भोजपुरी क्षेत्र की वर्तमान सांस्कृतिक दरिद्र स्थिति को देखते हुए गोरख पाण्डेय के लेखन पर ध्यान देना अपने आपमें महत्व की बात है । इस भाषा के गायक अपनी अश्लीलता के लिए मशहूर हैं । यह हमेशा से नहीं था । स्त्रियों के मुख से पारम्परिक लोकगीतों में व्यक्त खुशी और दुख की अभिव्यक्ति हम सबकी बाल स्मृति के साथ जुड़ी हुई है । इसके अतिरिक्त पुरुषों के मुख से भी बिरहा और चैता
तथा होली सबने सुना है । व्यावसायिकता ने उसकी यह जमीन छीन ली । इस भाषा में आधुनिक काल के लेखकों ने स्वाधीनता आंदोलन की आकांक्षा को भी स्वर दिया । आजादी के बाद भी जनता के हालात की अभिव्यक्ति की परम्परा इस भाषा में बनी रही थी । गोरख पांडे ने इसी जन पक्षधर धारा को खास क्रांतिकारी वाम तेवर दिया । वे मुख्य तौर पर कविता के क्षेत्र में सक्रिय रहे । उनकी कविताओं की जमीन लोक संवेदना और लोक चेतना है । इस नाते उनके लेखन में भोजपुरी के गीत तो हैं ही, शेष हिंदी कविताओं में भी भोजपुरी इस कदर समायी हुई है कि उनका भी जिक्र प्रसंगवश करना होगा । इलाहाबाद के सांस्कृतिक संकुल से 2013 में अवधेश के संपादन में उनकी
भूमिका के साथ गोरख की सम्पूर्ण कविताओं का संग्रह छपा
है । इसमें उनके भोजपुरी गीत भी शामिल हैं । ये एक साथ पृष्ठ संख्या 91 से 114 तक
हैं । इनकी कुल संख्या 14 है । आगे जहां भी जिक्र आयेगा उनके शीर्षक लिख दिये
जाएंगे । इन गीतों के अतिरिक्त एक ‘लोकगीत’ इसी संग्रह के पृष्ठ 33 पर भी है । इसी
प्रसंग में ‘पैसे का
गीत’ (पृष्ठ 132) को भी देखना होगा जो शादियों के समय गायी जाने वाली एक गाली की
धुन पर है । ‘सात सुरों में पुकारता है प्यार’ (पृष्ठ 34-35) के बारे में तो ‘श्री
रामजी राय से एक लोकगीत सुनकर’ की सूचना गोरख जी ने ही दर्ज की है । यह लोकगीत ‘अस
मन करेला कि जोगिए संगे जाईं’ बहुत मशहूर है । इसी तरह ‘राजा के सिर पर सींग’
(पृष्ठ 121) भी एक लोककथा को आधार बनाकर लिखी गयी कविता है । मैनेजर पांडे का
मानना था कि कबीर की मूल भाषा भोजपुरी थी । इसलिए भी ‘विद्रोही संत कवि से
क्षमा-याचना सहित’ पृष्ठ 72 पर संकलित गीत ‘सुनो भाई साधो’ भी भोजपुरी के बहुत पास चली जाती है । भोजपुरी के साथ उनके अनुराग का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि ब्रेख्त के एक गीत का अनुवाद‘होइहें गरीबे गरीब के सहायी’(पृष्ठ
103) भोजपुरी में है । इसका शीर्षक ‘जे
माटी के चाहे’ है । यह माटी किसान के खेत से लेकर मनुष्य के
शरीर तक फैली प्रतिध्वनि पैदा करती है । इसका सबसे लोकप्रिय अर्थ तो खेती की जमीन है जिससे किसान न केवल प्यार करता है बल्कि उस पर और उसकी उपज पर अपना हक भी चाहता है । इसका एक अन्य करुण अर्थ‘लोकगीत’शीर्षक कविता में आता है जब एक स्त्री कहती है‘हुई धूल-माटी की/ यह जिनगी’। यहां केवल शरीर मिट्टी नहीं हुआ बल्कि पूरा जीवन ही मिट्टी में मिल गया । ऐसी मारक अभिव्यक्ति सदियों के संताप से ही पैदा हो सकती है । अकारण उन्होंने अपनी एक कविता में नहीं लिखा
कि वे सदियों के गुस्से और नफ़रत को लय और तुक के साथ लौटा रहे हैं ।
गोरख जी के भोजपुरी गीत सबसे पहले दिल्ली से ‘हिरावल’
