Monday, October 16, 2023

कोमिंटर्न और स्त्री आंदोलन

 

2023 में ब्रिल से माइक ताबेर और दारिया द्याकोनोवा के संपादन में ‘द कम्युनिस्ट वीमेन’स मूवमेंट, 1920-1922: प्रोसीडिंग्स, रेजोल्यूशंस, ऐंड रिपोर्ट्स’ का प्रकाशन हुआ । माइक ताबेर की प्रस्तावना के अतिरिक्त दारिया ने संपादकीय लिखा है । इसके बाद आमुख के बतौर लेनिन का लेख तथा कोमिंटर्न का एक प्रस्ताव दिया गया है । इसके बाद विभिन्न दस्तावेज दिये गये हैं । ताबेर का कहना है कि 1983 से कोमिंटर्न के दस्तावेजों को सामने लाने का जो प्रयास शुरू हुआ उसके क्रम में यह नवीं किताब है । जान रिडेल के संपादन में शुरू हुआ यह प्रयास उस क्रांतिकारी आंदोलन की गतिशीलता को सामने लाना चाहता है । इसके तहत शुरू के दो खंडों में कोमिंटर्न की तैयारी को समेटा गया । इसके बाद के चार कांग्रेसों के कार्यवृत्त अगले चार खंडों में आये । दो और खंड कोमिंटर्न द्वारा आहूत सम्मेलनों और गोष्ठियों से जुड़े थे । इस खंड के साथ कोमिंटर्न के सहायक संगठनों पर बात शुरू होती है । ऐसे अनेक संगठनों का निर्माण कोमिंटर्न के आरम्भिक पांच सालों में हुआ । इन सभी संगठनों का विशेष चरित्र था । इन सहायक संगठनों में स्त्रियों का संगठन सबसे महत्वपूर्ण था । आज इस संगठन की जानकारी बहुत नहीं है इसलिए इस संगठन की क्रांतिकारिता को उभारना और इतिहास में उसका वाजिब स्थान दिलाना जरूरी है । इसके लिए इस किताब में बहुतेरे ऐसे दस्तावेजों को पहली बार अंग्रेजी में प्रस्तुत किया गया है जो अब तक जर्मन या रूसी भाषा में उपलब्ध रहे हैं । कोमिंटर्न की स्थापना कांग्रेस में ही इस संगठन का सूत्रपात हो गया था जब अलेक्सांद्रा कोलंताई ने एक संक्षिप्त प्रस्ताव पेश किया । इसी प्रस्ताव के अनुरूप 1920 के जुलाई-अगस्त में कम्युनिस्ट स्त्रियों का पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ । साथ ही कोमिंटर्न की दूसरी कांग्रेस भी चल रही थी । उसके स्त्री प्रतिनिधि इस सम्मेलन का भागीदार थीं इसलिए प्रतिनिधियों की संख्या पचास से कुछ ही अधिक थी । इसमें नये आंदोलन का झंडा बुलंद किया गया, इसके कार्यक्षेत्र पर बहस हुई, विभिन्न इलाकों की रपटें सुनी गयीं और कम्युनिस्ट स्त्री आंदोलन के निर्देशक तत्व अपनाये गये ।

स्थापना सम्मेलन में नये आंदोलन को संचालित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सचिवालय की स्थापना का प्रस्ताव पारित हुआ । सम्मेलन की समाप्ति के कुछ ही दिन बाद कोमिंटर्न ने इस प्रस्ताव पर मुहर लगायी और 20 नवम्बर 1920 को सचिवालय का विधिवत गठन हुआ । क्लारा जेटकिन महासचिव और अलेक्सांद्रा कोलंताई को सहसचिव बनाया गया । सम्मेलन की नेत्री इनेसा अर्मांड का दो महीने पहले ही हैजे से निधन हो गया था । कोलंताई ने सचिवालय का मकसद (1) सर्वहारा स्त्रियों के व्यापकतम हिस्से तक कोमिंटर्न के प्रभाव को विस्तारित करना (2) स्त्रियों में काम करने के विशेष तरीकों को अपनाते हुए कम्युनिज्म की भावना में सर्वहारा और अर्ध-सर्वहारा स्त्री समुदाय को शिक्षित करने में कोमिंटर्न की मदद करना (3) कामगार स्त्रियों की गतिविधि और स्वतंत्रता को जगाना तथा सर्वहारा सत्ता स्थापित करने के संघर्ष में उनको खींच लाना और (4) कोमिंटर्न के काम में भागीदारी करते हुए स्त्री मुक्ति के साथ जुड़े सवालों को कोमिंटर्न के सामने उठाना घोषित किया । इसके लिए प्रत्येक कम्युनिस्ट पार्टी में स्त्री विभाग गठित करना, सभी देशों में कम्युनिस्ट स्त्रियों के अखबार निकालना और अंतर्राष्ट्रीय स्त्री सम्मेलन नियमित रूप से आयोजित करने के उपाय सुझाये गये ।

