही रोके रखने की वकालत की जाती थी । असल में उस समय भारतीयों को हिंदू ही कहा जाता था जबकि सच यह था कि आप्रवासियों में बहुसंख्या सिख समुदाय के लोगों की थी । इस अभियान की शुरुआत जरूर सस्ती मजदूरी और अलग पहचान के आग्रह से हुई लेकिन बाद में यह बाहर से आने वाले क्रांतिकारी आंदोलनात्मक खतरे को दूर रखने के मकसद से जुड़ गया । 1905 में इंडस्ट्रियल वर्कर्स आफ़ द वर्ल्ड के गठन और 1917 की रूसी क्रांति ने अमेरिकी शासन के मन में साम्राज्यवाद विरोधी और पूंजीवाद विरोधी आंदोलन देश और दुनिया में फूट पड़ने की आशंका को बहुत हद तक मजबूत भी कर दिया था । इस आशंका को देश की सुरक्षा से जोड़कर प्रशासन सीमाओं की कड़ी चौकसी, आप्रवास की कठोर नीतियों और क्रांति विरोधी माहौल को बढ़ावा देता था । हिंदू खतरे के सहारे अमेरिकी शासन अपने नागरिकों को परदेशी क्रांतिकारियों से डराता था । देश के भीतर उसे इस डर से लाभ तो मिलता ही था समूची दुनिया में अराजकता का प्रसार रोकने के बहाने उसे अपने प्रभुत्व को विस्तारित करने का मौका भी मिलता था ।

अमेरिकावासी भारतीयों के साथ नस्लभेद को लैंगिक विमर्श से भी काफी मदद मिलती थी । भारत में अंग्रेजी राज को बनाये रखने के उद्देश्य से ब्रिटेन में मर्दवादी विमर्श भी खड़ा किया गया । इसके तहत स्त्रियों और उपनिवेशित लोगों को कमजोर, निष्क्रिय और भावुक कहा जाता था । इसके विपरीत सिख को बहादुर, लड़ाकू और अंग्रेज की तरह कड़क मर्द के रूप में पेश किया गया । सिख समुदाय के भीतर भी अपने धर्म की रक्षा में योद्धा की तरह जूझ पड़ने की कथा सुनायी जाती थी । इसी मिथक के आधार पर अंग्रेजों ने उन्हें सेना और पुलिस में भरती के लिए सबसे योग्य प्रचारित किया । सिख समुदाय की इस मर्दाना छवि का इस्तेमाल अंग्रेजों ने सारी दुनिया में फैले अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए किया । अंग्रेजी शासन ने सिख समुदाय की इस नस्ली छवि का निर्माण किया और दुनिया भर में उनकी तैनाती की ताकि वे साम्राज्य निर्माण और उसकी रक्षा का काम जारी रखें । जो भी सिख अमेरिका गये थे उनमें से आधे ऐसे थे जिन्होंने अंग्रेजी फौज या पुलिस की नौकरी की थी । उन्हें भरोसा था कि अंग्रेजी राज की इन सेवाओं के बदले विदेशों में उनकी इज्जत होगी । इसके विपरीत उन्हें नस्ली भेदभाव और हिंसा का शिकार होना पड़ा । अमेरिकावासी भारत के स्वतंत्रता संग्रामियों ने उनके साथ व्यवहार के इस पहलू पर जोर दिया ताकि भारत में अंग्रेजी राज के विरुद्ध सिख समुदाय को खड़ा किया जा सके । भारत के अंग्रेज अधिकारियों के लिए यह खतरा काफी गम्भीर था इसलिए वे अमेरिकावासी सिखों की जासूसी करने लगे । उन्हें लगता था कि अगर इन सिखों में उपनिवेशवाद विरोधी भाव मजबूत हुए तो भारत में अंग्रेजी राज के लिए सचमुच मुश्किल बढ़ जाएगी । इसी वजह से अंग्रेज अधिकारियों ने सिखों को खतरे के बतौर पेश किया और उनके तत्काल दमन की भारी जरूरत बतायी ।

इसलिए भारतीय लोगों के बहिष्करण के अमेरिकी अभियान को चीनी और जापानी समुदाय के प्रति व्यवहार की नकल ही नहीं समझना होगा । इसके स्रोत तत्कालीन औपनिवेशिक विमर्श तक भी सीमित नहीं हैं । असल में हिंदू खतरे का नस्लीकरण एक ओर अमेरिका के एशिया और क्रांति विरोध तथा दूसरी ओर अंग्रेजी राज के विरुद्ध भारत के स्वाधीनता आंदोलन के अंतर्राष्ट्रीय पहलुओं को काबू करने के लिए हुआ था । अमेरिका में सिख समुदाय की उपनिवेशवाद विरोधी इस गोलबंदी को रोकने के लिए अंग्रेजों ने विदेश में उनकी निगरानी और दमन का समर्थन किया था । उन्होंने अमेरिका में भारतीय लोगों की धोखेबाज, धूर्त और चालाक आंदोलनकारी छवि निर्मित करने में मदद की जिनसे अमेरिका और इंग्लैंड की समाजार्थिक और राजनीतिक स्थिरता को गम्भीर खतरा था । इससे अमेरिका में भारतीयों के बहिष्करण के साथ ही भारत के अंग्रेजी राज को भी सुरक्षित रखने में सहायता मिली । इस कारण भी दोनों साम्राज्यवादी एक साथ रहे ।

अमेरिका की केंद्र सरकार के क्रांति विरोध में भारत के उपनिवेशवाद विरोधियों की इस भूमिका के बावजूद प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर लाल खतरे के दौर तक क्रांतिकारिता और दमन के इतिहास में उनका जिक्र न के बराबर मिलता है । इस पूरी परिघटना ने अमेरिका में निगरानी, राजनीतिक दमन और आप्रवासी से नफ़रत के लिए बहाना मुहैया कराया । अमेरिकी शासन ने भारत के उपनिवेश विरोध का हौआ खड़ा करके आप्रवासियों पर रोक और राजनीतिक क्रांतिकारियों के दमन का माहौल बनाया । नौकरशाही, न्यायपालिका शासन, और संसद ने मिलकर भारत के उपनिवेशवाद विरोध के खतरे को नस्ली रंग दिया, क्रांति और एशियाई विरोधी कानून पारित किये, विदेशी खतरों और प्रभावों से रक्षा के नाम पर राष्ट्रीय सरहदों का नस्लीकरण किया तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के बहाने गोरे प्रभुत्व को स्थापित किया ।

Tuesday, January 14, 2025

रिचर्ड वोल्फ़ के मुताबिक पूंजीवाद क्या है

 

