सुप्रिया पाठक की लिखी किताब‘मीराबेन: गाँधी की सहयात्री’का प्रकाशन अहिंसा-शांति ग्रंथमाला के तहत प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर से 2022 में हुआ । यह किताब एकाधिक कारणों से चर्चा के लायक है । सबसे बड़ा कारण तो वर्तमान माहौल ही है जिसमें राष्ट्र और राष्ट्रवाद की इतनी एकरंगी तस्वीर बनायी गयी है जिसमें अपने देश को छोड़कर शेष सभी देश शत्रु नजर आते हैं । उपनिवेशवाद के विरोध को भी अतिशय सरल बना दिया गया है । हमारे देश के स्वाधीनता आंदोलन की ऐसी छवि निर्मित की जा रही है जिससे साम्राज्यवाद विरोध का सार समाप्त हो जाये और विदेशियों से नफ़रत ही उसका एकमात्र रूप नजर आये । आजादी के आंदोलन की
ऐसी छवि बनाने का मकसद शायद यह है कि साम्राज्यवाद का
संदर्भ मिटाकर आजादी को इस्लाम विरोध में बदल दिया जाये । वर्तमान शासक विचार के
लिए सबसे दुखद यही है कि कुल प्रयास के बावजूद इसमें सफलता नहीं मिल रही है । देश
के सामने आने वाली नयी चुनौतियों के संदर्भ में देश की आजादी के आंदोलन और उसके
नायकों के बहुतेरे अनदेखे पहलू लगातार उजागर हो रहे हैं ।
मीराबेन की इस कहानी के जरिये देश की आजादी के साथ
ऐसे अंग्रेजों का जुड़ाव प्रकट होता है जो औपनिवेशिक नीतियों के समर्थन में नहीं थे
। साथ ही उस आंदोलन में शामिल इस स्त्री के सहारे एक और पहलू उभरता है । गांधी के
साथ उनके जुड़ाव ने स्वाधीनता आंदोलन की राजनीति के उन पक्षों को प्रकट किया है
जिन्होंने विदेशियों और खासकर अंग्रेजों को तो आकर्षित किया ही, स्त्रियों को बड़े
पैमाने पर सार्वजनिक जीवन में उतार दिया । लेखिका ने आजादी के आंदोलन के इन दोनों
पहलुओं को बहुत ही प्रवाहपूर्ण भाषा में अच्छी तरह प्रस्तुत किया है । भारत की
आजादी के लक्ष्य के साथ अंग्रेजों के जुड़ाव को रामचंद्र गुह ने अपनी किताब ‘रेबेल्स
अगेंस्ट द राज: वेस्टर्न फ़ाइटर्स फ़ार
इंडियन फ़्रीडम’ में रेखांकित किया है । लेखिका ने इस किताब का आभार अपनी भूमिका
में स्वीकार भी किया है । इंग्लैंड के इन ‘देशद्रोहियों’ में वहां के कम्युनिस्ट नेता भी
शामिल रहे थे और उन पर भारत की अदालतों में राजद्रोह का मुकदमा भी चला था ।
विदेशियों से नफ़रत के इस दौर में इस तथ्य पर जोर देना जरूरी है । लेखिका का मकसद
मीराबेन की जीवनी लिखने का है क्योंकि उनके अनुसार ‘इतिहास के पन्नों से अदृश्य
स्त्री पात्रों को तलाशना और नए सिरे से उन्हें समझने का प्रयास करना, स्त्रीवादी
सैद्धांतिकी का प्रस्थान बिंदु रहा है ।’
मीराबेन की इस जीवनी में गाँधी स्वाभाविक रूप से केंद्रीय भूमिका में हैं लेकिन मीराबेन का स्वतंत्र व्यक्तित्व भी बेहद भास्कर होकर उभरता है । इसके लिए लेखिका ने गाँधी के पहले और गाँधी के बाद के भी उनके जीवन पर पर्याप्त ध्यान दिया है । मीराबेन का मूल नाम
मेडलिन स्लेड था । उनके व्यक्तित्व को उजागर करने के लिए लेखिका ने एक बहुत ही खास
बात की ओर ध्यान दिलाया है । उन्होंने बताया है कि माता के परिवार में परदेशियों
से घुलने मिलने की खुली परम्परा थी जिसके चलते परनानी जिप्सी आयीं और उनका शारीरिक
गठन मीराबेन को मिला था । रुचि के इसी खुलेपन की वजह से बीथोवेन के संगीत से लगाव
हुआ और उसके कारण जर्मनों से दूरी बरतने के माहौल का प्रतिरोध किया । न केवल जर्मनी
गयीं बल्कि प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान व्याप्त जर्मन विरोध का प्रतिकार करने के
लिए जर्मन कलाकारों को संगीत समारोहों में आमंत्रित करने लगीं । बीथोवेन पर लिखी