नाम की पत्रिका में ‘नौ भोजपुरी गीत’ शीर्षक से 1978 में छपे थे । इसके बाद हिरावल
प्रकाशन से शिवमंगल सिद्धांतकर के संपादन में उनकी टिप्पणी के साथ पुस्तिका के
बतौर उसी साल छपे । फिर उनके पहले काव्य संग्रह ‘जागते रहो सोने वालों’ में एक
विशेष खंड के रूप में शामिल हुए । यह खंड किन्हीं ‘ज्योति जी’ को समर्पित था ।
आश्चर्य कि हिंदी कविताओं वाला खंड ‘बुआ’ को समर्पित था जबकि भोजपुरी गीतों का खंड
जनेवि की ज्योति जी को । इसे बुआ को ऊपर उठाने और ज्योति जी को लोक के पास ले जाने
की कोशिश कह सकते हैं ।
इनमें से दो गीत‘जनता के पलटनि’और‘मेहनत के बारहमासा’खासे लम्बे हैं । पहला गीत तो शादियों के मशहूर लोकगीत‘रामजी के आवे बरियतिया, परेला झीरे झीर बुनिया’की तर्ज पर है । इस तथ्य का उल्लेख अवधेश ने अपनी भूमिका में अवधेश प्रधान की गवाही पर किया है । इससे उनकी रचना प्रक्रिया के सिलसिले में स्पष्ट होता है कि वे लम्बे समय तक किसी लोकधुन को दिमाग में बजने देते थे । फिर पूरी तरह पक जाने पर उसको सृजन में ढालते थे । इस क्रम में न केवल शब्दों के संगीत बल्कि उनके अर्थ के भी सटीक होने की परीक्षा निरंतर जारी रहती थी । दूसरे गीत के प्रसंग में बारहमासा की परम्परा का जिक्र करने की जरूरत नहीं, सभी जानते हैं । खास बात कि संयोग में छ्ह ॠतुओं तक इसलिए सीमित रहा जाता है कि मिलन का समय तेजी से बीतता है जबकि वियोग का समय बहुत धीमे धीमे । इसीलिए वियोग के समय बारहमासा की रीत है । इसी तर्ज पर कह सकते हैं कि आनंद का समय तेजी से बीतता है जबकि दु:ख का समय बीतता ही नहीं । इस सिलसिले में गोरख के लेखन की गवाही उचित होगी । अपने लेख ‘सुख के
बारे में’ में वे लिखते हैं ‘जीवन में सुख के कुछ लमहे जरूर आये हैं, लेकिन चमकीले
पंख वाली तितलियों की तरह उड़ गये हैं । हाँ, दुख ज्यादा कृपालु रहा है । वह एक
काली और भारी चट्टान की तरह है, जो आता है तो फिर टस-से-मस नहीं होता । वजूद के
पोर-पोर से खून बहने लगता है । मन चीख से भर उठता है, तिनके का सहारा भी मुश्किल
हो जाता है और लगता है कि अब जहाज डूब रहा है । कभी जीविका की तलाश में भटक रहे
हैं तो भटकते चले जा रहे हैं, तलाश पूरी नहीं होती । इस बीच भूख लगती है और अपमान
की जलती सलाखों से दाग दी जाती है ।’ दुख का ऐसा बयान शायद ही कहीं और हुआ हो । ऐसे
दुख के साथ मेहनत को जोड़ने का अर्थ इस मार्क्सवादी दार्शनिक मान्यता से निकलता है कि जिस शारीरिक श्रम को सृजन के साथ जुड़े होने के कारण आनंद का स्रोत होना चाहिए वही पूंजीवादी शोषक स्थिति में मनुष्य को थकाने वाला हो जाता है और मेहनत का यह समय वियोग के बारहमासा की तरह कठिन हो जाता है । जीवन में अगर कोई आनंद होता भी है तो
मेहनत के समय के बीत जाने के बाद ही । देश की विशाल आबादी के इन कष्टकर हालात से
उनकी समता ने उनके गीतों को शब्द, भाव और रूप दिये हैं ।
शारीरिक
श्रम के साथ जिस परेशानी का उल्लेख हमने अभी किया उसे मार्क्स के अलगाव की धारणा के
साथ जोड़ा जाता है । बताने की जरूरत शायद नहीं कि अलगाव की यही धारणा उनके शोध का विषय
