Wednesday, July 31, 2024

‘दर्शन दिग्दर्शन’ में दर्शन का विकास

 

        

                                      

राहुल सांकृत्यायन की इस किताब का सबसे ओझल पहलू इसमें विन्यस्त दर्शन का विकास है । इस तरह की किताबों के साथ यह आम कठिनाई है । अलग अलग दार्शनिकों के बारे में जानने में पाठक का ध्यान इतना अधिक केंद्रित हो जाता है कि उनको जोड़ने वाले अंतर्निहित सूत्र को पकड़ना भूल जाता है । राहुल जी की इस किताब को पढ़ने में सबसे पहली सावधानी उनकी शब्दावली के सिलसिले में बरतनी चाहिए । वे सबसे अधिक भ्रामक प्रयोग विज्ञान शब्द का करते हैं । आज जिस अर्थ में हम इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं उस अर्थ में राहुल जी साइंस शब्द का प्रयोग करते हैं । विज्ञान का प्रयोग वे आध्यात्मिक या ईश्वरीय ज्ञान के अर्थ में करते हैं । यह किताब राहुल जी ने ‘मानव समाज’ और ‘विश्व की रूपरेखा’ के साथ लिखी थी इसलिए यह भी स्पष्ट है कि वे दर्शन को अन्य अनुशासनों से अलग नहीं, उनके साथ संयुक्त मानते थे ।

अपनी इस किताब की खूबी उन्होंने ही दो मामलों में बतायी है । एक कि दर्शन ‘राष्ट्रीय की अपेक्षा अंतर्राष्ट्रीय ज्यादा है’ इसलिए ‘दर्शन क्षेत्र में राष्ट्रीयता की तान छेड़ने वाला खुद धोखे में है और दूसरों को धोखे में डालना चाहता है’ । दूसरे कि ‘दर्शन को विस्तृत भूगोल के मानचित्र पर एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी को सामने रखते हुए देखने की कोशिश की है’ । और कि ‘दर्शन को समझने का यही ठीक तरीका है’ लेकिन ‘अभी तक किसी भाषा में दर्शन को इस तरह अध्ययन करने का प्रयत्न नहीं किया गया है ।’ साफ है कि राहुल अपनी इस किताब की मौलिकता जानते थे । इस ग्रंथ की कमी भी उन्होंने स्वीकार की है कि इसमें चीन और जापान की दार्शनिक धारा का निदर्शन नहीं कराया जा सका है । उनके इस स्वीकार में ही अब तक की बौद्धिकता की कमी जाहिर हो जाती है । कहने की जरूरत नहीं कि आजकल ढेर सारे बेकार के कारणों से हम चीन के साथ किसी सकारात्मक बात की कल्पना भी नहीं कर सकते । उनके इस वक्तव्य से यह भी जाहिर होता है कि वे दर्शन की कुछ भूस्थानीय परम्पराओं को मान्यता देते हैं और साथ ही उसकी अंतर्राष्ट्रीयता को भी शामिल करते हैं ।

किताब में वे मुख्य रूप से दुनिया की चार दार्शनिक परम्पराओं का विश्लेषण करते हैं । मोटे तौर पर ये यूनानी दर्शन, इस्लामी दर्शन, यूरोपीय दर्शन और भारतीय दर्शन की धारा हैं । इसके आधार पर हम कम से कम एक बात के लिए राहुल को याद रख सकते हैं कि उन्होंने इस्लाम के सिलसिले में दर्शन का जिक्र किया है । यूनानी दर्शन का जिक्र आने पर हम सामान्य तौर पर सुकरात, प्लेटो और अरस्तू का नाम सुनते हैं लेकिन राहुल जी ने उनका नाम बाद में लिया है । शुरुआत वे यूनान की विशेष भौगोलिक स्थिति से करते हैं जिसके कारण वहां दर्शन आरम्भ हुआ । यूनान असल में क्षुद्र एसिया और यूरोप के समुद्र के बीच में बसा था । इनके नागरिक नाविक जीवन और व्यापार के लिए दूर दूर की सामुद्रिक और स्थलीय यात्रायें करते रहते थे । ये व्यापारी दूसरे देशों में जाकर सिर्फ सौदे का ही परिवर्तन नहीं करते थे, बल्कि विचारों का भी दान-आदान करते थे । तब मिश्र और बाबुल की सभ्यता सम्माननीय समझी जाती थी । सौदागरों ने इन पुरानी सभ्यताओं से प्राकृतिक-विज्ञान, ज्योतिष, रेखा-गणित, अंक-गणित और वैद्यक की कितनी ही बातें सीखीं और सीखकर उन्हें आगे भी विकसित किया ।

