Saturday, January 18, 2025

भारत का स्वाधीनता संग्राम और अमेरिका

 

                     

                                                                 

2014 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से सीमा सोही की किताब ‘इकोज आफ़ म्युटिनी: रेस, सर्विलान्स, ऐंड इंडियन एन्टीकोलोनियलिज्म इन नार्थ अमेरिका’ का प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत 1908 में ही न्यू यार्क में रहने वाले भारतीय पत्रकार संत निहाल सिंह द्वारा अमेरिका के रंगभेद के बुरे प्रभावों को समझने के लिए दक्षिणी प्रांतों की यात्रा और दर्जनों अश्वेतों के साक्षात्कार से होती है । लौटकर पत्रकार ने कलकत्ता के माडर्न रिव्यू में लेख लिखा जिसमें भारत के ब्रिटिश उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष और अश्वेतों के नस्ली न्याय तथा समता की लड़ाई की तुलना की गयी थी । उनका कहना था कि आरम्भ के अश्वेत दास तो थे लेकिन अब बीसवीं सदी में भी उनकी संतानों को गोरों की रंग चेतना जन्य सीमाओं और विषमताओं को बर्दाश्त करना पड़ता है । उन्होंने 1858 की विक्टोरिया की घोषणा और लिंकन की दास प्रथा की समाप्ति की घोषणा की समानता का भी उल्लेख किया था । उनके अनुसार दुनिया भर में नस्लभेद के शिकार लोगों ने समता की मांग के लिए अक्सर दोनों घोषणाओं का उपयोग किया लेकिन अश्वेत मुक्ति या भारत की आजादी हेतु नस्ली भेदभाव और दबदबे के वैश्विक आयामों पर सोचना जरूरी था ।

उनका कहना था कि दोनों मामलों में समान अधिकार सरकारी दस्तावेजों तक सीमित है और तमाम घोषणाओं के बावजूद दासता और हीनता का दुख अश्वेतों को झेलना पड़ता है । औपनिवेशिक भारत और अमेरिका के दक्षिणी प्रांत भौगोलिक रूप से बहुत दूर होने के बावजूद नस्लभेदी अपराध के चलते आपस में जुड़े हुए हैं । इनसे नस्ली भेदभाव, औपनिवेशिक पराधीनता और आर्थिक शोषण की विश्व व्यवस्था बनती है । इसके कारण भारतीय,चीनी, जापानी और अफ़्रीकी सभी बराबरी के लिए लड़ रहे हैं । अमेरिका के नस्ली अल्पसंख्यकों के संघर्ष को समझने के लिए साम्राज्यवाद की व्यापक व्यवस्था को समझना उनको जरूरी लगा जिसके इर्द गिर्द नस्ली ऊंच नीच की व्यवस्था ढली है । दासता के कानूनी खात्मे के बाद नया नस्लभेद विकसित हो रहा था जिसके तहत गोरों का आधिपत्य कायम करने के लिए एशियाइयों का बहिष्करण बेहद जरूरी माना जा रहा था । उनके लेख का मंतव्य था कि अमेरिकी लोकतंत्र और समता, स्वतंत्रता तथा न्याय संबंधी उसका वादा छलावा ही बना रहेगा अगर लोगों को उनकी चमड़ी के रंग के अनुसार गोरे और काले में बांटा जाता रहेगा । उनके समय के उपनिवेशवाद के विरोधी यह भी समझते थे कि नस्लभेद किसी एक देश की समस्या नहीं, इसका वैश्विक आयाम है । निहाल सिंह की तरह ही अमेरिका में जिन भारतीयों ने उपनिवेशवाद के विरोध में बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में व्यापक, नवाचारी और बहुस्तरीय लड़ाई लड़ी वे दुनिया के रंगभेदी विभाजन और पाश्चात्य साम्राज्यवाद और पूंजीवादी विस्तार के बीच का अन्योन्याश्रय समझते थे ।