दूसरा सम्मेलन अगले साल जून माह में संपन्न हुआ । इस सम्मेलन में भागीदारी और प्रतिनिधित्व स्थापना सम्मेलन से अधिक हुआ । आंदोलन के मकसद और दिशा के सिलसिले में बातचीत भी बेहतर तरीके से हुई । इन दोनों सम्मेलनों के कार्यवृत्त और प्रस्ताव इस किताब में संकलित हैं । 1921 और 1922 में दुनिया के कुछ देशों में कुछ अन्य गोष्ठियां भी आयोजित की गयीं । उनकी रपटों और प्रस्तावों को भी इसमें शामिल किया गया है । इनके जरिये हमें शुरुआती कम्युनिस्ट स्त्री आंदोलन की कहानी उनकी ही जुबानी सुनायी पड़ती है । तीन साल की उसकी उपलब्धियों में सबसे पहली यह है कि बर्लिन से क्लारा जेटकिन के संपादन में अंतर्राष्ट्रीय स्त्री आंदोलन का मुखपत्र अप्रैल 1921 के आरम्भ में प्रकाशित हुआ । तब वह विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन का सबसे बेहतर, जीवंत, स्वतंत्रचेता और व्यापक पहुंच वाला प्रकाशन था । उसकी जानकारी अब कम ही लोगों को है लेकिन शुरुआती कम्युनिस्ट आंदोलन और स्त्री मुक्ति के अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन के अध्येताओं में उसे जाना जाता है । इस केंद्रीय मुखपत्र के अतिरिक्त अनेक देशों और इलाकों में कम्युनिस्ट स्त्री अखबार छापे गये । दूसरी बात कि प्रत्येक कम्युनिस्ट पार्टी में स्त्री प्रभाग खोले गये । ये प्रभाग पार्टी से स्वतंत्र और अलग निकाय नहीं थे वरन इस काम की खास जरूरतों को मानते हुए उसका विस्तार करने के लिए थे । क्लारा जेटमिन ने कोमिंटर्न की तीसरी कांग्रेस में बताया कि इनमें कभी कभी पुरुष भी शामिल रहते थे । इसके बावजूद इन प्रभागों को काफी स्वायत्तता प्राप्त थी । वे अपनी रचनात्मक पहल के जरिये अपनी उपयोगिता को साबित करते थे । तीसरी बात कि इस आंदोलन ने पूरी दुनिया के स्त्री कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को आपस में सहकार विकसित करने का अवसर दिया । इसके सचिवालय को इसी मकसद से 1922 में मास्को से बर्लिन ले जाया गया । कम्युनिस्ट स्त्री संवाददाताओं का जाल बुना गया जिसकी छमाही अंतर्राष्ट्रीय बैठकें होती थीं । ऐसे सहकार और नियमित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के जरिये वास्तविक अंतर्राष्ट्रीय स्त्री आंदोलन नजर आने लगा । आंदोलन ने नेत्रियों की ऐसी अंतर्राष्ट्रीय टीम बनायी जिसके बीच मजबूत सहकार था । कोमिंटर्न के सहयोगी संगठनों में यह शायद सबसे मजबूत सहकारी टीम थी । चौथी बात कि इस आंदोलन ने समूचे कम्युनिस्ट आंदोलन को स्त्री मुक्ति के लिए लड़ने का महत्व समझाया । साथ ही सदस्यों और नेताओं के बतौर स्त्रियों की भरती भी इससे तेज हुई । स्त्रियों में नेतृत्व की क्षमता और आत्मविश्वास को पैदा करने के लिए अनेक ऐसे कदम उठाये गये जिन्हें आजकल की भाषा में आरक्षण से जोड़ा जाता है । स्त्री कार्यकर्ताओं के लिए विशेष शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन करने से अनेक पार्टियों में असमान स्तर पर ही सही लेकिन स्त्री कार्यकर्ताओं का विकास शुरू हुआ । पांचवीं बात कि इस आंदोलन ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तमाम अभियान संचालित किये । सोवियत संघ में अकाल में राहत अभियान से लेकर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को दुनिया भर की कामगार स्त्रियों की गोलबंदी का औजार बनाने तक ये अभियान याद रखने लायक हैं । अनेक देशों में गर्भपात के अधिकार, बच्चों की देखरेख, समान काम के लिए समान वेतन, काम से निकालने या स्त्री मताधिकार जैसे सवालों पर भी अभियान चलाये गये ।

ये सभी काम बहुत आसानी से या बिना किसी प्रतिरोध के नहीं हुए । कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर स्त्रियों को उनकी भूमिका के बारे में पुरुषो की पिछड़ी मानसिकता से लड़ना पड़ा । इस मानसिकता के चलते वे स्त्री आंदोलन के महत्व को या स्त्री कार्यकर्ताओं को कमतर आंकते थे । यह मानसिकता केवल पुरुष कम्युनिस्टों तक ही सीमित नहीं थी, नेता लोग भी इसके शिकार थे । आंदोलन के सम्मेलनों में इस मानसिकता का जिक्र अक्सर होता था । स्वीडेन की एक कार्यकर्ता ने बताया कि नेता लोग हमारे काम का महत्व सैद्धांतिक रूप से तो स्वीकार करते हैं लेकिन व्यावहारिक स्तर पर इसके लिए कुछ नहीं करते । कोलंताई ने कोमिंटर्न के सचिवालय में स्त्रियों की कमी का सवाल उठाया । फ़्रांसिसी कम्युनिस्ट पार्टी की बैठकों में स्त्रियों के शामिल न हो पाने की बाबत एक स्त्री ने बताया कि पुरुष साथी घरेलू कामों में हाथ नहीं बंटाते ताकि स्त्रियों को अपनी सामाजिक भूमिका निभाने का समय मिल सके । इन बाधाओं के बावजूद इस मोर्चे पर प्रगति जारी रही क्योंकि कोमिंटर्न का केंद्रीय नेतृत्व स्त्री आंदोलन का समर्थक था । खासकर लेनिन इस आंदोलन के साथ थे । क्लारा जेटकिन के साथ बहस में उन्होंने इस आंदोलन का भरपूर समर्थन किया । इस तथ्य को खासकर याद रखना जरूरी है ।

उस समय के बारे में सामान्य धारणा यह बनायी गयी है कि कोमिंटर्न पर रूस का आधिपत्य था लेकिन इन दस्तावेजों से अलग तस्वीर प्रकट होती है । ढेर सारी पहलें अन्य गैर रूसी पार्टियों की ओर से हुईं । कई बार तो रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की आलोचना भी हुई । इन दस्तावेजों से पता चलता है कि क्रांति की सफलता के कारण रूसी कम्युनिस्ट पार्टी का सम्मान था लेकिन उसे बहुधा समान हैसियत दी जाती थी । शुरुआती वर्षों में यह स्त्री आंदोलन बेहद जीवंत, रचनात्मक सम्भावना और स्वतंत्र पहलकदमी से भरा हुआ था । इसके सम्मेलनों में हुई चर्चा में बहुत ही जिंदादिली दिखायी पड़ती है और प्रतिनिधियों में परस्पर विरोधी विचार प्रकट करने में कोई हिचक नहीं नजर आती । इसमें अपनी कमजोरियों को पहचानने और व्यावहारिक काम में परिस्थिति के हिसाब से समायोजन की क्षमता भी दिखायी देती है । इसके कामों की परीक्षा से लेनिन और कोमिंटर्न की अंतर्दृष्टि का भी पता चलता है ।