इसी क्रम में तत्त्वजिज्ञासु दार्शनिकों का विकास हुआ । तत्त्वजिज्ञासा का अर्थ है उस मूलतत्त्व का पता लगाना जिससे विश्व की सारी चीजें बनी हैं । इन दार्शनिकों की खास बात यह है कि वे ‘यह प्रश्न नहीं उठाते कि इन तत्त्वों को किसने बनाया’ । वे जानना चाहते हैं कि ये कैसे बने । उनमें से ही एक अनक्सिमन्दर ने ‘उस वक्त की ज्ञात दुनिया का नकशा बनाया’ और ‘यही नकशा बहुत समय तक व्यापारियों’ का पथ-प्रदर्शक रहा । उनके लिए ‘गरजते-बादल, चलती-नदी, लहराता-समुद्र, हिलता-वृक्ष, काँपती-पृथ्वी’ जैसे भौतिक तत्त्व सजीव थे इसलिए उनसे अलग किसी अन्तर्यामी की कल्पना की जरूरत उन्हें नहीं पड़ी । इनके बाद वे पिथागोर का जिक्र करते हैं जो इन मूर्त भौतिक तत्त्वों से आगे बढ़कर अमूर्त धारणा की दुनिया में प्रवेश करता है । उसने मूलतत्त्व के रूप में आकार को स्वीकार किया । यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि जिनका नाम राहुल जी ने पिथागोर लिखा है ये वही हैं जिनकी मशहूर प्रमेय को रेखागणित में पाइथागोरस की प्रमेय कहते हैं । सिद्ध है कि गणित की इस शाखा से उनके जुड़ाव की वजह से अमूर्तन की उनकी धारणा विकसित हुई । अमूर्त की इसी धारा का विकास राहुल जी ने प्लेटो और अरस्तू में देखा है ।

दर्शन के विकास में केवल यही नहीं होता कि एक विचारक के बाद दूसरा विचारक बिना किसी बाधा के आता रहता है और दार्शनिक धारणाओं का निरंतर विकास होता जाता है । इस तरह की यांत्रिक धारणा की जगह राहुल दर्शन के साथ अन्य तमाम कारकों की ओर भी ध्यान देते हैं क्योंकि अंतत: दर्शन भी इस समाज में ही फलता फूलता है । यूनानी दर्शन में आगे के बदलावों की जानकारी देते हुए राहुल जी ईरान के शहंशाह द्वारा यूनान पर कब्जे के फलस्वरूप यूनानियों के पलायन का जिक्र करते हैं जिस क्रम में पिथागोर के कुछ अनुयायी इताली जा पहुंचे । यूरोप के साथ इस संसर्ग से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि इसके बाद ही यूरोप को यूनानी दर्शन का पता लग गया किसी अन्य भूमि पर आये हुए विचार का पनपना या जड़ जमा लेना भी इससे ही नहीं तय होता कि कुछ लोग उन विचारों के साथ नयी जगह गये इसके लिए नयी जगह पर अनुकूल माहौल होने की भी जरूरत होती है जो अभी यूरोप में नहीं पैदा हुआ  था इसलिए भी यूनानी दर्शन के यूरोप की सोच में लोकप्रिय होने का समय और रास्ता थोड़ा भिन्न और रोचक रहा । इताली में पहले से ही कुछ विचारक थे इसलिए राहुल ने उनके विचारों का परिचय दिया है । पिथागोर का बहुत असर वहां नहीं पड़ा । कारण यह कि पिथागोर के मत के साथ मठ और साधक होते थे किंतु इताली के दार्शनिक शुद्ध दार्शनिक पहलू पर अधिक जोर देते थे । इस जगह के दार्शनिकों के साथ ही राहुल जी ने ग्रीक दार्शनिकों में हेराक्लितु का जिक्र किया है