निहाल सिंह के लेख के प्रकाशन के लगभग छह साल बाद 1914 में अमेरिकी संसद में भारत के उपनिवेशवाद विरोध के खतरों पर बात शुरू हुई । इसका बहाना हिंदू मजदूरों की आमद को सीमित करने के लिए तगड़े प्रतिबंध वाले प्रस्तावित दो कानूनों पर बहस बना । ऊपर से सवाल तो मजदूरों के बीच की आर्थिक होड़ को बनाया गया लेकिन जल्दी ही बहस के दौरान भारतीयों के उपनिवेश विरोध का यह मुद्दा भी उभर आया । समिति के अध्यक्ष ने कहा कि अमेरिका में शरण मांगने वाले अधिकांश भरतीय अराजकतावादी हैं जो सरकार को उखाड़ फेंकने की शिक्षा देते हैं । भारतीयों को भगाने की वकालत करने वाले कैलिफ़ोर्निया के सांसद का कहना था कि भारतीय शरणार्थी अमेरिका को आधार बनाकर क्रांतिकारी राजनीतिक आंदोलन का संचालन करते हैं जिसका असर भारत के साथ अमेरिका पर भी पड़ता है । इन आरोपों के आधार पर अनेक सांसदों ने खतरनाक हिंदू आंदोलनकारियों को देश में न आने देने का समर्थन किया ।

इसके साथ ही प्रशांत तटीय इलाकों के सांसदों और अधिकारियों ने कहा कि ये हिंदू आंदोलनकारी अमेरिका और कनाडा की सीमा का बेजा लाभ उठाते हैं इसलिए सीमा पुलिस की निगरानी और कड़े प्रतिबंध की जरूरत है । इन सुनवाइयों से पता चलता है कि भारत के आप्रवासियों को बाहर रोकने में क्रांति विरोध की विचारधारा ने निर्णायक भूमिका निभायी । सांसदों ने भारतीयों को बाहर रखने का समर्थन करते हुए राजनीतिक क्रांतिकारिता को हद में बांधे रखने की जरूरत पर जोर दिया । दरअसल एशियाई विरोध के साथ ही  क्रांति विरोध का भी विमर्श पैदा हुआ । इसी विमर्श के कारण बीसवीं सदी के आरम्भिक दशकों में आप्रवास संबंधी ढेर सारे प्रतिबंध लगे और राजनीतिक रूप से दमनकारी राज्य भी मजबूत हुआ ।

दसियों साल से संसद की कोशिश आप्रवास नीति के मामले में केंद्र के अधिकार विस्तारित करने की थी लेकिन बीसवीं सदी के पहले दशक में इसके साथ ही राजनीतिक क्रांतिकारिता का दमन भी जुड़ गया । इसका नतीजा आप्रवास के अधिकाधिक कठोर होते कानूनों के रूप में सामने आया । इस बहस में भारतीय लोगों का प्रवेश जब हुआ तब तक उनके प्रवेश को रोकना अंदरूनी जरूरत बन गयी थी । असल में वे ऐसे क्रांतिकारी खतरे के प्रतिनिधि हो चले जो अमेरिकी धरती पर विध्वंसक राजनीतिक आंदोलन चला रहा था । वह विश्वव्यापी उपनिवेशवाद विरोधी विद्रोह का अंग था । इस नाते वह दो ताकतों के बीच वैश्विक टकराव की भयप्रद सम्भावना का भी प्रतिनिधि था जिसमें एक ओर उपनिवेशों पर शासन गोरे लोगों का बोझ समझने वाले लोग थे तो दूसरी ओर उपनिवेशित दुनिया के अश्वेतों की उठती हुई मुक्ति की लहर थी ।