इसी मौके पर ताबेर ने स्त्री मुक्ति के लिए मार्क्सवादियों के संघर्ष का डेढ़ सौ साल का इतिहास प्रस्तुत किया है । स्त्री उत्पीड़न का मार्क्सवादी विश्लेषण सबसे पहले 1879 में अगस्त बेबेल ने किया था । इसके पांच साल बाद एंगेल्स की किताब छपी । पीढ़ी दर पीढ़ी समाजवादी कार्यकर्ता इन दोनों की रचनाओं से रोशनी ग्रहण करते रहे और स्त्री उत्पीड़न की जड़ पूंजीवाद और वर्गीय शासन में बताते रहे । उनके लिए स्त्री मुक्ति की राह समाजवाद के लिए सर्वहारा संघर्ष में निहित थी । समाजवादी आंदोलन ने हमेशा स्त्री को नागरिक अधिकारों से वंचित रखने का विरोध किया और उनकी आजादी को अपने झंडे पर लक्ष्य के रूप में दर्ज किया । दूसरे इंटरनेशनल ने भी इस सवाल पर अनेक प्रस्ताव पारित किये । उसकी कांग्रेस के मौके पर 1907 में समाजवादी स्त्रियों का पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ । इससे समाजवादी स्त्रियों के अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन की नींव पड़ी । उसी आंदोलन ने 1910 के अपने सम्मेलन में 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का प्रस्ताव लिया । इस आंदोलन की नेत्री क्लारा जेटकिन थीं जो जर्मन समाजवादी स्त्री आंदोलन के संगठन की अगुआ थीं । वे समता नामक समाजवादी स्त्री अखबार की संपादक भी थीं । जेटकिन और अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन ने प्रथम विश्वयुद्ध में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । जब दूसरे इंटरनेशनल की अधिकांश पार्टियों ने अपनी अपनी सरकारों का इस युद्ध में समर्थन किया तो अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी स्त्री आंदोलन ने इस युद्ध का विरोध करते हुए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया । इसी सम्मेलन से आगे चलकर कोमिंटर्न की ताकतों का उभार हुआ ।

स्त्री अधिकारों और स्त्री मुक्ति के लिए समर्थन के इस लम्बे इतिहास के बावजूद कुछ कमजोरियों का भी जिक्र ताबेर को जरूरी लगता है । अक्सर ऐसा होता था कि समाजवाद के लिए सर्वहारा के व्यापक संघर्ष के भीतर स्त्री मुक्ति के संघर्ष की केंद्रीयता को समाजवादी लोग देख नहीं पाते थे । इस कमी के कारण अनेक मार्क्सवादियों में स्त्री अधिकारों के ठोस संघर्ष से परे रहने की प्रवृत्ति थी । वे इसे वर्ग संघर्ष से भटकाव के रूप में देखते थे या स्त्री मुक्ति को समाजवाद का सह-उत्पाद समझते थे । क्लारा जेटकिन ने बताया भी कि स्त्रियों की सक्रियता को पार्टी या यूनियन के कमोबेश अधीन माना जाता था । सर्वहारा मुक्ति के सार्थक कारक के बतौर इसके महत्व को स्वीकार नहीं किया जाता था । स्त्रियों के हितों और अधिकारों के संबंध में दूसरे इंटरनेशनल के फसलों को उसी हद तक लागू किया जा पाता था जिस हद तक संगठित समाजवादी स्त्रियां इसके लिए अलग अलग देशों में सर्वहारा संगठनों पर दबाव डाल पाती थीं । स्त्री आंदोलन ही दूसरे इंटरनेशनल में हाशिये पर रहा क्योंकि नेतृत्व की ओर से कोई खास मदद इसे नहीं मिल पाती थी । अगर उसकी कोई शक्ल थी भी तो वह बहुत कुछ कामगार स्त्रियों की स्वतंत्र पहलकदमी का ही नतीजा थी । एक और कारक का जिक्र करते हुए वे बताते हैं कि मजदूर वर्ग के आंदोलन में अनेक जुझारू कार्यकर्ता बुर्जुआ नारीवाद से दूर रहने पर जोर देते थे । नारीवाद को आजकल ऐसे सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक आंदोलनों के बतौर देखा जाता है जिनका मकसद स्त्री पुरुष के बीच निजी और सार्वजनिक स्तर पर समाजार्थिक और राजनीतिक समता हासिल करना है । इसलिए कम्युनिस्टों द्वारा प्रयुक्त बुर्जुआ नारीवाद जैसा शब्द बेतुका लग सकता है लेकिन ताबेर के मुताबिक यह बुर्जुआ विशेषण अपमानित करने के लिए नहीं पहचान बताने के लिए लगाया जाता था । असल में कामगारों की कतार में स्त्रियों के बड़े पैमाने पर दाखिले से पहले स्त्री अधिकारों के आरम्भिक प्रवक्ता विशेषाधिकारसंपन्न ऊपरी तबकों की होती थीं । इसके कारण सिल्विया पैंकहर्स्ट जैसी नारीवादी को किनारे रखा गया । ये स्त्रियां समाज द्वारा उनको मनुष्य के अधिकार और हैसियत प्रदान न करने से जायज रूप से खिन्न होती थीं । फिर भी कहना होगा कि इनमें से बहुतेरी कामगार स्त्रियों के सवालों को उठाना उचित नहीं मानतीं और बुर्जुआ व्यवस्था में ही सम्मानजनक जगह पाना चाहती थीं । इसके बावजूद इन आरम्भिक नारीवादियों के संघर्ष को उनकी वर्गीय पृष्ठभूमि के कारण कम महत्व का नहीं कहा जा सकता । समाजवादी आंदोलन के भीतर भी जो नेत्रियां स्त्री प्रश्न को उठाना चाहती थीं उन्हें पुरुष कार्यकर्ताओं द्वारा नारीवादी कहकर आरोपित किया जाता था । इस तरह के आरोप बताते हैं कि ये लोग स्त्री अधिकारों के लिए गोलबंदी के महत्व को समझते नहीं थे । इस किताब के एक दस्तावेज में क्रांतिकारी नेताओं के नारीवाद और उसके विरोध से परहेज करने की सलाह दी गयी है । इन दोनों में से बुर्जुआ नारीवाद के मुकाबले स्त्री अधिकारों को दरकिनार करने की प्रवृत्ति को अधिक हानिकर बताया गया है । लेखक का कहना है कि कम्युनिस्ट स्त्री आंदोलन की विरासत का मूल्यांकन करते समय इन कमजोरियों को भी ध्यान में रखना चाहिए । इन पर विजय पाने में मार्क्स-एंगेल्स के चिंतन से मदद मिली ।