भारतीय दर्शन संबंधी लगभग आधी किताब होने के बावजूद वे लगभग सभी विचारकों के प्रसंग में खासकर उनके समकालीन भारतीय दार्शनिक का जिक्र जरूर करते हैं शायद उनके मन में ऐसा पाठक है जो भारतीय दर्शन से परिचित है हेराक्लितु के बारे में बताते हुए वे कहते हैं कि उसका समय बुद्ध का था और उसके विचार भी बुद्ध से मिलते जुलते हैं बहरहाल वह यूनानी दार्शनिकों की तरह ही मूल तत्त्व की बात करता है जो उसके अनुसार अग्नि है अग्नि की इस प्रधानता की जगह हेराक्लितु के संदर्भ में राहुल जी ने परिवर्तन की उसकी धारणा पर जोर दिया और कहा कि उसके मुताबिक परिवर्तन ही विश्व का जीवन है यहां हमारा साबका संसार के अस्तित्व को समझने के दार्शनिक प्रयास से पड़ना शुरू होता है संसार की स्थिरता को इताली के दार्शनिक अधिक सही मानते थे जबकि हेराक्लितु ने परिवर्तन को सत्य समझा           

कहने की जरूरत नहीं कि ये विचार दार्शनिक तो थे लेकिन इनका सामाजिक पहलू भी था । राहुल जी ने भी हेराक्लितु को ‘अनजाने ही दुनिया के जबर्दस्त क्रांतिकारी दर्शन- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का विधाता’ बना दिया है । हेराक्लितु के बाद राहुल जी ने देमाक्रितु का नाम लिया है जिसके साथ परमाणुवाद की धारणा जुड़ी है इस धारणा की व्याप्ति वे बहुत दूर तक देखते हैं जब कहते हैं कि भारतीय दर्शन में परमाणुवाद का प्रवेश यूनानियों के सम्पर्क से ही हुआ यह परमाणु गतिशून्य तत्त्व नहीं है, बल्कि उनमें स्वाभाविक गति होती है इस गति के कारण उनका दूसरों के साथ संयोग बनता है और इस तरह जगत और उसके सारे पिंड बनते हैं राहुल ने इस चिंतन की समानता यांत्रिक भौतिकवाद से देखी है

पिथागोर के अनुयायी तो भागकर इताली गये लेकिन अन्य विचारकों ने एक जगह रहने के बदले घुमन्तू या परिव्राजक होकर रहना पसंद किया । इन्हें राहुल ने सोफी कहा है और इस्लाम के ऐसे ही परिव्राजकों के सूफी नाम को, दर्शनों के भारी भेद के बावजूद, इससे उत्पन्न बताया है । इससे हमारे सामने दर्शन का एक अन्य पहलू उजागर होता है । आम मान्यता के अनुसार हम दर्शन को किताब या किसी संस्थान से जोड़कर देखते हैं लेकिन राहुल जी की निगाह में दार्शनिकों का यह भी एक रूप होता है जिसमें वे घूम घूमकर ज्ञान का संग्रह और वितरण करते रहते हैं । खुद राहुल भी लम्बे समय तक साधु रहे थे और घुमक्कड़ तो वे थे ही । कदाचित इस अनुभव ने उन्हें दर्शन का यह रूप दिखाया हो । बहरहाल इन सोफियों ने समाज में ज्ञान की प्यास जगा दी और चारों ओर ज्ञान की चर्चा होने लगी । उन्हीं के समय एथेंस यूनानी दर्शन का केंद्र बना और सुकरात, प्लेटो तथा अरस्तू का जन्म हुआ ।