2024 में डेमोक्रेसी ऐट वर्क से रिचर्ड डी वोल्फ़ की किताब ‘अंडरस्टैंडिंग कैपिटलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । इसका संपादन जेसन टी बटलर और जेनिसा मुनरो ने किया है । लेखक का कहना है कि जबसे पूंजीवाद आया है तबसे ही उसके स्वरूप के बारे में लोगों के बीच मतभेद भी रहा है । इसके समर्थक और विरोधी तो रहे ही हैं  इसकी कार्यपद्धति के बारे में उत्सुकों की संख्या भी कम नहीं है । उसकी परिभाषा के अनुरूप ही उसके बारे में लोगों के भाव भी होते हैं । इसीलिए सबसे पहले उन्होंने इस किताब के लिखने की वजह बतायी है । बहुत सारे लोग यह तो मानने लगे हैं कि पूंजीवाद से समस्याओं का छुटकारा सम्भव नहीं है लेकिन बुनियादी आर्थिक धारणाओं की उनकी समझ पक्की नहीं होती । पूंजीवाद की समस्याओं की वजह समझने और तरह तरह के समाधानों का मूल्यांकन करने के लिए इन धारणाओं की समझ बहुत जरूरी है । दुर्भाग्य से सारी दुनिया में अर्थशास्त्र की जानकारी कम है । पाठ्यक्रम, नेता और मीडिया इस मामले में मदद करने की जगह उलझन पैदा करते हैं । इसलिए किताब की शुरुआत बुनियादी परिभाषा से हुई है जिसका उपयोग इसे समझने के मकसद से किया गया है । इसी क्रम में विरोधी मान्यताओं का भी विश्लेषण किया गया है । अपने पांच सौ साल के जीवन में पूंजीवाद सचमुच वैश्विक व्यवस्था बन चुका है । कुछ लोग इसका उत्सव मनाते हैं तो अधिकतर लोग इसकी आलोचना करते हैं । ऐसा ही दास प्रथा, सामंतवाद या अन्य आर्थिक व्यवस्थाओं के साथ भी था । सभी व्यवस्थाओं के तहत सोचने विचारने वालों को लगा कि उस व्यवस्था को ठीक से समझने के लिए उसके समर्थकों के साथ आलोचकों की राय पर भी ध्यान देना होगा । अगर एक ही पक्ष की बात सुनेंगे तो समझदार की जगह प्रचारक बनेंगे । इसलिए किताब में पूंजीवाद की जयकार की जगह उसकी आलोचना को प्रमुखता दी गयी है । इस आलोचना को अक्सर उपेक्षा, तिरस्कार या प्रतिबंध का सामना करना पड़ता है । लेखक ने निष्पक्ष होने से इनकार भी किया है । अधिकांश नेता, पत्रकार और शिक्षक पूंजीवाद के समर्थक हैं लेकिन लेखक उसके आलोचकों में गिने जाते हैं । इसका कारण लेखक ने कुछ लोगों के लाभ के लिए अधिकतर लोगों को खटाने के इसके नग्न यथार्थ का गवाह होना बताया है । उनको मनुष्य की बेहतरी की उम्मीद है । सही बात है कि इस समय युद्ध, जलवायु परिवर्तन, आर्थिक विषमता, प्रवास और जन असंतोष जैसे संकट हैं और विफलता बहुमुखी है लेकिन हमारे समय की अर्थव्यवस्था यानी पूंजीवाद की समझ से कुछ हद तक इन संकटों से पार पाया जा सकता है ।

इस समय पूंजीवाद मुसीबत में है । इस मुसीबत की जड़ उसकी व्यवस्था में मौजूद है । इस व्यवस्था के बारे में बहुत मतभेद हैं । इसे समझने के लिए बुनियादी धारणाओं और विचारों की समझ जरूरी है । यह काम शुरुआती अध्यायों में किया गया है । उसके बाद ही इनके सहारे पूंजीवादी व्यवस्था का विश्लेषण किया गया है । संदर्भ उसकी वर्तमान मुसीबतों का खास तौर पर लिया गया है । शुरुआती अध्याय कुछ कठिन हैं । किसी भी विश्लेषण की शुरुआत कठिन होती ही है । इसके बाद पूंजीवाद के वर्तमान मुद्दों को किताब में अधिक जगह दी गयी है । पूंजीवाद की गलती और कमजोरी का उल्लेख करने से लेखक ने परहेज नहीं किया है क्योंकि ये उसकी मुसीबतों का  स्रोत बने हुए हैं । आलोचना के साथ ही समाधान प्रस्तुत करने की किम्मेदारी भी लेखक ने निभायी है । इसके तहत व्यवस्था में सुधार से लेकर वैकल्पिक नयी व्यवस्था में संक्रमण तक का रास्ता सुझाया गया है ।

सत्रहवीं सदी में इंग्लैंड में इसका जन्म हुआ और तबसे वर्तमान वैश्विक प्रसार तक पूंजीवाद विभिन्न देशों, संस्कृतियों और अर्थतंत्रों के सम्पर्क में आया जिसके चलते इसकी अलग अलग समझ बनी । बुनियादी धारणाओं तक के अर्थ तरह तरह के निकाले गये । बात गलत या सही के मुकाबले उनके अर्थ वैभिन्य की है । पूंजीवाद को परिभाषित करने के मामले में लेखक का कहना है कि मानव समुदाय जिन वस्तुओं और सेवाओं पर निर्भर है उनके उत्पादन हेतु वह खुद को जिस तरह संगठित करता है उसके एक रूप को पूंजीवाद कहा जाता है । परिवार, देश या दुनिया तक प्रत्येक समुदाय इन वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करता है । अलग अलग समयों और स्थानों पर उत्पादन की व्यवस्था अलग अलग होती है । इनका उद्भव, विकास और अंत होता रहा है । कभी उनका भौगोलिक प्रसार होता है तो कभी एक ही समय एक ही जगह एकाधिक व्यवस्थाएं नजर आती हैं ।