इसके बाद वे इस विरासत को वर्तमान में जांचते हैं । सौ साल पहले की इन गतिविधियों से लगता है कि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दुनिया भर में चले स्त्री मुक्ति आंदोलनों पर इनकी छाया थी । सही बात है कि सौ सालों में वे हालात बदल गये हैं जिनका सामना इन स्रियों को करना पड़ा था । यौन उत्पीड़न या स्त्री पर हिंसा जैसे समकालीन सवालों को उस जमाने में उतनी गम्भीरता से नहीं उठाया गया था । इसके साथ ही स्त्री मुक्ति के लिए व्यापक संघर्ष की सम्भावना जितनी अधिक आज है उतनी उस समय नहीं थी । इसकी बड़ी वजह सारी दुनिया में कामगारों में स्त्रियों की बड़े पैमाने पर आमद है । इन तमाम सामाजिक बदलावों ने यौनिकता, पहनावा, जेंडर, स्वीकरणीय व्यवहार और भाषा जैसे खास सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर बहस को जन्म दिया है । इन उपलब्धियों के बावजूद स्त्रियों को दोयम दर्जा अब भी तथ्य बना हुआ है । गर्भपात जैसे जिन अधिकारों को उन्होंने हासिल किया था उन पर हमले हो रहे हैं । इन हमलों की वजह से राजनीतिक और वैचारिक बहसें तेज हुई हैं । स्त्री अधिकारों के विरोधियों ने हिंसा और कत्ल का भी सहारा लेना शुरू कर दिया है । इसी कारण कम्युनिस्ट स्त्री आंदोलन की राजनीतिक और सामाजिक समता की मांग समेत गर्भपात, देखरेख, सेहत और सुविधा, समान वेतन, शिक्षा और सेवाओं की पहुंच, घरेलू श्रम जैसी अनेक अधूरी मांगों की प्रासंगिकता बनी हुई है । इन मुद्दों को हल करने की जरूरत आज भी आरम्भिक कम्युनिस्ट स्त्री आंदोलन की याद को जिंदा रखे हुए है । इसके ऐतिहासिक दस्तावेजी महत्व के अलावे समग्र क्रांतिकारी संघर्ष के साथ स्त्री मुक्ति के सवाल का रिश्ता बनाने में इसकी रणनीतिक अंतर्दृष्टि आज भी बड़े काम की बनी हुई है ।

पहली बात कि स्त्री मुक्ति की लड़ाई में कामगार स्त्री का सबसे बड़ा हित है इसलिए वही इसका सबसे मजबूत आधार होगी । कामगार स्त्री के दोहरे उत्पीड़न को कम्युनिस्ट स्त्री आंदोलन ने समझा था । लेनिन ने कहा था कि वे पूंजीवादी उत्पीड़न तो झेलती ही हैं सबसे लोकतांत्रिक देशों में भी कानून उन्हें पुरुष के बराबर समानता का अधिकार नहीं देता । इसके ऊपर वे घर के भीतर की दासता भी झेलती हैं । दूसरे कि संघर्ष के इस मोर्चे पर कामगार स्त्रियों के अगुआ होने के बावजूद समाज के सभी तबकों की स्त्रियों को किसी न किसी मात्रा में यह उत्पीड़न झेलना होता है इसलिए इन तबकों तक सम्पर्क बनाने और उन्हें भी आंदोलन के भीतर खींच लाने का विशेष प्रयास करना होगा । इस नाते जेटकिन ने घरेलू स्त्रियों, किसान स्त्रियों और महिला बौद्धिकों को आंदोलन में खींच लाने पर खास जोर दिया था । तीसरे कि स्त्री मुक्ति का सवाल अपने आपमें क्रांतिकारी सवाल है । चौथे कि स्त्री मुक्ति को हासिल करने के लिए समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण की जरूरत है । इसलिए स्त्री मुक्ति का संघर्ष क्रांतिकारी बदलाव के मजदूर वर्ग संघर्ष का अभिन्न अंग होता है । स्त्री पर पुरुष प्रभुत्व का बुनियादी कारण निजी पूंजी को माना गया इसलिए असली और पूर्ण सामाजिक समता के लिए उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व का खात्मा करके उन पर सामाजिक स्वामित्व की स्थापना जरूरी लगी । पांचवें कि पूंजीवादी शासन की समाप्ति के बाद भी स्त्री मुक्ति का संघर्ष जारी रहेगा । इससे तो स्त्रियों के लिए महज द्वार खुलेगा, पूर्ण मुक्ति के लिए अधिक संकल्पबद्ध और सचेत प्रयास करना होगा । घोषणापत्र में कहा गया कि सोवियत शासन की स्थापना के साथ ही स्त्री को रुक जाने की जरूरत नहीं, इन सोवियतों में समान भागीदारी से ही इन्हें मुक्तिकारी औजार में तब्दील किया जा सकता है । इस किताब में सोवियतों में स्त्रियों की हैसियत को बढ़ाने और उन्हें सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन में शरीक करने की जद्दोजहद से जुड़ी रपटें सबसे प्रेरक हैं । पुरुष कामरेडों में समझ के अभाव तथा उनके प्रतिरोध के बावजूद इन स्त्रियों ने बहुत कुछ हासिल किया क्योंकि लेनिन और रूसी केंद्रीय कमेटी के सचिवालय का समर्थन उन्हें हासिल था । आखिरी बात कि यह क्रांतिकारी संघर्ष स्त्रियों की बहुसंख्या को आकर्षित किये बिना सफल नहीं हो सकता । समझ थी कि अधिकतम कामगार स्त्रियों की सक्रिय और सचेत भागीदारी के बिना समाज का, उसके आर्थिक आधार और समस्त संस्थाओं समेत बुनियादी, गहन और व्यापक रूपांतरण असम्भव है ।