इन नामों से दर्शन का प्रत्येक विद्यार्थी परिचित है फिर भी बस इतना कि राहुल जी प्लेटो को हमेशा अफलातूँ लिखते हैं सम्भवत: अरबी स्रोतों के कारण ऐसा हुआ है । सुकरात के प्रसंग में उन्होंने कहा कि वह सोफियों की बहुतेरी बातों को मानता था खास बात तो प्लेटो के प्रसंग में आयी है और उसके आधार पर किसी भी दार्शनिक के विचारों के एक और स्रोत का पता चलता है व्यक्ति की सामाजिक स्थिति और उसके जीवन के अनुभव अक्सर उसके विचारों को आकार देते हैं राहुल जी बताते हैं कि वह रईस घराने का था जिस वर्ग की प्रभुता का ह्रास हो चुका था और उनकी जगह व्यापारी शक्तिशाली बन चुके थे दूसरी ओर उसने अपने निरपराध गुरु सुकरात को जनसम्मत तरीके से मारे जाते देखा था इन दोनों बातों ने उसके विचारों को प्रभावित किया था तत्कालीन समाज को हटाकर वह नया ही समाज कायम करना चाहता था उसके इस आदर्श समाज में शासक की जगह दार्शनिकों के लिए सुरक्षित थी और इन दार्शनिकों को सांसारिक वैभव की जगह अपनी बौद्धिकता को ही अपना धन समझना था उसके प्रसंग में ही राहुल जी ने स्वत:सिद्ध चीजों का जिक्र किया है और उसे पादटिप्पणी में Apriori लिखा है । कहने की जरूरत नहीं कि दर्शन का कोई भी विद्यार्थी इसे बहुत बाद में कांट के प्रसंग में देखता है लेकिन इस धारणा का मूल राहुल जी ने प्लेटो के चिंतन में पहली बार देखा है । इसका आसान अर्थ यह है कि प्रत्यक्ष इंद्रियानुभव से पहले ही हमारे दिमाग में कुछ बौद्धिक उपकरण होते हैं जिनके सहारे हम प्रत्यक्ष को ग्रहण करते हैं संख्या, भाव, अभाव, सादृश्य, भेद, एकता, अनेकता जैसी धारणाओं के साथ ही हम वास्तविकता को जान पाते हैं इसी को प्लेटो कहते हैं कि विज्ञान (ऊपर इसका स्पष्टीकरण दिया गया है) और वास्तविकता का सामंजस्य ज्ञान है दुनिया में इस वास्तविकता के विभिन्न रूप नजर आते हैं जिनके सार को ग्रहण करना बुद्धि का काम है भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त विशेष के भीतर मौजूद सामान्य ही उनका सार होता है प्लेटो की इस बौद्धिकता की जगह उसका अनुयायी अरस्तू अधिक वस्तुवादी था शायद इसीलिए उसके विचारों का प्रसार अधिक हुआ अरस्तू के वस्तुवाद के प्रसंग में राहुल जी उसके पादपशास्त्री होने का उल्लेख करते हैं इसी प्रसंग में वे वैद्यक का भी जिक्र करते हैं क्योंकि वनस्पतिशास्त्र का वैद्यक से गहरा रिश्ता है । शुरू से ही हम इस बात को देख रहे हैं कि प्रकृति की मौजूदगी मनुष्य के चिंतन में लगातार बनी रहती है आगे चलकर दर्शन के विकास में वैद्यक की और भी महत्वपूर्ण भूमिका हमें नजर आयेगी

यहां आकर अब हमारा परिचय दर्शन की जटिलताओं से शुरू होता है और उसकी ज्ञानात्मक व्यापकता का पता चलता है । यह अनायास नहीं है कि किसी भी ज्ञानानुशासन की जड़ में इन दोनों दार्शनिकों की मान्यताओं का उल्लेख अनिवार्य रूप से होता है । अरस्तू ने सिकंदर को शिक्षा दी थी लेकिन सिकंदर तो अरस्तू से भी अधिक वस्तुवादी था इसलिए वह अपने गुरु की सारी शिक्षा मानने के लिए उद्यत नहीं हुआ । अरस्तू ने प्रचुर लेखन किया था । वह मानता था कि विचार और भौतिक तत्त्व को अलग करके समझा तो जा सकता है लेकिन उन्हें वास्तव में अलग करना सम्भव नहीं है क्योंकि दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं । इसका उदाहरण देते हुए राहुल जी ने मूर्ति की बात की है जिसमें मिट्टी या पत्थर तो भौतिक तत्त्व है लेकिन उसका आकार मूर्तिकार के दिमाग से निकला है । पृथ्वी, जल, आग और हवा भी बिना आकार के नहीं हैं और ये भी रूक्षता, नमी, उष्णता, सर्दी आदि मूलगुण के भिन्न भिन्न योगों से बने हैं । उसका मानना था कि सच्चा ज्ञान केवल घटना का परिचय नहीं बल्कि यह भी जानना है कि किन कारणों या स्थितियों से वैसा होता है । तर्कशास्त्र को भी जन्म देने के लिए उसे जाना जाता है । इसी सिलसिले में राहुल जी फिर से भारतीय दर्शन का जिक्र करते हैं और बताते हैं कि सिकंदर जब भारत आया था तो उस समय यूनान उन्नति के शिखर पर पहुँचा हुआ था । उसके साथ आये यूनानी हमारे देश में घुल मिल गये और उनकी ज्ञान संपदा भी हमारे ज्ञान में समा गयी ।