इस समय दुनिया के अधिकांश भाग में पूंजीवाद प्रमुख उत्पादन पद्धति है । इसका उद्भव और प्रसार यूरोप में सामतंवाद के पराभव के साथ हुआ । इसी तरह सामंतवाद भी सदियों पहले दास प्रथा के पराभव के साथ हुआ था । इतिहास की इसी गति के कारण पूंजीवाद का भी अंत होगा और उसकी जगह कोई अन्य उत्पादन पद्धति आयेगी । पूंजीवाद को समझने के लिए लेखक को उसके पहले की इन दोनों पद्धतियों को समझना जरूरी लगता है । दास प्रथा के अंतर्गत समाज दास मालिक और दास नामक दो संबद्ध समूहों में संगठित था । उनका बुनियादी रिश्ता यह था कि दास को उसके स्वामी की संपत्ति माना जाता था । काम तो अधिकतर दास करते थे लेकिन उत्पादन, काम और उत्पाद के बारे में फैसला लेने का उनको अधिकार नहीं था । ये सभी फैसले उनके मालिक करते थे । दास का अपने ऊपर भी कोई अधिकार नहीं होता था । सारी उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं का अधिकार मालिक के पास होता था और वही इनका वितरण भी तय करता था । इनका एक हिस्सा बाजार में बेचकर मालिक नये उपकरण और बीज ले आता था ताकि उत्पादन जारी रह सके । एक और हिस्सा दास और उसके परिवार हेतु भोजन के रूप में जाता था । शेष हिस्सा मालिक के पास उसकी आय के रूप में रह जाता था । दास को मिलने वाले हिस्से में कटौती करके ही उसका मालिक अपनी आय में बढ़ोत्तरी कर सकता था इसलिए वह अक्सर दासों की जरूरतों को नजरअंदाज कर देता था । इन्हीं दासों के प्रतिरोध ने दास प्रथा का अंत कर दिया और इस समय बहुत कम ही उत्पादन इस तरह की व्यवस्था में होता है ।

इसके बाद सामंतवाद में उत्पादन के लिए भूदास और जमीन के मालिकों की नयी व्यवस्था बनी । भूदास ही अधिकांश काम करते थे लेकिन सारे जरूरी फैसले जमीन के मालिक लिया करते थे लेकिन भूदास को जमींदार की संपत्ति नहीं माना जाता था । इन दोनों के बीच का रिश्ता धार्मिक किस्म की सामाजिक व्यवस्था का होता था । जमींदार किसी प्रभु की तरह जमीन का मालिक होता था, उसे भूदासों के बीच वितरित करता था और उनकी रक्षा करता था ताकि वे जमीन पर काम करते रहें । भूदास प्रभु की आज्ञा का पालन करते और जमीन की उपज का एक हिस्सा प्रभु को अर्पित करते थे । शेष को वे अपने और परिवार के पालन पोषण हेतु प्रसाद की तरह ग्रहण करते थे । दास प्रथा की तरह ही समर्पित उपज का प्रभु अपनी मर्जी से उपभोग करता था । इसका विक्रय भी होता था ताकि प्राप्त धन से नये किले बनें या समारोह का आयोजन हो । इसके बाद नये उपकरण भी खरीदने होते थे । इसी धन से चर्च और बादशाह को भी अर्पित करना होता था ताकि वे भी इस व्यवस्था का अबाध समर्थन करते रहें । भूदासों के विरोध से इस व्यवस्था का अवसान हुआ । दासों के मुकाबले वे आजाद तो थे लेकिन तत्कालीन विषमता का उन्होंने जोरदार प्रतिरोध भी किया । इन दोनों का एक साथ होना भी कुछ इलाकों की विशेषता रहा । पूंजीवाद के साथ भी ये दोनों व्यवस्थाएं मौजूद रही हैं । अमेरिका की जेलों में अब भी दास प्रथा संवैधानिक रूप से मौजूद है । इसी तरह कुछ घरों में भी सामंती व्यवस्था की तरह काम होता है । ऐसा हो सकता है लेकिन ऐसा होना अनिवार्य नहीं होता । तो फिर लेखक का सवाल है कि पूंजीवाद आखिर क्या है । उनके अनुसार इसमें नियोक्ता और नियुक्त के बीच विनिमय का समझौता होता है । पगार के लिए नियुक्त श्रमिक अपनी कार्यक्षमता को नियोक्ता के हाथों बेचता है । उपकरण या कच्चे माल जैसे उत्पादन के साधनों पर नियोक्ता का ही अधिकार होता है । किसी वस्तु के उत्पादन हेतु काम का संगठन नियोक्ता ही करता है ।

दास प्रथा और सामंतवाद में श्रमशक्ति की खरीद बिक्री नहीं होती थी । उस समय श्रमशक्ति कोई विक्रेय माल नहीं थी । संसाधनों, उत्पादों और मनुष्यों की खरीद बिक्री का बाजार तो था लेकिन मेहनत करने की क्षमता को कामगार किसी दूसरे को नहीं बेचता था । श्रमशक्ति की बिक्री ही वह खास बात है जो अन्य व्यवस्थाओं से पूंजीवाद को अलगाती है । नियोक्ता और नियुक्त के बीच विनिमय के समझौते में नियुक्त की मेहनत के उत्पाद पर नियोक्ता का तुरंत ही कब्जा हो जाता है । आधुनिक पूंजीवाद में उत्पाद के वितरण का प्रधान जरिया बाजार है । श्रमशक्ति की खरीद बिक्री के साथ ही अधिकांश नियोक्ता संसाधनों और उत्पादों की भी खरीद बिक्री करते हैं । नियुक्त कामगार अपनी पगार से भुगतान करके अपनी श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन हेतु आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं को खरीदता है । नियुक्त कामगार अपने ही श्रम से उत्पादित वस्तुओं का उपभोग करता है । इस पूरी प्रक्रिया में नियोक्ता महज मध्यस्थ होता है लेकिन पूंजीवाद में सभी फैसले वही लेता है ।

इस समझौते के कारण पूंजीवाद शेष व्यवस्थाओं से अलग तो होता है लेकिन दास प्रथा और सामतवाद की कुछ खूबियां इसमें भी होती हैं । उदाहरण के लिए उत्पादन, तकनीक और मुनाफ़े के मामले में फैसले लेने का अधिकार इसमें भी मुट्ठी भर मालिकों के ही हाथ में होता है । बहुसंख्यक कामगारों को इन फैसलों की प्रक्रिया से बाहर रखा जाता है । इसके बावजूद कामगारों को ही उन फैसलों के नतीजे भुगतने पड़ते हैं । कार्यस्थल पर प्राधिकार की यह अद्भुत विषमता उसे दास प्रथा और सामंतवाद के साथ जोड़ती है ।