1923 के बाद कम्युनिस्ट स्त्री आंदोलन में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गिरावट आयी । 1924 और 1926 में तीसरे और चौथे सम्मेलन तो हुए लेकिन उनमें शुरुआती दो सम्मेलनों जैसी जीवंतता का अभाव रहा । असल में आरम्भिक दिनों की स्वायत्तता और स्वतंत्र पहल में कमी आयी थी । बर्लिन में स्थित सचिवालय को मास्को लाया गया । इसे कोमिंटर्न के सचिवालय के स्त्री प्रभाग का दर्जा देने से भी इसकी स्वायत्तता में कमी का संकेत मिलता है । ऊपर से क्लारा जेटकिन ने इसके मुखपत्र का प्रकाशन भी 1925 में बंद कर दिया । आंदोलन के घोषित मकसद में भी बदलाव किया गया । पहले जहां कोलंताई ने इसका मकसद स्त्री मुक्ति के संघर्ष में भागीदारी, सामाजिक जीवन और राजनीतिक संघर्ष में स्त्री को ले आने का रास्ता खोजना, कम्युनिस्ट आंदोलन में स्त्रियों को भरती और एकताबद्ध करना तथा स्रियों को आगे बढ़ाने के कदमों की वकालत करना घोषित किया था वहीं अब इसे कम्युनिस्ट आंदोलन में स्त्रियों को शरीक करने तक सीमित कर दिया गया । प्रारम्भिक सम्मेलन अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट स्त्री सम्मेलन के नाम से होते थे, अब वे कोमिंटर्न सचिवालय के स्त्री प्रभाग के कामों के सम्मेलन हो गये । इस गिरावट की गति सभी देशों में एक समान नहीं रही । कुछ देशों में मजबूत कम्युनिस्ट स्त्री संगठन अपनी सक्रिय उपस्थिति कायम रख सके और स्त्री अधिकारों का संघर्ष भी चलाते रहे । इस गिरावट के बावजूद इस आंदोलन की विरासत को खत्म नहीं किया जा सकता ।

कम्युनिस्ट स्त्री आंदोलन ने अपनी जीवंतता और गतिशीलता से ऐसा नेतृत्वकारी दल विकसित किया जैसा कोमिंटर्न का कोई अन्य सहायक संगठन विकसित नहीं कर सका था । मतभेद और गर्मागर्म बहसों के बावजूद इस दल ने मिलकर इतिहास में एक नयी चीज को जन्म दिया और वह था ऐसा व्यापक अंतर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी स्त्री आंदोलन जो समग्र विश्व क्रांतिकारी आंदोलन से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ था । आरम्भिक कम्युनिस्ट स्त्री आंदोलन की तमाम ज्ञात और अज्ञात स्त्री कार्यकर्ताओं और नेत्रियों को उनके इस कारनामे के लिए यथायोग्य सम्मान मिलना चाहिए । वे सभी लेनिन के नेतृत्व में संचालित विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन का मुख्य घटक और स्त्री मुक्ति के सदियों पुराने संघर्ष की उन्नायक थीं । इस किताब से इस अल्पज्ञात आंदोलन को इतिहास में उचित जगह मिलने की उम्मीद के साथ माइक ताबेर ने अपनी बात समाप्त की है ।   

दारिया की प्रस्तावना की शुरुआत बोल्शोइ थियेटर में आयोजित प्रथम सम्मेलन के जीवंत वर्णन से होती है जिसमें लाल रूमाल बांधे रूसी कामगार स्त्रियों के समूह इंटरनेशनल गाते हुए क्लारा जेटकिन की प्रशस्ति का बैनर लिए जुलूस बनाकर सम्मेलन स्थल पर जा रही थीं । विदेशी प्रतिनिधि मंच पर विराजमान थीं । वे उद्घाटन समारोह से प्रभावित थीं । ब्रिटेन की प्रतिनिधि ने कहा कि रूसी स्त्री को क्रांति के चलते बहुत बेहतरीन भवन सम्मेलन के लिए मिला है, इससे पहले ऐसे भवन केवल पूंजीपतियों की सेवा में उपलब्ध होते थे । कोमिंटर्न की दूसरी कांग्रेस में भाग लेने के लिए आयी हुई उन्नीस देशों की पचास स्त्री प्रतिनिधियों ने स्त्रियों मुक्ति के सवालों पर बात करने का यह अवसर चुना था । स्माजवादी आंदोलन में स्त्री प्रश्न बहुत समय से प्रमुख मुद्दा बना रहा था । स्त्री मुक्ति के लक्ष्य को लेकर दूसरे इंटरनेशनल में भी विचार विमर्श होता रहा था । कोमिंटर्न ने स्री और पुरुष के अधिकारों की समानता को कानून और आचरण में लागू करने, राजनीतिक जीवन में स्त्रियों के एकीकरण, मुफ़्त शिक्षा और चिकित्सा, घरेलू काम और बच्चों की देखरेख जैसे थकाऊ काम को आसान बनाने की सामाजिक नीति तथा लिंग आधारित दोहरे मानदंड की समाप्ति जैसे कार्यभारों को अपने लिए चुना था ।

जिस संगठन की स्थापना हुई उसका लक्ष्य स्त्रियों को कम्युनिस्ट पार्टी में लाना और उन्हें नेता तथा कार्यकर्ता के बतौर प्रशिक्षित करना था ताकि वे पुरुषों के साथ मिलकर समाजवादी बदलाव लाने और स्त्री मुक्ति को उसका अभिन्न अंग बनाने की दिशा में काम कर सकें । 1922 तक लगभग समस्त यूरोपीय देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों में स्त्रियों में काम के लिए विशेष ढांचे बना लिये गये थे । हालांकि स्त्री मुक्ति के संघर्ष को मजदूर वर्ग की मुक्ति के साथ जोड़ा गया था लेकिन स्त्रियों के विभिन्न सामाजिक तबकों को संघर्ष में लाने पर जोर भी था । इसी वजह से क्रांतिकारी स्त्री कार्यकर्ता गैर कम्युनिस्ट धाराओं के साथ सहयोग की भी तरफदार थीं । शुरुआती दिनों में इस संगठन ने ऐसे समन्वित वैश्विक अभियान चलाये जो उस जमाने में कोमिंटर्न के सर्वाधिक सफल प्रयास थे । सार्वभौमिक मताधिकार और राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी जैसे मुद्दों के साथ ही गर्भपात के अधिकार समेत माता और किशोरी की सुरक्षा जैसे सवाल भी इन अभियानों में उठाये गये । सोवियत रूस की मदद का भी अभियान इस संगठन ने 1920 के दशक में चलाया । विश्वयुद्ध और लम्बे गृहयुद्ध से तबाह रूस के लिए धन और वस्तुओं को एकत्र करने का यह सबसे सफल और समन्वित अंतर्राष्ट्रीय अभियान था । इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को भी इस संगठन की दीर्घकालीन उपलब्धि के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए ।