था और जनेवि में दर्शनशास्त्र का वह पहला शोध प्रबंध था । अलगाव की धारणा के मूल धर्म
में हैं और फिर याद दिलाना जरूरी नहीं कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय में उनके स्नातकोत्तर
लघु शोध प्रबंध का विषय ‘धर्म की मार्क्सवादी धारणा’ था । इन प्रसंगों को अवांतर न
समझा जाय क्योंकि उनके गीतों से इन सबका बहुत गहरा संबंध है । गीतों के विश्लेषण
में इन धारणाओं की मदद ली जाएगी ।
उनका
गीत ‘अब नाहीं’ (पृष्ठ 97) तो विद्रोह का शंखनाद है । सबसे पहली बात कि गोरख जी न
केवल दर्शन के अध्येता थे बल्कि उनकी शब्दावली में दर्शन आद्यंत
अनुस्यूत होता है । यहीं स्पष्ट कर देना
विषयांतर न माना जाय कि वे मार्क्सवादी थे । इस गीत की पहली पंक्ति ही इस समझ से
शुरू होती है कि आज की दुनिया में भी शारीरिक श्रम गुलामी है । बुर्जुआ बौद्धिक इस
बात को जोर शोर के साथ कहते हैं कि आधुनिक समय में दासता का अंत हो चुका है । इसके
विरोध में ही मार्क्स ने पगारजीवी श्रम को wage slavery कहा था । भारत में तो वैसे भी खेती
के जुड़ा श्रमिक अर्ध दास होता है । उसकी आवाज में गोरख जी कहते हैं ‘गुलमिया अब हम
नाहीं बजइबो, अजदिया हमरा के भावेले’ । आजादी की यह भावना अपने परिश्रम पर मेहनतकश
के हक की चाह से पैदा हुई है । गीत में आगे इस भावना का विस्तार होता जाता है जब
मेहनत करने वाला चादर के साथ महल, सोना और फूल तक को अपनी मेहनत से उपजा हुआ बताता
है । असल में समस्त संपत्ति और सौंदर्य का एकमात्र स्रोत प्राकृतिक संसाधनों के साथ जीवित मनुष्य की भौतिक अंत:क्रिया है जिसे हम परिश्रम कहते हैं । ध्यान दें कि इस मेहनत से भौतिक वस्तुओं के ही साथ फूल
की सुंदरता का भी जन्म होता है । मेहनत से पैदा होने वाली ये सभी वस्तुएं पैदा
करने वाले से छीन ली जाती हैं । मेहनत से उसकी उपज को अलगाने का यह काम बाकायदे एक
तंत्र के जरिये किया जाता है । इस तंत्र के पुरजों को इस गीत में सिपाही, कानून,
अक्षर और बंदूक के रूप में सटीक ढंग से पहचाना गया है । मेहनत
करने वाले से उसकी उपज को अलगाना ही इस समूची व्यवस्था का सबसे बड़ा दायित्व है । गोरख का कहना है कि पैदा करने वाले से अलगाई गयी इस उपज को हासिल करने के लिए
सिपाही और कानून की अवज्ञा करनी होगी तथा अक्षर और बंदूक पर अधिकार करना होगा
।
इसी
तरह उनका एक अन्य गीत भी बहुत मशहूर रहा । उसका शीर्षक‘समाजवाद’है । इस गीत को हमारे देश की व्यवस्था चलाने
वालों की कथनी और करनी में निहित अंतर्विरोध पर जोरदार और धारदार व्यंग्यपरक प्रहार
की तरह लोकप्रियता हासिल रही है । इस गीत की अपार लोकप्रियता का कारण हम उस दीर्घकालिक
विक्षोभ में खोज सकते हैं जो धोखे पर धोखा खाने वाली आम जनता के मन में देश के शासक
समुदाय के आचरण के प्रति बद्धमूल है । इस गीत में अन्य सभी बातों के अतिरिक्त बुर्जुआ
समता की धारणा पर बहुत ही गहरा व्यंग्य जनता के सहज बोध से उत्पन्न शब्दावली में किया
गया है । एकदम सूरदास की गोपियों की तरह वे इस समता पर सवाल उठाते हैं‘छोटका के छोटहन, बड़का के बड़हन/ बखरा बराबर लगायी’तो असल में देश में समानता की शासकीय समझ को कटघरे में खड़ा करते हैं जिसके