इसके बाद लेखक ने वर्ग को परिभाषित करने की कोशिश की है । उनके मुताबिक बहुतेरे लोग इस मामले में सत्ता और संपत्ति का ध्यान रखते हैं । उनके अनुसार समाज में विभिन्न समूहों को शेष समूहों के मुकाबले अधिक शक्ति प्रदान की गयी है । कुछ लोगों को दूसरों को आदेशित करने का अधिकार हासिल होता है । वे आदेश देने वाले होते हैं, लेने वाले नहीं । इसके मुकाबले जो आदेश लेने वाले होते हैं उनके पास प्राधिकार नहीं होता । आदेश देने वाले शक्तिशाली शासक वर्ग के होते हैं जबकि अन्य शक्तिहीन शासित वर्ग के । इनके बीच मध्य वर्ग होता है जिसके पास थोड़ी शक्ति होती है लेकिन शासक वर्ग से कम होती है । इसी तरह संपत्ति के बंटवारे के अनुसार भी वर्ग को परिभाषित किया जाता है । उदाहरण के लिए अमीर लोग ऊपरी वर्ग के होते हैं जबकि गरीब निचले वर्ग के । इनके बीच वाले मध्य वर्ग के कहलाते हैं । सैकड़ों साल तक वर्गों को इसी अर्थ में समझा जाता रहा । सामाजिक समस्याओं की वजह भी वर्ग विभेद बताया जाता रहा । लोकतंत्र के समर्थकों का मानना है कि उसकी स्थिरता मध्य वर्ग के विस्तार पर निर्भर है क्योंकि उनमें सत्ता और संपत्ति की कुछ समानता होती है । सबके लिए बेहतर समाज बनाने का रास्ता भी वर्ग विभेद को खत्म करने का ही सुझाया गया । इस दिशा में सफलता आंशिक और अस्थायी ही रही है । पूरी दुनिया में सत्ता और संपत्ति के मामले में वर्ग विभेद व्याप्त है । इस पर विजय पाना अनेक कोशिशों के बावजूद आज तक सम्भव नहीं हो सका है । मार्क्स ने वर्ग को पूंजीवादी व्यवस्था में नये तरह से विभाजित किया और उन्हें उत्पादन की प्रक्रिया में नियोक्ता और नियुक्त की तरह व्याख्यायित किया । सत्ता और संपत्ति के मुकाबले उत्पादन की प्रक्रिया में व्यक्ति की हैसियत को उन्होंने उसके वर्ग का निर्धारक माना । वर्ग को समझने का उनका यह नया रुख उनके जीवन में ही लोकप्रिय हो गया और 1883 में उनके देहांत के बाद तो और भी अधिक मशहूर हुआ । मार्क्सवाद सामाजिक चिंतन की विश्व परम्परा का अभिन्न अंग हो गया । किताब में वर्ग की इसी मार्क्सी धारणा का इस्तेमाल किया गया है क्योंकि उसके आधार पर पूंजीवाद को गहराई से समझा जा सकता है ।

नियोक्ता वर्ग की संख्या बहुत कम है । अमेरिकी वयस्क आबादी में उनका अनुपात 1 से 3 प्रतिशत तक अनुमानित है । इसके मुकाबले नियुक्त लोगों की संख्या आबादी का आधा है । अधिकांश अमेरिकी नियुक्त कामगार हैं फिर भी उत्पादन और उत्पाद के मामले में सभी फैसले मुट्ठी भर नियोक्ता ही लेते हैं । ये कामगार अपनी कार्यक्षमता किसी को भी बेचने के लिए आजाद हैं और नियोक्ता इसे खरीदने या न खरीदने के लिए आजाद हैं । लेकिन उत्पादन की प्रक्रिया और उत्पाद के बारे में फैसला लेने के मामले में दोनों के बीच कोई साझा नहीं है । इस पर नियोक्ताओं का ही इजारा रहता है । पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में एक वर्ग के पास सारी शक्ति होती है जो दूसरे वर्ग से छीन ली गयी होती है । उनकी इन शक्तियों का स्रोत उत्पादन की प्रक्रिया में उनकी हैसियत पर ही निर्भर होती है । इस यथार्थ का लोकतांत्रिक शासन से सीधा विरोध होता है । लोकतंत्र में एक व्यक्ति-एक मत का अर्थ राजनीतिक शक्ति का समान बंटवारा है लेकिन पूंजीवाद में शक्तियों का असमान विभाजन अंतर्निहित होता है । मार्क्स के इस वर्ग विश्लेषण को अन्य उत्पादन पद्धतियों पर भी लागू किया जा सकता है । दास प्रथा और सामंतवाद में मालिकों के हाथ में अकूत संपदा और शक्ति केंद्रित थी । इन व्यवस्थाओं के आलोचक इस विषमता पर ही ध्यान देते थे । मार्क्स ने इस विषमता के स्रोत उन उत्पादन पद्धतियों में तलाशे ।

गुलामों और भूदासों ने इन व्यवस्थाओं से आजादी की मांग की और पूंजीवाद को मुक्त समाज के बतौर अपनाया । कामगार सचमुच आजाद थे और उन्होंने पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था को अपनी इच्छा से स्वीकार किया । पिछली व्यवस्थाओं से यह कुछ बेहतर तो थी लेकिन इसमें भी नियुक्त कामगार मेहनत करके जिस संपत्ति का उत्पादन करते उस पर नियोक्ता कब्जा करके व्यवस्था को कायम रखने के लिए उसका वितरण करते हैं । इस तरह मार्क्स वर्ग विश्लेषण के आधार पर इन तीनों व्यवस्थाओं के साझा तत्व को देख पाते हैं और इस आधार पर इसमें बदलाव की जरूरत को रेखांकित करते हैं । उनके अनुसार मुट्ठी भर लोगों का विशाल बहुसंख्या पर ऐसा नियंत्रण समाप्त होना ही चाहिए । पूंजीवाद के प्रवक्ताओं का वादा था कि वे दास प्रथा और सामंतवाद में मौजूद संपत्ति और शक्ति की विषमता को दूर करेंगे । इसीलिए स्वंत्रता, समानता और लोकतंत्र को उन्होंने अपना ध्येय घोषित किया । मार्क्स ने कहा कि पूंजीवाद ने अपना वादा नहीं निभाया और नये तरह की दासता थोप दी । पूंजीवाद के ही वादे को पूरा करने के लिए नियोक्ता और नियुक्त के इस संबंध के पार जाना होगा और ऐसी उत्पादन पद्धति कायम करनी होगी जिसमें उत्पादन प्रक्रिया के दौरान लोगों को शक्ति संपन्न और शक्तिहीन, अमीर और गरीब में न बांटा जाय । उनके मुताबिक कार्यस्थल का पूंजीवादी ढांचा पूंजीवाद के ही आदर्शों को अमल में लाने में बाधा साबित होता है । मार्क्स का कहना था कि इन सभी व्यवस्थाओं में कामगार अधिशेष का उत्पादन करते हैं । अधिशेष वह राशि है जो उत्पादक के अपने जीवन हेतु आवश्यक उपभोग और उत्पादन के प्रयुक्त साधनों को बदलने के बाद भी बची रहती है । इस अधिशेष का उत्पादन कामगार अपने उपभोग के लिए नहीं, दूसरों के लिए करते हैं इसलिए मार्क्स ने कामगार को शोषित माना है । पूंजीवाद के प्रगतिशील आलोचक शोषण को पूंजीवाद का बुनियादी अन्याय मानकर उसका विरोध किया । शोषण की इस धारणा के साथ ही यह सवाल उठता है कि शोषणहीन उत्पादन व्यवस्था कैसी होगी । लेखक ने इसका उत्तर मजदूरों की सहकारिता में दिया है ।  