पुस्तक को पढ़ने के चक्कर में रोम्यां रोलां से आकर्षण पैदा हुआ । उनसे बात करने के
लिए फ़्रांसिसी सीखी । उनके जरिये गाँधी की जनकारी मिली । इसके बाद मीरा का अपने आपको भारत में रहने लायक बनाने का विकट प्रयास शुरू होता है । इस प्रयास की परिणति गाँधी की सेवा में उनके आ जाने में होती है ।
भारत आने के बाद स्वाभाविक रूप से स्वाधीनता आंदोलन के वात्याचक्र का हिस्सा वे भी हो जाती हैं । जैसा ऊपर लेखिका ने बताया है गाँधी उन्हें लगातार राजनीतिक भागीदारी से
दूर रखना चाहते रहे फिर भी एक अमेरिकी पत्रकार की गवाही के
मुताबिक ‘उन्होंने अपना पूरा जीवन गाँधी, चरखा, सूत कताई, वन्य जीवों और पर्यावरण
को समर्पित कर दिया था ।’ प्रसंगवश इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई भी गहरी
राजनीति एकहरी नहीं होती इसलिए गाँधी की राजनीति में ये अवांतर तत्व अभिन्न रूप से
शामिल थे । भारत के स्वाधीनता संग्राम के कुछ बेहद अहम अवसरों पर मीराबेन की
उपस्थिति प्रभावकारी हस्तक्षेप के बतौर नजर आती है । इंग्लैंड में रहते हुए ही
मीराबेन की सचेत राजनीतिक समझ का सबूत रानी विक्टोरिया के निधन की खबर के उल्लेख
से मिलता है । कहने की जरूरत नहीं कि विक्टोरिया के शासन के साथ स्त्री के शासक
होने का प्रसंग तो जुड़ा ही है भारत और हिंदी साहित्य में भी उनको पर्याप्त प्रशंसा
मिली । याद करिए कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उन्हें ‘अमी की कटोरी’ कहा था । लेखिका
ने भी इसे युग परिवर्तन के रूप में दर्ज किया है ।
पिता फौजी थे इसलिए उनके तबादले की वजह से, गाँधी
के पास आने से पहले भी एक बार मीराबेन भारत आयी थीं । मन नहीं लगा तो फिर वापस
इंग्लैंड चली गयी थीं । रोम्यां रोलां की प्रेरणा से जब गाँधी के पास आने का फैसला
किया तो उसकी जोरदार तैयारी की । यंग इंडिया को नियमित रूप से पढ़ना शुरू किया । इसी
क्रम में ‘उन्हें जानकारी मिली कि गाँधी इन दिनों हिंदू-मुस्लिम के बीच
सांप्रदायिक सद्भाव एवं भाईचारा कायम करने के लिए उपवास कर रहे थे, जिसकी वजह से
उनका स्वास्थ्य गिर रहा था ।’ उनके उपवास के प्रभाव से सद्भाव कायम हुआ । खबर
मिलने पर मीराबेन ने ‘अपना हीरों का ब्रोच बेचकर बीस पाउंड की राशि का चेक और एक
पत्र’ भेजा और आने की इजाजत मांगी । गाँधी ने उत्तर दिया और एक साल बाद भी उत्साह
बने रहने पर ही आने का अनुरोध किया । जब वे भारत आ गयीं तो इंग्लैंड के अखबारों
में इसकी आलोचना का अभियान चला जिसमें गाँधी पर आक्रमण किये गये । जवाब में
मीराबेन ने भारत आने के अपने स्वतंत्र फैसले का उल्लेख किया । किताब में एकाधिक
जगहों पर देश के भीतर की सांप्रदायिक समस्या और उससे जूझने के प्रयासों का जिक्र
है । इस सिलसिले में उल्लेखनीय है कि मीराबेन जब हिंदी सीखने दिल्ली में कन्या
गुरुकुल आयीं तो स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के बाद गुरुकुल का माहौल सांप्रदायिक
हो गया । गुरुकुल की लड़कियों की भाषा में मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति बहुत
कटुता झलकने लगी । इसकी शिकायत करते हुए मीराबेन ने गाँधी को पत्र लिखा । उत्तर में
गाँधी ने लिखा कि ‘मुसलमानों के विरुद्ध यह नफरत समाप्त होनी चाहिए ।’ सांप्रदायिक
उन्माद के प्रति गाँधी के इस सुसंगत रुख को जानने के लिए भी इस किताब को देखना
चाहिए ।
गाँधी की आंदोलनात्मक रणनीति से जुड़े तनावों को भी
किताब में जगह दी गयी है क्योंकि मीराबेन उन क्षणों की साक्षी थीं । इनमें से एक
तो नमक कानून को तोड़ने के लिए दांडी यात्रा के फैसले के तनाव का बयान है । इस