कोमिंटर्न के कुल समतामूलक विमर्श के बावजूद कम्युनिस्ट स्त्रियों की इस परियोजना को क्रांतिकारी आंदोलनों से बाहर रखने के मर्दाना दबाव भी झेलने पड़े । बहरहाल इस तरह की प्रवृत्तियों को पहचानने और उन पर विजय प्राप्त करने में क्रांतिकारी स्त्रियां अक्सर सफल रहीं । संगठन के भीतर तमाम मुद्दों पर मतविरोध होने के बावजूद कोमिंटर्न के मुकाबले इस संगठन की नेत्रियों में अधिक एकता रही । दुखद रूप से उसका यह प्रयास ओझल रहा । कोमिंटर्न के इस पहलू के बारे में बहुत ही कम अध्ययन हुए और पश्चिमी विचारकों ने तो कम्युनिस्ट धारा की स्त्री दृष्टि को गम्भीर विचार लायक ही नहीं माना । इसके कारण कोमिंटर्न की इस पहल के रचनात्मक योगदान को समझने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई । अधिकांश अमेरिकी विचारक स्त्री मुक्ति के मामले में सोवियत संघ की उपलब्धियों को झुठलाने में व्यस्त रहे । इतना ही नहीं बहुतेरे विद्वान तो कम्युनिस्ट आंदोलन और नारीवाद में किसी मिलन की सम्भावना से ही इनकार करते हैं । उनका तर्क है कि कम्युनिस्ट तो राजकीय पितृसत्ता का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि नारीवाद स्त्री की स्वायत्तता पर जोर देने के लिए विख्यात है । शीतयुद्ध युगीन उदारवादी नारीवादियों ने कहा कि समाजवादी देशों के स्त्री आंदोलन अपने सदस्यों को स्त्री हितों के लिए पार्टी को गोलबंद करने के मुकाबले पार्टी के लक्ष्य को पूरा करने में मुब्तिला रहे । वे पश्चिमी देशों के गैर समाजवादी नारीवादी संगठनों की राजनीतिक निष्पक्षता और स्वायत्तता पर जोर देते रहे ।      

समाजवादी नारीवादियों ने स्त्री प्रश्न पर मार्क्सवादी सिद्धांत की कमियों को उजागर करने पर जोर दिया । जीवन के सभी क्षेत्रों में श्रम विभाजन के मामले में लैंगिक दुराग्रह को प्रमुख स्थान देने में चूक जाना उसकी खामी मानी गयी तथा यौनिकता और पुनरुत्पादन की उपेक्षा का भी आरोप लगाया गया । इन पहलुओं पर स्वाभाविक तौर पर बल देना और अधिक परिष्कृत तर्क नये विद्वानों में बढ़ा है । एक ओर वे समाजवादी स्त्री आंदोलन के अध्ययन में 1989 के बाद शीतयुद्ध में पश्चिम की विजय से उपजे रुख को अपनाने की सुसंगत आलोचना करते हैं दूसरी ओर इस किस्म के प्राथमिक शोध के आधार पर बताते हैं कि उदारवादी नारीवादियों ने तीव्र आधुनिकीकरण के समग्र कम्युनिस्ट कार्यक्रम का बुनियादी अभिन्न अंग जिस हद तक स्त्री मुक्ति का सवाल था उसकी उपेक्षा/अनदेखी की है । कम्युनिस्ट नेत्रियों ने स्त्री प्रश्न की स्वायत्तता का इसे ही सबसे बेहतर तरीका माना था । अलग अलग देशों में या कोमिंटर्न की नेत्रियों ने किसी भी बुर्जुआ नारीवादी तरीके को अपनाने के मुकाबले इसे अधिक प्रभावी समझा । इस जुड़ाव ने बहुतेरे लाभ भी दिये । कानूनी समता और परिवार संबंधी रीति रिवाज, शिक्षा और औपचारिक श्रम जैसे क्षेत्रों में समाजवादी देशों की स्त्रियों को समान आर्थिक दशा वाले अन्य देशों की स्त्रियों के मुकाबले बेहतर हालात मिले । इन कठिन प्रयासों का इतिहास लिखा जाना अब भी बाकी है ।                                                                                  

Wednesday, October 11, 2023

गाँधी की मीरा

 

                 

                            

सुप्रिया पाठक की लिखी किताबमीराबेन: गाँधी की सहयात्रीका प्रकाशन अहिंसा-शांति ग्रंथमाला के तहत प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर से 2022 में हुआ यह किताब एकाधिक कारणों से चर्चा के लायक है सबसे बड़ा कारण तो वर्तमान माहौल ही है जिसमें राष्ट्र और राष्ट्रवाद की इतनी एकरंगी तस्वीर बनायी गयी है जिसमें अपने देश को छोड़कर शेष सभी देश शत्रु नजर आते हैं उपनिवेशवाद के विरोध को भी अतिशय सरल बना दिया गया है हमारे देश के स्वाधीनता आंदोलन की ऐसी छवि निर्मित की जा रही है जिससे साम्राज्यवाद विरोध का सार समाप्त हो जाये और विदेशियों से नफ़रत ही उसका एकमात्र रूप नजर आये । आजादी के आंदोलन की ऐसी छवि बनाने का मकसद शायद यह है कि साम्राज्यवाद का संदर्भ मिटाकर आजादी को इस्लाम विरोध में बदल दिया जाये । वर्तमान शासक विचार के लिए सबसे दुखद यही है कि कुल प्रयास के बावजूद इसमें सफलता नहीं मिल रही है । देश के सामने आने वाली नयी चुनौतियों के संदर्भ में देश की आजादी के आंदोलन और उसके नायकों के बहुतेरे अनदेखे पहलू लगातार उजागर हो रहे हैं ।