उनके इस आदर्श कार्यस्थल पर सभी भागीदारों के बीच का रिश्ता लोकतांत्रिक होगा । उत्पादन और वितरण के मामले में फैसला लेते समय प्रत्येक कामगार की राय का वजन बराबर होगा । सहकारिता द्वारा उत्पादित अधिशेष पर तत्काल किसी और का कब्जा नहीं होगा । स्वतंत्रता, समता और लोकतंत्र का सपना शोषक अर्थव्यवस्थाओं में साकार नहीं हो सका था । पूंजीवाद ने इसे पूरा करने का वादा किया था लेकिन विफल रहा । मार्क्स ने बताया कि पूंजीवाद भी क्यों शोषक व्यवस्था ही बना । अच्छी बात यह कि भविष्य का कर्तव्य पता है । जिस तरह हमारे पूर्वजों ने दास प्रथा और सामंतवाद से आगे की राह पायी उसी तरह हमें भी पूंजीवाद के पार जाना होगा । इसके लिए कार्यस्थल पर कामगार के जीवन में भी लोकतंत्र उतारना होगा ।

Sunday, January 12, 2025

कविता, विचारधारा, साहित्य आदि के सवाल

 

           

 

1. कविता कई तरह से परिभाषित, व्याख्यायित की गई है. आप की दृष्टि से आज कविता की पहचान क्या है ?

 

त्तर- इस सवाल का सर्वोत्तम जवाब आचार्य शुक्ल ने बहुत पहले ‘कविता क्या है’ में दिया था और उसमें बदलाव की कोई जरूरत महसूस नहीं होती । उनके अनुसार कविता शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक संबंधों की रक्षा और निर्वाह का साधन है । आज तो उनकी इस परिभाषा का महत्व और भी बढ़ गया है जब शेष सृष्टि में शामिल मानव समाज, अन्य प्राणी और प्रकृति के साथ व्यक्ति के रिश्तों में टूटन बढ़ती जा रही है । सामाजिक ताने बाने को जातिभेद के जहर ने पहले ही बहुत ढीला कर रखा था अब उसमें धार्मिक वैमनस्य का घोल भी डाला जा रहा है । साहित्य के लिहाज से खतरनाक बात यह है कि उस उर्दू को धार्मिक पहचान के साथ जोड़ा जा रहा है जिसका जन्म ही भारत में हुआ था और जो इस महाद्वीप के बाहर कहीं और बोली भी नहीं जाती । वर्तमान मुस्लिम विरोध का जातिगत पहलू यह है कि हमारे देश के बहुसंख्यक मुस्लिम वे हैं जो हिंदू समुदाय की निम्न जातियों से धर्मांतरित हुए थे । इस तरह जातिगत भेदभाव का विस्तार धार्मिक वैमनस्य तक हो गया है । इसके अलावे अन्य प्राणियों का संहार बड़े पैमाने पर हो रहा है क्योंकि उनके वासस्थान पर मनुष्यों का कब्जा होता जा रहा है । प्रकृति के साथ हमारे हिंसक व्यवहार ने धरती के अस्तित्व लिए ही संकट पैदा कर दिया है । ये सभी संकट आधुनिक पूंजीवादी जीवन पद्धति के अनिवार्य परिणाम हैं ।   

 

2. कविता का दायित्व और जीवन पर इसके असर को आप किस रूप में देखते हैं ?

 

उत्तर- कविता का दायित्व मनुष्य के इस अकेलेपन से उसे उबारने में सहायता करना है । यह काम वह मनुष्य की संवेदना में विस्तार करके करती है । इसे ही मुक्तिबोध ने आत्मविस्तार कहा था क्योंकि मनुष्य का जीवन सबके जीवन पर निर्भर है । जिस पूंजीवादी जीवन पद्धति ने हमारे समाज को ग्रस लिया है उसने मनुष्यों के भीतर भी जाति, नस्ल, लिंग और क्षमता के आधार पर भेद पैदा किये हैं । लोभ और उपभोग की इस विजययात्रा ने नये नये हाशियों को जन्म दिया और उनके प्रति समस्त समाज को संवेदनहीन बनाया है । इस व्यवस्था की रक्षा के लिए औपचारिक लोकतंत्र भी बाधा बन गया है । इसके मानवभक्षी रुख का सबूत इससे अधिक क्या होगा कि प्रतिदिन कोई न कोई पूंजीशाह काम के घंटे बढ़ाने की वकालत करते हुए बयान देता है और शासन तथा सत्ता इससे संबंधित कानूनों को समाप्त करने का आश्वासन देती है ।         

 

3. कविता के निकष को लेकर आपके क्या विचार हैं ?

 

उत्तर- इस मानवभक्षी माहौल के शिकार लोगों के पक्ष में खड़ा होना ही कविता की सार्थकता की सबसे बड़ी कसौटी है । इस सदी की शुरुआत आशा के साथ हुई थी । लगा था कि अब दुनिया का दो ध्रुवों में विभाजन समाप्त हो जाएगा । इससे युद्ध का माहौल हमेशा के लिए दफ़न हो जाएगा । हथियारों की होड़ में संसाधनों की बरबादी बंद होने से मनुष्यता के लिए संसाधनों का प्राचुर्य होगा । तकनीक ने जितने बड़े पैमाने पर लोगों को आपस में जोड़ा उससे सबके पास तक सुविधाओं और सेवाओं की उपलब्धता की उम्मीद पैदा हुई थी । दुर्भाग्य से आज की दुनिया में देशों के बीच और उनके भीतर विषमता बढ़ी है । जिस तकनीक को समाज को जोड़ना था उसने व्यक्ति को और भी अकेला बनाया है । संसाधनों पर चंद अमीरों की पकड़ मजबूत हुई है । राजसत्ता न केवल पूंजी के इस आधिपत्य का पक्ष ले रही है बल्कि बहुतेरे शासक भी पूंजीशाह हैं । कमजोर मनुष्य और अधिक असहाय हुआ है । इसी कमजोर मनुष्य के पक्ष में खड़ा होकर तंत्र को ललकारने वाली कविता इस समय प्रासंगिक रह सकती है । एकायामी आर्थिक मनुष्य पूंजी के लोभ को संतुष्ट करने के लिहाज से तो लाभदायक हो सकता है लेकिन शुक्ल जी की जिस धारणा की हमने ऊपर चर्चा की उसका एक पक्ष यह भी है कि मनुष्य के भीतर केवल आर्थिक हित प्रधान होने से वह एकायामी हो जाएगा । कविता का काम उसके समग्र व्यक्तित्व की रक्षा है जो लोभ के अतिरिक्त त्याग और ममता तथा दया जैसी प्रवृत्तियों की भी प्रतिष्ठा करने से ही हो सकती है । इन गुणों से ही मनुष्य एक सामाजिक प्राणी के रूप में बना रह सकता है । यदि सभी मनुष्य स्वार्थी हो जाएंगे तो सामाजिक सहकार का वह रास्ता ही बंद हो जाएगा जो धरती पर मनुष्य के जीवन की रक्षा हेतु परमावश्यक है । इसके विपरीत वातावरण यह बनाया जा रहा है कि सामाजिक बराबरी के मुकाबले विषमता आधारित आर्थिक उन्नति ही देश की उन्नति है ।            