इसके बाद यूनान का पराभव शुरू हुआ और मकदूनिया से उसे हारना पड़ा । राहुल की टिप्पणी है कि पराजित यूनान हेराक्लितु, देमोक्रितु, अफलातूँ, अरस्तू के जैसे स्वच्छन्द सजीव दर्शन को नहीं प्रदान कर सकता था । स्वाभाविक है कि नये शासक उतनी आजादी पराधीन जनता को नहीं देना चाहते रहे होंगे जितनी आजादी के माहौल में उपर्युक्त दार्शनिकों का विकास हुआ था । अब दर्शन के क्षेत्र में एक अन्य धारा का प्रवेश होता है जिसे राहुल जी ने इस्लामी दर्शन कहा है । इस्लाम में दर्शन के आगमन का संदर्भ स्पष्ट करने के लिए राहुल जी ने इस्लाम का विस्तार से जिक्र किया है और उस समाज के विकासक्रम में उन कारकों की पहचान की है जिन्होंने दर्शन की जगह बनायी ।

इस्लाम का जन्म अरब के कबीलाई समाज में हुआ था । सभी कबीलाई समाजों की तरह वहां भी आपस में लड़ाई झगड़े होते रहते थे और लूटपाट जीविका का वैध साधन था । इस्लाम के संस्थापक मुहम्मद साहब को तरह तरह के समाजों का अनुभव था क्योंकि अपने चाचा के साथ उन्होंने व्यापारिक यात्राएं बहुत कीं । इसी वजह से वे समाज में रुढ़िवश मानी जाती हर एक बात को बिना ननु-नच के मानना नहीं पसंद करते थे । अपनी व्यापारिक यात्राओं के क्रम में उन्हें ईसाई और यहूदी धार्मिक रिवाजों को देखने का मौका मिला था तथा गिरजाघर और यहूदियों की मूर्तिरहित एक-ईश्वर-भक्ति उन्हें पसंद आयी थी । व्यापार के विकास के लिए शांति का महत्व भी उन्हें इन्हीं यात्राओं से स्पष्ट हुआ था । इसके लिए उन्होंने सभी कबीलों को मिलाकर एक राज्य और लूटमार की जगह शांति (इस्लाम) की स्थापना को अपना लक्ष्य बनाया । वे समझते थे कि लूटमार को पूरी तरह बंद कर देने से आजीविका के स्रोत पर चोट पड़ेगी इसलिए उसे गैर अरबी लोगों पर विजय से प्राप्त आमदनी के बतौर परिभाषित किया और उसका 1/5 सरकारी खजाने में जमा करके शेष को सभी योद्धाओं में बांट देने का नियम बनाया । इससे दो लक्ष्य पूरे हुए । एक, इस्लामी सेना में भरती होने का भारी आकर्षण पैदा हुआ और दूसरे, बलशाली संगठित शासन की बुनियाद पड़ी । इस्लाम के भीतर समानता की भावना को भी मजबूत करने में इस प्रथा का योगदान राहुल जी ने स्वीकार किया है । उनके मुताबिक ‘इस्लाम ने विजित जाति के अधिकांश धनी और प्रभु-वर्ग को जहाँ पामाल किया, वहाँ अपनी शरण में आने वाले-खासकर पीड़ित- वर्ग को विजय-लाभ में साझीदार बनाने का रास्ता बिलकुल खुला रखा । इसने ‘शासक वर्ग के नीचे की साधारण जनता के कितने ही भाग को आकर्षित और मुक्त करने में सफलता’ पायी ।

