दुनिया भर
में उपनिवेशवाद ने भारी तबाही मचायी । इस उपनिवेशवादी प्रसार का एक पहलू यूरोपीय
लोगों द्वारा अमेरिकी महाद्वीप के मूलवासियों को उनकी जमीन और संसाधनों से बेदखल
करके कब्जा जमाना था । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद चली उपनिवेशित देशों की मुक्ति
की प्रक्रिया से इस अन्याय का समाधान बचा रह गया । हाल के दिनों में संसाधनों पर
कब्जे की जो नयी लहर चली उसके प्रतिकार के क्रम में उत्तरी अमेरिकी इलाकों में
मूलवासियों के दावों और लैटिन अमेरिकी देशों की वाम लहर के अंग के रूप में मूलवासी
जागरण देखा जा रहा है । इसका एक सिरा आस्ट्रेलिया तक भी जाता है । इन बहुविध
उभारों की एक छटा को उभारने की कोशिश इस लेख में की गयी है ।
2014
में
बीकन प्रेस से रोक्साने डनबर-ओर्टिज़
की किताब ‘ऐन
इंडीजेनस पीपुल’स
हिस्ट्री आफ़ द यूनाइटेड स्टेट्स’ का
प्रकाशन हुआ । लेखिका का कहना है कि इतिहास में शोध उपाधि मिलने के बावजूद उन्हें
वह नजरिया नहीं मिल सका था जो इस किताब के लिए जरूरी था । इसके लिए उन्हें शैक्षिक
दुनिया के बाहर देखना पड़ा । उनकी माता चेरोकी समुदाय की मूलवासी थीं । नानी का
निधन तभी हो गया था जब माता चार साल की थीं । नाना दारूबाज थे इसलिए बच्ची को खुद ही अपनी देखभाल करनी
पड़ी थी । उन्हें तरह तरह के अपमान सहने पड़े थे । संघर्षों भरे जीवन में उन्हें
मूलवासी होने का दंश सालता रहा था । शराब ने इस तकलीफ में सहारा तो दिया लेकिन लत
ने जान ले ली । बाद में लेखिका ने साठ के विद्रोही दशक में जब तमाम आंदोलनों में
भाग लिया तो अन्य अस्मिताओं के साथ ही मूलवासियों के मुद्दों की भी बात होने लगी और
अश्वेत आंदोलन के नारे ब्लैक पावर की तर्ज पर मूलवासियों ने रेड पावर का नारा दिया
। 2016 में बीकन
प्रेस से रोक्साने डनबर-ओर्टिज
की ही डिना गिलियो-ह्विटेकर
के साथ लिखी किताब ‘“आल
द रीयल इंडियन्स डाइड आफ़”: ऐंड
20 अदर मिथ्स एबाउट नेटिव अमेरिकन्स’ का
प्रकाशन हुआ । इस किताब की शुरुआत रोक्साने की पहली किताब के तत्काल बाद हुई थी लेकिन
उनकी पहली किताब ही इतनी मशहूर हुई कि महीनों उन्हें उसके बारे में व्याख्यान देने
के लिए भ्रमण पर रहना पड़ा । इसलिए इस दूसरी किताब की सहलेखिका के बतौर उन्होंने
डिना को शामिल किया । दोनों लेखिकाओं को मिलाकर पचास साल शिक्षा और सक्रियता का
अनुभव था । इस किताब के पीछे यह यकीन काम कर रहा था कि अमेरिका में सामाजिक अन्याय
की व्यवस्था को कायम रखने में इतिहास की गलत शिक्षा की भूमिका को जब अधिकतर लोग
समझ जाएंगे तो इस दुनिया को बदलना संभव होगा । दोनों लेखिकाओं को विश्वास था कि
सामान्य लोग तो सही इतिहास जानना चाहते हैं और अमेरिकी मूलवासी इंडियनों के बारे
में लम्बे समय से कायम अपनी नस्ली धारणाओं को छोड़ना चाहते हैं ।
2017 में
पोलिटी से कोलिन सैमसन और कार्लोस गिगो की किताब ‘इंडिजेनस
पीपुल्स ऐंड कोलोनियलिज्म: ग्लोबल पर्सपेक्टिव्स’
का
प्रकाशन हुआ । लेखकों ने किताब की शुरुआत इस उल्लेख के साथ की है कि 2007 में
संयुक्त राष्ट्र संघ ने मूलवासियों के अधिकारों की उद्घोषणा को अपनाया । इस सफलता
के पीछे मूलवासी सामाजिक आंदोलनों की अनथक सक्रियता थी जिसके कारण तमाम तरह की
सरकारों की भारी ताकत का मुकाबला करते हुए भी वे मजबूती से खड़े रहे थे । राष्ट्र