 

4. कविता की आयु किन बातों पर निर्भर करती है ?

 

उत्तर- कविता अपने समय की पहचान कराकर ही दीर्घजीवी हो सकती है । इसके भीतर मनुष्य विरोधी तंत्र और उससे लाभ लेने वाली ताकतों की पहचान कराना भी शामिल है । इसी मानव विरोधी संकीर्णता ने दूसरे देश के मनुष्यों को शत्रु के रूप में खड़ा किया है । देशों को भी उसने धार्मिक पहचान के साथ जोड़ा है । जिस पाश्चात्य उपनिवेशवाद से लड़कर हमारे देश ने स्वाधीनता अर्जित की उसकी ही नजर में आना देश की प्रतिष्ठा के रूप में पेश किया जा रहा है । कविता यह काम अपने तरीके से करती है । वह मनुष्य की चिरजीवी एकता और उसके कष्ट का हरण सामाजिक दायित्व के बतौर पेश करती है । प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य सुंदर की सृष्टि करके असुंदर का मुकाबला करता है । जीवन की टूटी हुई लय को हासिल करने की इच्छा पैदा करने के लिए लयदार वातावरण का निर्माण आवश्यक है । समाज में मौजूद असंतुलन का मुकाबला संतुलन के सपने और आदर्श की रचना से ही हो सकता है ।        

 

5. कविता में कला किस हद तक उपयोगी है ?

 

उत्तर- आचार्य शुक्ल ने काव्य को कला से भिन्न और उसका समतुल्य माना था । शमशेर जी का कहना था कि समस्त कला राजनीति है । इन दोनों वक्तव्यों से सिद्ध है कि कला के बारे में कोई सर्वमान्य धारणा नहीं है । कला का जो सामान्य अर्थ है उस माने में कविता में कला का उपयोग होता है । इससे उसकी गुणवत्ता में वृद्धि होती है । यदि रसों की बात की जाय तो वीभत्स भी रस होता है । सभी जानते हैं कि जब प्रेमचंद को घृणा का प्रचारक कहा गया तो उन्होंने साहित्य में घृणा की उपयोगिता बतलाई । संक्षेप में यह कि असुंदर से अरुचि पैदा करके संसार को सुंदर बनाने की चाहत पैदा करने के लिए कला की जरूरत पड़ती ही है । कविता मनुष्य के हृदय को व्यापक तथा संवेदनशील बनाने के लिए समस्त कलात्मक उपादानों का सहारा लेती ही है । कला का जन्म ही समाज में व्याप्त कुरूपता की आलोचना करने के सर्वोत्तम उपायों की खोज से हुआ है । शायद इसीलिए कला ऊपर से तैरती नजर नहीं आती बल्कि कविता के कथ्य में समाई होती है ।

     

6. कविता का नारा बन जाना इसकी उपलब्धि है या कमी ?

 

उत्तर- अगर जनता के कंठ में बस जाना कला की सिद्धि है तो उसका नारा बन जाना बहुत बड़ी उपलब्धि है । हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है या फ़ैज़ के गीत का नारों के बतौर इस्तेमाल इन सभी कविताओं को उनकी तात्कालिकता से मुक्त करके उन्हें विभिन्न स्थितियों के योग्य बनाया । साहित्य का यही धर्म है कि वह सबसे जटिल परिघटना की अभिव्यक्ति हेतु सबसे बेहतरीन शब्दावली मुहैया कराए । नारों का भी यही काम होता है । वे विक्षोभ को ऐसी शाब्दिक अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं कि हालात के मारे मनुष्य को अति दुष्कर कथनीय कह डालने का संतोष हो जाता है । सर्वोत्तम भाषाई रचनात्मकता से युक्त होने के कारण कविता भी बहुधा यह कार्य करती है । लोकतंत्र के पक्ष में अक्सर ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ से बेहतर अभिव्यक्ति नहीं मिल पाती तो इसका इस्तेमाल नारे की तरह होता है । दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों का भी ऐसा उपयोग हुआ है । कविता का जन्म मंत्र के रूप में हुआ तो उस समय उससे शाप का भी काम लिया जाता था । बिना नारा बने भी कविता की उपयोगिता होती है । नारा बन जाने से उसकी गुणवत्ता बढ़ती ही है, कम नहीं होती ।

           

7. कविता - लेखन और मजदूरी के लिए किए जाने वाले श्रम के संबंधों को किस रूप में चिह्नित किया जा सकता है ?

 

उत्तर- लिखने का काम भी एक तरह का श्रम ही है । उसमें शारीरिक से अधिक मानसिक श्रम का निवेश होता है । इसके बावजूद पूंजीवादी व्यवस्था के जो नियम मजदूरी के लिए किये जाने वाले श्रम पर लागू होते हैं वे लेखन पर भी लागू होते हैं । असल में पूंजीवाद के बारे में यह धारणा है कि वह केवल अर्थव्यवस्था है लेकिन यह सत्य नहीं है । वह अर्थव्यवस्था अपने लायक समाज और विचारों का भी निर्माण करती है । इसके कारण ही उसका शोषण प्रत्यक्ष तौर पर नजर नहीं आता । इस व्यवस्था में जो अमूर्तन होता है उसके कारण ही मनुष्यों के बीच संबंधों का स्थान वस्तुओं के बीच का संबंध ले लेता है । मूल्य की अभिव्यक्ति मुद्रा में होने लगती है और वस्तुओं के असली उत्पादक के बतौर मानव श्रम छिप जाता है । कविता के लेखन में भाषा का व्यवहार भी कुछ इसी तरह का होता है और उसमें छिपे अर्थ का उद्घाटन खुद ही जटिल प्रक्रिया का रूप ले लेता है । मानव समाज में कविता की मौजूदगी तबसे ही रही है जबसे मनुष्य ने भाषा का आविष्कार किया है । कह सकते हैं कि किसी भी किस्म का परिश्रम केवल शारीरिक नहीं होता । उस परिश्रम में दिमाग भी अनिवार्य रूप से शामिल रहता है । पूंजीवाद मनुष्य के श्रम के रचनात्मक पहलू से उसे विरत कर देना चाहता है और इसलिए श्रम के साथ सृजन को जोड़ना पूंजीवाद का प्रतिकार भी है ।        

 

8. गैरदलित, गैरआदिवासी रचनाकारों की क्रमशः दलित, आदिवासी जीवन- संस्कृति पर केंद्रित रचनाएं दलित, आदिवासी साहित्य के अंतर्गत रखना विवादास्पद है. यहां आपकी राय क्या है ?