1914 की सुनवाई से भारतीयों के विरुद्ध आप्रवास के कठोर कानून तो पारित नहीं हुए लेकिन तीन साल बाद संसद ने एक व्यापक आप्रवास कानून पारित किया । इसके जरिये विध्वंसक राजनीतिक विचारों और संगठनों से जुड़े आप्रवासियों को उनके मूल देश वापस भेजने का प्रावधान किया गया । उसने लगभग समूचे एशिया को ऐसा प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित किया जहां के कामगारों के अमेरिका में प्रवेश पर रोक थी । इस प्रावधान के आधार पर अमेरिका में भारतीयों को बहिष्कृत किया गया । 1917 के आप्रवास कानून में निहित क्रांति विरोध और एशियाई विरोध आपस में बहुत गहरे जुड़े हुए थे । उस समय क्रांति विरोध का व्यापक वातावरण था जिसके प्रभाव में यह कानून बना था । उस समय तक कनाडा और अमेरिका में ढेर सारे क्रांतिकारी पहुंच चुके थे । उनमें गदर पार्टी के बौद्धिक भी थे जिन्होंने अमेरिका में सबसे बड़ा उपनिवेशवाद विरोधी संगठन बनाया और हथियारबंद विद्रोह के जरिए ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने का आवाहन भी किया । इन लोगों ने आत्म निर्णय हेतु भारतीय संग्राम को दुनिया भर में नस्लभेद और उपनिवेशवाद से पीड़ित जनता द्वारा संचालित नस्ली समानता और राजनीतिक स्वाधीनता के संघर्ष के साथ जोड़ दिया ।

अमेरिकी शासन को लग गया कि भारत के उपनिवेशवाद विरोधी कार्यकर्ता प्रथम विश्वयुद्ध के मुहाने पर अंग्रेजी राज को उलट देने के बहुत करीब हैं और इससे दुनिया भर के उपनिवेशित और नस्ली अल्पसंख्यक जनगण को नस्लभेदी और साम्राज्यी विश्व व्यवस्था के  विरोध में लड़ने का हौसला भी बढ़ेगा । इसके बाद अमेरिकी तंत्र ने अंग्रेजी राज के साथ सहयोग करते हुए उनके साथ जानकारी साझा की, देश वापसी और मुकदमों में तेजी लायी तथा भारतीयों की कड़ी जासूसी शुरू की । इसका नतीजा उलटा निकला । इन कदमों के चलते भारतीयों में उपनिवेशवाद का विरोध और तीखा हुआ । अमेरिका और अंग्रेजी राज के दमन ने भारतीयों में क्रांतिकारी चेतना का विस्तार किया । दमन और क्रांतिकारिता के बीच इस द्वंद्वात्मक रिश्ते की वजह से अमेरिकी भारतीयों में भारत की आजादी का मतलब भारत के राष्ट्रवादियों के मुकाबले अधिक क्रांतिकारी बना । इससे अमेरिकी शासन ने भारत के आप्रवासियों को पूरी तरह बहिष्कृत कर दिया । 

प्रथम विश्वयुद्ध के मुहाने पर और उसके दौरान अमेरिका से लेकर भारत तक उपनिवेशवाद विरोधी प्रतिरोध की वजह से एशियाई विरोध और क्रांति विरोध के अभियान चले । उपनिवेश विरोध के अमेरिकी सरकारी दमन से अमेरिकी राज्य की पहुंच सारी दुनिया में हुई और एशियाई विरोधी नस्लवाद तथा क्रांति विरोध ने मिलकर अमेरिका में राष्ट्रीय सुरक्षा का विमर्श मजबूत किया । इससे फिर न केवल उपनिवेश विरोधी गोलबंदी तथा आप्रवासी बहिष्करण की प्रक्रिया में तेजी आयी बल्कि अंग्रेजी राज के साथ ऐसा साम्राज्यवादी मोर्चा बना जिसके कारण प्रथम विश्वयुद्ध की उथल पुथल से अंग्रेजी राज अप्रभावित तो रहा ही अमेरिका को भी अपना वैश्विक प्रभाव विस्तारित करने में मदद मिली । इसके कारण ही बीसवीं सदी में अमेरिका को सारी दुनिया में अपना दबदबा बनाने का मौका मिला । ब्रिटेन और अमेरिका के आपस में जुड़े इतिहास के बारे में तो बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन इस पहलू पर कम ध्यान दिया गया है कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन के दमन में उनकी साम्राज्यवाद समर्थक साझेदारी ने अमेरिका और ब्रिटेन की राजकीय ताकत को बढ़ाने में मदद की और क्रांति विरोध की लहर को दुनिया भर में परवान चढ़ाया ।