तहत कानूनन बराबरी तो दे दी गयी लेकिन उस बराबरी को अमल में लाने की तरकीब का ठोस इंतजाम
नहीं किया गया । सभी जानते हैं कि कानूनी बराबरी को अमल में लाने की क्षमता वंचित समुदाय
में जब तक नहीं होगी तब तक बराबरी का वादा कागज पर ही रहेगा । बहरहाल यह व्यंग्य तभी
कारगर था जब जुबानी ही सही,
इसकी घोषणा होती थी । अब जबकि इस औपचारिकता को भी तिलांजलि देकर मुट्ठी
भर थैलीशाहों की उन्नति को ही देश के विकास का पैमाना कहा जा रहा है और जनता को नागरिक
की जगह लाभार्थी कहने में शर्म का भी अनुभव नहीं होता तो यह व्यंग्य भी भोंथरा हो गया
है । अब तो देश के संविधान में मौजूद समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को हटाने की याचिका
भी सुनी जा रही है! फिर भी चौकीदार और चायवाला कहकर गरीब दिखाने
की लज्जा के समक्ष इसका व्यंग्य कारगर बना हुआ है ।
गोरख
का गीत‘मैना’(पृष्ठ 104) देश में 1975 में घोषित आपातकाल के विरोध में लिखा व्यंग्य
है । इस समय के अघोषित आपातकाल में भी इसे सुना जा सकता है । इस गीत में उनका व्यंग्य
बहुत प्रकट है । पहली ही पंक्ति में लोकतंत्र के भीतर राजशाही की आहट सुनी जा सकती
है जब हम इसमें राजा और उनके पुत्र के बीच संवाद सुनते हैं । इस संवाद में मैना जनता
का प्रतिनिधित्व करती है और उसकी आवाज को दबाने के तमाम उपक्रमों के विफल हो जाने के
बाद अंत में उसका गला ही दबा दिया जाता है । पहले उसके पंख काटे जाते हैं, फिर उसकी टांग तोड़ दी जाती है, फिर गला दबाने के बाद
उसका खून पिया जाता है । इससे न केवल दमन बल्कि शोषण के विभिन्न उपायों का भी स्मरण
हो आता है । धर्म की कर्मफल की धारणा की आलोचना
भी इस गीत में सुनी जा सकती है जब राजा कहते हैं ‘एकरे पिछले जनम के करम/कइलीं हम
सिकार के धरम’ ।
उनका गीत ‘सपना’ कहारों द्वारा गाये जाने वाले लोकप्रिय गीत की धुन
पर है । किसी मनुष्य का बोझ कंधे पर ढोते हुए कामगारों की टोली इस कटु यथार्थ का
मुकाबला करने के लिए गायन को औजार बनाती है । शारीरिक परिश्रम के साथ संगीत के इस
साहचर्य को थोड़ा भी ध्यान देने से पहचाना और समझा जा सकता है । गोरख जी की ही एक
कविता ‘सोहनी का गीत’ है (पृष्ठ 40) । यह शीर्षक भी ‘समझदारों का गीत’ या अन्य ऐसी
ही एकाधिक कविताओं के शीर्षकों की तरह धोखा देने वाला है । इसके उदाहरण जंतसार से
लेकर नौका गीत तक हैं । तो अपमानजनक परिश्रम के साथ ही गीत में गाया सपना । इस
सपने को उद्धृत करने की जरूरत है ताकि सपने की समृद्ध दुनिया को देखा जा सके । ‘अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा/त खेत भइलें आपन हो सखिया,/गोसयाँ की लठिया मुरइया अस तूरलीं/भगवलीं महाजन हो सखिया,/केहू नाहीं ऊँच-नीच केहू के ना भय/नाहीं केहू बा भयावन हो सखिया’। इस सपने की परिणति भी परिपक्व समझ की लोक प्रचलित शब्दावली में अभिव्यक्ति है‘मेहनति माटी चारों ओर चमकवली/ढहल इनरासन हो सखिया,/बइरी पइसवा क रजवा मेटवलीं/मिलल मोर साजन हो सखिया’। पैसे का राज मिटने से साजन के मिलने का संबंध तभी समझ आयेगा जब याद रखें कि त्रिलोचन की चम्पा के बालम को पैसा कमाने के लिए ही कलकत्ते जाना पड़ता है । साथ ही इस लोकगीत को भी याद रखें जिसे शारदा