 

उत्तर- यह सही है कि वंचित समुदाय के अनुभव विशेष होते हैं लेकिन यह भी सही बात है कि साहित्य के परकाया प्रवेश भी होता है । दलित, स्त्री और आदिवासी रचनाकारों के साहित्य को मान्यता न देने में संरक्षण के पक्षधर मूल्यों का आग्रह सुनाई देता है । इसलिए उनके पक्ष से अपनी विशेषता का दावा वाजिब ही लगता है । वैसे भी साहित्य कोई पवित्र मंदिर नहीं है जिसमें शूद्रों और स्त्रियों के प्रवेश से पवित्रता भंग हो । इसके साथ एक बात यह भी है कि इन अस्मिताओं के साहित्य ने बहुत समय बाद फिर से साहित्य को समाज के साथ जोड़कर देखने की जरूरत पैदा की है । समस्या यह है भी नहीं असल में इसकी आड़ में प्रगतिशील साहित्य की वैधता को चुनौती देने की कोशिश होती है । खुशी की बात है कि देश के साथ दुनिया के पैमाने पर भी इन अस्मिताओं और वाम के बीच संवाद बढ़ा है । इसके साथ ही दलित और आदिवासी रचनाकारों के भीतर भी इस धारा की गुंजाइश बनी है । उदाहरण के लिए तुलसी राम के लेखन में यह सहकार नजर आता है । समय के साथ ऐसी गुंजाइश बनेगी जिसमें अस्मिता साहित्य के भीतर वर्गीय नजरिया पैदा होगा और वामपंथ भी वर्ग के बारे में यांत्रिक की जगह समावेशी नजरिया बनाएगा । समय बीतने के साथ यह सम्भावना प्रबल होती जा रही है । देश में कारपोरेट फ़ासीवादी तानाशाही के उभार के साथ बढ़ते पुनरुत्थानवाद ने भी ऐसे हालात का निर्माण किया है जिसमें दोनों ओर वैचारिक व्यापकता आयी है । अस्मिता साहित्य के भीतर लोकतंत्र के क्षरण की भी चिंता ने प्रवेश किया है तथा प्रगतिशील लेखन में दमन और सामाजिक बहिष्करण के बहुस्तरीय तंत्र को देखने की समझ परिपक्व हुई है । साहित्य का रिश्ता मनुष्य की चेतना से होता है और चेतना में बदलाव थोड़ा धीरे धीरे होता है ।        

 

9. कोरोना त्रासदी का साहित्य पर क्या असर रहा ?

 

उत्तर- कोरोना ने प्रकृति के साथ मनमानी का नतीजा सबके लिए प्रत्यक्ष कर दिया । तात्कालिक रूप से तो इसका असर नकारात्मक ही रहा । संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए दूरी को सामाजिक दूरी का नाम दिया गया । सभी जानते हैं कि पुस्तकालय बंद रहे, किताबों की उपलब्धता कम हुई और प्रत्यक्ष मेल मुलाकात बंद रही । ऐसे में मनुष्य के सामाजिक व्यवहार पर तमाम तरह के प्रतिबंध थोपे गये । न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में शासन की तानाशाही स्थापित हुई । सार्वजनिक सभा-संगोष्ठियों पर तालाबंदी ने पाठकों की चेतना के उन्नयन का एक अवसर छीन लिया । इसकी भरपाई इंटरनेट आधारित संपर्क से कभी नहीं हो सकती । प्रत्यक्ष प्रमाणन के अभाव ने अफवाहों का बाजार गर्म किया । साहित्य का लेखक आम तौर पर मध्य वर्ग से जुड़ा होता है । उसके सीमित अनुभव से समाज का वह हिस्सा अनुपस्थित हुआ जिसके लिए सामाजिक दूरी बरतने लायक आवास की सुविधा नहीं थी । लगभग तीन साल तक औपचारिक शिक्षा के अवसर न मिलने से विद्यार्थियों का ऐसा वर्ग उभरा जो हमउम्रों की संगत से महरूम रहा था । पत्रिकाओं की छपाई भी स्थगित रही जिससे आभासी अभिव्यक्ति संबंधी दिक्कतों का जन्म हुआ । सुविधा और संसाधन की कमी ने पाठकों को लिखित शब्दों से दूर किया । पाठ्यक्रम में शासकों के लिए असुविधाजनक हिस्सों की कटौती कर दी गयी । हमारे देश में स्कूली पाठ्यक्रम से मेंडलीफ़ की आवर्त सारणी हटा दी गयी । नतीजा निकला कि उच्चतर स्तर पर वे विद्यार्थी पहुंचे जिन्होंने आधार सामग्री देखी भी न थी । सबसे अधिक संसाधन शासन के पास रहे जिसके कारण ऐसी सामग्री का प्रसार हुआ जिसे व्यंग्य से ह्वाट्सएप यूनिवर्सिटी का ज्ञान कहा जाता है । इन सबने उत्तर कोरोना साहित्य के लिए मुश्किलें पैदा कर दी हैं । जिसे उत्तर सत्य का प्रसार कहा जा रहा है वह इस माहौल की ही पैदाइश है । नयी चुनौतियों ने तमाम नये अवसर भी उपलब्ध कराए हैं । साहित्य अब मानव जीवन के बुनियादी सवालों से मुख मोड़कर प्रासंगिक नहीं रह सकता । उसे अपनी चिंताओं में समूची धरती को शामिल करना होगा । समाज में वंचित समूहों के भीतर आकांक्षाओं का जन्म हुआ जिसे पूरा करने का एकमात्र रास्ता उन्हें शिक्षा ही महसूस हुई । इसके कारण पाठकों का नया समूह पैदा हुआ और उसने लेखन को नयी गति दी । प्रत्येक परिवर्तन के समय जैसा होता है वही इस समय भी दिखाई पड़ा कि स्थापित रुचि ने नयी प्रवृत्तियों को सराहने में कंजूसी की ।             

 

10. 21वीं सदी के इन वर्षों की काव्य प्रकृति के बारे में आप क्या सोचते हैं ? क्या कविता की इधर कोई नई पहचान बनी है ?