मीराबेन की इस कहानी के जरिये देश की आजादी के साथ ऐसे अंग्रेजों का जुड़ाव प्रकट होता है जो औपनिवेशिक नीतियों के समर्थन में नहीं थे । साथ ही उस आंदोलन में शामिल इस स्त्री के सहारे एक और पहलू उभरता है । गांधी के साथ उनके जुड़ाव ने स्वाधीनता आंदोलन की राजनीति के उन पक्षों को प्रकट किया है जिन्होंने विदेशियों और खासकर अंग्रेजों को तो आकर्षित किया ही, स्त्रियों को बड़े पैमाने पर सार्वजनिक जीवन में उतार दिया । लेखिका ने आजादी के आंदोलन के इन दोनों पहलुओं को बहुत ही प्रवाहपूर्ण भाषा में अच्छी तरह प्रस्तुत किया है । भारत की आजादी के लक्ष्य के साथ अंग्रेजों के जुड़ाव को रामचंद्र गुह ने अपनी किताब ‘रेबेल्स अगेंस्ट द  राज: वेस्टर्न फ़ाइटर्स फ़ार इंडियन फ़्रीडम’ में रेखांकित किया है । लेखिका ने इस किताब का आभार अपनी भूमिका में स्वीकार भी किया है । इंग्लैंड के इन ‘देशद्रोहियों’ में वहां के कम्युनिस्ट नेता भी शामिल रहे थे और उन पर भारत की अदालतों में राजद्रोह का मुकदमा भी चला था । विदेशियों से नफ़रत के इस दौर में इस तथ्य पर जोर देना जरूरी है । लेखिका का मकसद मीराबेन की जीवनी लिखने का है क्योंकि उनके अनुसार ‘इतिहास के पन्नों से अदृश्य स्त्री पात्रों को तलाशना और नए सिरे से उन्हें समझने का प्रयास करना, स्त्रीवादी सैद्धांतिकी का प्रस्थान बिंदु रहा है ।’

मीराबेन की इस जीवनी में गाँधी स्वाभाविक रूप से केंद्रीय भूमिका में हैं लेकिन मीराबेन का स्वतंत्र व्यक्तित्व भी बेहद भास्कर होकर उभरता है इसके लिए लेखिका ने गाँधी के पहले और गाँधी के बाद के भी उनके जीवन पर पर्याप्त ध्यान दिया है मीराबेन का मूल नाम मेडलिन स्लेड था । उनके व्यक्तित्व को उजागर करने के लिए लेखिका ने एक बहुत ही खास बात की ओर ध्यान दिलाया है । उन्होंने बताया है कि माता के परिवार में परदेशियों से घुलने मिलने की खुली परम्परा थी जिसके चलते परनानी जिप्सी आयीं और उनका शारीरिक गठन मीराबेन को मिला था । रुचि के इसी खुलेपन की वजह से बीथोवेन के संगीत से लगाव हुआ और उसके कारण जर्मनों से दूरी बरतने के माहौल का प्रतिरोध किया । न केवल जर्मनी गयीं बल्कि प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान व्याप्त जर्मन विरोध का प्रतिकार करने के लिए जर्मन कलाकारों को संगीत समारोहों में आमंत्रित करने लगीं । बीथोवेन पर लिखी पुस्तक को पढ़ने के चक्कर में रोम्यां रोलां से आकर्षण पैदा हुआ । उनसे बात करने के लिए फ़्रांसिसी सीखी । उनके जरिये गाँधी की जनकारी मिली । इसके बाद मीरा का अपने आपको भारत में रहने लायक बनाने का विकट प्रयास शुरू होता है इस प्रयास की परिणति गाँधी की सेवा में उनके जाने में होती है

भारत आने के बाद स्वाभाविक रूप से स्वाधीनता आंदोलन के वात्याचक्र का हिस्सा वे भी हो जाती हैं । जैसा ऊपर लेखिका ने बताया है गाँधी उन्हें लगातार राजनीतिक भागीदारी से दूर रखना चाहते रहे फिर भी एक अमेरिकी पत्रकार की गवाही के मुताबिक ‘उन्होंने अपना पूरा जीवन गाँधी, चरखा, सूत कताई, वन्य जीवों और पर्यावरण को समर्पित कर दिया था ।’ प्रसंगवश इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई भी गहरी राजनीति एकहरी नहीं होती इसलिए गाँधी की राजनीति में ये अवांतर तत्व अभिन्न रूप से शामिल थे । भारत के स्वाधीनता संग्राम के कुछ बेहद अहम अवसरों पर मीराबेन की उपस्थिति प्रभावकारी हस्तक्षेप के बतौर नजर आती है । इंग्लैंड में रहते हुए ही मीराबेन की सचेत राजनीतिक समझ का सबूत रानी विक्टोरिया के निधन की खबर के उल्लेख से मिलता है । कहने की जरूरत नहीं कि विक्टोरिया के शासन के साथ स्त्री के शासक होने का प्रसंग तो जुड़ा ही है भारत और हिंदी साहित्य में भी उनको पर्याप्त प्रशंसा मिली । याद करिए कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उन्हें ‘अमी की कटोरी’ कहा था । लेखिका ने भी इसे युग परिवर्तन के रूप में दर्ज किया है ।