सिन्हा समेत बहुतेरे लोगों ने गाया है- रेलिया न बैरी, जहजिया न बैरी/पइसवा बैरी
ना/हमरा सैंया के ले गइले पइसवा बैरी ना ।
गोरख जी के गीतों में उनके अगाध पांडित्य के कारण बहुत तरह की अनुगूंजें
सुनाई देती हैं । ‘बीहड़ रतिया’ (पृष्ठ 114) शीर्षक बहुत ही छोटे गीत की शुरुआती
पंक्तियों ‘बीहड़ रतिया भयावन अन्हरिया हो कि चलि हो भइले ना-/मनई
मुकुति की ओर हो कि चलि हो भइले ना’ में ‘तमसो मा ज्योतिर्गय’ की अनुगूंज
सुनी जा सकती है । मुक्ति की इस आकांक्षा के साथ फल का भी संबंध है । इस फल के
श्रम का फल होने का कोई संकेत तो नहीं है लेकिन उस पर अधिकार की इच्छा अवश्य है । साथ ही तीन की उस संख्या का भी इस्तेमाल है जो अनेकानेक
कविताओं में व्यक्त होती रही है । कबीर के कुमार गंधर्व द्वारा गाये निर्गुण में
तीन की संख्या आती है । तीन हिरना, तीजे बन आदि प्रतीकों के रूप में प्रयुक्त होते
रहे हैं । उसके रचनात्मक प्रयोग को देखें- एक बान मरलें दुसर
बान मरलें तिसरवे बनवाँ ना-/कइलें फल पर अधिकार हो तिसरवें बनवाँ ना । इसके पहले
की पंक्तियों का बिम्ब तो अनूठा है- दूर रहे फलवा नियरवा रहे पथरवा हो चलाई रे
दिहले ना-/फल पर पथर के बान हो चलाई रे दिहले ना । पत्थर के वाण का रूपक शायद ही
किसी और के यहां इस्तेमाल हुआ हो!
इस गीत में यदि मानव प्रजाति के विकास का
काव्यानुवाद है तो ‘कइसे चलेलें सुरुज-चनरमा’ (पृष्ठ 112) को उनकी गहन दार्शनिक
समझ की व्याप्ति हेतु पढ़ा जाना चाहिए । इसकी शैली प्रश्नोत्तर की है । शुरू की दो
पंक्तियों में सवाल और फिर दो पंक्तियों में उत्तर । इन सवालों में साधारण कुतूहल
के साथ संसार के बुनियादी सवालों को पेश किया गया है । इनकी सहजता में ही इनकी
गम्भीरता छिपी हुई है । पहला सवाल सूरज चंद्रमा और धरती से जुड़े हैं और इनकी अनंत
गति के बारे में जिज्ञासा है । उत्तर में गति को ही इनके अस्तित्व का स्रोत बताया
गया है । गति जैसे अपदार्थ का धरती जैसे पदार्थ में रूपांतरण इतनी उन्नत समझ है कि
समर्थन में उनकी 2003 में समकालीन प्रकाशन से छपी किताब ‘धर्म की मार्क्सवादी
धारणा’ की प्रस्तावना का एक वाक्य उद्धृत करना समीचीन होगा । वे कहते हैं ‘मार्क्सवाद
के बारे में यह भ्रम फैला हुआ है कि उसने कहीं भी चेतना का सकारात्मक विश्लेषण
नहीं किया है’ । जवाब कि ‘मार्क्स ने चेतना को पदार्थ का उच्चतम विकास माना है’ ।
भूत और अभूत के आपसी रूपांतरण की तस्दीक ऊर्जा के रूपांतरण से भी होती है । इसके
तुरंत बाद का सवाल वही सवाल है जिसे समस्त विषमता के सिलसिले में अक्सर पूछा जाता
है । सवाल ‘माटी में बोके आपन परनवाँ/फसलिया हे पिया केकर उगावल?’ है जिसका उत्तर
बताने की जरूरत नहीं । यह सवाल ही अपने आपमें उत्तर है । यह कामगार न केवल फसल
उगाता है बल्कि इसके बाद रचना के साथ विचार की संगति भी वही स्थापित करता है । ‘रचना
के हथवा बिचरवा के रँगवा’ और इससे सुरति अर्थात स्मृति का भी निर्माण उसका ही किया
हुआ है । आखिरी बंद में ‘मनवा के बगिया अजदिया के फुलवा/इ नेहिया पिया केकर लगावल?’