इस दौरान ब्रिटेन और अमेरिकी साम्राज्य के बीच होड़ के साथ सहकार का भी रिश्ता रहा । भारतीय आप्रवासियों पर निगाह रखने के मामले में ब्रिटेन, अमेरिका और कनाडा साथ मिलकर काम करते थे । भारत के उपनिवेशवाद विरोधी स्वाधीनता संग्राम के अंतर्राष्ट्रीय आयाम ने अमेरिका और ब्रिटेन के संयुक्त निगरानी और दमन तंत्र को मजबूत बनाया तथा उनकी निगाह में जो विध्वंसक राजनीतिक आंदोलन थे उनको विश्वयुद्धों के बीच के समय और बाद भी कुचलने का माहौल तैयार किया ।

भारतीयों का बहिष्कार और क्रांति विरोध का अभियान वैश्विक संदर्भों से जुड़ा हुआ था । इस काम में सहयोग देने के नाते अमेरिका का इतिहास विश्व इतिहास से भी संबद्ध हो जाता है । क्रांतिकारी प्रयासों और उनके दमन का इतिहास अधिकतर राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर ही लिखा जाता है इसलिए उपनिवेश विरोध का उनका संयुक्त अभियान छिप जाता है । इसके उलट इस किताब में अमेरिका के इतिहास को उसकी राष्ट्रीय सीमा के भीतर ही न देखकर उसे साम्राज्य की निगाह से देखा गया है । इससे साफ होता है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में अमेरिकी राज्य की शक्ति के विस्तार में नस्लभेद और राजकीय दमन ने केंद्रीय भूमिका निभायी । अंग्रेजी राज के साथ उसकी एकजुटता का एक आधार उनकी आपसी नस्ली निकटता भी थी । इसके बावजूद किताब में दोनों साम्राज्यों की तुलना करने से परहेज किया गया है । इसकी जगह पर इन दोनों साम्राज्यों के सहकार को उजागर किया गया है । दोनों के बीच इस सहकार का मकसद उपनिवेशित जनता को नस्ली हिंसा का शिकार बनाना था । उन्हें अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और एशिया प्रशांत क्षेत्र में प्रभुत्व के लिए जो भी खतरनाक महसूस होता था उसे बहिष्कृत किया जाता था, उसके मूल देश को लौटा दिया जाता था या उनकी कड़ी निगरानी की जाती थी । जब भारत के स्वाधीनता संग्राम सेनानी अमेरिकी राज्य के निशाने पर आये तो दस साल पहले फिलिपीन्स की आजादी की मांग करने वाले क्रांतिकारियों के दमन की पूरी मशीनरी और विचारधारा का रुख भारतीय क्रांतिकारियों के दमन की ओर मोड़ दिया गया । इनके दमन के लिए जो अंतर्राष्ट्रीय जाल बिछाया गया उसके निर्माण के क्रम में अमेरिका और ब्रिटेन की दोनों सरकारों ने मिलकर निगरानी और सूचनाओं के आदान प्रदान की व्यवस्था बनायी थी । जो कोई भी सरकार को चुनौती देता महसूस होता उसको कुचलने के लिए आप्रवास संबंधी कठोर कानूनों को नस्लभेदी बनाया गया ।           