जो आर्थिक व्यवस्था बनी उसके ही कारण आगे चलकर इस्लाम में फूट पड़ी, मजबूत राज्य और योद्धाओं की बड़ी संख्या ने दो तरह के समुदायों को जन्म दिया । दूसरी ओर उसके प्रसार ने बहुतेरे ऐसे लोगों को इस्लाम के भीतर दाखिल किया जिनके साथ नये विचार भी आये । इसी क्रम में बहुत सारे यूनानी दार्शनिकों के भी ग्रंथों के अरबी  में अनुवाद हुए किंतु इस्लामिक दार्शनिक सदा अरस्तू का ही अनुसरण करते रहे इसलिए राहुल जी ने अरस्तू की कृतियों की जीवन यात्रा पर नजर डाली है । उसके निधन के बाद उसके ग्रंथ उसके शिष्यों के साथ ही रहे लेकिन जब रोमनों ने यूनान पर अधिकार किया तो उसके ये ग्रंथ बाजार में बिकने को आये तो उन्हें एक अमीर ने खरीद लिया । बाद में एक रोमन सेनापति अपने साथ रोम ले गया और सार्वजनिक पुस्तकालय में रख दिया । इस तरह दो सौ साल बाद उन ग्रंथों को समझदार दिमागों पर असर डालने का मौका मिला ।

इसके साथ एक अन्य प्रक्रिया भी जुड़ी हुई है । रोमन साम्राज्य के पड़ोस में उसका प्रतिद्वंद्वी ईरानी साम्राज्य था । उसके शासक नौशेरवाँ ने अनाथ यूनानी दार्शनिकों को शरण दी थी । इसमें उसकी उदार-हृदयता का उतना हाथ न था जितना अपने प्रतिद्वंद्वी के विरोधियों को शरण की भावना का हाथ था । उसने एक विद्यापीठ कायम किया जिसमें दर्शन और वैद्यक की शिक्षा खास तौर से दी जाती थी । वहां पठन पाठन के अतिरिक्त कितने ही यूनानी दर्शन तथा दूसरे ग्रंथों का अनुवाद हुआ । अनुवाद इसके साथ ही सीरिया की भाषा में भी हुए क्योंकि सीरीयन लोग व्यापारी थे और व्यापार के साथ धर्म, संस्कृति का आदान-प्रदान होना स्वाभाविक है । सीरीयन विद्वानों ने यूनानी सभ्यता के साथ उनके दर्शन को भी फैलाया । इन सुरियानी अनुवादों में अरस्तू के तर्कशास्त्र का अनुवाद मशहूर है । इन्हीं सुरियानी अनुवादों की मदद से बाद में अरबी अनुवाद हुए । इसी रास्ते ऐसा वातावरण बना जिसमें शाहजादों की शिक्षा कुरान, उसकी व्याख्याओं और परम्पराओं तक ही सीमित नहीं रही और उसमें यूनानी दर्शन, भारतीय ज्योतिष और गणित भी शामिल होते गये । इसी प्रसंग में राहुल जी ने एक ऐसा वाक्य लिखा है जिसे अनुवाद के प्रत्येक विद्यापीठ में प्रसारित होना ही चाहिए । उनके मुताबिक ‘अनुवाद द्वारा अपनी भाषा को समृद्ध तथा अपनी जाति को सुशिक्षित बनाना हर एक उन्नतिशील सभ्य या असभ्य जाति में देखा जाता है’ । इसके उदाहरण के बतौर उन्होंने इन अरबी अनुवादों के साथ ही चीनी और तिब्बती अनुवादों का भी उल्लेख किया है ।