 

उत्तर- शासन की तानाशाही बढ़ने के साथ ही समाज में असहिष्णुता भी बढ़ी है । स्वयं सहित्य इस रस्साकशी का मैदान बन गया है । न्याय की अवधारणा को बुलडोजर जैसी हिंसक संरचना के साथ जोड़ दिया गया है । बड़ी पूंजी ने प्राथमिक शिक्षा को हथियाया था अब उसकी निगाह उच्च शिक्षा को मुनाफ़े का स्रोत बनाने पर लगी है । पिछली नयी शिक्षा नीति के दस्तावेज में साहित्य शब्द ही नहीं था और प्रबंधन तथा वाणिज्य को ही लाभप्रद शिक्षा माना जाने लगा था । सामाजिकी और मानविकी को हाशिये पर डाल देने के बाद अब साहित्य और संस्कृति के बुनियादी मूल्यों पर व्यवस्थित हमला शुरू हुआ है । मनुष्य के जीवन के बुनियादी सवालों में पर्यावरण और पारिस्थितिकी के साथ वंचित समूहों की दावेदारी भी शामिल हुए हैं । कविता ने नागरिक जीवन में लोकतंत्र और परदुखकातरता की कमी महसूस करके इन्हें कविता में स्थान देना शुरू भी किया है । स्त्री और दलित काव्य ने पितृसत्ता और जातिवाद के महीन रूपों को उजागर करना आरम्भ किया है । इस नये जागरण से पुराने कवि भी प्रभावित हुए हैं । साहित्य की भूमिका वंचित समुदाय से अधिक सुविधा संपन्न समुदाय को संवेदनशील बनाने में निहित है । नयी पीढ़ी के नजरिये में जो अंतर आया है उसके कारण कविता भी बदली है । उसकी भाषा में अन्याय के प्रति आक्रोश से अधिक समझ और हकदारी की झलक आयी है ।       

 

11. रचना के मूल्यांकन - क्रम में आलोचक की दृष्टि क्या रचनाकार के व्यक्तित्व की ओर भी जाती है ? यदि हां, तो यह  व्यक्तित्व किस हद तक मूल्यांकन को प्रभावित करता है ?

 

उत्तर- व्यक्तित्व कोई सतही परिघटना नहीं होता जो सहज ही प्रकट हो । उसकी अभिव्यक्ति लेखक की रचना में होती है । कोई भी आलोचक सभी रचनाकारों को निजी रूप से नहीं जानता । अंतत: उसके सामने भी रचना ही होती है । सभी पाठकों की तरह वह भी पाठक होता है । पाठक के बतौर रचना के प्रभाव का विश्लेषण उसका दायित्व है । वह भी रचनाकार होता है । बस उसकी रचना का क्षेत्र सहानुभूतिपरक मूल्यांकन का होता है । रचनाकार और आलोचक के बीच ऐसी कोई दीवार नहीं होती जो रचनाकार को आलोचक होने से रोके और आलोचक के लेखन को रचनात्मक न होने दे ।     

 

12. विचारधारा और साहित्य के संबंध को लेकर आप क्या कहना चाहेंगे ?

 

उत्तर- विचार विहीन लेखन वदतो व्याघात है । रच/लिखने की प्रेरणा ही यथास्थिति से असंतोष के कारण होती है । कबीर ने बहुत पहले रचनाकार को दुखिया कहा था । वह अपना रुदन दूसरों को सुनाना चाहता है । इसके लिए स्थिति के बारे में अपने बोध में वह सुनने वाले को भागीदार बनाता है । विचार के बिना यह काम सम्भव ही नहीं । बस यह है कि विचार तेल की तरह साहित्य में तैरता नहीं रहता बल्कि रचना में गहरे समा जाता है । इसलिए भी उसकी पहचान करनी पड़ती है ।  

 

13. क्रांतिकारी लेखन वस्तुतः मानवतावादी लेखन है. आपका क्या मत है ?

 

उत्तर- इस अर्थ में अवश्य कि मनुष्य को बंधनमुक्त करना उसका ध्येय होता है ।

 

14. साहित्य अग्रगामी परिवर्तन का वाहक ; नई ऊर्जा, सौंदर्य का एक रूप है, आप इससे कितना सहमत हैं ?

 

उत्तर- असल में उसका जन्म असंतोष से होता है इसलिए वह आकांक्षा की अभिव्यक्ति बन जाता है । यह आकांक्षा समाज के प्रतिनिधि के रूप में लेखक के माध्यम से व्यक्त होती है । पाठकों का संस्कार करके वह ऐसे समूह को जन्म देता है जो नये मूल्यों का सामाजिक आधार और स्रोत बन जाते हैं ।

  

15. क्या रचनाकार को रचना तक ही सीमित रहना चाहिए या उसे सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आंदोलनों का भागीदार भी बनना चाहिए ?

 

उत्तर- वैसे तो उसका प्राथमिक दायित्व रचना ही है लेकिन यदि वह सामाजिक प्राणी के रूप में सार्वजनिक हस्तक्षेप करता है तो और भी अच्छा । इससे सामाजिक ताकतों को बल अवश्य मिलता है । उसकी शाब्दिक अभिव्यक्ति पर्याप्त है । बहुधा इन दोनों भूमिकाओं को एक दूसरे के विपरीत समझा जाता है लेकिन उसकी इन दोनों भूमिकाओं को पूरक मानना सही होगा ।

   

16. रचनाकार के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किस हद तक अपेक्षित है ? भ्रष्टाचारी, लूटवादी,दमनकारी शक्तियों के विरुद्ध रचनाकर्मी को क्या करना चाहिए ?

 

उत्तर- उसे असंतोष की अभिव्यक्ति के लिए उपलब्ध सभी रूपों का उपयोग करना चाहिए । उसे बेखौफ़ आजादी हासिल होनी चाहिए ।

  

17. राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले युद्ध, मानवीय संकट के संदर्भ में कवि, कलाकार की क्या भूमिका हो सकती है ?

 

उत्तर- इस तरह की स्थितियों में रचनाकारों के हस्तक्षेप की लम्बी परम्परा रही है । रचनाकारों ने स्पेन में फ़ासीवाद से लड़ाई में प्राणों की आहुति देने से लेकर सभी तरह की भूमिकाएं निभाई हैं । अभी छतीसगढ़ में लेखन के कारण ही पत्रकार को जान देनी पड़ी । फ़ैज़ ने कहा ही है कि न उनकी रीत नयी है न अपनी रस्म नयी ।