साम्राज्यवाद के इन दोनों केंद्रों के आपसी सहकार को उजागर करने के अतिरिक्त किताब में उपनिवेशवाद विरोध को भी थोड़ा नयी निगाह से देखा गया है । अंग्रेजी राज पर भारतीयों का हमला पश्चिमी उदार लोकतंत्र की सीमाओं की क्रांतिकारी आलोचना के साथ मिल गया । नस्ली न्याय और स्वतंत्रता का उनका दावा पूरी तरह पाखंड साबित हुआ । अमेरिका में रहने वाले भारतीय क्रांतिकारियों के बारे में 1960 और 1970 दशक के संदर्भ में कुछ अध्ययन हुए हैं लेकिन यहां के उपनिवेशवाद विरोधी कार्यकर्ताओं की गतिविधियों को भारत के स्वाधीनता संग्राम का उपांग ही समझा जाता रहा है । इस बात पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जाता कि इसने अमेरिका के भीतर लोकतंत्र विरोधी आचरण को भारी चुनौती दी । अमेरिका में रहने वाले भारतीयों के उपनिवेशवाद विरोध में भारत देश की राष्ट्रीय संप्रभुता के अतिरिक्त भी बहुत कुछ शुरू से शामिल रहा था । चूंकि उनके साथ कनाडा और अमेरिका में नस्ली भेदभाव किया जाता था इसलिए भारतीय आप्रवासी विदेश में नस्लभेद और देश में औपनिवेशिक पराधीनता को जोड़कर देखते थे । इसी वजह से नस्ली बहिष्करण और राजनीतिक दमन की मुखालफ़त को वे उपनिवेशवाद और गोरों की श्रेष्ठता के विरुद्ध व्यापक आंदोलन का अंग मानते थे । उनके लिए पराधीनता के ये दोनों रूप अभिन्न थे ।

प्रथम विश्वयुद्ध में जब अमेरिका ने मित्र राष्ट्रों का साथ दिया तो भारतीयों ने आत्म निर्णय के समर्थन हेतु वुडरो विल्सन की तारीफ की और लोकतंत्र के लिए संघर्षरत भारतीयों के बहिष्कार, गिरफ़्तारी और वापस भेजने की अमेरिकी कार्यवाही की आलोचना की । उन उपनिवेशवाद विरोधियों की नजर में अमेरिकी सरकार की ये बहिष्कारी दमनकारी हरकतें उदार राष्ट्र राज्य की अंतर्निहित सीमाओं की अभिव्यक्ति थीं । जब अमेरिका ने दुनिया को सुरक्षित बनाने और लोकतंत्र का प्रसार करने के बड़े बड़े दावों के साथ इस युद्ध में प्रवेश किया तो भारतीयों के मामले में उसकी ये हरकतें उसके दावों का मुंह चिढ़ाने लगीं । उसका दावा तो शांति स्थापना का था लेकिन व्ह ऐसे स्वाधीनता आंदोलनों का दमन करने में व्यस्त हो गया जिनकी मुक्ति का सपना अमेरिकी दबदबे वाली अंतर्राष्ट्रीय नयी व्यवस्था के मेल में नहीं महसूस होता था ।

बहरहाल प्रथम विश्वयुद्ध में ही वैश्विक वित्त व्यवस्था का केंद्र लंदन से खिसककर न्यू यार्क चला आया और दुनिया पर अमेरिकी प्रभुत्व की शुरुआत हुई । इसी दौरान घटित रूसी क्रांति ने लोगों को यकीन दिला दिया कि पूंजीवादी विश्व व्यवस्था खत्म की जा सकती है या बुनियादी तौर पर बदली जा सकती है । उपनिवेशित दुनिया के शेष आंदोलनकारियों की तरह ही भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों  ने भी अमेरिकी दबदबे वाली विश्व व्यवस्था की आलोचना की और उसमें अपनी दोयम हैसियत का प्रतिवाद भी किया ।