साफ है कि प्रेम भी आजादी पर ही टिका रहता है । पहले ही हमने पैसे का राज समाप्त
होने पर साजन के मिलने का प्रसंग बताया है । उससे यह धारणा भी जुड़ती है कि आजादी
का मतलब पूंजी की गुलामी का खात्मा भी है । कहने की जरूरत नहीं कि मुक्ति की इतनी
व्यापक चेतना बहुत कम रचनाकारों में नजर आती है ।
इसी तरह की ऊपर से भोली लेकिन दुनिया को उलटकर रख
देने की आकांक्षा पैदा करने वाली जिज्ञासाओं से उनके गीत ‘कोइला’ (पृष्ठ 92) और ‘जमीन’
(पृष्ठ 100) हैं ।‘कोइला’ गीत की शुरुआत रेल के जिक्र से होती है जिसके चलने में कोयले
की भूमिका निर्णायक रही है । यह कोयला जहां से आता है वर्णन देखिए‘धरती के छतिया बजर के
अन्हरिया/जेकरा के तोड़ि अंग-अंग कइली करिया’। इसी परिश्रम से उपजे
कोयले से‘जगमग जोतिया जरवली’। इसी कोयले से खाना बनाने के लिए चूल्हे में आग जलती
है । इस भोजन के बंटवारे में‘केहू के बा पूरा-पूरा केहू के बा टुकड़ा/ केहू ललचावे, देखि केहू रोवे दुखड़ा’। इस कोयले की आग से ही
वे लाल पुख्ता ईंटें बनती हैं जिनसे ‘मोहनी महलिया के ईंटा के देवलिया’। इसी कोयले से‘कहीं अवजार बने कहीं हथियरवा/दुनिया
के बदले के चले जैसे करवा’। इसमें करवा का अर्थ कारबार समझें । दुनिया को बदलने
का कारबार उसी तरह चलता है जैसे‘धधकत भठिया में लोहा गलवली’। शारीरिक श्रम के जितने
रूप गोरख के यहां हैं उतने हिंदी कवियों में किसी के पास नहीं । इनमें औद्योगिक श्रम
का चित्र अगर इस गीत में है तो खेती के दृश्य‘जमीन’ में ।‘जाड़ा, गरमी,
बरखा न जनलीं/गोहूँ ओसवलीं त भूसा बनली’। पहले ही हमने कहा कि
इस गीत में हाड़तोड़ परिश्रम से पैदा फसल के मालिकाने पर सवाल किये गये हैं । इस उलटे
मालिकाने को बरकरार रखने में पटवारी, कोरट और दरोगा शामिल हैं । सवाल है कि‘जेकर धुरिए में जिनगी
सिराइल/ओकर नउआ कहवाँ बिलाइल/जे धरती से दूरे रहेला/कइसे करेला अधीन!’इसके ही विरोध में‘सुरू बा किसान के लड़इया, चल तुहूँ
लड़े बदे भइया’। (गुहार, पृष्ठ 96) ।
उनके क्रांतिकारी आंदोलन का रूप निर्गुण नहीं है । उसकी ठोस राजनीतिक जमीन
और समझ है । इसकी परिपक्व अभिव्यक्ति‘वोट’(पृष्ठ 98-99) शीर्षक
व्यंग्यपरक गीत में हुई है । इसमें नेताओं के झूठे आश्वासनों से मोहभंग की कहानी
है । इन आश्वासनों की दुनिया सबकी जानी हुई है । फिलहाल तो सारा देश ही जुमलों पर
यकीन करने की सजा भुगत रहा है । चुनाव दर चुनाव जनता
ने इन पर भरोसा किया । गोरख जी जनता की ओर से इन नेताओं को चेतावनी देते हैं ‘तोहरा
मटिया मिलइबो /ललका झण्डा फहरइबो’ । शाप की देहाती भाषा से परिचित लोग माटी मिलाने