दर्शन के इन प्रभावों के चलते इस्लाम में मतभेद उठने शुरू हुए । ये मतभेद दार्शनिक होते हुए भी पूरी तरह सामाजिक टकरावों से जुड़े थे । उदाहरण के लिए विवाद उठा कि मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है या नहीं । यदि वह स्वतंत्र नहीं है तो उसे कर्मों का दंड नहीं मिलना चाहिए । इस धारणा को नवोदित शासक समुदाय अधिक  पसंद करता था क्योंकि इस धारणा की आड़ में वह अपने उत्पीड़न की जवाबदेही से मुक्त हो जाता था । इसके विपरीत कर्म-स्वातंत्र्य के प्रचार द्वारा विद्रोही नेता शासकों के अत्याचार के विरुद्ध जनता को भड़काया करते थे । इस विद्रोही मोतज़ला संप्रदाय के लोग यह भी मानते थे कि ईश्वर सिर्फ़ भलाइयों का स्रोत है । वह दयालु भी है और इसलिए जिन वस्तुओं पर दया आदि गुण प्रदर्शित करता है वे भी सदा से हैं । साथ ही वे यह भी मानते थे कि अन्याय करने में सक्षम न होने के कारण ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं रह जाता । वे यह भी कहते थे कि हर एक पदार्थ के अपने स्वाभाविक गुण होते हैं जो बदल नहीं सकते । वे संसार को ईश्वर की रचना मानते थे और इसी वजह से कुरान भी अनादि नहीं कहा जा सकता । इस विंदु को खोलते हुए राहुल जी ने लिखा ‘कुरान को सादि बतला मोतज़ली अल्लाह के प्रति अपनी भारी श्रद्धा दिखाते हों यह बात न थी, इससे उनका अभिप्राय यह था कि कुरान भी अनित्य ग्रंथों में है, इसलिए उसकी व्याख्या करने में काफी स्वतंत्रता की गुंजाइश है; और इस प्रकार पुस्तक की अपेक्षा बुद्धि का महत्व बढ़ाया जा सकता है’ । यह दूसरा मुद्दा था जिसके आधार पर धर्म की आड़ में ही उसकी आलोचना हो रही थी । वे कहते थे कि ईश्वर ने मनुष्य में भलाई-बुराई, सच्चाई-झुठाई को परखने तथा भगवान को जानने की बुद्धि भी प्रदान की । इस प्रकार वे राहुल जी के मुताबिक ‘ग्रंथोक्त धर्म की अपेक्षा निसर्ग(बुद्धि)-सिद्ध धर्म पर ज्यादा ज़ोर देना चाहते थे’ । इसी कारण सनातनी मोतज़लियों को क्षमा नहीं कर सके लेकिन मोतज़ली यूनानी दर्शन तथा अरस्तू के तर्कशास्त्र के सख्त दुश्मन थे लेकिन इस दुश्मनी में बुद्धि के हथियार का ही इस्तेमाल करते थे जिसके कारण उन्हें बहुधा इस्लाम के सीधे रास्ते से भटक जाना पड़ता था । खास बात यह कि इन मोतज़ली मान्यताओं का विरोध करने के लिए कार्य-कारण संबंध तक से इनकार करना पड़ा ।