अमेरिका में रहने वाले स्वाधीनता सेनानियों को नस्लभेदी नीतियों और आप्रवास संबंधी बहसों का आपसी रिश्ता समझ आया तथा पश्चिमी साम्राज्यवाद और पूंजीवादी विकास की भूराजनीति स्पष्ट हुई और उन्होंने मुक्ति की वैकल्पिक सोच का विकास किया जिसमें देश की राष्ट्रीय स्वाधीनता ही सब कुछ नहीं था बल्कि इस नस्ली सोच का भी समाधान करना था जो प्रगति और सभ्यता को गोरेपन का समानार्थी मानती थी । उन्होंने माना कि औपनिवेशिक पराधीनता के बोझ से लम्बे समय तक दबे संसार के साथ वास्तविक न्याय और समानता के लिए उस नस्लभेदी विश्व व्यवस्था को उलटना जरूरी है जिसका निर्माण साम्राज्य विस्तार और पूंजीवादी विकास के सहारे हुआ । इस विकास की कीमत एशिया और अफ़्रीका के बड़े हिस्से को ही चुकानी पड़ी थी । अमेरिका निवासी भरतीय स्वाधीनता सेनानियों और उनके संगठनों में मतैक्य न होने के बावजूद वे इस बात पर सहमत थे कि आजाद भारत पश्चिमी श्रेष्ठता और नस्लभेदी सिद्धांतों के लिए वास्तविक चुनौती साबित होगा ।                                                                                      

भारत के अमेरिकावासी स्वाधीनता सेनानियों ने उदारवाद की नस्लभेदी बुनिया को समझ लिया था इसलिए आजादी के बाद बनने वाले आधुनिक भारत के बारे में उनके बीच बहसें थीं । वे पश्चिमी लोकतंत्र की शोषक, साम्राज्यवादी और विभेदक विशेषताओं से मुक्त करके ही पश्चिमी आधुनिकता को अपनाने के पक्ष में थे । उन्होंने पश्चिम की उदार और मानवतावादी परम्परा के सार्वभौमिक मूल्यों को अपनाया तो लेकिन अनालोचनात्मक तरीके से नहीं । उन्होंने राजनीतिक आधुनिकता की जरूरत को मानते हुए भी उसकी कमियों को रेखांकित किया । स्वतंत्रता और समानता जैसे उसके मूल्यों की तारीफ की लेकिन उसके साथ जुड़े नस्लभेद को खारिज किया । इन चिंतकों ने बोला और लिखा कि उपनिवेशित देशों की जनता को किस तरह तुच्छ, पिछड़ा और असभ्य कहकर उनको आजादी के लिए अयोग्य घोषित किया जाता रहा । उन्होंने पश्चिमी लोकतंत्र की कमियों को उजागर करते हुए अमेरिका और ब्रिटेन की हदों के बाहर मुक्ति की वैकल्पिक सम्भावनाओं की तलाश भी की ।

इन अमेरिकावासी स्वतंत्रता सेनानियों ने ऐसी राजनीतिक संरचनाओं के निर्माण की वकालत की जो पश्चिमी संस्थाओं की नकल मात्र न हों । इस तरह उन्होंने आधुनिकता की एक विद्रोही धारणा खड़ी की जो ऐतिहासिक प्रगति की नस्लभेदी धारणा के विरुद्ध थी और उसके पार जाती थी । इसने पश्चिमी दबदबे की अपरिहार्यता को चुनौती दी । उन्होंने मौजूदा विश्व व्यवस्था के ही तहत आजाद भारत की कल्पना नहीं की बल्कि तत्कालीन विश्व व्यवस्था की मुखालफ़त की । इसका उदाहरण लाजपत राय के विचार हैं जिन्होंने नस्ली भेदभाव के आधार पर आपस में संबद्ध उदारवाद और साम्राज्यवाद के मेल को पहचाना था । उदारवाद को वे पूंजीवादी साम्राज्यवाद का पाखंडी मुखौटा कहते थे । उनका मानना था कि पश्चिमी साम्राज्यवादी लोकतंत्र उपनिवेशित देशों की पराधीनता और शोषण पर अवलम्बित है इसलिए न्याय और समता की स्थापना उससे नहीं हो सकती । उदारवाद तो समाजार्थिक न्याय हेतु खतरनाक साम्राज्य और पूंजी के विस्तार का औजार ही बन चुका है । इसी वजह से पश्चिमी उदार लोकतंत्र की नकल करने की जगह उसे रूपांतरित करना होगा ।