का अर्थ बखूबी जानते हैं ।
गोरख का गीत ‘जनता के पलटनि’ इसी लड़ाई को ऐसे सपने
में ढालता है जिसका स्वरूप किसी एक देश तक सीमित नहीं है । जनता की एकजुट ताकत का
इतना महाकाव्यात्मक चित्रण विरल है । यह ‘सगरे में उठेला हिलोरवा’ से तुलनीय है ।
यह महाजागरण एसिया, अफरीकवा, अमेरिका लतिनिया, युरोपवा, अमरीकवा में आया है । इससे
‘हिले लागे चारो महदीपवा’ । इस लड़ाई में ‘लड़ेलें गरीबवा बेकमवा’, ‘लड़ेलें किसनवा
लड़ेलें मजदूरवा’, ‘लड़ेलीं बहिनियां लड़ेलीं महतरिया’, ‘लड़ेलें अपढ़वा लड़ेलें
पढ़गीतिया’ सभी शामिल हैं । संक्षेप में लड़ें सब दुख के संगतिया । इस व्यापक एकता
की वजह से जुल्म और जमींदारी की नींव हिलने लगती है । अब तो ‘बहुते नियरवा अजदिया
के दिनवा’ इसलिए ‘तूहू लेल तीरवा कमनवा’ । इस लड़ाई में स्त्री और पुरुष की बराबरी
का रूपक ‘नेह की पाती’ (पृष्ठ 111) में कुछ इस तरह व्यक्त हुआ है ‘तूँ हव स्रम के
सुरुजवा हो, हम किरिनिया तोहार’ ।
उनके गीतों में लोकगीतों की परम्परा का संस्कार करके जिस तरह समझ और आकांक्षा
को पिरो दिया गया है उनके कारण ही ये गीत संघर्षों के मीत बन गये । इन्होंने बहुत ही
आसान भाषा में लोगों के दैनन्दिन से उठाये बिम्बों के जरिये उनको अपनी स्थिति के बारे
में सचेत किया,
संघर्ष के मुद्दों की पहचान करायी और लड़ने का हौसला दिया । जिन कामगारों
को ये गीत संबोधित थे वे सभी दूसरों की जमीन पर मेहनत करते थे, अपनी मेहनत से उपजी फसल को मालिक के गोदाम में भर आते थे, बरसों लम्बी भूख का सामना करते थे, निरक्षर थे और उनकी
बहू-बेटियों की इज्जत उनकी आंख के सामने उतारी जाती थी । अभाव
और अपमान के इसी इतिहास ने उनको मरजीवड़ा बना दिया था । सत्ता हमेशा की तरह मालिकों
के साथ थी । कानून, अदालत और पुलिस भी मालिकों के लिए ही काम
करते थे । इन विपरीत स्थितियों के सामने इन कामगारों ने कभी समर्पण नहीं किया बल्कि
पहले कम्युनिस्ट पार्टी और बाद में नक्सलबाड़ी से प्रेरित युवाओं के नेतृत्व में एकता
और संगठन के बल पर जो भी हथियार उपलब्ध थे उनको लेकर रण में जूझते रहे । गोरख के ये
गीत भी उनकी इस कठिन लड़ाई के हथियार रहे । इसका सबसे बड़ा सबूत उनके ‘मेहनत के
बारहमासा’ की इन आखिरी पंक्तियों से मिलता है ‘जब हम मिलि उठाइबि हथियार सजनी/मचि चारो ओर भारी हाहाकार सजनी/भागे लगिहें देस छोड़िके हुंड़ार सजनी/आवे
कल-कारखाना से पुकार सजनी/अब गांव गांव हो जा तइयार सजनी/गांठि बान्ह लेनिन-माओ के
विचार सजनी/बिना क्रांति के न होई उधियार सजनी’ ।