इन शुरुआती कोशिशों के बाद इस्लाम के भीतर दार्शनिक चिंतन थोड़ा और गम्भीर हुआ । इसका केंद्र ईरान और इराक बना । इस सिलसिले में राहुल जी ने अज़ुज़ीद्दीन राज़ी का नाम लिया है । उन्होंने धार्मिक शिक्षा के अतिरिक्त गणित, वैद्यक और पिथोगोरीय दर्शन का अध्ययन किया था । वे बगदाद में प्रधान चिकित्सक भी रहे । शरीर और आत्मा के बीच आत्मा को उन्होंने प्रमुखता दी और माना कि वैद्य आत्मा का भी चिकित्सक होता है । राज़ी ने जिन पांच तत्वों को नित्य माना उनमें कर्ता अर्थात ईश्वर के साथ ही विश्व जीव और मूल भौतिक तत्व भी है । इनकी नित्यता के साथ ही उसने एक कर्ता भी माना । उसका कहना था कि इस कर्ता के साथ ही विराट शरीर भी था । शरीर की छाया से गर्मी, सर्दी, रूक्षता और नमी जैसे चार स्वभाव उत्पन्न होते हैं । इन स्वभावों से आकाश और धरती के सभी पिंड बने हैं । सृष्टि सदा से होती आयी है इसलिए ये तत्व नित्य हैं । साफ है कि उन्होंने बीच का रास्ता निकाला जिसमें संसार की नित्यता के साथ ईश्वर भी जोड़ दिया गया । जीव की नित्यता के साथ ईश्वर के जुड़ाव की समस्या को सुलझाने के लिए माना गया कि मानव जीव भूत से बना तो है लेकिन विकास करते करते वह आत्मा बन जाता है । अन्य प्राणियों के साथ मनुष्य की समानता इंद्रियों तक सीमित है । इससे आगे मनुष्य की विशेषता विचार, वाणी और तदनुरूप क्रिया है । मनुष्य की इसी विशेषता का अंग उसमें मौजूद प्रेम का भाव है । जीव के परमात्मा से मिलने की बेकरारी ही प्रेम है । अब हम सूफी चिंतन के पास पहुंचने लगते हैं । पहले ही उन्होंने संकेत किया था कि यूनान के सोफी में इस्लाम के सूफी का स्रोत है । इस दौर में जो सवाल इस्लाम में उठे उन सवालों के संदर्भ में राहुल जी ने अक्सर भारतीय वेदांत का उल्लेख किया है ।                                                              

भारतीय दर्शन के प्रसंग में राहुल जी की मौलिकता का प्रमाण उपनिषदों का उनका विवेचन है । उपनिषद का जिक्र करते हुए आम तौर पर उन सबको एक साथ रखकर विश्लेषित किया जाता है । इसके मुकाबले राहुल जी ने उनके विकास को समझने के लिए उन्हें एकाधिक कालों में विभक्त किया है । सबसे पहले प्राचीनतम उपनिषदों में ईशावास्य, छान्दोग्य और बृहदारण्यक का विवेचन किया गया है । इसके बाद द्वितीय काल की उपनिषदों में वे ऐतरेय और तैत्तिरिय को उठाते हैं । फिर तृतीय काल की उपनिषदों के तहत प्रश्न, केन, कठ, मुंडक और मांडूक्य का वर्णन किया गया है । इसके बाद उन्होंने चतुर्थ काल की उपनिषदों के रूप में कौषीतकि, मैत्री और श्वेताश्वतर उपनिषद का विवरण प्रस्तुत किया है । औपनिषदिक चिंतन के विश्लेषण में शायद ही किसी अन्य विद्वान ने यह ऐतिहासिक दृष्टि अपनायी होगी । उपनिषदों के ही संदर्भ में राहुल जी ने आत्मा की धारणा पैदा होने का कारण स्वप्न बताया है । एकाधिक कथाओं को इस सिलसिले में उन्होंने उद्धृत किया है जिसमें सो जाने के बाद भी विचरण करने वाले के बारे में जिज्ञासा की गयी है । इसी उत्सुकता ने मनुष्य के भीतर एक और अस्तित्व की कल्पना की जगह बनायी होगी और सुप्तावस्था में भी उसके सक्रिय रहने के कारण उसकी अमरता की धारणा का जन्म हुआ होगा ।

राहुल जी ने यही बताने का प्रयास किया है कि दर्शन का विकास हुआ है और अमूर्त सवालों पर बात करने के बावजूद वह समाज से घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है । एक समाज से दूसरे समाज तक दर्शन के जाने में अनेक कारकों का योगदान होता है । इस आवागमन से संसार के सभी दर्शनों की तरह भारतीय दर्शन भी अछूता नहीं रहा है । किसी भी नये समाज में बाहर से आने वाले दर्शन को जड़ जमाने के लिए अनुकूल परिस्थितियों की जरूरत होती है अन्यथा कहीं और से लाकर रोपे गये पौधे की तरह गीली जमीन न मिलने से विचार भी सूख जाते हैं । इस लेख में उद्धरण चिन्हों के अतिरिक्त भी राहुल जी की शब्दावली का खुलकर उपयोग किया गया है । लेख का उद्देश्य मूल किताब को पढ़ने में पाठक की रुचि जगाना है ।