भारतीयों के इस बहिष्करण का तर्क यह दिया गया कि इससे पहले आये चीनी और जापानी आप्रवासी मजदूरों की तरह ये कामगार भी सस्ती मजदूरी पर काम करने को तैयार रहते हैं । इसके कारण अमेरिका के स्थानीय कामगारों की पगार भी कम हो जाती है और अमेरिका की सामान्य जीवन शैली में गिरावट आती है । लेकिन भारतीय कामगार महज आर्थिक होड़ के कारण ही बदनाम नहीं किये जा रहे थे । उनको बदनाम और बहिष्करणीय बनाने का अभियान तत्कालीन नस्लभेद के साथ क्रांति विरोध से भी संचालित था ।

उस समय भारत के उपनिवेशवाद विरोधियों को हिंदू खतरे के बतौर पेश किया जा रहा था । इस नामकरण का मतलब बाहरी तत्व होता था । इस बाहरी खतरे को बाहर ही रोके रखने की वकालत की जाती थी । असल में उस समय भारतीयों को हिंदू ही कहा जाता था जबकि सच यह था कि आप्रवासियों में बहुसंख्या सिख समुदाय के लोगों की थी । इस अभियान की शुरुआत जरूर सस्ती मजदूरी और अलग पहचान के आग्रह से हुई लेकिन बाद में यह बाहर से आने वाले क्रांतिकारी आंदोलनात्मक खतरे को दूर रखने के मकसद से जुड़ गया । 1905 में इंडस्ट्रियल वर्कर्स आफ़ द वर्ल्ड के गठन और 1917 की रूसी क्रांति ने अमेरिकी शासन के मन में साम्राज्यवाद विरोधी और पूंजीवाद विरोधी आंदोलन देश और दुनिया में फूट पड़ने की आशंका को बहुत हद तक मजबूत भी कर दिया था । इस आशंका को देश की सुरक्षा से जोड़कर प्रशासन सीमाओं की कड़ी चौकसी, आप्रवास की कठोर नीतियों और क्रांति विरोधी माहौल को बढ़ावा देता था । हिंदू खतरे के सहारे अमेरिकी शासन अपने नागरिकों को परदेशी क्रांतिकारियों से डराता था । देश के भीतर उसे इस डर से लाभ तो मिलता ही था समूची दुनिया में अराजकता का प्रसार रोकने के बहाने उसे अपने प्रभुत्व को विस्तारित करने का मौका भी मिलता था ।