आंदोलन के साथ स्त्रियों के जुड़ाव के पहलू को भी लेखिका ने अच्छी तरह उभारा है ।
इसके बाद लंदन के गोलमेज सम्मेलन में वे गाँधी के साथ न केवल गयीं बल्कि लगातार
उनकी छाया की तरह हर कहीं रहीं । लेखिका ने इसे दर्ज करते समय लिखा है कि ‘नस्ल,
वर्ग, धर्म और राष्ट्रीयता की सारी सीमाएं गाँधी-मीरा संबंधों में टूट गई थीं ।’
इसी तरह भारत छोड़ों आंदोलन के फैसले से जुड़े तमाम किस्म के परामर्शों का जिक्र है जिनमें
मीराबेन भी सहयोगी की भूमिका में थीं । भारत छोड़ो आंदोलन के लिए कांग्रेस की
कार्यसमिति को राजी करने में खुद मीराबेन का बड़ा भारी योगदान था । वे ही बापू की
चिट्ठी लेकर आनंद भवन गयी थीं । उनकी राजनीतिक सक्रियता को अंग्रज सरकार बर्दाश्त
न कर सकी और उन्हें भी कारावास का दंड भुगतना पड़ा ।
आजादी मिलने का समय जैसे जैसे करीब आता है वैसे
वैसे गाँधी अकेले पड़ते जाते हैं । उनकी हत्या के पहले और बाद के माहौल को मीराबेन
की निगाह से लेखिका ने बहुत ही संवदनशील तरीके से प्रस्तुत किया है । गाँधी की
हत्या के बाद मीराबेन की स्थिति विडम्बनापूर्ण हो जाती है । सरकारी तंत्र के साथ
उनकी रसाई नहीं हो पाती । एक के बाद एक कोशिशों के बावजूद वे लगातार सिमटती जाती
है । इस प्रसंग को
लेखिका ने जिस तरह प्रस्तुत किया है उससे एक और बावनदास की हत्या जैसी कारुणिक
अनूभूति पैदा होती है । मीराबेन और पृथ्वी सिंह के आपसी प्रेम के
वर्णन को भी लेखिका ने बेहद सधी भाषा में संतुलित और यथोचित गरिमा के साथ निभाया
है ।
गाँधी के साथ मीराबेन के रिश्तों की जटिलता को भी लेखिका ने उभारा है । वे
कहती हैं‘गाँधी और मीरा के बीच संभावित प्रेम-संबंधों के आयाम की तलाश’भी बहुतों की रुचि का
विषय रहा है । सबूत के बतौर‘मीरा के विरह की वेदना, गाँधी
का मीरा को उनसे दूर रखने के लिए विभिन्न आश्रमों में उन्हें भेजने की आदत और दोनों
के मध्य निरंत्र हुए पत्र व्यवहार का संदर्भ कई लेखकों की रचनाओं में दर्ज है ।’इस जटिलता को लेखिका ने
बहुत ही नाजुक तरीके से निभाया है ।
अत्यंत सुरुचिसंपन्न और सादा प्रस्तुति वाली इस किताब की भाषा भी रोचक और सादा है । इतनी बेहतर किताब में एक छोटी सी गलती कंकड़ की तरह किरकिराती है । लेखिका ने मीराबेन से रोम्यां रोलां की मुलाकात के समय उनके पचासवें दशक की बात दो बार लिखी है । इसे असावधानी या चूक ही कहेंगे क्योंकि जीवन के अंतिम दिनों में मीराबेन को सातवें दशक में बताया गया है जो सही है । आशा है इस भूल को आगामी संस्करण में दुरुस्त कर लिया जायेगा । इसी तरह एक ऐसा प्रकरण
है जिसकी व्याख्या स्पष्ट नहीं है । प्रसंग द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जापानियों के
उड़ीसा प्रांत के तटीय इलाकों से भारत प्रवेश की आशंका से जुड़ा हुआ है । इसे रोकने के
लिए मीराबेन ने निगरानी की व्यवस्था की । लेखिका ने दर्ज किया है‘उड़ीसा की सरकार को मीरा
की उपस्थिति और उनकी गतिविधियों से आपत्ति थी । इस बारे में उन्होंने दिल्ली में गृह
सचिव को पत्र लिखकर मीरा को वापस भेजने की कार्रवाई करने का अनुरोध किया, परंतु
दिल्ली सरकार उस समय गाँधी को जनता की सहानुभूति हासिल करने देने के पक्ष में नहीं
थी । वह गाँधी को हराना चाहती थी जिसके लिए उस समय आल इंडिया स्टूडेंट फ़ेडरेशन
के युवक सबसे उपयुक्त विकल्प थे ।’यह प्रसंग पूरी तरह अस्पष्ट
रह जाता है । आशा है यह समस्या भी आगे दुरुस्त होगी ।
सुन्दर आलेख | सटीक |
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