संघ की यह उद्घोषणा कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं थी लेकिन इसका साफ मतलब था कि
मूलवासियों और सरकारों के बीच के मामले किसी भी देश के अंदरूनी नीति निर्माण तक ही
सीमित नहीं रह गये । मूलवासियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अधिकारों की मांग के मूल
में दीर्घकालीन अपनिवेशिक शासन, बेदखली और आधुनिकता के लिए अपरिहार्य बताये गये
कदमों के चलते समुदाय के भीतर के विनाशकारी बदलावों से उत्पन्न बेचैनी है । लेखकों
ने आधुनिकता और औपनिवेशिकता को परस्पर संबद्ध बताया है । खासकर उपनिवेशवाद का
अनुभव बहुत हद तक समकालीन ही है । आज भी उनकी जमीनों को रिहाइश, उद्योगीकरण और
जीवाश्म ईंधन के अबाध दोहन के लिए हथियाया जा रहा है । इनके पीछे पश्चिम की वह
उदारवादी विचारधारा है जिसमें देश के भीतर और उपनिवेशों में दोहरे रुख का पाखंड
समाया हुआ है । इसके कारण सामाजिक विज्ञानों में यूरोप केंद्रीयता की समस्या पैदा
हुई । दुनिया के अनेक विद्वानों ने इस समस्या को पहचाना और नतीजे के बतौर दक्षिणी
गोलार्ध से वैकल्पिक समझ विकसित करने का प्रयास हुआ ।
2019 में
वर्सो से निक एस्टेस की किताब ‘आवर
हिस्ट्री इज द फ़्यूचर: स्टैंडिंग राक वर्सस द डकोटा एक्सेस पाइपलाइन,
ऐंड
द लांग ट्रेडीशन आफ़ इंडिजेनस रेजिस्टेन्स’
का
प्रकाशन हुआ । 2019 में ही बीकन प्रेस से दिना गिलियो-ह्विटेकर की किताब ‘ऐज लांग
ऐज ग्रास ग्रोज: द इंडिजेनस फ़ाइट फ़ार एनवायरनमेन्टल जस्टिस, फ़्राम कोलोनियलिज्म टु
स्टैंडिंग राक’ का प्रकाशन हुआ । किताब दुनिया भर के जल संरक्षकों को समर्पित है ।
असल में लोभ के वशीभूत प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के विरुद्ध अमेरिका के
मूलवासियों के संघर्ष की गाथा इस किताब में सुनायी गयी है । इसी साल येल
यूनिवर्सिटी प्रेस से पेक्का हामालाइनेन की किताब ‘लकोटा अमेरिका: ए न्यू हिस्ट्री
आफ़ इंडिजेनस पावर’ का प्रकाशन हुआ । इन नामों के संबंध में ज्ञातव्य है कि डकोटा
और लकोटा अमेरिकी मूलवासियों के दो कबीलाई समुदाय हैं । इसी तरह अन्य समुदाय भी
उपनिवेशकों द्वारा दिये गये नामों की जगह अपनी भाषा के मूल नामों से पुकारे जाने
पर जोर दे रहे हैं ।
2020 में
मैकगिल-क्वीन’स यूनिवर्सिटी प्रेस से स्काट रदरफ़ोर्ड की किताब ‘कनाडा’ज अदर रेड
स्केयर: इंडिजेनस प्रोटेस्ट ऐंड कोलोनियल एनकाउंटर्स ड्यूरिंग द ग्लोबल सिक्सटीज’
का प्रकाशन हुआ । इसकी शुरुआत लेखक के शोध प्रबंध से हुई थी । वे गोरे उपनिवेशकों
के वंशज हैं । जिस नगर में वे जन्मे वहां मूलवासियों के साथ रोज भेदभाव और शत्रुता
का बरताव किया जाता रहा है । गोरे लोगों के इस तरह के व्यवहार को विद्रोही साठ दशक
से बनी चेतना के कारण सेटलर औपनिवेशिक आचरण के बतौर पहचाना गया । इस आचरण को खास
तरह के दमन के संबंध के बतौर व्याख्यायित किया गया जिसमें आर्थिक, लैंगिक, नस्ली
और सरकारी भेदभाव किया जाता है । इसका नतीजा ऐसे किस्म के पदानुक्रमिक सामाजिक
संबंध के स्थायित्व में निकलता है जिसमें मूलवासियों को उनकी जमीन और अपने बारे
में फैसले लेने के अधिकार से बेदखल कर दिया जाता है । नस्ली पूर्वाग्रहों, रोजगार
के अवसरों के मामले में भेदभाव, मूलवासियों की हिंसक मौतों, पारे के जहर की