अमेरिकावासी भारतीयों के साथ नस्लभेद को लैंगिक विमर्श से भी काफी मदद मिलती थी । भारत में अंग्रेजी राज को बनाये रखने के उद्देश्य से ब्रिटेन में मर्दवादी विमर्श भी खड़ा किया गया । इसके तहत स्त्रियों और उपनिवेशित लोगों को कमजोर, निष्क्रिय और भावुक कहा जाता था । इसके विपरीत सिख को बहादुर, लड़ाकू और अंग्रेज की तरह कड़क मर्द के रूप में पेश किया गया । सिख समुदाय के भीतर भी अपने धर्म की रक्षा में योद्धा की तरह जूझ पड़ने की कथा सुनायी जाती थी । इसी मिथक के आधार पर अंग्रेजों ने उन्हें सेना और पुलिस में भरती के लिए सबसे योग्य प्रचारित किया । सिख समुदाय की इस मर्दाना छवि का इस्तेमाल अंग्रेजों ने सारी दुनिया में फैले अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए किया । अंग्रेजी शासन ने सिख समुदाय की इस नस्ली छवि का निर्माण किया और दुनिया भर में उनकी तैनाती की ताकि वे साम्राज्य निर्माण और उसकी रक्षा का काम जारी रखें । जो भी सिख अमेरिका गये थे उनमें से आधे ऐसे थे जिन्होंने अंग्रेजी फौज या पुलिस की नौकरी की थी । उन्हें भरोसा था कि अंग्रेजी राज की इन सेवाओं के बदले विदेशों में उनकी इज्जत होगी । इसके विपरीत उन्हें नस्ली भेदभाव और हिंसा का शिकार होना पड़ा । अमेरिकावासी भारत के स्वतंत्रता संग्रामियों ने उनके साथ व्यवहार के इस पहलू पर जोर दिया ताकि भारत में अंग्रेजी राज के विरुद्ध सिख समुदाय को खड़ा किया जा सके । भारत के अंग्रेज अधिकारियों के लिए यह खतरा काफी गम्भीर था इसलिए वे अमेरिकावासी सिखों की जासूसी करने लगे । उन्हें लगता था कि अगर इन सिखों में उपनिवेशवाद विरोधी भाव मजबूत हुए तो भारत में अंग्रेजी राज के लिए सचमुच मुश्किल बढ़ जाएगी । इसी वजह से अंग्रेज अधिकारियों ने सिखों को खतरे के बतौर पेश किया और उनके तत्काल दमन की भारी जरूरत बतायी ।

इसलिए भारतीय लोगों के बहिष्करण के अमेरिकी अभियान को चीनी और जापानी समुदाय के प्रति व्यवहार की नकल ही नहीं समझना होगा । इसके स्रोत तत्कालीन औपनिवेशिक विमर्श तक भी सीमित नहीं हैं । असल में हिंदू खतरे का नस्लीकरण एक ओर अमेरिका के एशिया और क्रांति विरोध तथा दूसरी ओर अंग्रेजी राज के विरुद्ध भारत के स्वाधीनता आंदोलन के अंतर्राष्ट्रीय पहलुओं को काबू करने के लिए हुआ था । अमेरिका में सिख समुदाय की उपनिवेशवाद विरोधी इस गोलबंदी को रोकने के लिए अंग्रेजों ने विदेश में उनकी निगरानी और दमन का समर्थन किया था । उन्होंने अमेरिका में भारतीय लोगों की धोखेबाज, धूर्त और चालाक आंदोलनकारी छवि निर्मित करने में मदद की जिनसे अमेरिका और इंग्लैंड की समाजार्थिक और राजनीतिक स्थिरता को गम्भीर खतरा था । इससे अमेरिका में भारतीयों के बहिष्करण के साथ ही भारत के अंग्रेजी राज को भी सुरक्षित रखने में सहायता मिली । इस कारण भी दोनों साम्राज्यवादी एक साथ रहे ।

अमेरिका की केंद्र सरकार के क्रांति विरोध में भारत के उपनिवेशवाद विरोधियों की इस भूमिका के बावजूद प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर लाल खतरे के दौर तक क्रांतिकारिता और दमन के इतिहास में उनका जिक्र न के बराबर मिलता है । इस पूरी परिघटना ने अमेरिका में निगरानी, राजनीतिक दमन और आप्रवासी से नफ़रत के लिए बहाना मुहैया कराया । अमेरिकी शासन ने भारत के उपनिवेश विरोध का हौआ खड़ा करके आप्रवासियों पर रोक और राजनीतिक क्रांतिकारियों के दमन का माहौल बनाया । नौकरशाही, न्यायपालिका शासन, और संसद ने मिलकर भारत के उपनिवेशवाद विरोध के खतरे को नस्ली रंग दिया, क्रांति और एशियाई विरोधी कानून पारित किये, विदेशी खतरों और प्रभावों से रक्षा के नाम पर राष्ट्रीय सरहदों का नस्लीकरण किया तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के बहाने गोरे प्रभुत्व को स्थापित किया ।

No comments:

Post a Comment