पिता फौजी थे इसलिए उनके तबादले की वजह से, गाँधी के पास आने से पहले भी एक बार मीराबेन भारत आयी थीं । मन नहीं लगा तो फिर वापस इंग्लैंड चली गयी थीं । रोम्यां रोलां की प्रेरणा से जब गाँधी के पास आने का फैसला किया तो उसकी जोरदार तैयारी की । यंग इंडिया को नियमित रूप से पढ़ना शुरू किया । इसी क्रम में ‘उन्हें जानकारी मिली कि गाँधी इन दिनों हिंदू-मुस्लिम के बीच सांप्रदायिक सद्भाव एवं भाईचारा कायम करने के लिए उपवास कर रहे थे, जिसकी वजह से उनका स्वास्थ्य गिर रहा था ।’ उनके उपवास के प्रभाव से सद्भाव कायम हुआ । खबर मिलने पर मीराबेन ने ‘अपना हीरों का ब्रोच बेचकर बीस पाउंड की राशि का चेक और एक पत्र’ भेजा और आने की इजाजत मांगी । गाँधी ने उत्तर दिया और एक साल बाद भी उत्साह बने रहने पर ही आने का अनुरोध किया । जब वे भारत आ गयीं तो इंग्लैंड के अखबारों में इसकी आलोचना का अभियान चला जिसमें गाँधी पर आक्रमण किये गये । जवाब में मीराबेन ने भारत आने के अपने स्वतंत्र फैसले का उल्लेख किया । किताब में एकाधिक जगहों पर देश के भीतर की सांप्रदायिक समस्या और उससे जूझने के प्रयासों का जिक्र है । इस सिलसिले में उल्लेखनीय है कि मीराबेन जब हिंदी सीखने दिल्ली में कन्या गुरुकुल आयीं तो स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के बाद गुरुकुल का माहौल सांप्रदायिक हो गया । गुरुकुल की लड़कियों की भाषा में मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति बहुत कटुता झलकने लगी । इसकी शिकायत करते हुए मीराबेन ने गाँधी को पत्र लिखा । उत्तर में गाँधी ने लिखा कि ‘मुसलमानों के विरुद्ध यह नफरत समाप्त होनी चाहिए ।’ सांप्रदायिक उन्माद के प्रति गाँधी के इस सुसंगत रुख को जानने के लिए भी इस किताब को देखना चाहिए ।

गाँधी की आंदोलनात्मक रणनीति से जुड़े तनावों को भी किताब में जगह दी गयी है क्योंकि मीराबेन उन क्षणों की साक्षी थीं । इनमें से एक तो नमक कानून को तोड़ने के लिए दांडी यात्रा के फैसले के तनाव का बयान है । इस आंदोलन के साथ स्त्रियों के जुड़ाव के पहलू को भी लेखिका ने अच्छी तरह उभारा है । इसके बाद लंदन के गोलमेज सम्मेलन में वे गाँधी के साथ न केवल गयीं बल्कि लगातार उनकी छाया की तरह हर कहीं रहीं । लेखिका ने इसे दर्ज करते समय लिखा है कि ‘नस्ल, वर्ग, धर्म और राष्ट्रीयता की सारी सीमाएं गाँधी-मीरा संबंधों में टूट गई थीं ।’ इसी तरह भारत छोड़ों आंदोलन के फैसले से जुड़े तमाम किस्म के परामर्शों का जिक्र है जिनमें मीराबेन भी सहयोगी की भूमिका में थीं । भारत छोड़ो आंदोलन के लिए कांग्रेस की कार्यसमिति को राजी करने में खुद मीराबेन का बड़ा भारी योगदान था । वे ही बापू की चिट्ठी लेकर आनंद भवन गयी थीं । उनकी राजनीतिक सक्रियता को अंग्रज सरकार बर्दाश्त न कर सकी और उन्हें भी कारावास का दंड भुगतना पड़ा ।

आजादी मिलने का समय जैसे जैसे करीब आता है वैसे वैसे गाँधी अकेले पड़ते जाते हैं । उनकी हत्या के पहले और बाद के माहौल को मीराबेन की निगाह से लेखिका ने बहुत ही संवदनशील तरीके से प्रस्तुत किया है । गाँधी की हत्या के बाद मीराबेन की स्थिति विडम्बनापूर्ण हो जाती है । सरकारी तंत्र के साथ उनकी रसाई नहीं हो पाती । एक के बाद एक कोशिशों के बावजूद वे लगातार सिमटती जाती है । इस प्रसंग को लेखिका ने जिस तरह प्रस्तुत किया है उससे एक और बावनदास की हत्या जैसी कारुणिक अनूभूति पैदा होती है । मीराबेन और पृथ्वी सिंह के आपसी प्रेम के वर्णन को भी लेखिका ने बेहद सधी भाषा में संतुलित और यथोचित गरिमा के साथ निभाया है ।                                        

गाँधी के साथ मीराबेन के रिश्तों की जटिलता को भी लेखिका ने उभारा है । वे कहती हैंगाँधी और मीरा के बीच संभावित प्रेम-संबंधों के आयाम की तलाशभी बहुतों की रुचि का विषय रहा है । सबूत के बतौरमीरा के विरह की वेदना, गाँधी का मीरा को उनसे दूर रखने के लिए विभिन्न आश्रमों में उन्हें भेजने की आदत और दोनों के मध्य निरंत्र हुए पत्र व्यवहार का संदर्भ कई लेखकों की रचनाओं में दर्ज है ।इस जटिलता को लेखिका ने बहुत ही नाजुक तरीके से निभाया है ।         

अत्यंत सुरुचिसंपन्न और सादा प्रस्तुति वाली इस किताब की भाषा भी रोचक और सादा है इतनी बेहतर किताब में एक छोटी सी गलती कंकड़ की तरह किरकिराती है लेखिका ने मीराबेन से रोम्यां रोलां की मुलाकात के समय उनके पचासवें दशक की बात दो बार लिखी है इसे असावधानी या चूक ही कहेंगे क्योंकि जीवन के अंतिम दिनों में मीराबेन को सातवें दशक में बताया गया है जो सही है आशा है इस भूल को आगामी संस्करण में दुरुस्त कर लिया जायेगा । इसी तरह एक ऐसा प्रकरण है जिसकी व्याख्या स्पष्ट नहीं है । प्रसंग द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जापानियों के उड़ीसा प्रांत के तटीय इलाकों से भारत प्रवेश की आशंका से जुड़ा हुआ है । इसे रोकने के लिए मीराबेन ने निगरानी की व्यवस्था की । लेखिका ने दर्ज किया हैउड़ीसा की सरकार को मीरा की उपस्थिति और उनकी गतिविधियों से आपत्ति थी । इस बारे में उन्होंने दिल्ली में गृह सचिव को पत्र लिखकर मीरा को वापस भेजने की कार्रवाई करने का अनुरोध किया, परंतु दिल्ली सरकार उस समय गाँधी को जनता की सहानुभूति हासिल करने देने के पक्ष में नहीं थी । वह गाँधी को हराना चाहती थी जिसके लिए उस समय आल इंडिया स्टूडेंट फ़ेडरेशन के युवक सबसे उपयुक्त विकल्प थे ।यह प्रसंग पूरी तरह अस्पष्ट रह जाता है । आशा है यह समस्या भी आगे दुरुस्त होगी ।