व्याप्ति, जमीन से बेदखली और ऐसे ही अमानवीकरण के अन्य उपायों के पीछे कार्यरत
औपनिवेशिक संरचना की पड़ताल इस किताब का लक्ष्य घोषित किया गया है ।
2022
में
प्लूटो प्रेस से साइ एंगलेर्ट की किताब ‘सेटलर
कोलोनियलिज्म: ऐन
इंट्रोडक्शन’ का
प्रकाशन हुआ । किताब की शुरुआत ही 2 मई
2021 को ज़ापातिस्ता आंदोलन के पांच सदस्यों की स्पेन हेतु
समुद्री यात्रा से होती है । ज़ापातिस्ता आंदोलन लैटिन अमेरिका के मूलवासियों का
विश्वप्रसिद्ध आंदोलन है । इस आंदोलन ने बहुआयामी प्रतिरोध को जन्म दिया । उनका यह
अभियान मेक्सिको के औपनिवेशिक कब्जे की पांच सौवीं सालगिरह के अवसर पर उलटी यात्रा
के बतौर मूलवासी माया आंदोलनकारियों द्वारा संचालित था । इस यात्रा का मकसद पहली यात्रा
के उलट तो था ही, मार्ग
भी उलटा पकड़ा गया था । स्पेन की धरती पर उतरते ही एक ट्रांसजेंडर सदस्य ने स्पेनी आक्रांताओं की घोषणा की व्यंग्यपूर्ण पुनरुक्ति
की और स्पेन को नया नाम दिया । असल में यूरोपीय उपनिवेशकों ने इन समुदायों और उनके
रिहायशी इलाकों को अपनी सुविधा के अनुरूप नाम दिये थे । जैसे जैसे इन समुदायों के
भीतर चेतना पैदा हो रही है वे इस बात को समझ रहे हैं कि नामकरण भी स्वामित्व जताने
का एक तरीका है । स्पेन यात्रा से पहले उन्होंने खुद को सूतक में रखा था ताकि किसी
तरह का संक्रमण लेकर न जाएं । यात्रा और घोषणा तो प्रतीक थे लेकिन इन मूलवासियों का
संघर्ष प्रतीकात्मक नहीं है । यात्रा का मकसद मेक्सिको के शासन से मुक्ति के संघर्ष
का प्रचार करना और दुनिया भर में जारी ऐसे संघर्षों के साथ अपनी एकजुटता जाहिर करना
था ।
अमेरिकी मूलवासियों के प्रति गोरे उपनिवेशकों के रुख की निरंतरता का सबूत
देते हुए 2023
में यूनिवर्सिटी आफ़ कैलिफ़ोर्निया प्रेस से स्तेफ़ान आउने की किताब ‘इंडियन वार्स
एवरीह्वेयर: कोलोनियल वायलेन्स ऐंड द शैडो डाक्ट्रिन्स आफ़ एम्पायर’ का प्रकाशन हुआ
। किताब का लेखन और सुधार कोरोना के दौरान हुआ । लेखक का कहना है कि लादेन की
हत्या का जो गोपनीय कार्यभार अमेरिका ने उठाया था उसमें लादेन को अमेरिका के एक
मूलवासी नेता का नाम दिया गया था । उस नेता को भी यह नाम औपनिवेशिक प्रभुओं ने
दिया था जिसका शाब्दिक अर्थ शत्रु बना । इसलिए ही लादेन को मारने वालों ने जो
संदेश दिया उसका मतलब निकला शत्रु मारा गया । इस पूरी कार्यवाही को एक आदिवासी
नेता ने तकलीफदेह और आक्रामक कहा । इस कूट नाम पर तमाम संचार माध्यमों में व्यापक
विवाद हुआ जिसमें इसे मूलवासियों से युद्ध की दीर्घकालीन विरासत कहा गया । जिस
मूलवासी सरदार का नाम लादेन को दिया गया था वह यूरोपीय उपनिवेशकों का सबसे प्रबल
विरोधी था और समर्पण भी उसने सबसे अंत में किया ।
साफ
है कि अमेरिकी महाद्वीप में गोरे उपनिवेशकों ने स्थानीय मूलवासी समुदायों के साथ
जिस तरह का हिंसक आचरण किया उसकी जड़ें पूंजीवाद में थीं । उनके साथ चौतरफा भेदभाव
का इतिहास बहुत पुराना है और उसके गहरे निशान अब तक मौजूद हैं । महत्वपूर्ण यह है
कि इन मूलवासियों ने महाद्वीप के दोनों हिस्सों में इस दीर्घकालीन अन्याय और
उत्पीड़न का विरोध करना भी शुरू कर दिया है और इस क्रम में वे संसाधनों से लेकर
स्मृति तक अपना हक जता रहे हैं ।
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